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Tuesday, May 20, 2014

मोदी-आंधी बनाम ‘खानदान’ गांधी

मंजुल का कार्टून
हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून

कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में सोनिया गांधी और राहुल गांधी के इस्तीफों की पेशकश नामंजूर कर दी गई। इस पेशकश के स्वीकार होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। गांधी परिवार के बगैर अब कांग्रेस का कोई मतलब नहीं है। कांग्रेस को जोड़े रखने का एकमात्र फैविकॉल अब यह परिवार है। संयोग से कांग्रेस की खराबी भी यही मानी जाती है। कांग्रेस के नेता एक स्वर से कह रहे हैं कि पार्टी फिर से बाउंसबैक करेगी। 16 मई को हार की जिम्मेदारी लेते हुए राहुल और सोनिया ने कहा था कि हम अपनी नीतियों और मूल्यों पर चलते रहेंगे। बहरहाल अगला एक साल कांग्रेस और एनडीए दोनों के लिए महत्वपूर्ण होगा। मोदी सरकार को अपनी छाप जनता पर डालने के लिए कदम उठाने होंगे, वहीं कांग्रेस अब दूने वेग से उसपर वार करेगी।  

अभी तक कहा जाता था कि वास्तविक सार्वदेशिक पार्टी सिर्फ कांग्रेस है। सोलहवीं लोकसभा में दस राज्यों से कांग्रेस का एक भी प्रतिनिधि नहीं है। क्या यह मनमोहन सिंह की नीतियों की पराजय है? एक मौन और दब्बू प्रधानमंत्री को खारिज करने वाला जनादेश? पॉलिसी पैरेलिसिस के खिलाफ जनता का गुस्सा? या नेहरू-गांधी परिवार का पराभव? क्या कांग्रेस इस सदमे से बाहर आ सकती है? शुक्रवार की दोपहर पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने एक संक्षिप्त संवाददाता सम्मेलन में अपनी हार और उसकी जिम्मेदारी स्वीकार की। पर पाँच मिनट के उस एकतरफा संवाद से ऐसा महसूस नहीं हुआ कि पार्टी अंतर्मंथन की स्थिति में है या उसे कोई पश्चाताप है। फिलहाल चेहरों पर आक्रोश दिखाई पड़ता है। पार्टी के नेता स्केयरक्रोयानी मोदी का डर दिखाने वाली अपनी राजनीति के आगे सोच नहीं पा रहे हैं। वे अब भी मानते हैं कि उनके अच्छे काम जनता के सामने नहीं रखे जा सके। इसके लिए वे मीडिया को कोस रहे हैं।

चुनाव परिणाम आने के दो दिन पहले से कांग्रेसियों ने एक स्वर से बोलना शुरू कर दिया था कि हार हुई तो राहुल गांधी इसके लिए जिम्मेदार नहीं होंगे। कमलनाथ ने तो सीधे कहा कि वे सरकार में नहीं थे। कहीं गलती हुई भी है तो सरकार से हुई है, जो अपने अच्छे कामों से जनता को परिचित नहीं करा पाई। यानी हार का ठीकरा मनमोहन सिंह के सिर पर। पिछले दो साल के घटनाक्रम पर गौर करें तो हर बार ठीकरा सरकार के सिर फूटता था। और श्रेय देना होता था तो राहुल या सोनिया की जय-जय।

Sunday, May 18, 2014

इन बुज़ुर्गों से कैसे निपटेंगे मोदी?

हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून
भारतीय जनता पार्टी को मिली शानदार सफलता ने नरेंद्र मोदी के सामने कुछ चुनौतियों को भी खड़ा किया है। पहली चुनौती विरोधी पक्ष के आक्रमणों की है। पर वे उससे निपटने के आदी है। लगभग बारह साल से हट मोदी कैम्पेन का सामना करते-करते वे खासे मजबूत हो गए हैं। संयोग से लोकसभा के भीतर उनका अपेक्षाकृत कमज़ोर विपक्ष से सामना है। कांग्रेस के पास संख्याबल नहीं है। बड़ी संख्या में उसके बड़े नेता चुनाव हार गए हैं। तृणमूल कांग्रेस, बीजू जनता दल और अद्रमुक के साथ वे बेहतर रिश्ते बना सकते हैं। बसपा है नहीं, सपा, राजद, जदयू और वाम मोर्चा की उपस्थिति सदन में एकदम क्षीण है। इस विरोध को लेकर आश्वस्त हो सकते हैं।

Saturday, May 17, 2014

लोकसभा चुनाव 2014 के पूरे परिणाम

चुनाव आयोग वैबसाइट के अनुसार सन 2014 के लोकसभा चुनाव के अंतिम परिणाम इस प्रकार रहे। सबसे नीचे नए सदस्यों की पूरी सूची राज्यवार दी गई हैः-

ALL INDIA Result Status

Status Known For 543 out of 543 Constituencies
PartyWonLeadingTotal
Bharatiya Janata Party2820282
Communist Party of India101
Communist Party of India (Marxist)909
Indian National Congress44044
Nationalist Congress Party606
Aam Aadmi Party404
All India Anna Dravida Munnetra Kazhagam37037
All India N.R. Congress101
All India Trinamool Congress34034
All India United Democratic Front303
Biju Janata Dal20020
Indian National Lok Dal202
Indian Union Muslim League202
Jammu & Kashmir Peoples Democratic Party303
Janata Dal (Secular)202
Janata Dal (United)202
Jharkhand Mukti Morcha202
Kerala Congress (M)101
Lok Jan Shakti Party606
Naga Peoples Front101
National Peoples Party101
Pattali Makkal Katchi101
Rashtriya Janata Dal404
Revolutionary Socialist Party101
Samajwadi Party505
Shiromani Akali Dal404
Shivsena18018
Sikkim Democratic Front101
Telangana Rashtra Samithi11011
Telugu Desam16016
All India Majlis-E-Ittehadul Muslimeen101
Apna Dal202
Rashtriya Lok Samta Party303
Swabhimani Paksha101
Yuvajana Sramika Rythu Congress Party909
Independent303
Total5430543

{Votes%
BJP {31.0%
INC {19.3%
BSP {4.1%
AITC {3.8%
SP {3.4%
ADMK {3.3%
CPM {3.2%
IND {3.0%
TDP {2.5%
YSRCP {2.5%
AAAP {2.0%
SHS {1.9%
DMK {1.7%
BJD {1.7%
NCP {1.6%
RJD {1.3%
TRS {1.2%
JD(U) {1.1%
CPI {0.8%
JD(S) {0.7%
SAD {0.7%
INLD {0.5%
AIUDF {0.4%
LJP {0.4%
DMDK {0.4%
PMK {0.3%
RSP {0.3%
JMM {0.3%
JVM {0.3%
MDMK {0.3%
AIFB {0.2%
SWP {0.2%
IUML {0.2%
BLSP {0.2%
CPI(ML)(L){0.2%
NPF {0.2%
AD {0.1%
BMUP {0.1%
NOTA {1.1%,6000197}


The complete list of MPs after 16th General Elections:
Andaman & Nicobar Islands
Andaman & Nicobar Islands- Bishnu Pada Ray (BJP)
Arunachal Pradesh
Arunachal East - Ninong Ering (Congress)
Andhra Pradesh
Nagarkurnool- Yellaiah Nandi (Congress)
Nalgonda- Gutha Sukhender Reddy (Congress)
Adilabad- Godam Nagesh (TRS)
Bhongir- Dr Boora Narsaiah Goud (TRS)

Friday, May 16, 2014

अपने तबेले को कैसे सम्हालेंगे मोदी?

आज सुबह के इंडियन एक्सप्रेस का शीर्षक है 'Headline awaited' यानी शीर्षक का इंतज़ार है। अब से कुछ घंटे बाद परिणाम आने लगेंगे। कहना मुश्किल है कि देश को कोई शीर्षक मिलेगा या नहीं। लगता है कि कांग्रेस का शीर्षक लिखा जा चुका है। अब उसकी दिलचस्पी मोदी को रोकने में है। दूसरी ओर भाजपा यानी मोदी हारें या जीतें उनकी समस्याएं बढ़ने वाली हैं। हारने का मतलब समस्याओं का पहाड़ है तो जीतने का मतलब है परेशानियों का महासागर। जीते तो उनके खिलाफ कांग्रेस वही काम शुरू करेगी जो अबतक वे कांग्रेस के साथ कर रहे थे। उनकी अपनी पार्टी के खुर्राट भी उनका काम लगाएंगे। बीच में लटके तो दीदियों और दादाओं की मनुहार में सारा वक्त खर्च होगा। बहुत कठिन है डगर पनघट की।


कल के भास्कर की खबर


स्मृति हारीं तब भी जीतेंगी
                                       


                                         पहली बारी गवर्नरोंं की 



भाजपा का नया कोर ग्रुप

Thursday, May 15, 2014

कांग्रेस क्या आत्मघाती पार्टी है?

हिंदू में केशव का कार्टून
मनमोहन सिंह को दिए गए रात्रिभोज में राहुल गांधी नहीं आए। रात में टाइम्स नाउ ने सबसे पहले इस बात को उठाया। चैनल की संवाददाता ने वहाँ उपस्थित कांग्रेस नेताओं से बात की तो किसी को कुछ पता नहीं था। सुबह के अखबारों से पता लगा कि शायद वे बाहर हैं। अलबत्ता रात में यह बात पता लगी थी कि कपिल सिब्बल का भी विदेश का दौरा था, पर उनसे कहा गया था कि वे किसी तरह से इस भोज में शामिल हों। भोज में शामिल होना या न होना इतना महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह बात है कि राहुल का अपने साथियों के साथ संवाद का स्तर क्या है।


दो दिन से कांग्रेस के नेता यह साबित करने में लगे हैं कि कांग्रेस राहुल गांधी की वजह से नहीं हारी। यह सामूहिक हार है। कमल नाथ बोले कि राहुल सरकार में नहीं थे। सरकार अपनी उपलब्धियो को जनता तक नहीं ले जा सकी। उनसे पूछा जाए कि जीत होती तो क्या होता? सन 2009  की जीत का श्रेय राहुल को दिया गया था। भला क्यों?

आज टाइम्स ऑफ इंडिया में स्वामीनाथन अंकलेसरैया अय्यर का लम्बा लेख मनमोहन सिंह की उपलबधियों के बारे में प्रकाशित हुआ है। समय बताएगा कि उनकी उपलब्धियाँ क्या थीं, पंर कांग्रेस उनका जिक्र क्यों नहीं करती?

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ओपीनियन पोल संज़ीदा काम है कॉमेडी शो नहीं

एक होता है ओपीनियन पोल और दूसरा एक्ज़िट पोल। तीसरा रूप और है पोस्ट पोल सर्वे का, जिसे लेकर हम ज़्यादा विचार नहीं करते। क्योंकि उसका असर चुनाव परिणाम पर नहीं होता। यहीं पर इन सर्वेक्षणों की ज़रूरत और उनके दुरुपयोग की बात पर रोशनी पड़ती है। इनका काम जनता की राय को सामने लाना है। पर हमारी राजनीतिक ताकतें इनका इस्तेमाल प्रचार तक सीमित मानती हैं। इनका दुरुपयोग भी होता है। अक्सर वे गलत भी साबित होते हैं। हाल में कुछ स्टिंग ऑपरेशनों से पता लगा कि पैसा लेकर सर्वे परिणाम बदले भी जा सकते हैं।

जनता की राय को सामने लाने वाली मशीनरी की साख का मिट्टी में मिलते जाना खतरनाक है। इन सर्वेक्षणों की साख के साथ मीडिया की साख जुड़ी है। पर कुछ लोग इन सर्वेक्षणों पर पाबंदी लगाने की माँग करते हैं। वह भी इस मर्ज की दवा नहीं है। हमने लोकमत के महत्व को समझा नहीं है। लोकतंत्र में बात केवल वोटर की राय तक सीमित नहीं होती। यह मसला पूरी व्यवस्था में नागरिक की भागीदारी से जुड़ा है। जनता के सवाल कौन से हैं, वह क्या चाहती है, अपने प्रतिनिधियों से क्या अपेक्षा रखती है जैसी बातें महत्वपूर्ण हैं। ये बातें केवल चुनाव तक सीमित नहीं हैं।

हमने ज़रूरी सावधानियाँ नहीं बरतीं

लोकतांत्रिक जीवन में तमाम सवालों पर लगातार लोकमत को उभारने की ज़रूरत होती है। यह जागृत-लोकतंत्र की बुनियादी शर्त है। अमेरिका का प्यू रिसर्च सेंटर इस काम को बखूबी करता है और उसकी साख है। हमारा लोकतंत्र पश्चिमी मॉडल पर ढला है। ओपीनियन पोल की अवधारणा भी हमने वहीं से ली, पर उसे अपने यहाँ लागू करते वक्त ज़रूरी सावधानियाँ नहीं बरतीं। हमारे यहाँ सारा ध्यान सीटों की संख्या बताने तक सीमित है। वोटर को भेड़-बकरी से ज्यादा नहीं मानते। इसलिए पहली जरूरत है कि ओपीनियन पोलों को परिष्कृत तरीके से तैयार किया जाए और उनकी साख को सूरज जैसी ऊँचाई तक पहुँचाया जाए।

जब मुँह के बल गिरा अनुमान

भारत में सबसे पहले साठ के दशक में सेंटर फॉर द स्टडीज़ ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज़ ने सेफोलॉजी या सर्वेक्षण विज्ञान का अध्ययन शुरू किया। नब्बे के दशक में कुछ पत्रिकाओं और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने चुनाव सर्वेक्षणों को आगे बढ़ाया। कुछ सर्वेक्षण सही भी साबित हुए हैं। पर पक्के तौर पर नहीं। मसलन सन 1998 और 1999 के लोकसभा चुनाव के सर्वेक्षण काफी हद तक सही थे, तो 2004 और 2009 के काफी हद तक गलत। सन 2007 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में मायावती की बसपा की भारी जीत और 2012 में मुलायम सिंह की सपा को मिली विश्वसनीय सफलता का अनुमान किसी को नहीं था। इसी तरह पिछले साल हुए उत्तर भारत की चार विधानसभाओं के परिणाम सर्वेक्षणों के अनुमानों से हटकर थे। मसलन दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सफलता का अनुमान केवल एक सर्वेक्षण में लगाया जा सका। राजस्थान और मध्य प्रदेश में कांग्रेस का इस बुरी तरह सूपड़ा साफ होने की भविष्यवाणी किसी ने नही की थी।

सामाजिक संरचना भी जिम्मेदार

सर्वेक्षण चुनाव की दिशा बताते हैं, सही संख्या नहीं बता पाते। इसका एक बड़ा कारण हमारी सामाजिक संरचना है। पश्चिम में समाज की इतनी सतहें नहीं होतीं, जितनी हमारे समाज में हैं। आय, धर्म, लिंग, उम्र और इलाके के अलावा जातीय संरचना चुनाव परिणाम को प्रभावित करती है। हमारे ज्यादातर सर्वेक्षण बहुत छोटे सैम्पल के सहारे होते हैं। पिछले साल दिल्ली विधान सभा की 70 सीटों के लिए एचटी-सीफोर सर्वेक्षण का दावा था कि 14,689 वोटरों को सर्वेक्षण में शामिल किया गया। यानी औसतन हर क्षेत्र में तक़रीबन 200 वोटर। जिस विधानसभा क्षेत्र में वोटरों की संख्या डेढ़ से दो लाख है (क्षमा करें मेरी गलती से अखबार में यह संख्या करोड़ छपी है), उनमें से 200 से राय लेकर किस प्रकार सही निष्कर्ष निकाला जा सकता है? दिल्ली विधानसभा चुनाव में आपने अपना सर्वे भी कराया। उसका दावा था कि उसने 35,000 वोटरों का सर्वे कराया। यानी औसतन 500 वोटर। सीवोटर ने उत्तर भारत की चार विधान सभाओं की 590 सीटों के लिए 39,000 वोटरों के सर्वे का दावा किया है। यानी हर सीट पर 60 से 70 वोटर।


अटकलबाज़ी को सर्वेक्षण कहना गलत

आप कल्पना करें कि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के सुदूर और विविध जन-संस्कृतियों वाले इलाक़ों से कोई राय किस तरह निकल कर आई होगी। ऊपर बताए सैम्पल भी दावे हैं। जरूरी नहीं कि वे सही हों। इस बात की जाँच कौन करता है कि कितना बड़ा सैम्पल लिया गया। वे अपनी अधयन पद्धति भी नहीं बताते। केवल सैम्पल से ही काम पूरा नहीं होता सर्वेक्षकों की समझदारी और वोटर से पूछे गए सवाल भी महत्वपूर्ण होते हैं। जनमत संग्रह का बिजनेस मॉडल इतना अच्छा नहीं है कि अच्छे प्रशिक्षित सर्वेक्षक यह काम करें। पूरा डेटा सही भी हो तब भी उससे सीटों की संख्या किस प्रकार हासिल की जाती है, इसे नहीं बताते। जल्दबाज़ी में फैसले किए जाते हैं। यह शिकायत आम है कि डेटा में जमकर हेर-फेर होती है। बेशक कुछ लोगों से बात करके चुनाव की दशा-दिशा का अनुमान लगाया जा सकता है। वह अनुमान सही भी हो सकता है, पर अटकलबाज़ी को वैज्ञानिक सर्वेक्षण कहना गलत है। चैनलों के अधकचरे एंकर ब्रह्मा की तरह भविष्यवाणी करते वक्त कॉमेडियन जैसे लगते हैं। सर्वेक्षण जरूरी हैं, पर उन्हें कॉमेडी शो बनने से रोकना होगा। 

Wednesday, May 14, 2014

13 मई 2004 से 13 मई 2014...

हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून

एक्ज़िट पोल के परिणामों पर कांग्रेस को औपचारिक रूप से भरोसा हो या न हो, पर व्यावहारिक रूप से दिल्ली के गलियारों में सत्ता परिवर्तन की हवाएं चलने लगी हैं। कल 13 मई को श्रीमती सोनिया गांधी 10 जनपथ के पिछले दरवाजे से निकलकर राष्ट्रपति भवन गईं। यह एक औपचारिक मुलाकात थी। आज मनमोहन सिंह का विदाई भोज है। उधर भाजपा के खेमे में भी सरगर्मी है। दिल्ली में सरकार की शक्ल क्या होगी?  पर इससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी वगैरह का क्या होगा? खबर थी कि आडवाणी जी एनडीए संसदीय दल के अध्यक्ष बनाए जा सकते हैं। पर आज के टेलीग्राफ में राधिका रमाशेषन की खबर है कि मोदी ने साफ कर दिया है कि यदि मैं प्रधानमंत्री बना तो सत्ता के दो केंद्र नहीं होंगे। सही बात है। यह चुनाव नरेंद्र मोदी जीतकर आ रहे हैं। कहना मुश्किल है कि आडवाणी के नेतृत्व में भाजपा की स्थिति क्या होती, पर आज यह विचार का विषय ही नहीं है। 

भारत के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर तरस आता है। नीचे से ऊपर तक सबका दिमाग शून्य है। दिल्ली में चल रही गतिविधियों पर उनकी नज़र ही नहीं है। सुबह से शाम तक एक्ज़िट पोल का तसकिरा लेकर बैठे हैं।  सारी खबरें अखबारों से मिल रहीं हैं। इन संकीर्तनोंं के विशेषज्ञों की समझ पर हँसी आती है। विनोद मेहता, अजय बोस, दिलीप पडगाँवकर, आरती जैरथ, सबा नकवी, सुनील अलग और पवन वर्मा वगैरह-वगैरह किन बातों पर बहस कर रहे हैं? 

दिल्ली के कुछ अखबारों ने मनीष तिवारी के हवाले से खबर दी है कि सूचना मंत्रालय की ज़रूरत ही नहीं है। आज क हिंदू में खबर है कि एनडीए सरकार मंत्रालयों में भारी फेर-बदल करेगी। आज के अमर उजाला के अनुसार नौकरशाही के महत्वपूर्ण पदों के लिए खींचतान शूरू हो गई है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पोलों के पोल के पीछे पड़ा है। 

टेलीग्राफ की ध्यान देने वाली दो खबरें


हिंदू का ग्रैफिक

अमर उजाला


Tuesday, May 13, 2014

भाजपा या कांग्रेस के खोल से बाहर आइए


हिंदू में कशव का कार्टून
मंजुल का कार्टून
एक्जिट पोल अंतिम सत्य नहीं है। यों भी भारत में एक्ज़िट पोलों की विश्वसनीयता संदिग्ध है। पर क्या हमें कांग्रेस की हार नज़र नहीं आती? बेहतर है चार रोज़ और इंतज़ार करें। परिणाम जो भी हों उनसे सहमति और असहमति की गुंजाइश हमेशा रहेगी। पर एक सामान्य नागरिक को कांग्रेसी या भाजपाई खोल में रहने के बजाय नागरिक के रूप में खुद को देखना चाहिए और राज-व्यवस्था के संचालन में भागीदार बनना चाहए।सामान्य वोटर का फर्ज है वोट देना। अब जो भी सरकार बनेगी वह पूरे देश की और आपकी होगी, भले ही आपने उसके खिलाफ वोट दिया हो।

Saturday, April 19, 2014

आप और आईपीएल


हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून
आज के अखबारों में दो लेखों ने मेरा ध्यान खींचा है। इनमें पहला है अमित बरुआ का जिन्होंने आम आदमी पार्टी की सम्भावनाओं पर लिखा है। लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी कितनी सफल होगी इसपर इस किस्म की राजनीति का भविष्य निर्भर करेगा। अमित बरुआ मूलतः आप के पक्ष में हैं और उसे कांग्रेस, भाजपा की राजनीति के विकल्प के रूप में देखते हैं।  पर उनका कहना है कि इस चुनाव के बाद ही इस राजनीति की दशा-दिशा साफ होगी। उनके लेख का अंत इस प्रकार हैः-

While the Lok Sabha poll will definitely test AAP’s mettle, many pundits believe that the party has spread itself too thin and expanded much too quickly for its own good.
These pundits are of the view that the party might have had a better chance had it concentrated on fewer seats, but the die has been cast.
The people, however, will have the final say. And they have had a history of proving the pundits wrong.
पूरा लेख पढ़ें यहाँ 

आज हिंदुस्तान में प्रकाशित राम गुहा का आईपीएल क्रिकेट पर लेख पठनीय है। खेल की सामाजिक भूमिका को समझने के लिहाज से यह अच्छा लेख है।

चुनाव से जुड़े ओपीनियन पोल की बारीकियों पर ईपी़ब्ल्यू में प्रकाशित यह लेख अच्छा है। दिलचस्पी हो तो पढ़ें
http://www.epw.in/election-specials/status-opinion-polls.html

Friday, April 18, 2014

देवी का स्वागत

कोलकाता के दैनिक टेलीग्राफ ने आज पहले सफे पर एक रोचक तस्वीर छापी है, जिसमें जयललिता के हैलिकॉप्टर का इंतज़ार करते उनके समर्थक नज़र आ रहे हैं। सबसे आगे हैं उनकी सरकार के मंत्री। रोचक है वह विवरण जो तस्वीर के साथ दिया गया है। लोग हैलिकॉप्टर के जमीन पर उतरते ही साष्टांग दंडवत करते हैं। अपने नेता को लगभग भगवान की तरह पूजने वाला समाज आधुनिक लोकतंत्र को किस प्रकार अपने जीवन में उतारतो होगा, यह बात आसानी से समझ में आती है।

एक रोचक खबर आज के अमर उजाला में गढ़वाल के उस गाँव के बारे में है जहाँ लोकसभा के पन्द्रह चुनावों में कभी कोई प्रत्याशी वोट माँगने नहीं आया। इस गाँव तक पहुँचना काफी मुश्किल काम है। 

Wednesday, February 19, 2014

नफे-नुकसान की राजनीति

मंजुल का कार्टून
हिंदू में केशव

तेलंगाना बिल का पास होना और राजीव हत्याकांड के अभियुक्तों को मृत्युदंड से मुक्ति। आज के अखबारों की दो सुर्खियाँ हैं। तेलंगाना विधेयक के पास होने के तरीके और खासतौर से लोकसभा चैनल का प्रसारण रोके जाने की घटना को देशभर ने गौर से देखा है। सरकार इसकी सफाई देने में ही फँस गई है। बेहद नासमझी के इस फैसले का लब्बो-लुबाव यह है कि पारदर्शिता की राह में तमाम अड़ंगे अभी कायम हैं।

कोलकाता के अखबार टेलीग्राफ का आज का शीर्षक है

Monday, February 17, 2014

धोनी की टीम का केजरीवाल से गठजोड़ है क्या?

मंजुल का कार्टून
हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून


सतीश आचार्य का कार्टून
न्यूजीलैंड में खेल रही भारतीय क्रिकेट टीम ने आम आदमी पार्टी के साथ कोई समझौता कर लिया है। हर रोज और तकरीबन हर वक्त और तकरीबन हर चैनल पर एक ही बात है। बहरहाल बीस सीटों पर अपने प्रत्याशी घोषित करके पार्टी ने चुनाव के पत्ते खोलने शुरू कर दिए हैं। बजट के दिन भी बजट पर कोई चर्चा नहीं।  तेलंगाना बिल पर भी नहीं। आज के जागरण ने शेखर गुप्ता के लेख का संक्षिप्त अनुवाद छापा है। उसे पढ़कर लगता है कि भारतीय राजनीति और कॉरपोरेट हाउसों के बीच गड़बड़ घोटाला तो है। आप वाले भी इसमें शामिल होंगे या नहीं कहना मुश्किल है। 
नवभारत टाइम्स