ज़ायरा वसीम ने फिल्में छोड़ने का फैसला बगैर किसी सार्वजनिक घोषणा के किया होता, तो शायद इतनी चर्चा नहीं हुई होती. गत 30 जून को उन्होंने अपने फेसबुक पेज पर इस घोषणा के साथ एक लम्बा बयान भी जारी किया, जिसमें उन्होंने अपने आध्यात्मिक अनुभवों का विवरण दिया है. इन अनुभवों पर भी किसी को कुछ भी कहने का हक नहीं बनता है. पर उनके लम्बे वक्तव्य से ध्वनि निकलती है कि वे ‘अनजाने में ईमान के रास्ते से भटक गई थीं.’ उनकी इसी बात पर बहस है. क्या फिल्मों में काम करना ईमान के रास्ते से भटकना है?
ज़ायरा ने लिखा है, ‘इस क्षेत्र ने मुझे बहुत प्यार, सहयोग और तारीफ़ दी, लेकिन यह मुझे गुमराही के रास्ते पर भी ले आया है. मैं ख़ामोशी से और अनजाने में अपने ईमान से बाहर निकल गई. मैंने ऐसे माहौल में काम करना जारी रखा जिसने लगातार मेरे ईमान में दखलंदाजी की. मेरे धर्म के साथ मेरा रिश्ता ख़तरे में आ गया.’ अगरचे उन्होंने यह लम्बा बयान नहीं दिया होता, तो इस बात पर किसी को एतराज नहीं होता. उन्होंने अपने भटकाव को फिल्मों के काम से जोड़ा, इसलिए यह बहस है. धर्म यदि व्यक्तिगत मामला है, तो इसे व्यक्तिगत रखतीं, तो बेहतर था. वे खामोशी से फिल्मों से हट जातीं. चूंकि उनकी सार्वजनिक पहचान है, इसलिए उनसे सवाल फिर भी किए जाते. वे कह सकती थीं कि यह मेरा निजी मामला है.
भारतीय समाज में लड़कियों का फिल्मों में काम करना शुरूआती वर्षों से ही पाप समझा गया. देश की पहली फिल्म में नायिका का रोल करने के लिए लड़के को चुना गया. दादा साहब फाल्के की फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ में तारामती के रोल को निभाने के लिए तवायफें भी तैयार नहीं थीं, तब अन्ना सालुंके को यह रोल दिया गया. उस फिल्म के सौ साल से ज्यादा हो चुके हैं. इन सौ वर्षों में भारतीय जीवन और समाज में काफी बदलाव आए हैं. लड़कियाँ जीवन के हरेक क्षेत्र में आगे आईं हैं. सिनेमा भी एक कार्यक्षेत्र है. इस समझ को ठेस नहीं लगनी चाहिए. व्यक्तिगत कार्य-व्यवहार में जीवन के हर क्षेत्र से शिकायतें मिलती हैं, पर इसके जिम्मेदारी व्यवसाय की नहीं, व्यक्तियों की होती है.
हिन्दी फिल्मों में नर्गिस, मीना कुमारी, मधुबाला, वहीदा रहमान से लेकर शबाना आज़मी तक तमाम मुस्लिम महिलाएं काम करती रहीं हैं और सबका सम्मान है. भारत में ही नहीं तमाम मुस्लिम देशों में भी जहाँ फिल्में बनती हैं, फिल्मों में लड़कियाँ भी काम करती हैं. यह बात बहस का विषय कभी नहीं बनी. ज़ायरा वसीम भी चर्चा का विषय नहीं बनतीं. उनके निर्णय को चुनौती देने की कोई वजह नहीं है, पर एक अंदेशा है. कहीं उनको किसी ने धमकी तो नहीं दी थी?