खुदरा कारोबार में विदेशी पूँजी निवेश का मामला भले ही स्थगित माना जा रहा हो, पर यह एक तरीके से होल्डबैक नहीं रोल बैक है। यह मानने का सबसे बड़ा कारण है इस स्थगन की समय सीमा का तय न होना। यूपीए सरकार के खाते में यह सबसे बड़ी पराजय है। यूपीए-1 के दौर में न्यूक्लियर डील को लेकर सरकार ने वाम मोर्चे के साथ बातचीत के कई दौर चलाने के बाद सीधे भिड़ने का फैसला किया था। ऐसा करके उसने जनता की हमदर्दी हासिल की और वाम मोर्चा जनता की नापसंदगी का भागीदार बना। इस बार सरकार विपक्ष के कारण बैकफुट पर नहीं आई बल्कि सहयोगी दलों के कारण उसे अपना फैसला बदलना पड़ा। अब दो-तीन सवाल हैं। क्या सहयोगी दल भविष्य में इस बात को स्वीकार कर लेंगे? आर्थिक उदारीकरण की नीतियों के संदर्भ में कांग्रेस और बीजेपी लगभग एक जैसी नीतियों पर चलते हैं। क्या बीजेपी खुदरा बाजार में विदेशी पूँजी के निवेश पर सहमत होगी? क्या अब कोई फॉर्मूला बनेगा, जिसके तहत विदेशी निवेश को चरणबद्ध अनुमति दी जाएगी? और क्या अब उदारीकरण पूरी तरह ठंडे बस्ते में चला जाएगा?
Friday, December 9, 2011
Monday, December 5, 2011
बंद गली में खड़ी कांग्रेस
कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद गुरदास दासगुप्त का कहना है कि रिटेल में एफडीआई के फैसले को स्थगित करने का फैसला भारत सरकार का है, बंगाल सरकार का नहीं। इसकी घोषणा बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने की। दो रोज पहले तक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कह रहे थे कि यह फैसला सुविचारित है और इसे वापस लेने की कोई सम्भावना नहीं है। ममता बनर्जी ने वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी का हवाला देकर कहा है कि जबतक इस मामले में सर्वानुमति नहीं होती यह फैसला स्थगित रहेगा। प्रणब मुखर्जी का कहना है कि सरकार का दृष्टिकोण संसद में व्यक्त किया जाएगा। संसद का सत्र चल रहा है मैं कोई घोषणा नहीं कर सकता। बुधवार को पता लगेगा कि सरकार क्या कह रही है, पर लगता है कि यूपीए ने अपना मृत्युलेख लिख लिया है। क्या सरकार अपनी पराजय की घोषणा करने वाली है? मनमोहन सरकार के सबसे महत्वाकांक्षी सुधार कार्यक्रमों में से एक के ठंडे बस्ते में जाने के राजनीतिक संदेश साफ हैं। इसके आगे के सुधार कार्यक्रम अब सामने आ भी नहीं पाएंगे।
Friday, December 2, 2011
रिटेल बाजार खुलने से आसमान नहीं टूट पड़ेगा
ऐसा नहीं कि हमारे खुदरा कारोबार में बड़े प्लेयर पहले से नहीं थे। बिग बाजार, स्पेंसर, मोर और ईजी डे के स्टोर पहले से खुले हुए हैं। ईज़ी डे का पार्टनर पहले से वॉलमार्ट है। दुनिया की कौन सी चीज़ हमारे उपभोक्ता को उपलब्ध नहीं है। फर्क अब यह पड़ेगा कि मल्टी ब्रांड स्टोर खोलने में विदेशी कम्पनियाँ भी सामने आ सकेंगी। परोक्ष रूप में भारती-वॉलमार्ट पहले से मौजूद है। क्या हम यह कहना चाहते हैं कि देशी पूँजी पवित्र और विदेशी पूंजी पापी है? बेशक हमें अपने उत्पादकों के हित भी देखने चाहिए। वॉलमार्ट अपनी काफी खरीद चीन से करके अमेरिकी उपभोक्ता को सस्ते में पहुँचाता है। हमारे उत्पादक बेहतर माल बनाएंगे तो वह भारतीय माल खरीदेगा। हमें उनसे नई तकनीक और अनुभव चाहिए। आप देखिएगा भारतीय कारोबारी खुद आगे आ जाएंगे। नए शहरों और छोटे कस्बों में इतना बड़ा बाजार है कि वॉलमार्ट उसके सामने बौना साबित होगा। वस्तुतः सप्लाई चेन का गणित है। यदि बिचौलिए कम होंगे तो माल सस्ता होगा और किसान को प्रतियोगिता के कारण बेहतर कीमत मिलेगी। इसके अलावा भी अनेक तर्क हैं। तर्क इसके विपरीत भी हैं, पर यह फैसला ऐसी आफत नहीं लाने वाला है जैसी कि साबित की जा रही है। हमें देखना यह चाहिए कि आर्थिक गतिविधियों का लाभ गरीबों तक पहुँचे। आर्थिक गतिविधियों को रोकने से कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। इन बातों के पीछे की राजनीति को भी पढ़ने की कोशिश करें। उत्तर प्रदेश सरकार ने रिलायंस फ्रेश स्टोर नहीं खुलने दिए बाकी खुलने दिए। इससे क्या हासिल हुआ? और क्या साबित हुआ?
लगता है संसद का शीत सत्र भी हंगामों की भेंट चढ़ जाएगा। खुदरा कारोबार में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की सरकारी नीति के विरोध में खिंची तलवारें बता रही हैं कि इस मामले का समाधान जल्द नहीं निकलेगा। आर्थिक उदारीकरण के शेष बचे कदम उठाने की कोशिशें और मुश्किल हो जाएंगी। राजनीतिक भ्रम की यह स्थिति देश के लिए घातक है। उदारीकरण को लेकर हमारे यहाँ कभी वैचारिक स्पष्टता नहीं रही। दो दशक के उदारीकरण का अनुभव एक-तरफा संकटों और समस्याओं का भी नहीं रहा है। उसके दो-तरफा अनुभव हैं। इस दौरान असमानता, महंगाई और बेरोजगारी की जो समस्याएं उभरी हैं वे उदारीकरण की देन हैं या हमारी राज-व्यवस्था की अकुशलता के कारण हैं? इस राजनीतिक अराजकता में शामिल सभी दल किसी न किसी रूप में उदारीकरण की गंगा में स्नान कर चुके हैं, पर मौका लगते ही वे इसके विरोध को वैतरणी पार करने का माध्यम समझे बैठे हैं।
लगता है संसद का शीत सत्र भी हंगामों की भेंट चढ़ जाएगा। खुदरा कारोबार में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की सरकारी नीति के विरोध में खिंची तलवारें बता रही हैं कि इस मामले का समाधान जल्द नहीं निकलेगा। आर्थिक उदारीकरण के शेष बचे कदम उठाने की कोशिशें और मुश्किल हो जाएंगी। राजनीतिक भ्रम की यह स्थिति देश के लिए घातक है। उदारीकरण को लेकर हमारे यहाँ कभी वैचारिक स्पष्टता नहीं रही। दो दशक के उदारीकरण का अनुभव एक-तरफा संकटों और समस्याओं का भी नहीं रहा है। उसके दो-तरफा अनुभव हैं। इस दौरान असमानता, महंगाई और बेरोजगारी की जो समस्याएं उभरी हैं वे उदारीकरण की देन हैं या हमारी राज-व्यवस्था की अकुशलता के कारण हैं? इस राजनीतिक अराजकता में शामिल सभी दल किसी न किसी रूप में उदारीकरण की गंगा में स्नान कर चुके हैं, पर मौका लगते ही वे इसके विरोध को वैतरणी पार करने का माध्यम समझे बैठे हैं।
Wednesday, November 30, 2011
मीडिया अपनी साख के बारे में सोचे, लोकपाल से न घबराए
हमारे देश में प्रेस की आज़ादी नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिस्सा है। अमेरिकी संविधान के पहले संशोधन की तरह प्रेस नाम की संस्था को मिले अधिकार से यह कुछ अलग है। पहली नज़र में यह अधिकार अपेक्षाकृत कमज़ोर लगता है, पर व्यावहारिक रूप से देखें तो जनता का अधिकार होने के नाते यह बेहद प्रभावशाली है। संविधान निर्माताओं ने इस अधिकार पर पाबंदियों के बारे में नहीं सोचा था। पर 1951 में हुए पहले संविधान संशोधन के माध्यम से इन स्वतंत्रताओं पर अनुच्छेद 19(2) के अंतर्गत युक्तियुक्त पाबंदियाँ भी लगाईं गईं। ये पाबंदियाँ अलग-अलग कानूनों के रूप में मौज़ूद हैं। भारत की प्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ रिश्तों, लोक-व्यवस्था, शिष्टाचार और सदाचार, अश्लीलता, न्यायालय की अवमानना, मानहानि और अपराध उद्दीपन को लेकर कानून बने हैं। इसी तरह पत्रकारों की हित-रक्षा का कानून वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट बना है। इन कानूनों को लागू करने में कोई दिक्कत नहीं तो दायरा लोकपाल का हो या उच्चतम न्यायालय का इससे फर्क क्या पड़ता है?
Monday, November 28, 2011
अर्थनीति को चलाने वाली राजनीति चाहिए
सन 1991 में जब पहली बार आर्थिक उदारीकरण की नीतियों को देश में लागू किया गया था तब कई तरह की आशंकाएं थीं। मराकेश समझौते के बाद जब 1995 में भारत विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बना तब भी इन आशंकाओं को दोहराया गया। पिछले बीस साल में इन अंदेशों को बार-बार मुखर होने का मौका मिला, पर आर्थिक उदारीकरण का रास्ता बंद नहीं हुआ। दिल्ली में कांग्रेस के बाद एनडीए की सरकार बनी। वह भी उस रास्ते पर चली। बंगाल और केरल में वाम मोर्चे की सरकारें आईं और गईं, पर उन्होंने भी उदारीकरण की राह ही पकड़ी। इस तरह मुख्यधारा की राजनीति में उदारीकरण की बड़ी रोचक तस्वीर बनी है। ज्यादातर बड़े नेता उदारीकरण का खुला समर्थन नहीं करते हैं, पर सत्ता में आते ही उनकी नीतियाँ वैश्वीकरण के अनुरूप हो जाती हैं। आर्थिक उदारी के दो दशकों का अनुभव यह है कि हम न तो उदारीकरण के मुखर समर्थक हैं और न विरोधी। इस अधूरेपन का फायदा या नुकसान भी अधूरा है।
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