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People walk near a sand sculpture with the words "We Want Justice" created by Indian sand artist Sudarshan Patnaik, in solidarity with a gang rape victim who was assaulted in New Delhi, on a beach in the eastern Indian state of Odisha |
पिछले रविवार को लंदन के मिरर अखबार ने दिल्ली के गैंगरेप पीड़ित लड़की के पिता की अनुमति से उसका नाम ज़ाहिर कर दिया। इसके बाद भारत के कुछ अखबारों ने उसका नाम छापा, पर यह सवाल विचार का विषय है कि ज़िम्मेदार मीडिया को क्या करना चाहिए। इस बीच उस लड़की के पिता का यह वक्तव्य आया कि मैने नाम ज़ाहिर करने की बात नहीं कही थी, सिर्फ इतना कहा था कि यदि सरकार उसके नाम पर कानून बनाना चाहती है तो हमें अच्छा लगेगा। मंगलवार के टाइम्स ऑफ इंडिया में पिता के हवाले से समाचार प्रकाशित हुआ है कि नाम ज़ाहिर करने पर हमें आपत्ति नहीं है। पर क्या इतने मात्र से नाम ज़ाहिर कर देना चाहिए। 6 जनवरी के हिन्दू में उसके सम्पादक सिद्धार्थ वरदराजन का वक्तव्य छपा है, चूंकि पिता की सहमति लिखित नहीं है, इसलिए हम अभी उसका नाम ज़ाहिर नहीं कर रहे हैं। नीचे पढ़ें उनका पूरा वक्तव्यः-
Naming Delhi rape victim: a note to readers
As some of you may know, a foreign newspaper has published the name of the 23-year-old rape victim, apparently with the approval of her father. Section 228A of the Indian Penal Code, which prohibits publication of the name of a deceased rape victim without the permission of her next of kin, lays down a specific procedure by which this permission is to be accorded: it must be given in writing to a welfare organisation or institution recognised by the Central or State governments. To the best of my knowledge, this procedure, which was introduced into law as an added layer of protection for the victim and her family, has not yet been followed. We respect the father's wish to go public, if that is indeed what he wants, but unless he states the same in writing in the manner prescribed by statute, The Hindu will continue witholding the name of the victim.
Siddharth Varadarajan, Editor
पर क्या यह पत्रकारीय मर्यादाओं के खिलाफ है? हाल में लंदन के गार्डियन में एमर ओ टूल ने भी दिल्ली गैंग रेप को लेकर विचार प्रकट किए हैं। और बीबीसी ने भी गैग रेप पर आलेख पर प्रकाशित किए हैं। इन आलेखों में भारत की बलात्कार संस्कृति को लेकर टिप्पणियाँ मर्यादाओं पर विमर्श से जुड़ी वैबसाइट लिबरल कांस्पिरेसी ने Why a Guardian piece on Delhi gang-rape misleads on rape culture शीर्षक से भारतीय विसंगतियों और पश्चिमी समझ के अंतर की ओर इशारा किया है। दिल्ली गैंग रेप के बाद मीडिया की कवरेज पर ध्यान दें तो नज़र आता है कि बलात्कार के सवाल से ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल कानून-व्यवस्था और सरकार के प्रति आक्रोश को लेकर खड़े हुए। आशाराम बापू और राष्ट्रीय स्वयंसेवकसंघ के मोहन भागवत के बयानों से परम्परागत पुरुष-दृष्टिकोण सामने आया है। इस पर भी मीडिया में चर्चा नहीं हुई।
बलात्कार-पीड़ित लड़की का नाम सामने न लाने के पीछे कानून की भावना क्या है? यही कि उसकी या उसके परिवार की बदनामी न हो। उन्हें समाज के सामने जाने में दिक्कत न हो। प्रायः बलात्कार की शिकार लड़की को कई प्रकार की मानसिक वेदनाओं का शिकार होना पड़ता है। पर इस मामले में समाज उसकी बहादुरी को लेकर उसका सम्मान करना चाहता है? क्या कानून की भावना समाज को उसका परिचय देने से रोकती है? इसका निर्णय शायद कोई अदालत करे। एक बात यह भी है कि तमाम प्रश्नों पर टीवी की लाइव कवरेज ने अनेक राजनीतिक, सामाजिक संस्थाओं को हास्यास्पद बना दिया है। इंटरनेट पर जिस तरह की शब्दावली का प्रयोग हो रहा है, वह मीडिया की भाषा नहीं थी। पर यह सामाजिक विमर्श है। इसकी विसंगतियों पर विचार होना चाहिए।