अकल्पनीय
मानवीय रिश्तों की कहानियाँ गढ़ना फिल्म निर्माता महेश भट्ट का शौक है. उनमें
कल्पनाशीलता का पुट होता है, यानी जो नहीं है फिर भी रोचक है. पर हाल में शीना
हत्याकांड की खबर सुनने के बाद वे भी विस्मय में पड़ गए. उनका कहना है, मैं तकरीबन
इसी प्लॉट पर कहानी तैयार कर रहा था. उसका शीर्षक है ‘अब रात गुजरने वाली है.’ अक्सर फिल्मी कहानियां जिंदगी के पीछे
चलती हैं, परंतु
इस मामले में घटनाक्रम कहानी से आगे चल रहा है.
पिछले साल सोलहवीं लोकसभा के पहले सत्र
में नई सरकार की ओर से राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के अभिभाषण में बदलते भारत का नक्शा पेश किया गया था। नरेंद्र
मोदी के आलोचकों ने तब भी कहा था और आज भी कह रहे हैं कि यह एक राजनेता का सपना
है। इसमें परिकल्पना है, पूरा करने की तजवीज नहीं। देश में एक सौ स्मार्ट सिटी का
निर्माण, अगले आठ साल में हर परिवार को पक्का मकान, डिजिटल
इंडिया, गाँव-गाँव तक ब्रॉडबैंड पहुँचाने का वादा और हाई स्पीड ट्रेनों के हीरक
चतुर्भुज तथा राजमार्गों के स्वर्णिम चतुर्भुज के अधूरे पड़े काम को पूरा करने का
वादा वगैरह। सरकार की योजनाएं कितनी व्यावहारिक हैं या अव्यावहारिक हैं इनका पता
कुछ समय बाद लगेगा, पर तीन योजनाएं ऐसी हैं जिनकी सफलता या विफलता हम अपनी आँखों
से देख पाएंगे। ये हैं आदर्श ग्राम योजना, डिजिटल इंडिया और अब 100 स्मार्ट सिटी।
बात कितनी भी ख़राब लगे, पर इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय चुनाव दुनिया में काले पैसे से चलने वाली सबसे बड़ी गतिविधि है. यह बात हमारे लोकतंत्र की साख को बट्टा लगाती है.
अफ़सोस इस बात का है कि मुख्यधारा की राजनीति ने व्यवस्था को पारदर्शी बनाने के बजाय इन कोशिशों का ज़्यादातर विरोध किया है. ताज़ा उदाहरण है केंद्र सरकार का सुप्रीम कोर्ट में दाख़िल हलफ़नामा.
सरकार ने राजनीतिक पार्टियों को आरटीआई के दायरे में लाने का विरोध किया है. हलफ़नामे में कहा गया है कि पार्टियां पब्लिक अथॉरिटी नहीं हैं.
सूचना आयोग का फ़ैसला
सन 2013 में केंद्रीय सूचना आयोग ने इन दलों को आरटीआई के तहत लाने के आदेश जारी किए थे.
सरकार और पार्टियों ने आदेश का पालन नहीं किया. उसे निष्प्रभावी करने के लिए सरकार ने संसद में एक विधेयक भी पेश किया, पर जनमत के दबाव में उसे स्थायी समिति के हवाले कर दिया गया. यह मामला अभी तार्किक परिणति तक नहीं पहुँचा है.
उसी साल सुप्रीम कोर्ट ने दाग़ी सांसदों के बाबत फ़ैसला किया था. पार्टियों ने उसे भी नापसंद किया.
संसद के मॉनसून सत्र के पहले हुई सर्वदलीय बैठक में एक स्वर से पार्टियों ने अदालती आदेश को संसद की सर्वोच्चता के लिए चुनौती माना.
सरकार ने उस फ़ैसले को पलटने वाला विधेयक पेश करने की योजना भी बनाई, पर जनमत के दबाव में झुकना पड़ा.
प्रो. युवाल नोह हरारी यरुसलम विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाते हैं. उनके लिए इतिहास संस्कृति के जन्म के साथ शुरू नहीं होता बल्कि वह उसे बहुत-बहुत पीछे ब्रहमांड के उद्भव तक ले जाते हैं. इतिहास को जैविक उद्विकास के नज़रिए (ईवोल्युशनरी पर्सपेक्टिव) से देखने का उनका तरीका उन्हें ख़ास बनाता है. उनका एक लेख (क्या 21वीं सदी में किसी काम का रह जाएगा इंसान) पहले भी आप जिज्ञासा में पढ़ चुके हैं, जिसे हमारे मित्र आशुतोष उपाध्याय ने साझा किया था. आशुतोष जी ने इस बार TED TALKS में दिए गए उनके हालिया भाषण का अनुवाद साझा किया है, जो कुछ रोचक बातों की ओर इशारा करता है. क्या वजह है कि शेर और हाथी जैसे जानवर इंसान के मुकाबले कमजोर साबित होते हैं.
सत्तर हजार साल पहले हमारे पुरखे मामूली जानवर थे. प्रागैतिहासिक इंसानों के बारे में सबसे महत्वपूर्ण बात हम यही जानते हैं कि वे ज़रा भी महत्वपूर्ण नहीं थे. धरती में उनकी हैसियत एक जैली फिश या जुगनू या कठफोड़वे से ज्यादा नहीं थी. इसके विपरीत, आज हम इस ग्रह पर राज करते हैं. और सवाल उठता है: वहां से यहां तक हम कैसे पहुंच गए? हमने खुद को अफ्रीका के एक कोने में अपनी ही दुनिया में खोए रहने वाले मामूली वानर से पृथ्वी के शासक में कैसे बदल डाला?
लिओनी मुलर 300 किमी की रफ़्तार से चलते हुए नहाती-धोती है और अपनी पढ़ाई-लिखाई भी करती है.
आशुतोष उपाध्याय ने आज सुबह की मेल से यह खबर भेजी है जिसे उन्होंने 25 अगस्त 2015 के हिन्दू से लिया है और सुबह ही अनुवाद करके भेजा है। आशुतोष ने लिखा है, आज सुबह-सुबह 'द हिन्दू' अखबार में इस ख़बर को पढ़ते हुए लगा कि हम जीवन को कितने सीमित दायरे में समेट लेते हैं. खुशियां सुविधाओं की कभी न ख़त्म होने वाली दौड़ के अंत में नहीं बल्कि हमारे आस-पास किसी न किसी कोने में हर वक्त मौजूद रहती हैं. बशर्ते हमें उन्हें ढूढ़ने की फुर्सत हो!
कोलोन (जर्मनी). दूसरे यात्री जब ट्रेन से उतरकर अपने घर जा रहे होते हैं, जर्मनी की कॉलेज स्टूडेंट लिओनी मुलर अपनी सीट पर जमी रहती है. ऐसा इसलिए क्योंकि ट्रेन ही उसका घर है. ट्रेन उसका अपार्टमेंट है और वह कहती है कि उसे यही जमता है.
मुलर ने पिछले बसंत में अपने अपार्टमेंट को छोड़ दिया था. वह कहती है, "असल में मकान मालिक से साथ खटपट से इसकी शुरुआत हुई. वाशिंगटन पोस्ट अखबार को भेजे ई-मेल में वह लिखती है, "मैंने तभी तय कर लिया था कि अब यहां नहीं रहना है. और फिर मुझे लगा अब मुझे किसी भी घर में नहीं रहना है."
उसने ट्रेन का एक विशेष पास खरीदा, जिसके एवज में वह देश की किसी भी ट्रेन में सफ़र कर सकती है. अब मुलर ट्रेन के बाथरूम में नहाती-धोती है और 300 किमी प्रतिघंटा की रफ़्तार से दौड़ती हुई ट्रेन में ही अपनी पढ़ाई-लिखाई भी करती है. वह कहती है कि जब उसने घर को तिलांजलि दी, तब उसे आज़ादी के इस जायके का अहसास हुआ है. वह बताती है, "मैं ट्रेन में सचमुच घर जैसा महसूस करती हूं. पहले से कहीं ज्यादा दोस्तों से मिलती हूं. कहीं ज्यादा जगहों की सैर करती हूं. यह हर वक्त छुट्टियां मनाने जैसा है."
जर्मनी के एक टीवी शो को दिए गए इंटरव्यू में वह कहती है, "मैं यहां पढ़ती-लिखती रहती हूं. खिड़की से नजारों का आनंद लेती हूं और रोज नए-नए भले मानुषों से मिलती हूं. ट्रेन में हर वक्त कुछ न कुछ करने को होता है." बेशक इस बदलाव से मुलर की ज़िन्दगी उसके पिट्ठू तक सिमट गयी है, जिसमें उसके कपड़े, टेबलेट कंप्यूटर, किताबें और सेनिटरी बैग रहता है.
ट्रेन में घर बनाना उसे सस्ता भी पड़ता है. पिछले अपार्टमेंट के लिए जहां वह 450 डॉलर चुकाती थी, ट्रेन का पास मात्र 380 डॉलर में बनता है. हालांकि वह पैसा बचाने के चक्कर में ट्रेन में नहीं आई.
वाशिंगटन पोस्ट में वह कहती है, "मैं लोगों को प्रेरित करना चाहती हूं कि अपनी उन आदतों और तौर-तरीकों पर पुनर्विचार करें जिन्हें वह सामान्य मानकर स्वीकार कर चुके हैं. जितना आप सोचते हैं ज़िन्दगी में उनसे कहीं ज्यादा संभावनाएं और विकल्प मौजूद हैं. अगला रोमांच आपके सामने किसी कोने में छुपा हो सकता है, बशर्ते आप उसे अपना बनाना चाहें."
मुलर अक्सर रात को सफ़र करती है. कभी-कभी वह रिश्तेदारों और दोस्तों के घर पर भी झपकी ले लेती है. कभी-कभी उसकी मां, दादी या उसका बॉयफ्रेंड उसे अपने पास बुला लेते हैं.
('द हिन्दू' के 25 अगस्त के अंक में अंतिम पृष्ठ पर छपी खबर)
वन रैंक, वन पेंशन को लेकर विवाद अनावश्यक रूप से बढ़ता जा रहा है। सरकार को यदि इसे देना ही है तो देरी करने की जरूरत नहीं है। साथ ही पूर्व सैनिकों को भी थोड़ा धैर्य रखना चाहिए। जिस चीज के लिए वे तकरीबन चालीस साल से लड़ाई लड़ रहे हैं, उसे हासिल करने का जब मौका आया है तब कड़वाहट से क्या हासिल होगा? प्रधानमंत्री की इच्छा थी कि स्वतंत्रता दिवस के भाषण में इस घोषणा को शामिल किया जाए, पर अंतिम समय में सहमति नहीं हो पाई। यह बात पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वीपी मलिक ने बताई है, जो इस मामले में मध्यस्थता कर रहे थे। यह तो जाहिर है कि सरकार के मन में इसे लागू करने की इच्छा है।
धरने पर बैठे पूर्व फौजियों ने पहले माना था कि वे अपने विरोध को ज्यादा नहीं बढ़ाएंगे लेकिन भूख हड़ताल पर बैठे लोगों ने आंदोलन वापस लेने से इंकार कर दिया। बल्कि क्रमिक अनशन को आमरण अनशन में बदल दिया। वे कहते हैं कि यह पैसे की लड़ाई नहीं है, बल्कि हमारे सम्मान का मामला है। इस बीच पूर्व सैनिकों के साथ दिल्ली पुलिस ने जो अभद्र व्यवहार किया, उसने आग में घी डालने का काम किया। हम इस तरह सैनिकों का सम्मान करते हैं? कह सकते हैं कि डेढ़ साल से सरकार क्या कर रही थी? पर ऐसा भी नहीं कि वह कन्नी काट रही है।
भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत शुरू होने की सम्भावना जन्म ले रही थी कि उसकी अकाल मौत हो गई। यह मामला अब वर्षों नहीं तो कम से कम महीनों के लिए टल गया। भारत की तरफ से अलबत्ता पिछले साल अगस्त में जो लाल रेखा खींची गई थी, वह और गाढ़ी हो गई है। इसका मतलब है कि भविष्य में बात तभी होगी जब पाकिस्तान बातचीत के पहले और बाद में हुर्रियत के नेताओं से बात न करने की गारंटी देगा। या भारत को अपनी यह शर्त हटानी होगी।
23 अगस्त को भारत के सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और पाकिस्तान के विदेशी मामलों के सलाहकार सरताज़ अजीज की बातचीत के ठीक पहले हुर्रियत के प्रतिनिधियों के साथ बातचीत रखकर पाकिस्तान ने क्या संदेश दिया है? एक, कश्मीर हमारी विदेश नीति का पहला मसला है, भारत गलतफहमी में न रहे। समझना यह है कि यह बात को बिगाड़ने की कोशिश है या सम्हालने की? भारत सरकार ने बावजूद इसके बातचीत पर कायम रहकर क्या संदेश दिया है? इस बीच हुर्रियत के नेताओं को नजरबंद किए जाने की खबरें हैं, पर ऐसा लगता है कि हुर्रियत वाले भी चाहते हैं कि उनके चक्कर में बात होने से न रुके। कश्मीर का समाधान तभी सम्भव है जब सरहद के दोनों तरफ की आंतरिक राजनीति भी उसके लिए माहौल तैयार करे।
संसदीय
गतिरोध और राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा के गिरते ग्राफ की पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी की यूएई यात्रा क्या मददगार साबित होगी? इस यात्रा से भारत में बेहतर
पूँजी निवेश, इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में निर्माण की सम्भावनाओं और खाड़ी के
देशों में रहने वाले भारतीयों के लिए सेवा के अवसर बढ़ेंगे. पर केवल इतना ही नहीं.
पश्चिम एशिया में शक्ति संतुलन बदल रहा है, जिसके बरक्स भारत को अपनी भूमिका में
भी बदलाव लाना होगा. सवाल है कि अचानक हुई इस यात्रा का मकसद क्या था.
जब हम 68 साल की आज़ादी पर नजर डालते
हैं तो लगता है कि हमने पाया कुछ नहीं है। केवल खोया ही खोया है। पर लगता है कि पिछले
पाँच से दस साल में खोने की रफ्तार बढ़ी है। राजनीति, प्रशासन, बिजनेस और सांस्कृतिक जीवन यहाँ तक कि
खेल के मैदान में भी भ्रष्टाचार है। जनता अपने ऊपर नजर डाले तो उसे अपने चेहरे में
भी भ्रष्टाचार दिखाई देगा। कई बार हम जानबूझकर और कई बार मजबूरी में उसका सहारा
लेते हैं। भ्रष्टाचार केवल कानूनी समस्या नहीं जीवन शैली है। इसका मतलब समझें।
इतिहास की यात्रा पीछे नहीं जाती। मानवीय
मूल्य हजारों साल पहले बन गए थे, पर उन्हें लागू करने की लड़ाई लगातार चलती रही है
और चलती रहेगी। भ्रष्टाचार एक बड़ा सत्य है, पर ऐसी व्यवस्थाएं, ऐसे समाज और ऐसे
व्यक्ति भी हैं जो इसके खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं। इसका इलाज तभी सम्भव है जब
व्यवस्था पारदर्शी और न्यायपूर्ण हो। जब तक व्यक्तियों के हाथों में विशेषाधिकार
हैं, भेदभाव का अंदेशा रहेगा।
उम्मीद नहीं है कि संसद के मानसून सत्र के आखिरी दिन चमत्कार होगा. जो दो महत्वपूर्ण बिल सामने हैं, उनमें से भूमि अधिग्रहण विधेयक अगले सत्र के लिए टल चुका है.
राज्यसभा की प्रवर समिति के सुझावों को शामिल करके जो जीएसटी विधेयक पेश किया गया है, उस पर कांग्रेस ने विचार करने से ही इनकार कर दिया है.
अब आख़िरी दिन यह पास हो पाएगा इसकी उम्मीद कम है.
इस सत्र को नकारात्मक बातों के लिए याद किया जाएगा. राज्यों में आई बाढ़, महंगाई और गुरदासपुर के चरमपंथी हमले जैसे सवालों की अनदेखी के लिए भी.
अब सोचना यह है कि अगले सत्र में क्या होगा? सुषमा स्वराज का इस्तीफा नहीं हुआ तो क्या शीतकालीन सत्र भी जाम होगा?
शायद बिहार के चुनाव परिणाम भावी राजनीति की दिशा तय करेंगे.
शून्य संसद
इस सत्र में पास करने के लिए आठ विधेयक थे. सबसे महत्वपूर्ण थे जीएसटी, भूमि अधिग्रहण, व्हिसल ब्लोवर संरक्षण और भ्रष्टाचार रोकथाम (संशोधन) विधेयक.
भूमि अधिग्रहण विधेयक पर संयुक्त समिति का प्रतिवेदन अब शीत सत्र में ही पेश होगा, इसलिए आखिरी दिन उसकी संभावना नहीं है.
मानसून सत्र में 11 अगस्त तक संसद के दोनों सदनों में 7 विधेयक पेश हुए. तीन वापस लिए गए और चार पास हुए. इनमें से केवल दिल्ली हाईकोर्ट संशोधन बिल ही दोनों सदनों से पास हुआ है. शेष तीन लोकसभा से पास हुए हैं.
इस लोकसभा का पहला साल संसदीय काम के लिहाज से अच्छा रहा. पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च के अनुसार इस साल का बजट सत्र पिछले 15 साल में सबसे अच्छा था.
लोकसभा ने अपने निर्धारित समय से 125 फीसदी और राज्यसभा ने 101 फीसदी काम किया. पर मानसून सत्र में ऐसा नहीं हो सका.
अखाड़ा राजनीति
कांग्रेस की छापामार शैली ने नरेंद्र मोदी की दृढ़ता और भाजपा के संख्याबल में सेंध लगा दी. पर गारंटी नहीं कि यह राजनीति वोटर को भी भाएगी और इसके सहारे क्षीणकाय कांग्रेस अपने पैरों पर खड़ी हो जाएगी.
सवाल यह भी पूछा जाएगा कि इस राजनीति के लिए क्या संसद का इस्तेमाल उचित है?
सवाल भाजपा को लेकर भी हैं. गतिरोध तोड़ने के लिए उसने भी कुछ नहीं किया. प्रधानमंत्री सामने नहीं आए. लोकसभा में कार्य-स्थगन के जवाब में उनके सामने आने की उम्मीद थी, जो नहीं हुआ.
भाजपा ने लंबे समय तक विदेशी पूँजी निवेश, बैंकिग और इंश्योरेंस-सुधार और जीएसटी के रास्ते में भी अड़ंगे लगाए थे. संसदीय पवित्रता की दुहाई वह किस मुँह से दे सकती है?
राष्ट्रगीत में भला कौन वह/ भारत भाग्य विधाता है/ फटा सुथन्ना पहने जिसका/ गुन हरचरना गाता है।
कविता की अंतिम पंक्तियाँ हैं :-
कौन-कौन है वह जन-गण-मन/ अधिनायक वह महाबली/ डरा हुआ मन बेमन जिसका/ बाजा रोज़ बजाता है।
वह भारत भाग्य विधाता इस देश की जनता है। क्या उसे जागी हुई जनता कहना चाहिए? जागने का मतलब आवेश और तैश नहीं है। अभी हम या तो खामोशी देखते हैं या भावावेश से। दोनों ही गलत हैं। सही क्या है, यह सोचने का समय आज है। आप सोचें कि 9 और 15 अगस्त की दो क्रांतियों का क्या हुआ।
अगस्त का यह महीना चालीस के दशक की तीन तारीखों के लिए खासतौर से याद किया जाता है। सन 1942 की 9 अगस्त से शुरू हुआ ‘अंग्रेजो, भारत छोड़ो’ आंदोलन 15 अगस्त 1945 को अपनी तार्किक परिणति पर पहुँचा था। भारत आज़ाद हुआ। 1942 से 1947 के बीच 1945 के अगस्त की दो तारीखें मानवता के इतिहास की क्रूरतम घटनाओं के लिए याद की जाती हैं। 6 अगस्त 1945 को जापान के हिरोशिमा शहर पर एटम बम गिराया गया। फिर भी जापान ने हार नहीं मानी तो 9 अगस्त को नगासाकी शहर पर बम गिराया गया। इन दो बमों ने विश्व युद्ध रोक दिया। इस साल दुनिया उस बमबारी की सत्तरवीं सालगिरह मना रही है।
नवम्बर 2007 में संघवाद पर दिल्ली में हुए अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने कहा कि संघवाद को अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद तथा मौसम परिवर्तन जैसी मानव-जनित चुनौतियों से निपटने के उपाय भी खोजने होंगे। नरेंद्र मोदी सरकार ‘सहकारी संघवाद’ की बात करती है। उसका आशय भी समस्याओं के समाधान मिलकर खोजने वाली व्यवस्था से है। यह एक आदर्श स्थिति है। भारत जैसे बहुरंगी समाज के लिए संघीय ढाँचा अनिवार्यता भी है। कई बार हमारी संघ-राज्य राजनीति समाधान बनने के बजाय समस्या बन जाती है।
भारत में संघीय व्यवस्था तीन सतह पर काम करती है। केंद्र, राज्य और केंद्र शासित क्षेत्र। संविधान संशोधन के बाद पंचायती राज भी इस व्यवस्था में शामिल हो गया है। संविधान के अनुच्छेद 268 से 281 तक राज्यों और केन्द्र के बीच राजस्व संग्रहण और वितरण की व्यवस्था परिभाषित की गई है। संविधान के अनुच्छेद 352 से 360 तक आपात उपबंधों की व्यवस्था है। अनुच्छेद 355 बाहरी आक्रमण और आंतरिक अशांति से निपटने की जिम्मेदारी केन्द्र को देता है।
नगालैंड का शांति समझौता ऐसे समय में हुआ है, जब दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के साथ भारत अपने रिश्तों को नए सिरे से परिभाषित कर रहा है. उधर का रास्ता पूर्वोत्तर से होकर गुजरता है, जो देश का सबसे संवेदनशील इलाका है. सब ठीक रहा तो यह समझौता केवल नगालैंड की ही नहीं पूरे पूर्वोत्तर की कहानी बदल सकता है. एनएससीएन (आईएम) के साथ समझौते की जिस रूपरेखा पर दस्तखत किए गए हैं, उसकी शर्तों की जानकारी अभी नहीं है। उम्मीद है कि 18 साल के विचार-विमर्श ने इस समझौते की बुनियाद पक्की बना दी होगी.
सरकार ने इस मामले में काफी सावधानी से कदम रखे हैं. समझौते पर दस्तखत से पहले प्रधानमंत्री ने सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, मल्लिकार्जुन खड़गे, मुलायम सिंह यादव, मायावती, शरद पवार, सीताराम येचुरी, ममता बनर्जी, जे जयललिता, नगालैंड के मुख्यमंत्री टीआर जेलियांग और दूसरे राजनेताओं के साथ बात की थी. इसलिए समझौते को लेकर आंतरिक राजनीति में विवाद का अंदेशा नहीं है. अलबत्ता इसके पूरी तरह लागू होने से पहले कुछ सवाल जरूर हैं.
कांग्रेस का संसदीय गतिरोध कार्यक्रम कमज़ोर हो ही रहा था कि कांग्रेस के 25 सदस्यों के निलंबित होने से आंदोलन में जान आ गई है। क्या कांग्रेस इसे किसी तार्किक परिणति तक ले जाने में कामयाब होगी? अगले पाँच दिन तक लोकसभा के बहिष्कार से कांग्रेस को मीडिया कवरेज का अवसर मिलेगा, पर इससे संसदीय कर्म को ठेस लगेगी। दूसरी ओर बीजेपी के रुख में भी नरमी नहीं है। भाजपा संसदीय दल की बैठक में कांग्रेस के आंदोलन के विरोध में प्रस्ताव पास हुआ है। आर्थिक सुधारों से जुड़े विधेयकों के रास्ते में अड़ंगा लगने पर नुकसान देश का होगा। अब लगता नहीं कि संसद का शेष बचा सत्र कोई महत्वपूर्ण सकारात्मक कार्य कर पाएगा।
देखना यह है कि क्या कांग्रेस पार्टी अपने आंदोलन के पक्ष में विपक्ष के दूसरे दलों से कितना समर्थन जुटा पाती है। साथ ही पार्टी ने इसे किस हद तक ले जाने की योजना बनाई है। सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे और शिवराज सिंह चौहान के इस्तीफे की माँग को लेकर पार्टी का विरोध प्रदर्शन मंगलवार को भी जारी है। लोकसभा में अपने 25 सांसदों को निलंबित किए जाने के विरोध में सोनिया गांधी के नेतृत्व में सांसदों ने संसद के बाहर धरना प्रदर्शन शुरू कर दिया है। सभी सांसद गांधी प्रतिमा के नीचे धरने पर बैठे हुए हैं। उन्होंने बाहों में काली पट्टियाँ बाँध रखी हं। पार्टी के राज्यसभा सांसद भी धरने में शामिल हैं। सोनिया गांधी और राहुल गांधी समेत सभी सांसदों ने बांह पर काली पट्टी बांधकर प्रदर्शन कर रहे हैं।
धरने में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पूर्व पीएम मनमोहन सिंह, गुलाम नबी आजाद, सत्यव्रत चतुर्वेदी, प्रमोद तिवारी, आनंद शर्मा, एके एंटनी, अश्वनी कुमार, राजीव शुक्ला, मल्लिकार्जुन खड़गे, अंबिका सोनी, राज बब्बर, शैलजा कुमारी, ज्योतिरादित्य सिंधिया, अहमद पटेल सहित तमाम सांसद शामिल हैं। सभी नेताओं ने हाथ पर काली पट्टी बांध रखी है। सांसदों का कहना है कि सरकार की तानाशाही के खिलाफ लगातार 5 दिन तक धरना दिया जाएगा।
कल लोकसभा स्पीकर ने 25 कांग्रेस सांसदों को 5 दिन के लिए निलंबित कर दिया था। कांग्रेस ने इसे विपक्ष की आवाज दबाने की साजिश करार दिया है। वहीं आज बीजेपी संसदीय दल की बैठक भी हो रही। माना जा रहा है कि इस बैठक में लोकसभा से पांच दिनों के लिए निलंबित सांसदों के बाद पैदा हालातों पर रणनीति तय की जाएगी।
25 निलंबित सांसदों के समर्थन में कांग्रेस सहित जिन 9 पार्टियों ने अगले पाँच दिन तक लोकसभा का बहिष्कार करने का फैसला किया है उनके नाम हैं- तृणमूल कांग्रेस, सीपीएम, सीपीआई, आरएसपी, जेडीयू, एनसीपी, मुस्लिम लोग और आम आदमी पार्टी। वे इस सिलसिले में समाजवादी पार्टी से भी बात कर रहे हैं। आज सुबह मुलायम सिंह मीडिया के सामने आए और उन्होंने निलंबन का विरोध किया। इस सत्र में पास होने के लिए जो मुख्य विधेयक लंबित हैं उनके नाम हैं- जीएसटी, भूमि अधिग्रहण, रियल एस्टेट्स रेग्युलेटर बिल, भ्रष्टाचार निवारण (संशोधन) विधेयक, ह्विसिल ब्लोवर संरक्षण (संशोधन), बाल श्रम निषेध एवं नियमन विधेयक, किशोर अपराध (बाल संरक्षण) तथा नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट (संशोधन) विधेयक।
संसदीय गतिरोध को तोड़ने के लिए सोमवार को होने वाली कोशिशें सफल नहीं हुईं तो 'मॉनसून सत्र' के शेष दिन भी निःशेष मानिए.
सरकार ने सोमवार को सर्वदलीय बैठक बुलाई है. लेकिन उसके पहले सुबह कांग्रेस संसदीय दल की बैठक है.
फ़िलहाल स्पष्ट नहीं है कि कांग्रेस सर्वदलीय बैठक में भाग लेगी या नहीं. दोनों बैठकों से ही पता लगेगा कि राजनीति किस करवट बैठने वाली है. कांग्रेस चाहती है कि प्रधानमंत्री इस सिलसिले में कोई ठोस फॉर्मूले का सुझाव दे सकते हैं.
किसका फायदा?
संसदीय सत्र का इस तरह फना हो जाना किसके फायदे में जाएगा? फिलहाल कांग्रेस ने बीजेपी के किले में दरार लगा दी है. लेकिन बीजेपी को जवाब के लिए उकसाया भी है.
दोनों ने इसका जोड़-घटाना जरूर लगाया है. देखना यह भी होगा कि बाकी दल क्या रुख अपनाते हैं. वामपंथी दल इस गतिरोध में कांग्रेस का साथ दे रहे हैं, लेकिन बाकी दलों में खास उत्साह नज़र नहीं आता.
सवाल है कि संसद का नहीं चलना नकारात्मक है या सकारात्मक?
बीजेपी ने इसे दुधारी तलवार की तरह इस्तेमाल किया है. यूपीए-दौर में उसने इसका लाभ लिया था और अब वह कांग्रेस को 'विघ्न संतोषी' साबित करना चाहती है, उन्हीं तर्कों के साथ जो तब कांग्रेस के थे.
कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद ने कहा है, "हम महत्वपूर्ण विधेयकों को पास करने के पक्ष में हैं, लेकिन सर्वदलीय बैठक का एजेंडा होना चाहिए कि सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे और शिवराज सिंह चौहान के खिलाफ क्या कार्रवाई होगी."
सरकार चाहती है कि इस सत्र में कम से कम जीएसटी से जुड़ा संविधान संशोधन पास हो जाए, लेकिन इसकी उम्मीद नहीं लगती.
आक्रामक रणनीति
कांग्रेस को लगता है कि राष्ट्रीय स्तर पर प्रासंगिक बने रहने के लिए उसे संसद में आक्रामक रुख रखना होगा. लेकिन देखना होगा कि क्या वह सड़क पर भी कुछ करेगी या नहीं. और यह भी कि उसका सामर्थ्य क्या है.
यूपीए के दौर में बीजेपी के आक्रामक रुख के बरक्स कांग्रेस बचाव की मुद्रा में थी. इससे वह कमजोर भी पड़ी. राहुल गांधी ने दागी राजनेताओं से जुड़े अध्यादेश को फाड़ा. अश्विनी कुमार, पवन बंसल और जयंती नटराजन को हटाया गया.
इसका उसे फायदा नहीं मिला, उल्टे चुनाव के ठीक पहले वह आत्मग्लानि से पीड़ित पार्टी नजर आने लगी थी. फिलहाल ऐसा नहीं लगता कि बीजेपी अपनी विदेश मंत्री को हटाएगी. कांग्रेस को इस आधार पर ही भावी रणनीति बनानी होगी.
बीजेपी बजाय 'रक्षात्मक' होने के 'आक्रामक' हो रही है. कांग्रेस की गतिरोध की रणनीति के जवाब में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कांग्रेस पर 'हिन्दू आतंकवाद' का जुमला गढ़ने की तोहमत लगाकर अचानक नया मोर्चा खोल दिया है.
गुरदासपुर और याकूब मेमन जैसे मसलों पर बीजेपी ने 'भावनाओं का ध्रुवीकरण' कर दिया है, जो उसका ब्रह्मास्त्र है.
याकूब मेमन की फाँसी के बाद क्या यह मान लें कि मुम्बई सीरियल बम धमाकों से जुड़े अपराधों पर अंतिम रूप से न्याय हो गया है? याकूब मेमन अब जीवित नहीं है, इसलिए इस मामले से जुड़े एक महत्वपूर्ण पात्र से अब भविष्य में पूछताछ सम्भव नहीं। हम अब इस मामले से जुड़े दूसरे महत्वपूर्ण अपराधियों को सज़ा देने की दिशा में क्या करेंगे? क्या हम टाइगर मेमन और दाऊद इब्राहीम को पकड़कर भारत ला सकेंगे? सन 1992-93 में हुए मुम्बई दंगों और उसके बाद के सीरियल धमाकों के बारे में हमारे देश के मीडिया में इतनी जानकारी भरी पड़ी है कि उसे एकसाथ पढ़ना और समझना मुश्किल काम है। फिर तमाम बातें हमारी जानकारी से बाहर हैं। तमाम भेद दाऊद इब्राहीम और टाइगर मेमन के पास हैं। हमें जो जानकारी है, वह सफेद और काले रंगों में है। यानी कुछ लोग साफ अपराधी हैं और कुछ लोग नहीं हैं। पर काफी ‘ग्रे’ बातें छिपी हुई हैं।
दिल्ली महिला आयोग की नई अध्यक्ष का कार्यकाल 20 जुलाई से नहीं, 28 जुलाई से माना जाएगा। एक हफ्ते का अंतर उस प्रशासनिक रस्साकसी की भेंट चढ़ गया जिसने पिछले कुछ समय से दिल्ली को घेर रखा है। पर यह नियुक्ति तभी पूरी हुई है जब उपराज्यपाल नजीब जंग ने इसकी औपचारिक मंज़ूरी दी है। प्रश्न है कि यह मंजूरी पहले क्यों नहीं मिली थी? इसके कारणों को जाने-बूझे बगैर मुख्यमंत्री ने उपराज्यपाल के नाम खुला खत क्यों लिखा? और दिल्ली का प्रशासन केंद्र सरकार से टकराव लेता नजर क्यों आता है?
पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम, याक़ूब मेमन और पंजाब के गुरदासपुर के एक थाने पर हुए हमले के कारण मीडिया का ध्यान कुछ देर के लिए बंट गया.
इस वजह से मुख्यधारा की राजनीति कुछ देर के लिए ख़ामोश है.
दो-तीन रोज़ में जब सन्नाटा टूटेगा तब हो सकता है कि मसले और मुद्दे बदले हुए हों, पर तौर-तरीक़े वही होंगे.
मॉनसून सत्र का हंगामा
हंगामा, गहमागहमी और शोर हमारी राजनीति के दिल-ओ-दिमाग़ में है.
एक धारणा है कि इसमें संजीदगी, समझदारी और तार्किकता कभी थी भी नहीं. पर जैसा शोर, हंगामा और अराजकता आज है, वैसी पहले नहीं था.
क्या इसे राजनीति और मीडिया के ‘ग्रास रूट’ तक जाने का संकेतक मानें?
शोर, विरोध और प्रदर्शन को ही राजनीति मानें? क्या हमारी सामाजिक संरचना में अराजकता और विरोध ताने-बाने की तरह गुंथे हुए हैं?
संसद के मॉनसून सत्र के शुरुआती दिनों में अनेक सदस्य हाथों में पोस्टर-प्लेकार्ड थामे टीवी कैमरा के सामने आने की कोशिश करते रहे.
कैमरा उनकी अनदेखी कर रहा था, इसलिए उन्होंने स्पीकर के आसपास मंडराना शुरू किया या जिन सदस्यों को बोलने का मौक़ा दिया गया उनके सामने जाकर पोस्टर लगाए ताकि टीवी दर्शक उन्हें देखें.
हमने मान लिया है कि संसद में हंगामा राजनीतिक विरोध का तरीक़ा है और यह हमारे देश की परम्परा है. इसलिए लोकसभा टीवी को इसे दिखाना भी चाहिए.
लोकतांत्रिक विरोध को न दिखाना अलोकतांत्रिक है.
पिछले हफ़्ते कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा था कि लोकसभा में कैमरे विपक्ष का विरोध नहीं दिखा रहे हैं. सिर्फ़ सत्तापक्ष को ही कैमरों में दिखाया जा रहा है.
उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि मोदी सरकार विपक्ष की आवाज़ दबा देना चाहती है.
मेरा बनाम तेरा भ्रष्टाचार
कांग्रेस की प्रतिज्ञा है कि जब तक सरकार भ्रष्टाचार के आरोप से घिरे नेताओं को नहीं हटाएगी, तब तक संसद नहीं चलेगी.
युद्ध की अनुपस्थिति माने शांति. दुनिया में पहले शांति आई या युद्ध? पहले शांति थी और बाद में युद्ध शुरू हुए तो क्यों? युद्ध क्यों होते हैं? क्या हथियारों और सेना की वजह से लड़ाइयाँ होती हैं? इन्हें खत्म कर दिया जाए तो क्या अमन-चैन कायम हो जाएगा? ऐसा नहीं है. जब से दुनिया बनी है इंसान युद्ध कर रहा है. उसे अपनी खुशहाली के लिए भी युद्ध करना पड़ता है, शांति के लिए भी.
लड़ाई की विनाशकारी प्रवृत्तियों के बावजूद तीसरे विश्व-युद्ध का खतरा हमेशा बना रहेगा. अमेरिकी लेखक पीटर सिंगर और ऑगस्ट के ताजा नॉवेल ‘द गोस्ट फ्लीट’ का विषय तीसरा विश्व-युद्ध है, जिसमें अमेरिका, चीन और रूस की हिस्सेदारी होगी. उपन्यास के कथाक्रम से ज्यादा रोचक है उस तकनीक का वर्णन जो इस युद्ध में काम आई. यह उपन्यास भविष्य के युद्ध की झलक दिखाता है. आने वाले वक्त की लड़ाई में शामिल सारे योद्धा परम्परागत फौजियों जैसे वर्दीधारी नहीं होंगे. काफी लोग कम्प्यूटर कंसोल के पीछे बैठकर काम करेंगे. काफी लोग नागरिकों के भेस में होंगे, पर छापामार सैनिकों की तरह महत्वपूर्ण ठिकानों पर हमला करके नागरिकों के बीच मिल जाएंगे. काफी लोग ऐसे होंगे जो अराजकता का फायदा उठाकर अपने हितों को पूरा करेंगे.
देश की जनता विस्मय के साथ यह समझने की कोशिश कर
रही है कि किस मुकाम पर आकर राष्ट्रीय-हित और पार्टी-हित एक दूसरे से अलग होते हैं
और कहाँ दोनों एक होते हैं। मॉनसून सत्र के पहले चार दिन शोर-गुल में चले गए और
लगता नहीं कि आने वाले दिनों में कुछ काम हो पाएगा। यह समझने की जरूरत भी है कि तकरीबन
एक साल तक संसदीय मर्यादा कायम रहने और काम-काज सुचारु रहने के बाद भारतीय राजनीति
अपनी पुरानी रंगत में वापस क्यों लौटी है? क्या कारण है कि ‘मैं बेईमान तो तू डबल बेईमान’ जैसा तर्क राजनीतिक ढाल बनकर सामने आ रहा है?