Sunday, September 30, 2018

बदलते समाज के फैसले

सुप्रीम कोर्ट के कुछ बड़े फैसलों के लिए पिछला हफ्ता याद किया जाएगा। इस हफ्ते कम के कम छह ऐसे फैसले आए हैं, जिनके गहरे सामाजिक, धार्मिक, न्यायिक और राजनीतिक निहितार्थ हैं। संयोग से वर्तमान मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के कार्यकाल का यह अंतिम सप्ताह भी था। उनका कार्यकाल इसलिए महत्वपूर्ण रहा, क्योंकि वे देश के पहले ऐसे मुख्य न्यायाधीश हैं, जिनके खिलाफ संसद के एक सदन में महाभियोग की सूचना दी गई और यह मामला सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर भी गया। उनके कार्यकाल में कुछ ऐसे मामले आए, जिन्हें लेकर राजनीति और समाज में तीखे मतभेद हैं। इनमें जज लोया और अयोध्या के मामले शामिल हैं। ये बदलते भारतीय समाज के अंतर्विरोध हैं, जो अदालती फैसलों में नजर आ रहे हैं।

Tuesday, September 18, 2018

मोदी के ‘स्वच्छाग्रह’ के राजनीतिक मायने

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 सितंबर से स्वच्छता ही सेवा अभियानशुरू किया है, जो 2 अक्टूबर तक चलेगा. इस 2 अक्टूबर से महात्मा गांधी का 150वाँ जयंती वर्ष भी शुरू हो रहा है. व्यापक अर्थ में यह गांधी के अंगीकार का अभियान है, जिसके सामाजिक और राजनीतिक निहितार्थ भी हैं. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने गांधी, पटेल और लाल बहादुर शास्त्री जैसे नेताओं को अपने साथ जोड़ा है. उनके कार्यक्रमों पर चलने की घोषणा भी की है. यह एक प्रकार की 'सॉफ्ट राजनीति' है. इसका प्रभाव वैसा ही है, जैसा योग दिवस का है. मोदी ने गांधी को अंगीकार किया है, जिसका विरोध कांग्रेस नहीं कर सकती. 
अगले महीने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 31 अक्टूबर को स्टैच्यू ऑफ यूनिटी (सरदार वल्लभभाई पटेल की मूर्ति) का प्रतिमा का अनावरण भी करेंगे, जो दुनिया की सबसे ऊँची प्रतिमा है. पिछले चार साल में नरेंद्र मोदी सरकार ने न केवल कांग्रेस के सामाजिक आधार को ध्वस्त करने की कोशिश की है, बल्कि उसके लोकप्रिय मुहावरों को भी छीना है. उनके स्वच्छ भारत अभियान का प्रतीक चिह्न गांधी का गोल चश्मा है. गांधी के सत्याग्रह के तर्ज पर मोदी ने स्वच्छाग्रहशब्द का इस्तेमाल किया.

Sunday, September 16, 2018

‘आंदोलनों’ की सिद्धांतविहीनता

बंद, हड़ताल, घेराव, धरना और विरोध प्रदर्शन हमारी राजनीतिक संस्कृति के अटूट अंग बन चुके हैं। स्वतंत्रता आंदोलन से निकली इस राजनीति की धारणा है कि सार्वजनिक हितों की रक्षा का जिम्मा हरेक दल के पास है। ऐसा सोचना गलत भी नहीं है, पर सार्वजनिक हित-रक्षा के लिए हरेक दल अपनी रणनीति, विचार और गतिवधि को सही मानकर पूरे देश को अपनी बपौती मानना शुरू कर दिया है, जिससे आंदोलनों की मूल भावना पिटने लगी है। अक्सर वही आंदोलन सफल माना जाता है, जो हिंसा फैलाने में कामयाब हो। 
स्वतंत्रता आंदोलन से निकली राजनीति के अलावा देश की कम्युनिस्ट पार्टियों के पास रूस और चीन के उदाहरण हैं। कम्युनिस्ट पार्टियों के पास मजदूर और किसान संगठन हैं, जिन्हें व्यवस्था से कई तरह की शिकायतें हैं। देश की प्रशासनिक व्यवस्था से नागरिकों को तमाम शिकायतें हैं। इनका निवारण तबतक नहीं होता जबतक आंदोलन का रास्ता अपनाया न जाए। यह पूरी बात का एक पहलू है। इन आंदोलनों की राजनीतिक भूमिका पर भी ध्यान देना होगा।

Tuesday, September 11, 2018

सामाजिक बदलाव में नागरिक समाज की भूमिका


धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ का फैसला आने के बाद सवाल पैदा होता है कि इसे क्या हम समलैंगिक रिश्तों की सर्वस्वीकृति मानें? क्या यह वास्तव में एक नई आजादी है, जैसाकि एक अंग्रेजी अखबार ने शीर्षक दिया है इंडिपेंडेंस डे-2 यानी कि यह दूसरा स्वतंत्रता दिवस है। इस किस्म की प्रतिक्रियाएं अंग्रेजी मीडिया में ज्यादा हैं। इनसे देखने से लगता है कि कोई बड़ी क्रांति हो गई है। इसके विपरीत परम्परावादियों की प्रतिक्रिया निराशा से डूबी है। उन्हें लगता है कि व्यवस्था ने पापाचार को वैध और सही मान लिया है। एक तीसरी प्रतिक्रिया भी सम्भव है कि ठीक है कि समलैंगिकता को आपराधिक दायरे से बाहर रखें, पर यह समाज को स्वीकार्य नहीं है।

Sunday, September 9, 2018

समलैंगिकता की हकीकत को स्वीकारें

धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ का फैसला आने के बाद तीन किस्म की प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। एक प्रतिक्रिया इस फैसले के स्वागत में है और दूसरी इसके विरोध में। अंग्रेजी के कुछ अखबारों और चैनलों को देखने से लगता है कि कोई बड़ी क्रांति हो गई है। एक अखबार ने शीर्षक दिया है इंडिपेंडेंस डे-2 यानी कि यह दूसरा स्वतंत्रता दिवस है। इसके विपरीत शुद्धतावादियों की प्रतिक्रिया निराशा से डूबी है। उन्हें लगता है कि व्यवस्था ने पापाचार को वैध और सही मान लिया है। एक तीसरी प्रतिक्रिया है कि ठीक है कि समलैंगिकता को आपराधिक दायरे से बाहर रखें, पर यह समाज को स्वीकार्य नहीं है।
हमारे समाज को ही नहीं, अभी यह दुनिया के तमाम समाजों को स्वीकार नहीं है। सच यह है कि प्राकृतिक रूप से विषमलिंगी सम्बंध ही सहज हैं। पर यह भी सच है कि दुनिया के सभी समाजों में आज से नहीं हजारों साल से समलैंगिक सम्बंध होते रहे हैं। इन्हें रोकने के लिए अनेक देशों में कानून हैं और सजाएं दी जाती हैं। हमारे देश में कुछ समय से समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर लाने की मुहिम चल रही थी। इसके पीछे बुनियादी तर्क यह है कि यह व्यक्ति के निजी चयन का मामला है। इसे अपराध के दायरे से बाहर लाना चाहिए। हमारी इसी अदालत में 2013 में इस तर्क को अस्वीकार कर दिया, पर अब स्वीकार किया है, तो उसपर भी विचार करना चाहिए। हकीकत को सभी स्तरों पर स्वीकार किया जाना चाहिए।
व्यावहारिक सच यह है कि देर-सबेर यह फैसला होना ही था। पिछले साल हमारी सुप्रीम कोर्ट ने प्राइवेसी को मौलिक अधिकार का दर्जा दिया था। उस निर्णय की यह तार्किक परिणति है। ऐसा नहीं है कि इस फैसले के बाद पूरा समाज समलैंगिक हो जाएगा। अंततः यह समाज पर निर्भर करेगा कि वह किस रास्ते पर जाना चाहता है। समाज की मुख्य धारा इसे स्वीकार नहीं करेगी, पर कोई इस रास्ते पर जाता है, तो उसे प्रताड़ित भी नहीं करेगी। भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के मुताबिक कोई किसी पुरुष, स्त्री या पशुओं से प्रकृति की व्यवस्था के विरुद्ध संबंध बनाता है तो यह अपराध होगा। इस अपराध के लिए उसे उम्रकैद या 10 साल तक की सजा के साथ आर्थिक दंड का भागी होना पड़ेगा। इतनी भारी सजा के बोझ से वे लोग अब बाहर आ जाएंगे, जो इसके दबाव में थे। पर यह बहस जारी रहेगी कि समलैंगिकता प्राकृतिक गतिविधि है या नहीं।