असर करे या न करे, पर राहुल गांधी के लिए ‘सहारा’ का तीर चलाना मजबूरी बन गया था. दो हफ्ते पहले वे घोषणा कर
चुके थे कि उनके पास ऐसी जानकारी है, जो भूचाल पैदा कर देगी. उसे छिपाकर रखना उनके
लिए संभव नहीं था.
देर से दी गई इस जानकारी से अब कोई भूचाल तो पैदा नहीं होगा, पर
राजनीति का कलंकित चेहरा जरूर सामने आएगा. जिन दस्तावेजों का जिक्र किया जा रहा
है, उनमें कांग्रेस को परेशान करने वाली बातें भी हैं.
राहुल गांधी के तेवर अचानक बदले हुए नजर आते हैं। उन्होंने बुधवार को नरेंद्र
मोदी पर सीधा हमला बोलकर माहौल को विस्फोटक बना दिया है। उन्हें विपक्ष के कुछ
दलों का समर्थन भी हासिल हो गया है। इनमें तृणमूल कांग्रेस और एनसीपी शामिल हैं। हालांकि
बसपा भी उनके साथ नजर आ रही है, जबकि दूसरी ओर यूपी में कांग्रेस और सपा के गठबंधन
की अटकलें भी हैं। बड़ा सवाल फिलहाल यह है कि राहुल ने इतना बड़ा बयान किस बलबूते
दिया और वे किस रहस्य पर से पर्दा हटाने वाले हैं?क्या उनके पास ऐसा कोई तथ्य है जो
मोदी को परेशान करने में कामयाब हो?
बहरहाल संसद का सत्र खत्म हो चुका है और राजनीति का अगला दौर शुरू हो रहा है। नोटबंदी के कारण पैदा हुई दिक्कतें भी अब क्रमशः कम होती जाएंगी। अब सामने पाँच राज्यों के चुनाव हैं। देखना है कि राहुल इस दौर में अपनी पार्टी को किस रास्ते पर लेकर जाते हैं।
राहुल गांधी ने विस्फोट भले ही नहीं किया, पर माहौल विस्फोटक जरूर बना दिया
है. यह उनकी छापामार राजनीति की झलक है, जिसे उन्होंने पिछले साल के मॉनसून सत्र
से अपनाया है. यह संजीदा संसदीय विमर्श का विकल्प नहीं है. वे क्या कहना चाहते हैं
और क्या जानकारी उनके पास है, इसे स्पष्ट किया जाना चाहिए. उन्होंने जिस अंदाज में
बातें की हैं, उनसे लगता है कि अब कुछ धमाके और होंगे.
जयललिता
के निधन के बाद तमिलनाडु की राजनीति में पहला सवाल अद्रमुक की सत्ता-संरचना को
लेकर है। यानी कौन होगा उसका नेता? कैसे चलेगा उसका संगठनऔर सरकार?
फिलहाल ओ पन्नीरसेल्वम को मुख्यमंत्री बनाया गया है। सवाल है क्या वे
मुख्यमंत्री बने रहेंगे? पार्टी संगठन का सबसे बड़ा पद
महासचिव का है। अभी तक जयललिता महासचिव भी थीं। एमजीआर और जयललिता दोनों के पास
मुख्यमंत्री और महासचिव दोनों पद थे। अब क्या होगा?
नोटबंदी के दो हफ्ते बाद राष्ट्रीय राजनीति में विपक्ष की
भावी रणनीति भी सामने आने लगी है। इसमें सबसे ज्यादा तेजी दिखाई है ममता बनर्जी
ने, जिन्होंने जेडीयू, सपा, एनसीपी और आम आदमी पार्टी के साथ सम्पर्क करके आंदोलन
खड़ा करने की योजना बना ली है। इसकी पहली झलक बुधवार को दिल्ली में दिखाई दी। जंतर-मंतर
की रैली के बाद अचानक ममता बनर्जी का कद मोदी की बराबरी पर नजर आने लगा है। पर
ज्यादा महत्वपूर्ण है कांग्रेस का विपक्षी सीढ़ी पर एक पायदान और नीचे चले जाना। नोटबंदी
के खिलाफ एक आंदोलन ममता ने खड़ा किया है और दूसरा आंदोलन कांग्रेस चला रही है।
बावजूद संगठनात्मक लिहाज से ज्यादा ताकतवर होने के कांग्रेस के आंदोलन में धार नजर
नहीं आ रही है। राहुल गांधी अब मुलायम सिंह, मायावती और नीतीश कुमार के बराबर के
नेता भी नजर नहीं आते हैं।
कांग्रेस के चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर उर्फ पीके की रविवार की यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से सोमवार 7 नवम्बर को आखिरकार मुलाकात हो गई। इसके पहले खबरें थीं कि अखिलेश ने उनसे मिलने से मना कर दिया है। बहरहाल इस मुलाकात के बाद समाजवादी पार्टी के साथ कांग्रेस के गठबंधन के कयासों को और हवा मिल गई है।
प्रशांत इससे पहले दिल्ली में और फिर लखनऊ में मुलायम सिंह यादव और शिवपाल यादव से मुलाकात कर चुके हैं। वहीं पीके को लेकर कांग्रेस के भीतर असमंजस है। दिल्ली में राहुल गांधी को पार्टी का अध्यक्ष बनाने की तैयारियाँ हो रहीं है। उधर खबरें हैं कि कांग्रेस के प्रदेश सचिव सुनील राय समेत कई पदाधिकारियों ने उपाध्यक्ष राहुल गांधी को लिखे पत्र में यूपी में गठजोड़ का विरोध किया है।
कांग्रेस पार्टी ने कहा है कि हम सर्जिकल स्ट्राइक के मामले
में भारतीय जवानों के साथ हैं, लेकिन इसे लेकर क्षुद्र राजनीति नहीं की जानी
चाहिए। रणदीप सुरजेवाला का कहना है, ‘ हम सर्जिकल स्ट्राइक पर कोई सवाल नहीं उठा रहे हैं, लेकिन
यह कोई पहला सर्जिकल स्ट्राइक नहीं है।’ कांग्रेस के शासनकाल में 1 सितंबर 2011, 28 जुलाई 2013 और 14 जनवरी 2014 को 'शत्रु को मुंहतोड़ जबाव' दिया गया था। परिपक्वता, बुद्धिमत्ता और राष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनज़र
कांग्रेस सरकार ने इस तरह कभी हल्ला नहीं मचाया।
भारतीय राजनीति में युद्ध की
महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सन 1962 की लड़ाई से नेहरू की लोकप्रियता में कमी आई
थी। जबकि 1965 और 1971 की लड़ाइयों ने लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी का कद
काफी ऊँचा कर दिया था। करगिल युद्ध ने अटल बिहारी वाजपेयी को लाभ दिया। इसीलिए
28-29 सितम्बर की ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ के निहितार्थ ने देश के राजनीतिक
दलों एकबारगी सोच में डाल दिया। सोच यह है कि क्या किसी को इसका फायदा मिलेगा? और क्या कोई घाटे में रहेगा?
खटिया खड़ी करना मुहावरा है। कांग्रेस पार्टी ने खटिया पे
चर्चा शुरू करके राजनीति में अपनी वापसी की कोशिशें शुरू की हैं। राहुल गांधी अपने
जीवन की सबसे लम्बी यात्रा पर निकले हैं। पार्टी के लिए यह दौर बेहद महत्वपूर्ण
है। उसे एक तरफ संगठनात्मक पुनर्गठन के काम को पूरा करना है और दूसरी ओर राष्ट्रीय
राजनीति में अपनी मौजूदगी को लगातार बनाए रखना है। कांग्रेस फिलहाल राष्ट्रीय
पहचान के लिए संघर्ष कर रही है। पर क्षेत्रीय आधार के बगैर वह अपनी राष्ट्रीय
पहचान किस तरह बचाएगी?
दिल्ली के सियासी हलकों में खबर
गर्म है कि कांग्रेस पार्टी उत्तर प्रदेश में शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद की
प्रत्याशी के रूप में पेश कर सकती हैं। शुक्रवार को उनकी सोनिया गांधी के साथ
मुलाकात के बाद इस सम्भावना को और बल मिला है। इसमें असम्भव कुछ नहीं। शीला
दीक्षित कांग्रेस के पास बेहतरीन सौम्य और विश्वस्त चेहरा है। उत्तर प्रदेश में
कांग्रेस को जैसा चेहरा चाहिए वैसा ही। गुलाम नबी आजाद को उत्तर प्रदेश का गुलाम प्रभारी बनाना
पार्टी का सूझबूझ भरा कदम है।
कांग्रेस के पास अब
कोई विकल्प नहीं है। राहुल गांधी की सफलता या विफलता भविष्य की बात है, पर उन्हें अध्यक्ष बनाने के
अलावा पार्टी के पास कोई रास्ता नहीं बचा। सात साल से ज्यादा समय से पार्टी उनके
नाम की माला जप रही है। अब जितनी देरी होगी उतना ही पार्टी का नुकसान होगा। हाल के
चुनावों में असम और केरल हाथ से निकल जाने के बाद ‘डबल’ नेतृत्व से चमत्कार की उम्मीद करना बेकार है। सोनिया गांधी
अनिश्चित काल तक कमान नहीं सम्हाल पाएंगी। राहुल गांधी के पास पूरी कमान होनी ही चाहिए।
राहुल के अध्यक्ष बनने के बाद अब प्रियंका गांधी को
लाने की माँग भी नहीं उठेगी। शक्ति के दो केन्द्रों का संशय नहीं होगा। कांग्रेस
अब ‘बाउंसबैक’ करे तो श्रेय राहुल को और
डूबी तो उनका ही नाम होगा। हालांकि कांग्रेस की परम्परा है कि विजय का श्रेय
नेतृत्व को मिलता है और पराजय की आँच उसपर पड़ने से रोकी जाती है। सन 2009 की जीत
का श्रेय मनमोहन सिंह के बजाय राहुल को दिया गया और 2014 की पराजय की जिम्मेदारी
सरकार पर डाली गई।
कांग्रेस पार्टी की
जिम्मेदारी अब राहुल गांधी के कंधों पर पूरी तरह आने वाली है. एक तरह से यह मौका
है जब राहुल अपनी काबिलीयत साबित कर सकते हैं. पार्टी लगातार गिरावट ढलान पर है. वे
इस गिरावट को रोकने में कामयाब हुए तो उनकी कामयाबी होगी. वे कामयाब
हों या न हों, यह बदलाव होना ही था. फिलहाल इससे दो-तीन बातें होंगी. सबसे बड़ी
बात कि अनिश्चय खत्म होगा. जनवरी 2013 के जयपुर चिंतन शिविर में उन्हें पार्टी का
उपाध्यक्ष बनाया गया था, तब यह बात साफ थी कि वे वास्तविक अध्यक्ष हैं. पर
व्यावहारिक रूप से पार्टी के दो नेता हो गए. उसके कारण पैदा होने वाला भ्रम अब खत्म
हो जाएगा.
पांच राज्यों के
चुनाव नतीजे आने के बाद कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने अपने एक ट्वीट में कहा
कि बड़ी सर्जरी की जरूरत है। उन्होंने कहीं यह भी कहा कि गांधी परिवार की
वंशज प्रियंका गांधी के राजनीति में आने से कांग्रेसजन को बेहद खुशी होगी। उनमें
जननेता के तौर पर उभरने की क्षमता है। अखबारों में उनका यह बयान भी छपा है कि ये
चुनाव परिणाम पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व की विफलता को परिलक्षित नहीं करते। तीनों
बातें अंतर्विरोधी हैं। तीनों को एकसाथ मिलाकर पढ़ें तो लगता है कि पार्टी के
अंतर्विरोधों के खुलने की घड़ी आ रही है। नए और पुराने नेतृत्व का टकराव नजर आने
लगा है। समय रहते इसे सँभाला नहीं गया तो असंतोष खुलकर सामने आएगा।
सन 2014 की
ऐतिहासिक पराजय के दो साल अगले हफ्ते पूरे होने जा रहे हैं। इन दो साल में पार्टी
ढलान पर उतरती ही गई है। गुजरे दो साल में एक भी घटना ऐसी नहीं हुई, जिससे पार्टी
की पराजित आँखों में रोशनी दिखाई पड़ी हो। पिछले दो साल में हुए चुनावों
में उसे कहीं सफलता नहीं मिली। बिहार विधानसभा में उसकी स्थिति बेहतर जरूर हुई है,
पर दूसरों के सहारे। उसके पीछे कांग्रेस की रणनीति नहीं थी। फिलहाल अकेले दम पर
जीतने की कोई योजना उसके पास नहीं है।अब वह उत्तर भारत में गठबंधनों के सहारे वैतरणी पार करना चाहती है।
प्रमोद जोशीवरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए
बीजेपी की विजय के पिछले दो साल कांग्रेस की पराजय के साल भी रहे हैं. अगस्ता वेस्टलैंड मामले को लेकर बीजेपी ने कांग्रेस को अपनी पकड़ में ले रखा है. कांग्रेस पलटवार करती भी है, पर अभी तक उसकी वापसी के आसार नजर नहीं आते हैं.
लोकसभा चुनाव में हार के बाद कार्यसमिति की बैठक में कहा गया था कि पार्टी के सामने इससे पहले भी चुनौतियाँ आई हैं और उसका पुनरोदय हुआ है. वह ‘बाउंसबैक’ करेगी. पर कैसे और कब?
देखना चाहिए कि पार्टी ने पिछले दो साल में ऐसा क्या किया, जिससे लगे कि उसकी वापसी होगी. या अगले तीन साल में वह ऐसा क्या करेगी, जिससे उसका संकल्प पूरा होता नज़र आए.
इस महीने पांच विधानसभाओं के चुनाव परिणाम कांग्रेस की दशा और दिशा को जाहिर करेंगे. खासतौर से असम, बंगाल और केरल में उसकी बड़ी परीक्षा है. ये परिणाम भविष्य का संदेश देंगे.
कांग्रेस इतिहास के सबसे नाज़ुक दौर में है. दस से ज्यादा राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों से लोकसभा में उसका कोई प्रतिनिधि नहीं है. जनता से यह विलगाव कुछ साल और चला तो मुश्किल पैदा हो जाएगी.
तकरीबन आठ साल के बनवास के बाद कांग्रेस की 2004 में सत्ता में वापसी हुई थी. तभी वामपंथी दलों से उसके सहयोग का एक प्रयोग शुरू हुआ था, जो 2008 में टूट गया. उसके बनने और टूटने के पीछे कांग्रेस से ज्यादा सीपीएम के राजनीतिक चिंतन की भूमिका थी.
2004 में सीपीएम के महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत थे. अप्रैल 2005 में प्रकाश करात ने इस पद को संभाला और वे अप्रैल 2015 तक अपने पद पर रहे. उनके दौर में कांग्रेस और वामदलों के रिश्तों की गर्माहट कम हो गई थी.
कम्युनिस्ट पार्टियों में व्यक्तिगत नेतृत्व खास मायने नहीं रखता, लेकिन कांग्रेस को लेकर सीपीआई-सीपीएम नेतृत्व की भूमिका की अनदेखी भी नहीं की जा सकती. इस साल पहली बार कांग्रेस और वाम दल बंगाल में चुनाव-पूर्व गठबंधन के साथ उतरे हैं.
यह गठबंधन केरल में नहीं है, जो अंतर्विरोध को बताता है. लेकिन राजनीतिक धरातल पर कांग्रेस का झुकाव वामदलों की ओर है. बीजेपी की काट उसे वामपंथी नीतियों में दिखाई पड़ती है.
संसद के बजट सत्र का आधिकारिक रूप
से सत्रावसान हो गया है। ऐसा उत्तराखंड में पैदा हुई असाधारण स्थितियों के कारण
हुआ है। उत्तराखंड में राजनीतिक स्थितियाँ क्या शक्ल लेंगी, यह अगले हफ्ते पता
लगेगा। उधर पाँच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव कल असम में मतदान के साथ शुरू हो
रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों की राजनीति की रीति-नीति
को ये चुनाव तय करेंगे। उत्तराखंड के घटनाक्रम और पाँच राज्यों के चुनाव का सबसे
बड़ा असर कांग्रेस पार्टी के भविष्य पर पड़ने वाला है। असम और केरल में कांग्रेस
की सरकारें हैं। बंगाल में कांग्रेस वामपंथी दलों के साथ गठबंधन करके एक नया
प्रयोग कर रही है और तमिलनाडु में वह डीएमके के साथ अपने परम्परागत गठबंधन को आगे
बढ़ाना चाहती है, पर उसमें सफलता मिलती नजर नहीं आती।
केरल में मुख्यमंत्री ऊमन चैंडी
समेत चार मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के सीधे आरोप हैं। मुख्यमंत्री और प्रदेश
कांग्रेस अध्यक्ष के बीच चुनाव को लेकर मतभेद हैं। पार्टी की पराजय सिर पर खड़ी
नजर आती है। अरुणाचल गया, उत्तराखंड में बगावत हो गई। मणिपुर में पार्टी के 48 में
से 25 विधायकों ने मुख्यमंत्री ओकरम इबोबी सिंह के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद कर
दिया है। कर्नाटक में मुख्यमंत्री सिद्धरमैया के खिलाफ बगावत का माहौल बन रहा है।
सन 2014 के चुनाव में भारी पराजय के बाद कांग्रेस के सामने मुख्यधारा में फिर से वापस आने की चुनौती है। जिस तरह सन 1977 की पराजय के बाद इंदिरा गांधी ने अपनी वापसी की थी। पार्टी उसी लाइन पर भारतीय जनता पार्टी को लगातार दबाव में लाने की कोशिश कर रही है। पार्टी की इसी छापामार राजनीति का नमूना संसद के मॉनसून सत्र में देखने को मिला. संयोग से उसके बाद बिहार में हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी को उम्मीद से ज्यादा सीटें मिलीं। इस दौरान राहुल गांधी के तेवरों में भी तेजी आई है।
संसद के इस सत्र में भी कांग्रेस मोल-भाव की मुद्रा में है। पिछले हफ्ते दिल्ली हाईकोर्ट ने नेशनल हैरल्ड के मामले में जो फैसला सुनाया है, उसने राष्ट्रीय राजनीति का ध्यान खींचा है। सहज भाव से कांग्रेस पहले रोज से ही इस मामले में बजाय रक्षात्मक होने के आक्रामक है। देखना होगा कि क्या पार्टी इस आक्रामकता को बरकरार रख सकती है। क्या सन 2016 के विधानसभा चुनावों में पार्टी को कमोबेश सफलता मिलेगी?
पहली नजर में हैरल्ड मामले में कांग्रेस पार्टी की प्रतिक्रिया न तो संतुलित है और न सुविचारित। इसके कानूनी और राजनीतिक पहलुओं पर सोचे समझे बगैर पार्टी ने पहले दिन से जो रुख अपनाया है, वह कांग्रेस के पुराने दिनों की याद दिलाता है, जब इंदिरा गांधी के खिलाफ तनिक सी बात सामने आने पर भी देशभर में रैलियाँ होने लगती थीं। पार्टी को गलतफहमी है कि संसद से सड़क तक हंगामा करने से उसकी वापसी हो जाएगी। पार्टी का अदालती प्रक्रिया को लेकर रवैया खतरनाक है। देश भूला नहीं है कि सन 1975 का आपातकाल इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के कारण लागू हुआ था। संयोग से सोनिया गांधी ने ‘इंदिरा की बहू हूँ’ कहकर उसकी पुष्टि भी कर दी। यह एक सामान्य मामला है तो उन्हें अदालत में दोषी ठहराया ही नहीं जा सकता। जब वे दोषी हैं नहीं तो कोई उनको फँसा कैसे देगा?
बिहार में चुनाव अब अंतिम दौर में है। परिणाम
चाहे जो हो, उसका राष्ट्रीय राजनीति पर गहरा असर होने वाला है। भारतीय जनता पार्टी
के भीतर नेतृत्व को लेकर असमंजस और भाजपा-विरोधी राष्ट्रीय गठबंधन की सम्भावनाएं
इस पार या उस पार लगेंगी। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल सामने आ रहे हैं। ममता
बनर्जी ने समर्थन किया ही है। उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने अभी अपने
पत्ते नहीं खोले हैं। महागठबंधन जीता तो श्रेय किसे मिलेगा? कांग्रेस को, राहुल
गांधी को या लालू और नीतीश को? बिहार से आश्चर्यजनक खबरें मिल रहीं हैं कि कांग्रेसी प्रत्याशी
लालू-नीतीश की मदद चाहते हैं सोनिया-राहुल की नहीं। परिणाम आने के बाद लालू-नीतीश
को अफसोस होगा कि कांग्रेस को इतनी सीटें दी ही क्यों थीं। इस परिणाम की गूँज संसद
के शीत सत्र में भी सुनाई पड़ेगी। जीएसटी,
भूमि अधिग्रहण तथा आर्थिक उदारीकरण से जुड़े कानूनों की दिशा का पता भी इससे
लगेगा। जब तक राज्यसभा में कांग्रेस की उपस्थिति है वह खबरों में रहेगी, पर उसके
बाद?
पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम, याक़ूब मेमन और पंजाब के गुरदासपुर के एक थाने पर हुए हमले के कारण मीडिया का ध्यान कुछ देर के लिए बंट गया.
इस वजह से मुख्यधारा की राजनीति कुछ देर के लिए ख़ामोश है.
दो-तीन रोज़ में जब सन्नाटा टूटेगा तब हो सकता है कि मसले और मुद्दे बदले हुए हों, पर तौर-तरीक़े वही होंगे.
मॉनसून सत्र का हंगामा
हंगामा, गहमागहमी और शोर हमारी राजनीति के दिल-ओ-दिमाग़ में है.
एक धारणा है कि इसमें संजीदगी, समझदारी और तार्किकता कभी थी भी नहीं. पर जैसा शोर, हंगामा और अराजकता आज है, वैसी पहले नहीं था.
क्या इसे राजनीति और मीडिया के ‘ग्रास रूट’ तक जाने का संकेतक मानें?
शोर, विरोध और प्रदर्शन को ही राजनीति मानें? क्या हमारी सामाजिक संरचना में अराजकता और विरोध ताने-बाने की तरह गुंथे हुए हैं?
संसद के मॉनसून सत्र के शुरुआती दिनों में अनेक सदस्य हाथों में पोस्टर-प्लेकार्ड थामे टीवी कैमरा के सामने आने की कोशिश करते रहे.
कैमरा उनकी अनदेखी कर रहा था, इसलिए उन्होंने स्पीकर के आसपास मंडराना शुरू किया या जिन सदस्यों को बोलने का मौक़ा दिया गया उनके सामने जाकर पोस्टर लगाए ताकि टीवी दर्शक उन्हें देखें.
हमने मान लिया है कि संसद में हंगामा राजनीतिक विरोध का तरीक़ा है और यह हमारे देश की परम्परा है. इसलिए लोकसभा टीवी को इसे दिखाना भी चाहिए.
लोकतांत्रिक विरोध को न दिखाना अलोकतांत्रिक है.
पिछले हफ़्ते कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा था कि लोकसभा में कैमरे विपक्ष का विरोध नहीं दिखा रहे हैं. सिर्फ़ सत्तापक्ष को ही कैमरों में दिखाया जा रहा है.
उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि मोदी सरकार विपक्ष की आवाज़ दबा देना चाहती है.
मेरा बनाम तेरा भ्रष्टाचार
कांग्रेस की प्रतिज्ञा है कि जब तक सरकार भ्रष्टाचार के आरोप से घिरे नेताओं को नहीं हटाएगी, तब तक संसद नहीं चलेगी.
पिछले कुछ महीनों से
कांग्रेस पार्टी के आक्रामक तेवर और विपक्षी दलों के साथ उसके बेहतर तालमेल के कारण भारतीय राजनीति में बदलाव का संकेत
मिल रहा है. पिछले एक साल में नरेंद्र मोदी की सरकार की लोकप्रियता में गिरावट के
संकेत मिल रहे हैं.
बीजेपी सरकार की रीति-नीति
के अलावा कांग्रेस की बढ़ती आक्रामकता भी इस गिरावट का कारण है. पर यह आभासी
राजनीति है. इसे राजनीतिक यथार्थ यानी चुनावी सफलता में तब्दील होना चाहिए. क्या अगले
कुछ वर्षों में यह पार्टी कोई बड़ी सफलता हासिल कर सकती है?
कैसे होगा बाउंसबैक?
फिलहाल कांग्रेस
इतिहास के सबसे नाज़ुक दौर में है. देश के दस से ज्यादा राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों से लोकसभा
में उसका कोई प्रतिनिधि नहीं है. सन
1967, 1977, 1989, 1991 और 1996 के साल कांग्रेस की चुनावी लोकप्रिय में गिरावट के
महत्वपूर्ण पड़ाव थे. पर 2014 में उसे अब तक की सबसे बड़ी हार का सामना करना पड़ा.
भारतीय राजनीति में इफ्तार पार्टी महत्वपूर्ण राजनीतिक गतिविधि के रूप में अपनी जगह बना चुकी है। इस लिहाज से सोनिया गांधी की इफ्तार पार्टी में मुलायम सिंह और लालू यादव का न जाना और राष्ट्रपति की इफ्तार पार्टी में नरेंद्र मोदी का न जाना बड़ी खबरें हैं। बनते-बिगड़ते रिश्तों और गोलबंदियों की झलक पिछले हफ्ते देखने को मिली। पर शुक्रवार को राहुल गांधी के नरेंद्र मोदी पर वार और भाजपा के पलटवार से अगले हफ्ते की राजनीति का आलम समझ में आने लगा है। साफ है कि कांग्रेस अबकी बार भाजपा पर पूरे वेग से प्रहार करेगी। पर अप्रत्याशित रूप से सरकार ने भी कांग्रेस पर भरपूर ताकत से पलटवार का फैसला किया है। इस लिहाज से संसद का यह सत्र रोचक होने वाला है।