Friday, May 26, 2023

अमेरिका का राजकोषीय संकट

 

बाल्टीमोर सन में कार्टून

अमेरिका का अभूतपूर्व वित्तीय-संकट से सामना है। देश की संसद समय से ऋण-सीमा को बढ़ाने में विफल हो रही है और कर्जों को चुकाने में डिफॉल्ट का खतरा पैदा हो गया है। इसका परिणाम होगा शेयर बाजार में हड़कंप, बेरोजगारी में वृद्धि और दुनियाभर की अर्थव्यवस्थाओं में अफरा-तफरी। अमेरिका को यह सीमा आगामी 1 जून के पहले 31.4 ट्रिलियन डॉलर से ऊपर कर लेनी चाहिए। डेट सीलिंग वह अधिकतम रक़म है, जिसे अमेरिकी सरकार अपने ख़र्चे पूरे करने के लिए उधार ले सकती है। संविधान के अनुसार ऐसा करने का अधिकार अमेरिकी कांग्रेस यानी संसद को है, पर राजनीतिक कारणों से ऐसा हो नहीं पा रहा है।

ऐसे हालात पहले भी पैदा हुए हैं, पर तब राजनीतिक नेताओं की सहमति से सीमा बढ़ गई, पर इसबार अभी ऐसा नहीं हो पाया है। रिपब्लिकन पार्टी का कहना है कि खर्च घटाकर 2022 के स्तर पर ले आओ, तब हम आपके प्रस्ताव का समर्थन करेंगे। ऐसा करने पर सरकारी खर्च में करीब 25 प्रतिशत की कटौती करनी होगी, जो जीडीपी की करीब पाँच फीसदी होगी। इससे राष्ट्रपति बाइडन की ग्रीन-इनर्जी योजनाएं ठप हो जाएंगी और देश मंदी की चपेट में आ जाएगा। रिपब्लिकन और डेमोक्रेट पार्टियों के बीच बातचीत के कई दौर विफल हो चुके हैं। यदि सरकार के पास धनराशि नहीं बचेगी, तो वह बॉण्ड धारकों या जिनसे कर्ज लिए गए हैं, उन्हें भुगतान नहीं कर पाएगी। इससे वैश्विक आर्थिक-संकट पैदा हो जाएगा।

बजट घाटा

2022 के वर्ष में संघ सरकार की प्राप्तियाँ 4.90 ट्रिलियन डॉलर की थीं और व्यय 6.27 ट्रिलियन डॉलर का था। इस प्रकार घाटा 1.38 ट्रिलियन डॉलर का था। सन 2001 के बाद से अमेरिकी की संघ सरकार लगातार घाटे में है। इस घाटे को पूरा करने के लिए ऋण लेने की जरूरत होती है। अमेरिकी संविधान के अनुसार अमेरिका के नाम पर ऋण लेने का अधिकार केवल देश की संसद को है। देश की ऋण-सीमा कानूनी-व्यवस्था है, जो 1917 में तय की गई थी।

उस समय संसद ने सरकार को युद्ध के खर्चों को पूरा करने के लिए बॉण्ड जारी करने का अधिकार दिया था। 1939 में संसद ने सरकार को ऋणपत्र (डेट) जारी करने और उनका प्रबंधन करने का अधिकार दे दिया, पर उसकी सीमा तय कर दी कि कितना ऋण लिया जा सकता है। 1939 से 2018 तक इस सीमा को 98 बार बढ़ाया गया और पाँच बार कम भी किया गया। सिद्धांततः सरकार अपने खर्चे पूरे करने के लिए कर्ज ले सकती है, पर उसकी सीमा क्या होगी, यह संसद तय करती है।

बढ़ता राष्ट्रीय-ऋण

सन 2009 के बाद से अमेरिका का राष्ट्रीय-ऋण करीब तिगुना हो चुका है। इसकी वज़ह है कि औसतन हर साल एक ट्रिलियन घाटे का बजट आता है। इसकी वजह कभी टैक्सों में कटौती रही है और कभी इराक और अफगानिस्तान के युद्ध, कोविड या आर्थिक-मंदी। इस वक्त औद्योगिक देशों में अमेरिका का जीडीपी-ऋण अनुपात दुनिया में चौथे नंबर है। सबसे ज्यादा अनुपात जापान, इटली और ग्रीस में है। अनुमान है कि 2051 तक अमेरिका का सार्वजनिक ऋण वहाँ की जीडीपी का दुगना हो जाएगा।

फेडरल रिजर्व और वित्त मंत्रालय ने इस दौरान पेमेंट प्रायरिटाइज़ेशन नाम के कार्यक्रम पर काम शुरू कर दिया है, जिसमें बॉण्ड्स के ब्याज का भुगतान तथा इसी प्रकार के अन्य भुगतान किए जाएंगे, पर बहुत से भुगतान रोक दिए जाएंगे। इससे पेंशनरों और सैनिकों के भुगतान रुकेंगे। अमेरिका के 25 ट्रिलियन डॉलर के सरकारी बॉण्ड दुनिया में प्रचलित हैं। तमाम कंपनियों, दूसरे देशों की सरकारों और निजी निवेशकों ने इन बॉण्ड्स में निवेश किया है। अमेरिका की इस व्यवस्था से दुनिया की वित्तीय व्यवस्था चलती है। यदि डिफॉल्ट हुआ, तो फौरी और दूरगामी दोनों तरह के संकट पैदा होंगे।

बचत के रास्ते

इस साल 19 जनवरी को अमेरिका की अर्थव्यवस्था ने ऋण-सीमा (डेट सीलिंग) को छू लिया, जिसके कारण पैदा हुई स्थिति को अमेरिका का राजकोषीय संकट कहा जा रहा है। देश में इस समय इस बात को लेकर विचार चल रहा है कि क्या देश की ऋण-सीमा को बढ़ाना चाहिए या नहीं। देश की ट्रेज़री सेक्रेटरी (राजकोषीय मंत्री) जेनेट येलेन ने संकट को देखते हुए जनवरी के बाद से अस्थायी प्रबंध शुरू कर दिए थे, पर गत 1 मई को उन्होंने कहा कि 1 जून तक यह व्यवस्था भी कारगर नहीं रहेगी।

सामान्यतः सरकारें अपनी आय से ज्यादा खर्च करती हैं और आय-व्यय के अंतर को पूरा करने के लिए ऋण लेती हैं। इस स्थिति से बचने का एक तरीका यह है कि खर्च कम किया जाए। दूसरा तरीका है कि टैक्स बढ़ाए जाएं। तीसरा तरीका है कर्ज लिया जाए। इन तीनों तरीकों के संतुलन को राजकोषीय कौशल का नाम दिया जाता है। अमेरिका में 1960 के बाद से, सार्वजनिक ऋण सीमा को 78 बार बदला या बढ़ाया जा चुका है। हाल के वर्षों में 2013 के बाद से इसे कई बार बढ़ाया गया है। पिछला बदलाव दिसंबर, 2021 में हुआ था। इस समय जो गतिरोध चल रहा है, उसे देखते हुए रिपब्लिकन पार्टी का सुझाव है कि ऋण-सीमा को इस शर्त पर बढ़ाया जाए कि राजकोषीय व्यय को 2022 के स्तर पर बनाए रखा जाएगा, जबकि डेमोक्रेटिक पार्टी का कहना है कि कोई शर्त नहीं होनी चाहिए, जैसाकि ट्रंप के कार्यकाल में तीन बार हुआ है।  

अमेरिका का पराभव

इस परिघटना को मार्क्सवादी लेखक पूँजीवाद के पराभव के रूप में देखते हैं। जब तक पूँजीवादी व्यवस्था अपने अंतर्विरोधों का समाधान करने में सफल है, तब तक संकट सैद्धांतिक ही हैं। दूसरी तरफ अर्थव्यवस्था से जुड़े संकट चीन में भी कढ़े हैं, जहाँ पूँजीवादी और समाजवादी व्यवस्थाओं का टकराव हो रहा है। एक तरफ आर्थिक-संकट है, वहीं दुनिया में शीतयुद्ध की स्थितियाँ बन रही हैं।

वैबसाइट न्यूज़क्लिक ने मार्क्सवादी अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक का लेख प्रकाशित किया है, जिसमें उन्होंने लिखा है कि वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी के दबाव में, दुनिया के ज्यादातर देश कानून बनाकर, जीडीपी के अनुपात के रूप में अपने राजकोषीय घाटे की सीमा तय कर चुके हैं। आम तौर पर यह सीमा 3 फीसद की है। भारत में यही सीमा, केंद्र के लिए 3 फीसद है और राज्यों के लिए भी 3 फीसद। अमेरिका में इस तरह का कोई कानून नहीं है। इसके बजाय वहां कुल सार्वजनिक ऋण के लिए एक सीमा है, जिससे कभी भी इस ऋण को ऊपर नहीं निकलना चाहिए। यह एक बहुत ही बेढंगी सी प्रक्रिया है क्योंकि जैसे-जैसे किसी अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ता है, इस प्रकार की व्यवस्था में इस सीमा का बढ़ाया जाना भी आवश्यक हो जाता है। हैरानी की बात नहीं है कि अमेरिका में 1960 के बाद से, इस ऋण सीमा को 78 बार बदला या बढ़ाया जा चुका है।

इस समय यह सीमा 314 खरब डॉलर की है। चूंकि कुल सार्वजनिक ऋण पहले ही इस सीमा तक पहुंच चुके हैं, जो बाइडन प्रशासन को इस सीमा को बढ़ाने के लिए अमेरिकी कांग्रेस का दरवाजा खटखटाना पड़ा है। लेकिन, अमेरिकी कांग्रेस ने, जिसमें रिपब्लिकनों का बहुमत है, रस्मी तरीके से इस सीमा को बढ़ाने से इंकार कर दिया है। इसके बजाय उसने पहले कुछ बजट कटौतियां लागू किए जाने की मांग की है। बाइडन इन बजट कटौतियों पर बातचीत करने के लिए भी तैयार हैं, लेकिन इस सीमा के बढ़ाए जाने के बाद ही। वह इस सीमा को बढ़ाने की शर्त के तौर पर, इस तरह की कटौतियां स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। इसी से फिलहाल गतिरोध पैदा हो गया है। अगर इस गतिरोध का हल नहीं निकलता है तो, बाइडन प्रशासन का कहना है कि पहले के सार्वजनिक ऋणों के लिए ब्याज के भुगतान में और सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाह देने में, सरकार के नाकाम रहने की नौबत आ जाएगी।

टैक्स नहीं, ऋण

इस विषय पर और पड़ताल करने के पहले प्रभात पटनायक के दृष्टिकोण को समझना चाहिए। वे लिखते हैं कि जब कोई सरकार अपने खर्चे की भरपाई करने के लिए, टैक्स राजस्व बढ़ाने के बजाए ऋण लेने का सहारा लेती है, तो यह तथ्य धनवानों पर टैक्स लगाने की उसकी अनिच्छा को दिखाता है। अमेरिका और शेष दुनिया में भी नव-उदारवादी पूंजीवाद के दौर में, आय तथा संपदा की असमानता काफी बढ़ी हुई है। पटनायक मानते हैं कि अमीरों पर टैक्स बढ़ाने का ही सहारा लेना वांछनीय है, इसके लिए चाहे कॉरपोरेट टैक्स बढ़ाने का सहारा लिया जाए या फिर संपदा टैक्स लगाने का।

सार्वजनिक खर्च को उतने ही कराधान से संतुलित करने से, भले ही यह टैक्स अमीरों से ही क्यों नहीं वसूल किया जा रहा हो, संपदा की असमानता घटेगी नहीं। मेहनतकश चूंकि अपनी पूरी की पूरी आय उपभोग पर खर्च करने के लिए मजबूर होते हैं, ऐसे में अमीर ही हैं जिनके हिस्से में किसी भी अर्थव्यवस्था में ज्यादातर बचत आती है।

सरकार अगर, मिसाल के तौर पर 100 डॉलर खर्च करे और उसकी भरपाई ऋण लेकर की जा रही हो, तो इस तरह अमीरों के हाथ में 100 डॉलर की अतिरिक्त बचत और जा जाएगी (यहां हम विदेशी लेन-देन को भूलकर चल रहे हैं), जबकि उन्होंने इस फालतू 100 डॉलर को कमाने के लिए कुछ भी अतिरिक्त नहीं किया होगा, जिस राशि को सरकार उनसे ऋण के तौर पर ले रही होगी। इसलिए, ऋण लेकर जो सरकारी खर्चा किया जाता है, वह संपदा की असमानता बढ़ाने का काम करता है, जबकि अगर इस तरह के खर्चे की भरपाई कराधान से की जाती है, उससे संपदा असमानता नहीं बढ़ती है। खर्च की भरपाई उतने ही कराधान से की जाती है तो, संपदा असमानता पर उसका असर नहीं पड़ता है यानी यह असमानता पहले जितनी ही बनी रहती है।

पूँजीवाद हावी

बाइडन प्रशासन इस खाई को पाटने के लिए अमीरों पर टैक्स बढ़ाने की बात नहीं सोच रहा है और न ही रिपब्लिकनों के बहुमत वाली अमेरिकी कांग्रेस इस दिशा में सोच रही है, तो यह अमेरिकी राजनीति पर पूंजीवाद के पूरी तरह से हावी होने को ही दिखाता है। ये दोनों ही पक्ष, इस विकल्प को परे रखकर ही बहस कर रहे हैं। बाइडन, इसकी गंभीर चेतावनियां तो दे रहे हैं कि कर्मचारियों का वेतन देना मुश्किल हो जाएगा, वगैरह-वगैरह, लेकिन वह एक बार भी इस संभावना का ज़िक्र तक नहीं करते हैं कि अमीरों पर टैक्स बढ़ाना भी एक रास्ता हो सकता है।

बहरहाल, यहां एक और मुद्दा भी है, जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। बाइडन प्रशासन और रिपब्लिकनों के बीच तात्कालिक रूप से जो मतभेद दिखाई दे रहे हैं उनसे आगे, आर्थिक समझ तथा आर्थिक रणनीति का कहीं और गहरा मतभेद भी उनके बीच है। इन दोनों के रुखों को हम क्रमश: ‘उदारवादी पूंजीवादी’ रुख और ‘पुरातनपंथी पूंजीवादी’ रुख कह सकते हैं। इनमें से पहले रुख को इसका एहसास है कि नव-उदारवादी पूंजीवाद, किस तरह से दूरगामी गतिरोध में प्रवेश कर गया है और इसलिए यह रुख इसके पक्ष में है कि अमेरिका में कीन्सवादी नीतियों को पुनर्जीवित किया जाए। यह रुख, राजकोषीय घाटे को बढ़ाने के ख़िलाफ़ नहीं है, जिसके लिए ऋण सीमा को बढ़ाने का प्रस्ताव किया जा रहा है।

उदार पूँजीवाद

‘उदारवादी पूंजीवादी’ रुख, मुद्रास्फीति नियंत्रण को आर्थिक नीति के एकमात्र या सबसे प्रमुख लक्ष्य की तरह नहीं देखता है। यह रुख, बेरोज़गारी को कम करने और आर्थिक गतिविधियों का स्तर ऊपर उठाने को भी, महत्वपूर्ण नीतिगत लक्ष्यों की तरह देखता है। जैसे ही मुद्रास्फीति को घटाकर, ‘संभालने लायक’ स्तर पर लाया जा सकेगा, उक्त लक्ष्य एजेंडे पर आ जाएंगे। इसका अर्थ यह हुआ कि मुद्रास्फीति नियंत्रण फौरी चिंता का मुद्दा तो बना हुआ है, फिर भी इस उद्देश्य के लिए, सरकारी खर्चे में भारी कटौती के ज़रिए, अर्थव्यवस्था पर तीखी मंदी थोपने से बचने की कोशिश की जा रही है।

इसके विपरीत, ‘पुरातनपंथी पूंजीवादी’ रुख मुद्रास्फीति नियंत्रण को ही सबसे प्रमुख लक्ष्य की तरह देखता है। वह इसके पक्ष में है कि मेहनतकश जनता के हक में ‘हस्तांतरणों’ पर सरकारी खर्चों में और यहां तक कि उनके लिए कल्याणकारी योजनाओं पर खर्चों में भी, कटौतियां कर दी जाएं। यह रुख इन कटौतियों को सिर्फ मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने के लिए ही ज़रूरी नहीं मानता है बल्कि आर्थिक नीति की सदाबहार विशेषता के रूप में भी ज़रूरी मानता है।

कीन्स, पूंजीवादी व्यवस्था के रखवालों में से थे। वे बोल्शेविक क्रांति के साये में अपना सिद्घांत सूत्रबद्ध कर रहे थे। उनका यह मानना था कि अगर पूंजीवादी व्यवस्था और ज़्यादा रोज़गार मुहैया नहीं कराएगी, तो क्षुब्ध मज़दूर, सोवियत उदाहरण से प्रेरणा लेकर, पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकेंगे। वास्तव में, ‘पुरातनपंथी पूंजीवादी’ रुख और ‘उदारवादी पूंजीवादी’ रुख में मुख्य अंतर इस प्रकार है। पुरातनपंथी पूंजीवादी रुख, पूंजीवादी व्यवस्था को बनाए रखने के लिए, उसके पक्ष में मज़दूरों से हामी भरवाने के लिए, उन्हें दबाकर, मजबूर कर के झुकाने में विश्वास करता है, जिसमें बेरोज़गारों की विशाल सेना को बनाए रखकर, उसका हथियार के रूप में इस्तेमाल करना भी शामिल है। लेकिन, ‘उदारवादी पूंजीवादी’ रुख, बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी से बचने और उनके पक्ष में समुचित ‘हस्तांतरणों’ के ज़रिए, मज़दूरों का समर्थन हासिल करने में विश्वास करता है, ताकि पूंजीवादी व्यवस्था को बचाकर रखा जा सके। यही दो अलग-अलग परिप्रेक्ष्य, ऋण की सीमा को बढ़ाने पर, अमेरिका में इस समय उठी बहस में निहित हैं।

अमेरिकी सरकार के बढ़े हुए खर्च से पैदा होने वाली मांग, बढ़ी हुई आयात मांग के रूप में, रिसकर उसकी अपनी अर्थव्यवस्था के दायरे से बाहर चली जाती है। यह पहले से मानकर चला जाता है कि दूसरे देशों के लोग, अमेरिका की बढ़ी हुई मांग को पूरा करने के लिए, जो अतिरिक्त माल बेचेंगे, उसके बदले में अमेरिकी बांड अपने पास रख सकेंगे। यह विचार तब तक काम करेगा, जब तक कि डॉलर दुनिया की सुरक्षित मुद्रा बना है। ऐसी मुद्रा जिसे सार्वभौम रूप से ‘सोने जितना खरा’ माना जाता हो। लेकिन, अगर अमेरिका पाबंदियां लगाता है और सिर्फ इक्का-दुक्का ‘मुखालिफ’ देश पर ही नहीं बल्कि दर्जनों देशों पर पाबंदियां लगाता है, तो डॉलर के खरेपन का क्षय होने लगेगा। ऐसी सूरत में तीन चीजें होंगी। पहली, अमेरिका, ऐसे देशों से आयात का रास्ता बंद कर लेगा। इसका मतलब है, उसकी अपनी उत्पादन लागत बढ़ेगी। दूसरे, ‘पाबंदीशुदा’ तथा ‘गैर-पाबंदीशुदा’ देशों को मिलकर ऐसी द्विपक्षीय व्यापार व्यवस्थाएं कायम करने को बढ़ावा मिलेगा, जिनमें लेन-देन के माध्यम के रूप में डॉलर की भूमिका खत्म होगी। 


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