अभिजित बनर्जी और एस्थर ड्यूफ्लो की पुस्तक ‘पुअर इकोनॉमिक्स’ में गरीबों की दशा सुधारने के बाबत उनकी उद्यमिता के बारे में एक अध्याय है। दुनिया के ज्यादातर देशों में छोटे और ऐसे पारम्परिक उद्यमियों की संख्या सबसे बड़ी होती है, जो सैकड़ों साल से चले आ रहे हैं। ज्यादातर नए हुनर किसी पारम्परिक हुनर का नया रूप हैं। भारत जैसे देश में गरीबी दूर करने में सबसे बड़ी भूमिका यहाँ के पारम्परिक उद्यमों की हो सकती है। अक्सर उत्पादन के तौर-तरीकों में बदलाव से पारम्परिक उद्यमों को धक्का लगता है, क्योंकि वे नए तौर-तरीकों को जल्द ग्रहण करने की स्थिति में नहीं होते। ऐसा भी नहीं कि वे उद्यम भावना में कच्चे होते हैं। किताब में उन्होंने लिखा, ‘कई साल पहले एक हवाई यात्रा में हमारे बराबर बैठे एक बिजनेसमैन ने बताया कि 1970 के दशक-मध्य में अमेरिका में एमबीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद जब वह भारत वापस आए तो उनके अंकल वास्तविक उद्यमिता का पाठ पढ़ाने के लिए उन्हें घर से बाहर ले गए।…अंकल चाहते थे कि सड़क के साइडवॉक पर बैठी चार स्त्रियों को गौर से देखूँ।
वे स्त्रियाँ कुछ कर नहीं रही थीं। अलबत्ता बीच-बीच में जब ट्रैफिक रुकता वे उठकर जातीं और सड़क से कोई चीज़ खुरचकर उठातीं और अपने पास रखे प्लास्टिक बैग में रखकर फिर अपनी जगह बैठ जातीं। ऐसा कई बार होने पर अंकल ने पूछा, इनका बिजनेस मॉडल समझ में आया? अंकल ने समझाया, भोर होने से पहले ये स्त्रियाँ समुद्र किनारे जाकर गीली समुद्री रेत उठाती हैं। सड़क पर ट्रैफिक शुरू होने के पहले वे इस रेत को समान रूप से बिछा देती हैं। जब कारें इसके ऊपर से गुजरती हैं तो रेत उनके पहियों की गर्मी से सूख जाती है। वे बीच-बीच में सूखी हुई रेत की परत खुरच कर अपने बैग में रखती जाती हैं। नौ-दस बजे तक उनके पास काफी रेत हो जाती है। इसे वे पुराने अखबारों के लिफाफों में रखकर बेचती हैं। स्थानीय गृहणियों को बर्तन माँजने के लिए इसकी ज़रूरत होती है।’
आपने दिल्ली में देखा होगा उन महिलाओं और बच्चों को जो एक डंडे के आगे चुम्बक लगाकर कूड़े में से लोहे के टुकड़े बटोरते हैं। यह भी उद्यमिता है। बेशक यह पारम्परिक उद्यमिता नहीं है, पर इसमें पारम्परिक उद्यमिता के लिए संदेश छिपा है कि बाजार को ध्यान से देखो। उसकी जरूरत को समझो। विश्व प्रसिद्ध ग्रामीण बैंक के संस्थापक मोहम्मद युनुस अक्सर गरीबों को स्वाभाविक उद्यमी कहते हैं। मार्केट गुरु स्वर्गीय सीके प्रह्लाद कारोबारियों से कहते थे कि वे ‘बॉटम ऑफ पिरैमिड’ पर फोकस करें। यदि उनके पास कौशल नहीं है तो वह उन्हें उपलब्ध कराएं। पारम्परिक उद्यमी संयोग से गरीब भी हैं। इसलिए वे वैश्विक प्रवृत्तियों से वाकिफ भी नहीं हैं।
दो खास कारणों से गरीबों को मिलने वाला अवसर विलक्षण साबित होगा। एक तो यह कि उन्हें कभी अवसर दिया नहीं गया। उनके विचार नए होंगे और पहले परखे नहीं गए होंगे। दूसरे आमतौर पर बाजार ने अभी तक पिरैमिड की तली की उपेक्षा की है। उनकी अपनी पूँजी बहुत कम होती है। इंश्योरेंस, बैंकों और सस्ते फायनेंस तक उनकी पहुँच होती ही नहीं। वे सूदखोरों से 4 फीसदी प्रति माह या इससे ज्यादा के ब्याज पर उधार लेते हैं। बिजनेस के दूसरे जोखिमों का खतरा हमेशा उनपर रहता है। बावजूद इसके वे अमीर उद्यमियों की तरह बिजनेस में उतरते हैं तो इसका मतलब यही है कि उनके भीतर उद्यम-भावना है।
चमत्कार यह कि वे बेहद ऊँची दरों पर ब्याज देकर भी कर्ज चुकाने लायक पैसा बचा लेते हैं। वे बहुत कम डिफॉल्ट करते हैं। मतलब यह कि वे निवेश किए गए प्रति रुपए पर ज्यादा कमाई करते हैं। अन्यथा वे उधार न लेते। इसका मतलब है कि उनके कारोबार में लगाए गए कैश का रिटर्न विलक्षण रूप से ऊँचा है। एक साल में पचास फीसदी वे ब्याज देते हैं, जो शेयर बाजार में लगाए गए आपके पैसे के रिटर्न से कहीं ज्यादा है।
खेतिहर-ग्रामीण समाज के हुनर
हमारे पारम्परिक उद्यमों को तीन या चार मोटे वर्गों में बाँटा जा सकता है। पहला कृषि और उससे जुड़े उद्यम। दूसरे कारीगरी और दस्तकारी। और तीसरे सेवा से जुड़े काम। खेती और उससे जुड़े कामों में पशुपालन, मुर्गी पालन, बागवानी और वन सम्पदा के व्यावसायिक इस्तेमाल से जुड़े काम हैं। आटा चक्की, कोल्हू और परम्परागत खाद्य प्रसंस्करण इनमें शामिल है। इनके साथ बाँस, रस्सी, कॉयर और जूट का काम भी जुड़ा है। हाल के वर्षों में फूलों की खेती और ऑर्गेनिक खेती महत्वपूर्ण कारोबार के रूप में विकसित हुई है। यह परम्परागत खेती का सुधरा हुआ रूप है। जड़ी-बूटियों की खेती भी व्यावसायिक खेती का परिष्कृत रूप है।
दस्तकारी और कारीगरी के परम्परागत शिल्प के साथ हथकरघा उद्योग जुड़ा है जो रोजगार का सबसे बड़ा जरिया हुआ करता था। इसके साथ रेशम, कालीन, दरी और ऊनी शॉल का काम है। ठप्पे की छपाई, रेशमी और सूती धागों को बाँधकर तरह-तरह चीजें बनाने की पटुआ कला। जेवरात और रंगीन पत्थरों का काम, मीनाकारी, पत्थर तराशने का काम, मिट्टी के बर्तन, खिलौने, ताँबे और पीतल के बर्तन यानी ठठेरों का काम, चमड़े का काम, लकड़ी के खिलौने और कारपेंटरी, परिधान निर्माण वगैरह। इनके अलावा छोटे स्तर पर सब्जी, फल, मूँगफली तथा अन्य खाद्य सामग्री के ठेले लगाने से लेकर छोटे बिसाती, हलवाई और नमकीन बनाने वाले तमाम तरह के परम्परागत काम हैं, जिनके साथ आधुनिक ज्ञान और मार्केटिंग के गुर जोड़े जाएं और साथ में माइक्रोफाइनेंस संस्थाओं की मदद मिले तो परिणाम मिलेंगे। हज्जाम, धोबी और चौकीदारी और जूतों की मरम्मत जैसे परम्परागत उद्यम अब नए रूप में सामने आ रहे हैं। नए विकसित होते शहरों को इन सेवाओं की भारी जरूरत है। हरकारों की पारम्परिक सेवा अब लॉजिस्टिक्स के रूप में काफी बड़े कारोबार के रूप में सामने आ रही है।
छत्तीसगढ़ में खेती-किसानी से जुड़ा त्योहार है पोला। भाद्र पक्ष की अमावस्या को यह त्योहार मनाया जाता है। पोला के कुछ ही दिनों के भीतर तीजा मनाया जाता है। विवाहित स्त्रियाँ पोला त्योहार के मौके पर अपने मायके में आती हैं। हर घर में पकवान बनते हैं। इन्हें मिट्टी के बर्तनों, खिलौनों भरते हैं ताकि बर्तन हमेशा अन्न से भरा रहे। बच्चों को मिट्टी के बैल, मिट्टी के खिलौने मिलते हैं। पुरुष अपने पशुधन को सजाते हैं, पूजा करते हैं। छोटे-छोटे बच्चे भी मिट्टी के बैलों की पूजा करते हैं। मिट्टी के बैलों को लेकर बच्चे घर-घर जाते हैं जहाँ उन्हें दक्षिणा मिलती है।
उत्तर भारत में और खासतौर से ब्रज के इलाके में शारदीय नवरात्र के दौरान शाम को टेसू और झाँझी गीत हवा में गूँजते हैं। लड़के टेसू लेकर घर-घर जाते हैं। बांस के स्टैण्ड पर मिट्टी की तीन पुतलियां फिट की जाती हैं। टेसू राजा, दासी और चौकीदार या टेसू राजा और दो दासियां। बीच में मोमबत्ती या दिया रखा जाता है। जनश्रुति के अनुसार टेसू प्राचीन वीर है। पूर्णिमा के दिन टेसू तथा झाँझी का विवाह भी रचाया जाता है। सिंधु घाटी की सभ्यता से लेकर अब तक भारत में उत्तर से दक्षिण तक मिट्टी और लकड़ी के खिलौने और बर्तन जीवन और संस्कृति के महत्वपूर्ण अंग के रूप में दिखाई पड़ते हैं। इनके समानांतर कारोबार चलता है, जो आमतौर पर गाँव और खेती से जुड़ा है। इसके पहले कि ये कलाएं पूरी तरह खत्म हो जाएं हमें उनके ने संरक्षकों को खोजना चाहे। देश और विदेश में मिट्टी के इन खिलौनों को संरक्षण देने वाले काफी लोग हैं। जरूरत है उन तक माल पहुँचाने की।
पारम्परिक सामग्री का उपयोग
गणेश चतुर्थी के मौके पर उत्तर भारत में भी घरों में गणेश प्रतिमा स्थापित करने का चलन बढ़ रहा है। दिल्ली के महत्वपूर्ण इलाकों, खासतौर से राजमार्गों के किनारे फुटपाथों पर बिकने वाली गणेश प्रतिमाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है। परम्परागत कुम्भकारी को आधुनिक प्लास्टर ऑफ पेरिस के साँचों और पेंट की मदद से नई परिभाषा देने का मौका मिल रहा है। परम्परागत दस्तकारी पर्यावरण-मित्र थी, पर उसके आधुनिक संस्करण के बारे में दावे के साथ यह नहीं कहा जा सकता। गणेशोत्सव और नवरात्रि के बाद प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी प्रतिमाएँ नदियों में विसर्जन के काफी समय बाद तक पानी में घुलती नहीं हैं। इन्हें आकर्षक बनाने के लिए लगे रासायनिक रंगों के साथ भी यही बात है। इनका असर पानी के स्रोत और जीव–जन्तुओं पर भी पड़ता है।
हमारी पार्थिव पूजा की परम्परा में मिट्टी की प्रतिमाएं पूजी जाती हैं। प्लास्टर ऑफ पेरिस ने कारोबार को आकर्षक बनाया है, पर उसके पर्यावरणीय खतरे हैं। थोड़ी सी सावधानी और प्रशिक्षण से इन खतरों से बचा जा सकता है। पर परम्परागत कौशलों पर असली खतरा बदलते वक्त और बदलते बाजार का है। पिछले साल लालकिले के प्राचीर से स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, मेड इन इंडिया के साथ-साथ दुनिया से कहें ‘मेक इन इंडिया।’ उधर सरसंघचालक मोहन भागवत ने विजयादशमी पर अपने संदेश में कहा, ‘हम अपने देवी और देवताओं की मूर्तियां व अन्य उत्पाद भी चीन से खरीद रहे हैं, जो ठीक नहीं है।’
जाने-अनजाने दीपावली की रात आप अपने घर में एलईडी के जिन नन्हें बल्बों से रोशनी करने वाले हैं उनमें से ज्यादातर चीन में बने होंगे। वैश्वीकरण की बेला में हमें इन बातों के निहितार्थ और अंतर्विरोधों को समझना चाहिए। दीपावली के मौके पर बाजारों में भारतीय खिलौने कम होते जा रहे हैं। उनकी जगह चीन में बने खिलौने ले रहे हैं। बात केवल खिलौनों तक सीमित नहीं है। भारतीय बाजार की जरूरतों को समझ कर माल तैयार करना और उसे वाजिब कीमत पर उपलब्ध कराना व्यावसायिक सफलता है। हमारे पास इस बात के प्रमाण हैं कि भारत की परम्परागत उद्यम-भावना कमजोर नहीं है। उसे उचित दिशा और थोड़ा सा सहारा चाहिए और जोखिमों से निपटने वाली मशीनरी भी। गरीब उद्यमी को इंश्योरेंस का सहारा नहीं मिलता।
नई तकनीक और मार्केटिंग
एक न्यूज़ चैनल पर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास दीये बनाने वाले कुम्हारों और उनकी दिक्कतों पर आधारित खबर दिखाई जा रही थी। दीये बनाने वाले की पत्नी का कहना था कि दीयों की बिक्री घट रही है। ये कोई और काम जानते भी नहीं हैं। अब कर भी क्या सकते हैं? क्या हम इस बात का इंतज़ार कर रहे हैं कि चीन का कोई उद्यमी भारतीय बाज़ार पर रिसर्च करके मिट्टी के बर्तनों और दीयों का विकल्प तैयार करके लाए? इसके लिए जिम्मेदार कौन है? चीन, हमारे कुम्हार, हमारे उद्यमी या भारत सरकार? दीपक बनाने वाले दिल्ली के कुम्हार के हाथ की खाल मिट्टी का काम करते-करते गल गई थी। दस्तकारों को वक्त के साथ खुद को ढालना नहीं सिखा पा रहे हैं? या ऐसे हालात तैयार नहीं कर पा रहे हैं कि उनके हितों की रक्षा हो।
प्रधानमंत्री ने हुनर सिखाने का अभियान चलाया है। स्किल डेवलपमेंट। यह हुनर नए और पुराने हर तरह के हुनर का है। शहरी विकास के साथ इलेक्ट्रीशियनों, कारपेंटरों, लोहारों, रेफ्रिजरेशन और ऑटोमोबाइल मेकैनिकों, जूते बनाने वालों, रंगरेजों, ठप्पे की छपाई करने वालों, राज-मिस्त्रियों, बुनकरों और मिट्टी का काम करने वालों के रोजगार भी बढ़ने चाहिए। हाल के वर्षों में हमने किसानों की आत्महत्याओं की खबरों पर ध्यान दिया है। इनमें बुनकर, मछुआरे, नाव चलाने वाले और दूसरे घरेलू उद्योगों से जुड़े लोग भी शामिल हैं। परम्परागत शिल्पों के साथ आज भी काफी बड़ी आबादी की रोजी-रोटी जुड़ी है। उन्हें अपने काम के तरीके में थोड़ा बदलाव करके और उसकी तकनीक को सुधारकर बेहतर बाजार तक लाने की जरूरत है। हमें विलाप नहीं, विकल्प चाहिए। भावुक होने से कुछ नहीं होता। ग्राहक को अच्छी रोशनी की लड़ी मिलेगी तो वह भारतीय और चीनी का फर्क नहीं करेगा। थोड़ी सी सावधानी बरतें तो इन उद्यमों के लिए वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण बजाय खतरा बनने के बेहतर मौके तैयार पैदा कर सकते हैं।
परम्परागत शिल्पों के सामने भारत में ही नहीं सारी दुनिया में खतरा है। इनकी रक्षा दो कारणों से होनी चाहिए। इनसे जुड़े हुनर और धरोहर को बचाना एक काम है और साथ ही यह रोजगार का बहुत बड़ा माध्यम है। इनसे जुड़ी बड़ी आबादी को वैकल्पिक रोजगार देना आसान नहीं है। और वह इतनी जल्दी सम्भव भी नहीं। इसके संधिकाल में भी दो या तीन पीढ़ियाँ निकल जाएंगी।
मशीनीकरण खतरा या उपहार?
भारत के सकल घरेलू उत्पाद में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों का हिस्सा तकरीबन 8 फीसदी है। तकरीबन 3.6 करोड़ उद्यमों में इस वक्त तकरीबन 10 करोड़ के आसपास लोगों को रोजगार मिला है। यदि संगठित तरीके से प्रयास किया जाए तो इन उद्यमों और सेवाओं के मार्फत अगले दशक में दस करोड़ नए लोगों को रोजगार दिए जा सकते हैं। सरकारी कार्यक्रम सन 2022 तक तकरीबन पचास करोड़ लोगों को कौशल विकास प्रशिक्षण देने का है। पर ये अनुमान भी अधूरे हैं क्योंकि तमाम पारम्परिक कौशल उनमें लगाई गई पूँजी के आधार पर संगठित उद्यमों की परिभाषा में नहीं आते। इनमें ऐसे उद्यम भी शामिल हैं जिनका सालाना कारोबार 10 हजार रुपए का भी नहीं है। बहरहाल सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों का देश के निर्यात में लगभग 40 फीसदी का हिस्सा है। इनमें लगे ज्यादातर लोगों की इन कार्यों में पीढ़ी-दर पीढ़ी की महारत है। ये परिवार उस काम को बहुत कुशलता से करते हैं। कुम्भकारी को परम्परागत कौशल का इस्तेमाल आधुनिक पॉटरी में करने पर परम्परा से प्रशिक्षित कुशल कर्मी हमें मिलते हैं। उन्हें केवल नए उपकरणों की जानकारी देनी होती है।
जिन्हें हम परम्परागत कौशल कहते हैं उनमें से काफी के लिए बदलता आर्थिक परिदृश्य खतरे का संकेत लेकर आ रहा है। हमें पहली नजर में लगता है कि मशीनीकरण के कारण निर्माण उद्योगों से जुड़े राज-मिस्त्रियों की रोजी-रोटी परेशानी में पड़ेगी। बड़े निर्माण कार्यों में मशीनीकरण के कारण मानवीय कौशल की भूमिका कम हुई है। पर यह पूरा सच नहीं है। इन बड़े निर्माण कार्यों में भी पारम्परिक मिस्त्री काम कर रहे हैं। दूसरी और छोटे स्तर पर भवन निर्माण भी अभी चल ही रहा है। कारपेंटरी के काम में मशीनें आ गईं हैं, जो कारीगर के कुछ उन कामों को आसान बना रहीं हैं, जिनमें पहले काफी समय लगता था। दिक्कत उनकी कीमत को लेकर है। इस्तेमाल की समझ को लेकर नहीं। फर्नीचर के नए डिजाइन और उसमें लगने वाली सामग्री की जानकारी देने का इंतजाम होना चाहिए।
जूते बनाने के परम्परागत शिल्प से जुड़े लोग सिंथेटिक सामग्री के इस्तेमाल को न समझ पाने और नई डिजाइनों और फैशन की समझ विकसित न कर पाने के कारण बाजार में पिछड़ते जा रहे हैं। जोधपुरी मोजड़ी के दोनों पैर लम्बे अरसे तक एक जैसे ही होते थे। दाएं-बाएं का फर्क नहीं होता था। डिजाइन में नयापन लाने और उचित मार्केटिंग से देशी-विदेशी विदेशी बाजारों में मांग बढ़ी और जोधपुरी जूतियों के कारोबार में होने लगा। भारतीय बाजारों के अलावा दुबई, जर्मनी, अमेरिका व यूरोपीय देश जोधपुरी जूतियों के बड़े बाजार बनकर उभर हैं। आम तौर पर यह जूतियां ऊंट की खाल से बनाई जाती है। लेकिन अब कुछ लोग बकरी की खाल भी जूतियां बनाने में उपयोग करने लगे हैं। शेरवानी, अचकन, कुर्ता-पायजामा व जोधपुरी सूट के लिए खास तौर पर डिजाइनर जूतियां फैशन बनकर उभरीं हैं। लखनऊ की चिकनकारी को सुरक्षित करने और उससे जुड़े लोगों के आर्थिक हितों की रक्षा करने के लिए संगठित प्रयास के लाभ भी मिले हैं। इसके लिए मार्केटिंग रणनीति बनाने की जरूरत भी है, जिसमें आधुनिक फैशन डिजाइनरों के साथ काम किया जाना चाहिए।
युवा मानव संसाधन
परम्परागत कौशल विकास भी युवाओं के सहारे सम्भव है। सौभाग्य से इस समय हमारे पास अतुलनीय युवा मानव संसाधन है। हमारे पास 60.5 करोड़ लोग 25 वर्ष से कम आयु के हैं। रोजगार के लिए उपयुक्त कौशल प्राप्त करके ये युवा परिवर्तन के प्रतिनिधि हो सकते हैं। प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना (पीएमकेवीवाई) युवाओं के कौशल प्रशिक्षण के लिए एक प्रमुख योजना है। इसके तहत पाठ्यक्रमों में सुधार, बेहतर शिक्षण और प्रशिक्षित शिक्षकों पर विशेष जोर तौर-तरीकों में परिवर्तन भी शामिल है।
नवगठित कौशल विकास और उद्यम मंत्रालय राष्ट्रीय कौशल विकास निगम (एनएसडीसी) के माध्यम से इस कार्यक्रम को क्रियान्वित कर रहा है। इसके तहत 24 लाख युवाओं को प्रशिक्षण के दायरे में लाया जाएगा है। कौशल प्रशिक्षण नेशनल स्किल क्वालिफिकेशन फ्रेमवर्क (एनएसक्यूएफ) और उद्योग द्वारा तय मानदंडों पर आधारित होगा। केन्द्र और राज्य सरकारों, उद्योग और व्यावसायिक घरानों से विचार विमर्श कर भविष्य की मांग का आकलन किया जाएगा। कौशल विकास के लक्ष्य निर्धारित करते समय हाल में ही लागू किए गए प्रमुख कार्यक्रम 'मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, राष्ट्रीय सौर ऊर्जा मिशन और स्वच्छ भारत अभियान की मांगों को भी ध्यान में रखा जाएगा।
प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना के तहत मुख्य रूप से श्रम बाजार में पहली बार प्रवेश कर रहे लोगों पर जोर होगा और विशेषकर कक्षा 10 व 12 के दौरान स्कूल छोड़ गए छात्रों पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा। योजना का क्रियान्वयन एनएसडीसी के प्रशिक्षण साझेदारों द्वारा किया जाएगा। कुल 1120 करोड़ रुपए के खर्च से 14 लाख युवाओं को प्रशिक्षित किया जाएगा। इस दिशा में उठाये गए सभी उपायों को शामिल करने के लिए एक नई राष्ट्रीय कौशल व उद्यम विकास नीति भी तैयार की गई है। इस नीति के जरिए उच्च गुणवत्ता वाले कार्यबल के साथ विकास को बढ़ावा देने की रूपरेखा तैयार की जा रही है। वर्ष 2022 तक 50 करोड़ लोगों को प्रशिक्षित करने का लक्ष्य रखा गया है।
भारत सरकार के प्रकाशन विभाग की पत्रिका 'योजना' के अक्तूबर 2015 के अंक में प्रकाशित
वे स्त्रियाँ कुछ कर नहीं रही थीं। अलबत्ता बीच-बीच में जब ट्रैफिक रुकता वे उठकर जातीं और सड़क से कोई चीज़ खुरचकर उठातीं और अपने पास रखे प्लास्टिक बैग में रखकर फिर अपनी जगह बैठ जातीं। ऐसा कई बार होने पर अंकल ने पूछा, इनका बिजनेस मॉडल समझ में आया? अंकल ने समझाया, भोर होने से पहले ये स्त्रियाँ समुद्र किनारे जाकर गीली समुद्री रेत उठाती हैं। सड़क पर ट्रैफिक शुरू होने के पहले वे इस रेत को समान रूप से बिछा देती हैं। जब कारें इसके ऊपर से गुजरती हैं तो रेत उनके पहियों की गर्मी से सूख जाती है। वे बीच-बीच में सूखी हुई रेत की परत खुरच कर अपने बैग में रखती जाती हैं। नौ-दस बजे तक उनके पास काफी रेत हो जाती है। इसे वे पुराने अखबारों के लिफाफों में रखकर बेचती हैं। स्थानीय गृहणियों को बर्तन माँजने के लिए इसकी ज़रूरत होती है।’
आपने दिल्ली में देखा होगा उन महिलाओं और बच्चों को जो एक डंडे के आगे चुम्बक लगाकर कूड़े में से लोहे के टुकड़े बटोरते हैं। यह भी उद्यमिता है। बेशक यह पारम्परिक उद्यमिता नहीं है, पर इसमें पारम्परिक उद्यमिता के लिए संदेश छिपा है कि बाजार को ध्यान से देखो। उसकी जरूरत को समझो। विश्व प्रसिद्ध ग्रामीण बैंक के संस्थापक मोहम्मद युनुस अक्सर गरीबों को स्वाभाविक उद्यमी कहते हैं। मार्केट गुरु स्वर्गीय सीके प्रह्लाद कारोबारियों से कहते थे कि वे ‘बॉटम ऑफ पिरैमिड’ पर फोकस करें। यदि उनके पास कौशल नहीं है तो वह उन्हें उपलब्ध कराएं। पारम्परिक उद्यमी संयोग से गरीब भी हैं। इसलिए वे वैश्विक प्रवृत्तियों से वाकिफ भी नहीं हैं।
दो खास कारणों से गरीबों को मिलने वाला अवसर विलक्षण साबित होगा। एक तो यह कि उन्हें कभी अवसर दिया नहीं गया। उनके विचार नए होंगे और पहले परखे नहीं गए होंगे। दूसरे आमतौर पर बाजार ने अभी तक पिरैमिड की तली की उपेक्षा की है। उनकी अपनी पूँजी बहुत कम होती है। इंश्योरेंस, बैंकों और सस्ते फायनेंस तक उनकी पहुँच होती ही नहीं। वे सूदखोरों से 4 फीसदी प्रति माह या इससे ज्यादा के ब्याज पर उधार लेते हैं। बिजनेस के दूसरे जोखिमों का खतरा हमेशा उनपर रहता है। बावजूद इसके वे अमीर उद्यमियों की तरह बिजनेस में उतरते हैं तो इसका मतलब यही है कि उनके भीतर उद्यम-भावना है।
चमत्कार यह कि वे बेहद ऊँची दरों पर ब्याज देकर भी कर्ज चुकाने लायक पैसा बचा लेते हैं। वे बहुत कम डिफॉल्ट करते हैं। मतलब यह कि वे निवेश किए गए प्रति रुपए पर ज्यादा कमाई करते हैं। अन्यथा वे उधार न लेते। इसका मतलब है कि उनके कारोबार में लगाए गए कैश का रिटर्न विलक्षण रूप से ऊँचा है। एक साल में पचास फीसदी वे ब्याज देते हैं, जो शेयर बाजार में लगाए गए आपके पैसे के रिटर्न से कहीं ज्यादा है।
खेतिहर-ग्रामीण समाज के हुनर
हमारे पारम्परिक उद्यमों को तीन या चार मोटे वर्गों में बाँटा जा सकता है। पहला कृषि और उससे जुड़े उद्यम। दूसरे कारीगरी और दस्तकारी। और तीसरे सेवा से जुड़े काम। खेती और उससे जुड़े कामों में पशुपालन, मुर्गी पालन, बागवानी और वन सम्पदा के व्यावसायिक इस्तेमाल से जुड़े काम हैं। आटा चक्की, कोल्हू और परम्परागत खाद्य प्रसंस्करण इनमें शामिल है। इनके साथ बाँस, रस्सी, कॉयर और जूट का काम भी जुड़ा है। हाल के वर्षों में फूलों की खेती और ऑर्गेनिक खेती महत्वपूर्ण कारोबार के रूप में विकसित हुई है। यह परम्परागत खेती का सुधरा हुआ रूप है। जड़ी-बूटियों की खेती भी व्यावसायिक खेती का परिष्कृत रूप है।
दस्तकारी और कारीगरी के परम्परागत शिल्प के साथ हथकरघा उद्योग जुड़ा है जो रोजगार का सबसे बड़ा जरिया हुआ करता था। इसके साथ रेशम, कालीन, दरी और ऊनी शॉल का काम है। ठप्पे की छपाई, रेशमी और सूती धागों को बाँधकर तरह-तरह चीजें बनाने की पटुआ कला। जेवरात और रंगीन पत्थरों का काम, मीनाकारी, पत्थर तराशने का काम, मिट्टी के बर्तन, खिलौने, ताँबे और पीतल के बर्तन यानी ठठेरों का काम, चमड़े का काम, लकड़ी के खिलौने और कारपेंटरी, परिधान निर्माण वगैरह। इनके अलावा छोटे स्तर पर सब्जी, फल, मूँगफली तथा अन्य खाद्य सामग्री के ठेले लगाने से लेकर छोटे बिसाती, हलवाई और नमकीन बनाने वाले तमाम तरह के परम्परागत काम हैं, जिनके साथ आधुनिक ज्ञान और मार्केटिंग के गुर जोड़े जाएं और साथ में माइक्रोफाइनेंस संस्थाओं की मदद मिले तो परिणाम मिलेंगे। हज्जाम, धोबी और चौकीदारी और जूतों की मरम्मत जैसे परम्परागत उद्यम अब नए रूप में सामने आ रहे हैं। नए विकसित होते शहरों को इन सेवाओं की भारी जरूरत है। हरकारों की पारम्परिक सेवा अब लॉजिस्टिक्स के रूप में काफी बड़े कारोबार के रूप में सामने आ रही है।
छत्तीसगढ़ में खेती-किसानी से जुड़ा त्योहार है पोला। भाद्र पक्ष की अमावस्या को यह त्योहार मनाया जाता है। पोला के कुछ ही दिनों के भीतर तीजा मनाया जाता है। विवाहित स्त्रियाँ पोला त्योहार के मौके पर अपने मायके में आती हैं। हर घर में पकवान बनते हैं। इन्हें मिट्टी के बर्तनों, खिलौनों भरते हैं ताकि बर्तन हमेशा अन्न से भरा रहे। बच्चों को मिट्टी के बैल, मिट्टी के खिलौने मिलते हैं। पुरुष अपने पशुधन को सजाते हैं, पूजा करते हैं। छोटे-छोटे बच्चे भी मिट्टी के बैलों की पूजा करते हैं। मिट्टी के बैलों को लेकर बच्चे घर-घर जाते हैं जहाँ उन्हें दक्षिणा मिलती है।
उत्तर भारत में और खासतौर से ब्रज के इलाके में शारदीय नवरात्र के दौरान शाम को टेसू और झाँझी गीत हवा में गूँजते हैं। लड़के टेसू लेकर घर-घर जाते हैं। बांस के स्टैण्ड पर मिट्टी की तीन पुतलियां फिट की जाती हैं। टेसू राजा, दासी और चौकीदार या टेसू राजा और दो दासियां। बीच में मोमबत्ती या दिया रखा जाता है। जनश्रुति के अनुसार टेसू प्राचीन वीर है। पूर्णिमा के दिन टेसू तथा झाँझी का विवाह भी रचाया जाता है। सिंधु घाटी की सभ्यता से लेकर अब तक भारत में उत्तर से दक्षिण तक मिट्टी और लकड़ी के खिलौने और बर्तन जीवन और संस्कृति के महत्वपूर्ण अंग के रूप में दिखाई पड़ते हैं। इनके समानांतर कारोबार चलता है, जो आमतौर पर गाँव और खेती से जुड़ा है। इसके पहले कि ये कलाएं पूरी तरह खत्म हो जाएं हमें उनके ने संरक्षकों को खोजना चाहे। देश और विदेश में मिट्टी के इन खिलौनों को संरक्षण देने वाले काफी लोग हैं। जरूरत है उन तक माल पहुँचाने की।
पारम्परिक सामग्री का उपयोग
गणेश चतुर्थी के मौके पर उत्तर भारत में भी घरों में गणेश प्रतिमा स्थापित करने का चलन बढ़ रहा है। दिल्ली के महत्वपूर्ण इलाकों, खासतौर से राजमार्गों के किनारे फुटपाथों पर बिकने वाली गणेश प्रतिमाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है। परम्परागत कुम्भकारी को आधुनिक प्लास्टर ऑफ पेरिस के साँचों और पेंट की मदद से नई परिभाषा देने का मौका मिल रहा है। परम्परागत दस्तकारी पर्यावरण-मित्र थी, पर उसके आधुनिक संस्करण के बारे में दावे के साथ यह नहीं कहा जा सकता। गणेशोत्सव और नवरात्रि के बाद प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी प्रतिमाएँ नदियों में विसर्जन के काफी समय बाद तक पानी में घुलती नहीं हैं। इन्हें आकर्षक बनाने के लिए लगे रासायनिक रंगों के साथ भी यही बात है। इनका असर पानी के स्रोत और जीव–जन्तुओं पर भी पड़ता है।
हमारी पार्थिव पूजा की परम्परा में मिट्टी की प्रतिमाएं पूजी जाती हैं। प्लास्टर ऑफ पेरिस ने कारोबार को आकर्षक बनाया है, पर उसके पर्यावरणीय खतरे हैं। थोड़ी सी सावधानी और प्रशिक्षण से इन खतरों से बचा जा सकता है। पर परम्परागत कौशलों पर असली खतरा बदलते वक्त और बदलते बाजार का है। पिछले साल लालकिले के प्राचीर से स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, मेड इन इंडिया के साथ-साथ दुनिया से कहें ‘मेक इन इंडिया।’ उधर सरसंघचालक मोहन भागवत ने विजयादशमी पर अपने संदेश में कहा, ‘हम अपने देवी और देवताओं की मूर्तियां व अन्य उत्पाद भी चीन से खरीद रहे हैं, जो ठीक नहीं है।’
जाने-अनजाने दीपावली की रात आप अपने घर में एलईडी के जिन नन्हें बल्बों से रोशनी करने वाले हैं उनमें से ज्यादातर चीन में बने होंगे। वैश्वीकरण की बेला में हमें इन बातों के निहितार्थ और अंतर्विरोधों को समझना चाहिए। दीपावली के मौके पर बाजारों में भारतीय खिलौने कम होते जा रहे हैं। उनकी जगह चीन में बने खिलौने ले रहे हैं। बात केवल खिलौनों तक सीमित नहीं है। भारतीय बाजार की जरूरतों को समझ कर माल तैयार करना और उसे वाजिब कीमत पर उपलब्ध कराना व्यावसायिक सफलता है। हमारे पास इस बात के प्रमाण हैं कि भारत की परम्परागत उद्यम-भावना कमजोर नहीं है। उसे उचित दिशा और थोड़ा सा सहारा चाहिए और जोखिमों से निपटने वाली मशीनरी भी। गरीब उद्यमी को इंश्योरेंस का सहारा नहीं मिलता।
नई तकनीक और मार्केटिंग
एक न्यूज़ चैनल पर नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास दीये बनाने वाले कुम्हारों और उनकी दिक्कतों पर आधारित खबर दिखाई जा रही थी। दीये बनाने वाले की पत्नी का कहना था कि दीयों की बिक्री घट रही है। ये कोई और काम जानते भी नहीं हैं। अब कर भी क्या सकते हैं? क्या हम इस बात का इंतज़ार कर रहे हैं कि चीन का कोई उद्यमी भारतीय बाज़ार पर रिसर्च करके मिट्टी के बर्तनों और दीयों का विकल्प तैयार करके लाए? इसके लिए जिम्मेदार कौन है? चीन, हमारे कुम्हार, हमारे उद्यमी या भारत सरकार? दीपक बनाने वाले दिल्ली के कुम्हार के हाथ की खाल मिट्टी का काम करते-करते गल गई थी। दस्तकारों को वक्त के साथ खुद को ढालना नहीं सिखा पा रहे हैं? या ऐसे हालात तैयार नहीं कर पा रहे हैं कि उनके हितों की रक्षा हो।
प्रधानमंत्री ने हुनर सिखाने का अभियान चलाया है। स्किल डेवलपमेंट। यह हुनर नए और पुराने हर तरह के हुनर का है। शहरी विकास के साथ इलेक्ट्रीशियनों, कारपेंटरों, लोहारों, रेफ्रिजरेशन और ऑटोमोबाइल मेकैनिकों, जूते बनाने वालों, रंगरेजों, ठप्पे की छपाई करने वालों, राज-मिस्त्रियों, बुनकरों और मिट्टी का काम करने वालों के रोजगार भी बढ़ने चाहिए। हाल के वर्षों में हमने किसानों की आत्महत्याओं की खबरों पर ध्यान दिया है। इनमें बुनकर, मछुआरे, नाव चलाने वाले और दूसरे घरेलू उद्योगों से जुड़े लोग भी शामिल हैं। परम्परागत शिल्पों के साथ आज भी काफी बड़ी आबादी की रोजी-रोटी जुड़ी है। उन्हें अपने काम के तरीके में थोड़ा बदलाव करके और उसकी तकनीक को सुधारकर बेहतर बाजार तक लाने की जरूरत है। हमें विलाप नहीं, विकल्प चाहिए। भावुक होने से कुछ नहीं होता। ग्राहक को अच्छी रोशनी की लड़ी मिलेगी तो वह भारतीय और चीनी का फर्क नहीं करेगा। थोड़ी सी सावधानी बरतें तो इन उद्यमों के लिए वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण बजाय खतरा बनने के बेहतर मौके तैयार पैदा कर सकते हैं।
परम्परागत शिल्पों के सामने भारत में ही नहीं सारी दुनिया में खतरा है। इनकी रक्षा दो कारणों से होनी चाहिए। इनसे जुड़े हुनर और धरोहर को बचाना एक काम है और साथ ही यह रोजगार का बहुत बड़ा माध्यम है। इनसे जुड़ी बड़ी आबादी को वैकल्पिक रोजगार देना आसान नहीं है। और वह इतनी जल्दी सम्भव भी नहीं। इसके संधिकाल में भी दो या तीन पीढ़ियाँ निकल जाएंगी।
मशीनीकरण खतरा या उपहार?
भारत के सकल घरेलू उत्पाद में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों का हिस्सा तकरीबन 8 फीसदी है। तकरीबन 3.6 करोड़ उद्यमों में इस वक्त तकरीबन 10 करोड़ के आसपास लोगों को रोजगार मिला है। यदि संगठित तरीके से प्रयास किया जाए तो इन उद्यमों और सेवाओं के मार्फत अगले दशक में दस करोड़ नए लोगों को रोजगार दिए जा सकते हैं। सरकारी कार्यक्रम सन 2022 तक तकरीबन पचास करोड़ लोगों को कौशल विकास प्रशिक्षण देने का है। पर ये अनुमान भी अधूरे हैं क्योंकि तमाम पारम्परिक कौशल उनमें लगाई गई पूँजी के आधार पर संगठित उद्यमों की परिभाषा में नहीं आते। इनमें ऐसे उद्यम भी शामिल हैं जिनका सालाना कारोबार 10 हजार रुपए का भी नहीं है। बहरहाल सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों का देश के निर्यात में लगभग 40 फीसदी का हिस्सा है। इनमें लगे ज्यादातर लोगों की इन कार्यों में पीढ़ी-दर पीढ़ी की महारत है। ये परिवार उस काम को बहुत कुशलता से करते हैं। कुम्भकारी को परम्परागत कौशल का इस्तेमाल आधुनिक पॉटरी में करने पर परम्परा से प्रशिक्षित कुशल कर्मी हमें मिलते हैं। उन्हें केवल नए उपकरणों की जानकारी देनी होती है।
जिन्हें हम परम्परागत कौशल कहते हैं उनमें से काफी के लिए बदलता आर्थिक परिदृश्य खतरे का संकेत लेकर आ रहा है। हमें पहली नजर में लगता है कि मशीनीकरण के कारण निर्माण उद्योगों से जुड़े राज-मिस्त्रियों की रोजी-रोटी परेशानी में पड़ेगी। बड़े निर्माण कार्यों में मशीनीकरण के कारण मानवीय कौशल की भूमिका कम हुई है। पर यह पूरा सच नहीं है। इन बड़े निर्माण कार्यों में भी पारम्परिक मिस्त्री काम कर रहे हैं। दूसरी और छोटे स्तर पर भवन निर्माण भी अभी चल ही रहा है। कारपेंटरी के काम में मशीनें आ गईं हैं, जो कारीगर के कुछ उन कामों को आसान बना रहीं हैं, जिनमें पहले काफी समय लगता था। दिक्कत उनकी कीमत को लेकर है। इस्तेमाल की समझ को लेकर नहीं। फर्नीचर के नए डिजाइन और उसमें लगने वाली सामग्री की जानकारी देने का इंतजाम होना चाहिए।
जूते बनाने के परम्परागत शिल्प से जुड़े लोग सिंथेटिक सामग्री के इस्तेमाल को न समझ पाने और नई डिजाइनों और फैशन की समझ विकसित न कर पाने के कारण बाजार में पिछड़ते जा रहे हैं। जोधपुरी मोजड़ी के दोनों पैर लम्बे अरसे तक एक जैसे ही होते थे। दाएं-बाएं का फर्क नहीं होता था। डिजाइन में नयापन लाने और उचित मार्केटिंग से देशी-विदेशी विदेशी बाजारों में मांग बढ़ी और जोधपुरी जूतियों के कारोबार में होने लगा। भारतीय बाजारों के अलावा दुबई, जर्मनी, अमेरिका व यूरोपीय देश जोधपुरी जूतियों के बड़े बाजार बनकर उभर हैं। आम तौर पर यह जूतियां ऊंट की खाल से बनाई जाती है। लेकिन अब कुछ लोग बकरी की खाल भी जूतियां बनाने में उपयोग करने लगे हैं। शेरवानी, अचकन, कुर्ता-पायजामा व जोधपुरी सूट के लिए खास तौर पर डिजाइनर जूतियां फैशन बनकर उभरीं हैं। लखनऊ की चिकनकारी को सुरक्षित करने और उससे जुड़े लोगों के आर्थिक हितों की रक्षा करने के लिए संगठित प्रयास के लाभ भी मिले हैं। इसके लिए मार्केटिंग रणनीति बनाने की जरूरत भी है, जिसमें आधुनिक फैशन डिजाइनरों के साथ काम किया जाना चाहिए।
युवा मानव संसाधन
परम्परागत कौशल विकास भी युवाओं के सहारे सम्भव है। सौभाग्य से इस समय हमारे पास अतुलनीय युवा मानव संसाधन है। हमारे पास 60.5 करोड़ लोग 25 वर्ष से कम आयु के हैं। रोजगार के लिए उपयुक्त कौशल प्राप्त करके ये युवा परिवर्तन के प्रतिनिधि हो सकते हैं। प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना (पीएमकेवीवाई) युवाओं के कौशल प्रशिक्षण के लिए एक प्रमुख योजना है। इसके तहत पाठ्यक्रमों में सुधार, बेहतर शिक्षण और प्रशिक्षित शिक्षकों पर विशेष जोर तौर-तरीकों में परिवर्तन भी शामिल है।
नवगठित कौशल विकास और उद्यम मंत्रालय राष्ट्रीय कौशल विकास निगम (एनएसडीसी) के माध्यम से इस कार्यक्रम को क्रियान्वित कर रहा है। इसके तहत 24 लाख युवाओं को प्रशिक्षण के दायरे में लाया जाएगा है। कौशल प्रशिक्षण नेशनल स्किल क्वालिफिकेशन फ्रेमवर्क (एनएसक्यूएफ) और उद्योग द्वारा तय मानदंडों पर आधारित होगा। केन्द्र और राज्य सरकारों, उद्योग और व्यावसायिक घरानों से विचार विमर्श कर भविष्य की मांग का आकलन किया जाएगा। कौशल विकास के लक्ष्य निर्धारित करते समय हाल में ही लागू किए गए प्रमुख कार्यक्रम 'मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, राष्ट्रीय सौर ऊर्जा मिशन और स्वच्छ भारत अभियान की मांगों को भी ध्यान में रखा जाएगा।
प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना के तहत मुख्य रूप से श्रम बाजार में पहली बार प्रवेश कर रहे लोगों पर जोर होगा और विशेषकर कक्षा 10 व 12 के दौरान स्कूल छोड़ गए छात्रों पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा। योजना का क्रियान्वयन एनएसडीसी के प्रशिक्षण साझेदारों द्वारा किया जाएगा। कुल 1120 करोड़ रुपए के खर्च से 14 लाख युवाओं को प्रशिक्षित किया जाएगा। इस दिशा में उठाये गए सभी उपायों को शामिल करने के लिए एक नई राष्ट्रीय कौशल व उद्यम विकास नीति भी तैयार की गई है। इस नीति के जरिए उच्च गुणवत्ता वाले कार्यबल के साथ विकास को बढ़ावा देने की रूपरेखा तैयार की जा रही है। वर्ष 2022 तक 50 करोड़ लोगों को प्रशिक्षित करने का लक्ष्य रखा गया है।
भारत सरकार के प्रकाशन विभाग की पत्रिका 'योजना' के अक्तूबर 2015 के अंक में प्रकाशित
ज्ञानवर्धक आलेख. प्रधानमंत्री जी ने अभी कहा था कि पब्लिक सेक्टर और प्राइवेट सेक्टर के अलावा अब एक और सेक्टर भी जुड़ गया है वह है पर्सनल सेक्टर जिस पर ध्यान देने की सबसे ज्यादा जरुरत है. अगर इस सेक्टर को जिन्हें बहुत ज्यादा पैसे की आवश्यकता नहीं है सिर्फ पच्चीस पचास हज़ार से भी उनका काम जोर पकड़ सकता है उन्हें बिना गारंटी के बैंक से सस्ता क़र्ज़ मिल सके. दूसरा बाज़ार तक इन लोगो की पहुँच बनाने की है. अगर इस विषय में कुछ पहल होती है सभी लोग खुशहाली का जीवन बसर कर सकेंगे और देश एक नयी प्रगति की राह पकड़ेगा..
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