Monday, September 16, 2019

अफ़ग़ान शांति-वार्ता के अंतर्विरोध


अस्सी के दशक में जब अफ़ग़ान मुज़ाहिदीन रूसी सेना के खिलाफ लड़ रहे थे, तब अमेरिका उनके पीछे था। अमेरिका के डिक्लैसिफाइडखुफिया दस्तावेजों के अनुसार 11 सितंबर 2001 के अल कायदा हमले के कई बरस पहले बिल क्लिंटन प्रशासन का तालिबान के साथ राब्ता था। वहाँ अंतरराष्ट्रीय सहयोग से नई सरकार बनने के बाद सन 2004 और 2011 में भी तालिबान के साथ बातचीत हुई थी। सन 2013 में तालिबान ने कतर में दफ्तर खोला। चूंकि उन्होंने निर्वासित सरकार के रूप में खुद को पेश किया था, इसलिए काबुल सरकार ने उसे स्वीकार नहीं किया। इस संवाद में पाकिस्तान की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही। सन 2015 में पाकिस्तान की कोशिशों से अफगान सरकार और तालिबान के बीच आमने-सामने की बात हुई। उन्हीं दिनों खबर आई कि तालिबान के संस्थापक मुल्ला उमर की मौत तो दो साल पहले हो चुकी है। इस तथ्य को तालिबान और पाकिस्तान दोनों ने छिपाकर रखा था। सन 2018 में ईद के मौके पर तीन दिन का युद्धविराम भी हुआ। सितंबर 2018 में अमेरिका ने ज़लमय खलीलज़ाद को तालिबान के साथ बातचीत के लिए अपना दूत नियुक्त किया। उनके साथ दोहा में कई दौर की बातचीत के बाद समझौते के हालात बने ही थे कि बातचीत टूट गई। क्या यह टूटी डोर फिर से जुड़ेगी?


फिलहाल अमेरिका और तालिबान के बीच एक अरसे से चल रही शांति-वार्ता एक झटके में टूट गई है, पर यह भी लगता है कि संभावनाएं पूरी तरह खत्म नहीं हुईं हैं। बातचीत का टूटना भी एक अस्थायी प्रक्रिया है। उम्मीद है कि इस दिशा में प्रगति किसी न किसी दिशा में जरूर होगी। राष्ट्रपति ट्रंप के सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन की अचानक बर्खास्तगी से संकेत यही मिलता है कि विदेशमंत्री पॉम्पियो जो कह रहे हैं, वह ज्यादा विश्वसनीय है। यों भी समस्या से जुड़े सभी पक्षों के पास विकल्प ज्यादा नहीं हैं और इस लड़ाई को लंबा चलाना किसी के भी हित में नहीं है। अफगान समस्या के समाधान के साथ अनेक क्षेत्रीय समस्याओं के समाधान भी जुड़े हैं।
अफ़ग़ानिस्तान के लिए नियुक्त अमेरिका के विशेष दूत ज़लमय ख़लीलज़ाद ने उससे पहले सोमवार 2 सितंबर को तालिबान के साथ 'सैद्धांतिक तौर' पर एक शांति समझौता होने का एलान किया था। प्रस्तावित समझौते के तहत अमेरिका अगले 20 हफ़्तों के भीतर अफ़ग़ानिस्तान से अपने 5,400 सैनिकों को वापस लेने वाला था। अमेरिका और तालिबान के बीच क़तर में अब तक नौ दौर की शांति-वार्ता हो चुकी है। प्रस्तावित समझौते में प्रावधान था कि अमेरिकी सैनिकों की विदाई के बदले में तालिबान सुनिश्चित करता कि अफ़ग़ानिस्तान का इस्तेमाल अमेरिका और उसके सहयोगियों पर हमले के लिए नहीं किया जाएगा।
कितनी मौतें?
अफ़ग़ानिस्तान में सन 2001 में अमेरिका के नेतृत्व में शुरू हुए सैनिक अभियान के बाद से अंतरराष्ट्रीय गठबंधन की सेना के करीब साढ़े तीन हजार सैनिकों की जान जा चुकी है। इनमें 2300 अमेरिकी हैं। आम लोगों, चरमपंथियों और सुरक्षाबलों की मौत की संख्या का अंदाज़ा लगाना कठिन है। अलबत्ता इस साल संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि वहाँ 32,000 से ज़्यादा आम लोगों की मौत हुई है। वहीं ब्राउन यूनिवर्सिटी के वॉटसन इंस्टीट्यूट का कहना है कि वहाँ 58,000 सुरक्षाकर्मी और 42,000 विद्रोही मारे गए हैं।

ऐसा नहीं है कि तालिबान के साथ सम्पर्क करने की यह पहली अमेरिकी कोशिश है। सन 2001 में हमले के पहले और उसके बाद भी अमेरिका और तालिबानियों के बीच संवाद चलता रहा है। अस्सी के दशक में जब अफ़ग़ान मुज़ाहिदीन रूसी सेना के खिलाफ लड़ रहे थे, तब अमेरिका भी तालिबान के साथ था। अमेरिका के डिक्लैसिफाइडखुफिया दस्तावेजों के अनुसार 11 सितंबर 2001 के अल कायदा हमले के कई बरस पहले बिल क्लिंटन प्रशासन का तालिबान के साथ राब्ता था। अमेरिका को तब भी अंदेशा था कि अफगानिस्तान में अल कायदा को बढ़ावा मिल रहा है।
अक्तूबर 2001 में जब अमेरिका के नेतृत्व में अंतरराष्ट्रीय सेना ने अफ़ग़ानिस्तान पर हमला बोला तो तालिबानियों ने कहा था कि हमारी जान बख्शी जाए, तो हम हथियार डालने को तैयार हैं। उस वक्त अमेरिका ने उन्हें पूरी तरह परास्त करने का फैसला किया था। वहाँ अंतरराष्ट्रीय सहयोग से नई सरकार बनने के बाद सन 2004 और 2011 में भी तालिबान के साथ बातचीत हुई थी।
कतर में दफ्तर
सन 2013 में तालिबान ने कतर में दफ्तर खोला। चूंकि उन्होंने निर्वासित सरकार के रूप में खुद को पेश किया, इसलिए काबुल सरकार ने उसे स्वीकार नहीं किया। इस संवाद में पाकिस्तान की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही। सन 2015 में पाकिस्तान की कोशिशों से अफगान सरकार और तालिबान के बीच आमने-सामने की बात हुई। उन्हीं दिनों खबर आई कि तालिबान के संस्थापक मुल्ला उमर की मौत तो दो साल पहले हो चुकी है। इस तथ्य को तालिबान और पाकिस्तान दोनों ने छिपाकर रखा था। बहरहाल उस साल अफ़ग़ान राष्ट्रपति अशरफ ग़नी ने पेशकश की कि तालिबान तैयार हो तो उसे एक राजनीतिक दल के रूप में मान्यता दी जा सकती है।
सन 2018 में भी उन्होंने इसी किस्म की पेशकश की और ईद के मौके पर युद्धविराम का प्रस्ताव भी किया। तालिबान ने इसपर कोई जवाब नहीं दिया, पर ईद के पहले तीन दिन युद्धविराम रखा। सन 2001 के बाद वह पहला मौका था, जब अफगानिस्तान में लगातार तीन दिन तक शांति रही। इस साल मई में हुए लोया जिरगा में फिर युद्धविराम की अपील की गई, पर तालिबान ने इसे नामंजूर कर दिया। इस पेशकश के समानांतर अमेरिका और तालिबान के बीच पहली बार औपचारिक बातचीत भी चल रही थी, जो पिछले साल भर से जारी थी।
सितंबर 2018 में अमेरिका ने ज़लमय खलीलज़ाद को इस काम के लिए अपना दूत नियुक्त किया। उनके साथ दोहा में कई दौर की बातचीत के बाद समझौते के हालात बने हैं। तालिबान की पहली माँग है कि अफ़ग़ानिस्तान से विदेशी सेनाएं हटें। उधर अमेरिका चाहता है कि व्यापक शर्तों के साथ कोई समझौता हो, जिसमें तालिबान की जिम्मेदारियां भी तय हों। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के लिए यह परीक्षा की घड़ी है, क्योंकि सन 2020 में होने वाले चुनाव में वे इसे अपनी सफलता के रूप में पेश करना चाहते हैं।
हालांकि तालिबान काबुल सरकार को कठपुतली सरकार मानते हैं, पर पिछले कुछ महीनों में वे दो बार सरकारी प्रतिनिधियों के साथ मॉस्को में मुलाकात कर चुके हैं। अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी सेना के हटने के बाद की व्यवस्था कैसी होगी, इसे लेकर रूस, चीन, पाकिस्तान, ईरान और भारत की गहरी दिलचस्पी है। इन देशों के बीच भी इस विषय पर विचार-विमर्श चल रहा है।
कैम्प डेविड वार्ता
अमेरिकी राष्ट्रपति की रविवार 8 सितंबर को कैम्प डेविड में तालिबान के वरिष्ठ नेताओं और अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी से मुलाक़ात तय थी, पर इससे एक दिन पहले ट्रंप ने ट्वीट कर बैठक रद्द कर दी। ट्रंप की तालिबान और अफ़ग़ान सरकार से अलग-अलग मुलाक़ात होनी थी, क्योंकि तालिबान अफ़ग़ान सरकार को अमेरिका की कठपुतली बताता है और उससे सीधे बात करने से इनकार करता है।
जब डोनाल्ड ट्रंप ने तालिबान के साथ कैम्प डेविड में होने वाली प्रस्तावित वार्ता टूटने के संदर्भ में ट्वीट किया, तो उससे दो बातें एक साथ जाहिर हुईं। एक तो इस वार्ता की जानकारी दुनिया को हुई और दूसरे यह कि यह फैसला केवल काबुल में हुई ताजा धमाके से नहीं जुड़ा है, जिसमें अमेरिका के एक फौजी की मौत हो गई थी। पिछले डेढ़ साल से यह बातचीत दुनिया की जानकारी में हो रही है और दबे-छिपे तरीके से यह और भी पहले से चल रही थी। इस दौरान अफगानिस्तान में दर्जनों बार तालिबानी हमले हुए हैं, जिनमें अमेरिकी फौजियों की मौतें भी हुई हैं। इस साल जनवरी से अबतक 16 अमेरिकी सैनिक मारे गए हैं।
यह बात जरूर चुभने वाली है कि जब समझौता होने ही वाला था, तब तालिबानी हमलों का मतलब समझ में नहीं आता। पर इससे यह भी लगता है कि समझौते को लेकर अमेरिकी प्रशासन के भीतर के मतभेद ज्यादा मुखर होकर सामने आने लगे थे। ये मतभेद हैं इस बात का संकेत एक-दो हफ्ते पहले मिलने लगा था, जब खबरें आईं कि राष्ट्रपति के रक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन को इस बातचीत से अलग रखा गया था। साफ तौर पर लगता है कि विदेशमंत्री माइक पॉम्पियो और जॉन बोल्टन एक पेज पर नहीं थे। यह भी लगता था कि ट्रंप का ताजा फैसला बोल्टन की जीत है। पर इसके बाद के घटनाक्रम से इस बात की पुष्टि नहीं हुई।
मंगलवार को राष्ट्रपति ट्रंप ने बोल्टन की अचानक छुट्टी कर. पिछले तीन वर्षों में इस पद से तीसरी बार किसी को हटाया गया। ट्रंप ने ट्वीट किया, मैंने जॉन से इस्तीफ़ा मांगा, और सुबह मुझे वह सौंप दिया गया। हालांकि बोल्टन ने दावा किया कि उन्होंने ख़ुद इस्तीफ़ा दिया है, पर इससे फर्क क्या पड़ता है?  तालिबानियों से बातचीत का अंतिम दौर पूरा करने के बाद अमेरिकी दूत ज़लमय खलीलज़ाद अगस्त के महीने में जब राष्ट्रपति ट्रंप से बात करने आए थे, तब रक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन ने अपने आप को उस बातचीत से अलग रखा था।
बोल्ट बनाम पॉम्पियो
खलीलज़ाद विदेशमंत्री के निर्देश में बातचीत कर रहे थे। उन्होंने रक्षा सलाहकार को जानकारियाँ नहीं दीं। इससे ट्रंप प्रशासन के भीतर इस विषय पर चल रहे अंतर्विरोध स्पष्ट हो गए थे। रविवार को ट्रंप के ट्वीट के बाद पॉम्पियो ने कहा कि दोनों पक्ष भविष्य में वार्ता बहाल कर सकते हैं। पॉम्पियो ने कहा, मैं निराशावादी नहीं हूं। मैंने तालिबान को वह कहते और करते देखा है जो पहले संभव नहीं था। मुझे उम्मीद है कि तालिबान अपने बर्ताव में बदलाव लाएगा और उन बातों पर प्रतिबद्धता जताएगा जिन पर हम कई महीनों से बात कर रहे थे। समाधान कई दौर की बातचीत से ही निकलेगा। मैं तालिबान से अफगानिस्तान की अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त सरकार से बातचीत ना करने की जिद छोड़ने की अपील भी कर रहा हूँ।
पॉम्पियो से पूछा गया था कि 5000 अमेरिकी सैनिकों की अफगानिस्तान से वापसी क्या अब टल जाएगी? इन सैनिकों की वापसी अगले साल के शुरू में होनी है और साल के अंत तक लगभग सभी सैनिकों की वापसी की योजना है। बदले में तालिबान ने वायदा किया है कि वह अल कायदा से रिश्ते पूरी तरह तोड़ लेगा और आतंकवाद विरोधी प्रयासों में भाग लेगा। रविवार को ही पॉम्पियो ने एकसाथ पाँच टीवी चैनलों के साथ विशेष कार्यक्रमों में कहा कि सेना के संख्याबल में कटौती वास्तविक परिस्थितियों पर निर्भर करेगी। यों भी मैं इस बात का जवाब नहीं दे सकता है, इसे राष्ट्रपति ही तय करेंगे।
कुल मिलाकर देखें, तो लगता है कि अफगानिस्तान से सेना की वापसी को लेकर सबसे ज्यादा उत्सुक डोनाल्ड ट्रंप ही हैं। कैम्प डेविड वार्ता की तो भनक भी किसी को नहीं थी। उनकी यह बातचीत इस बात की याद दिला रही है कि वे उत्तरी कोरिया के किम जोंग उन से मिलने को कितने उत्सुक थे और ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी से मिलने की उनकी इच्छा कितनी प्रबल है। दूसरे पक्ष को आमने-सामने की बातचीत में खुश करने की कला में वे खुद को पारंगत मानते हैं। उन्हें लगता है कि अफगानिस्तान से सेना की वापसी अगले साल के राष्ट्रपति चुनाव में मददगार होगी।  
अमेरिकी उलझन
अमेरिकी विदेश विभाग के अधिकारियों का कहना है कि ट्रंप ने खुद संकेत दिए थे कि वे बातचीत से काफी हद तक संतुष्ट हैं, पर उन्होंने समझौते के अंतिम स्वीकृति नहीं दी थी। अलबत्ता उन्होंने कैम्प डेविड वार्ता की स्वीकृति देकर मामले को उलझा भी दिया। उधर बोल्टन ने कुछ अलग बातें कहीं। वे खलीलज़ाद से सीधे संवाद में थे। सेनाध्यक्ष और राष्ट्रपति से भी बातें कर रहे थे, पर विदेशमंत्री पॉम्पियो से नहीं। बोल्टन ने सैनिकों की संख्या कम करने का विरोध नहीं किया, पर वे तालिबानियों के साथ समझौता करने के खिलाफ थे। उनका कहना था कि राष्ट्रपति ने जनता से वायदा किया है कि अफगानिस्तान में सैनिकों की संख्या कम की जाएगी। यह काम तालिबानियों से समझौता किए बगैर भी हो सकता है। राष्ट्रपति सेना कम करने का फैसला करें।
अफगानिस्तान के हालात को लेकर भी अमेरिकी प्रशासन के दृष्टिकोण में अंतर्विरोध हैं। पॉम्पियो का कहना है कि यह गलतफहमी है कि तालिबान का प्रभाव अफगानिस्तान में बढ़ रहा है। वस्तुतः उनकी हालत खराब है और खराब होती जा रही है। पिछले दस दिन में ही हमने करीब एक हजार तालिबानियों को मार डाला है। हम अमेरिकी हितों की रक्षा करने की दिशा में ही सोच रहे हैं।
दूसरी तरफ तालिबान का कहना है कि वार्ता के रद्द होने से अमेरिका के लिए स्थितियाँ बिगड़ेंगी। उनके प्रवक्ता ज़बीउल्ला मुजाहिद ने एक बयान जारी करके कहा कि बातचीत टूटने से अमेरिका की साख को धक्का लगेगा, दुनिया के सामने उसकी छवि शांति-विरोधी की बनेगी और लड़ाई में उसकी जान-माल का नुकसान भी ज्यादा होगा। इस बयान के अनुसार समझौते पर दस्तखत होने की घोषणा के बाद अफगानिस्तान सरकार और देश से जुड़े लोगों के साथ व्यापक बातचीत 23 सितंबर को होने वाली थी। तालिबान के साथ बातचीत की इच्छा अशरफ ग़नी ने व्यक्त की थी।
हालांकि ट्रंप ने बातचीत टूटने का ट्वीट रविवार को किया था, पर बताते हैं कि कैम्प डेविड वार्ता को रद्द करने का फैसला गुरुवार को ही हो गया था। इस बातचीत की योजना भी एक हफ्ते पहले ही नहीं थी। उधर अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ ग़नी को भी विचार-विमर्श के लिए बुलाया गया था। उन्हें शुक्रवार को बताया गया कि कैम्प डेविड वार्ता नहीं होगी। इसके बाद घोषणा की गई कि अशरफ ग़नी की यात्रा स्थगित हो गई है।
राजनीतिक जोखिम
तालिबान के साथ वार्तालाप में शामिल रहे अमेरिकी अधिकारियों का कहना है कि तालिबानियों का यह दृष्टिकोण हमेशा रहा कि जबतक युद्धविराम समझौता नहीं होगा, हम लड़ते रहेंगे। अधिकारियों का कहना है कि हमें अंदेशा था कि समझौता होने तक हिंसा बढ़ सकती है। पॉम्पियो ने टीवी चैनलों से अपनी बातचीत में कहा कि राष्ट्रपति कैम्प डेविड में तालिबान प्रतिनिधियों से मुलाकात करके सायास एक राजनीतिक जोखिम मोल रहे थे। यदि हमें शांति स्थापित करनी है, तो हमें अक्सर क्षुद्र लोगों से भी बात करनी पड़ती है।
कैम्प डेविड वह जगह है जहाँ 9/11 की घटना के बाद अमेरिकी नेताओं ने बैठकर अल कायदा के खात्मे की योजना बनाई थी। पॉम्पियो के टीवी कार्यक्रमों के बाद अमेरिकी सांसद लिज़ चेनी ने ट्वीट किया, तालिबान के किसी प्रतिनिधि को कभी भी यहाँ पैर नहीं रखने देना चाहिए। लिज़ चेनी देश के पूर्व उप राष्ट्रपति की बेटी हैं।



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