Wednesday, October 23, 2013

शटडाउन अंकल सैम

प्रसिद्ध पत्रिका इकोनॉमिस्टने लिखा है, आप कल्पना करें कि किसी टैक्सी में बैठे हैं और ड्राइवर तेजी से चलाते हुए एक दीवार की और ले जाए और उससे कुछ इंच पहले रोककर कहे कि तीन महीने बाद भी ऐसा ही करूँगा। अमेरिकी संसद द्वारा अंतिम क्षण में डैट सीलिंग पर समझौता करके फिलहाल सरकार को डिफॉल्ट से बचाए जाने पर टिप्पणी करते हुए पत्रिका ने लिखा है कि इस लड़ाई में सबसे बड़ी हार रिपब्लिकनों की हुई है। डैमोक्रैटिक पार्टी को समझ में आता था कि अंततः इस संकट की जिम्मेदारी रिपब्लिकनों पर जाएगी। उन्होंने हासिल सिर्फ इतना किया कि लाभ पाने वालों की आय की पुष्टि की जाएगी। पर क्या डैमोक्रेटों की जीत इतने भर से है कि बंद सरकार खुल गई और डिफॉल्ट का मौका नहीं आया? वे हासिल सिर्फ इतना कर पाए कि डैट सीलिंग तीन महीने के लिए बढ़ा दी गई। अब तमाशा नए साल पर होगा। यह संकट यों तो अमेरिका का अपना संकट लगता है, पर इसमें भविष्य की कुछ संभावनाएं भी छिपीं हैं। अमेरिकी जीवन की महंगाई हमारे जैसे देशों के लिए अच्छा संदेश लेकर भी आई है। कम से कम स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में हम न केवल विश्व स्तरीय है, बल्कि खासे किफायती भी हैं। इसके पहले अमेरिका में आर्थिक प्रश्नों पर मतभेद सरकार के आकार, उसके ख़र्चों और अमीरों पर टैक्स लगाने को लेकर होते थे, पर इस बार ओबामाकेयर का मसला था।

Tuesday, October 22, 2013

सोशल मीडिया का हस्तक्षेप यानी, ठहरो कि जनता आती है

ग्वालियर में राहुल गांधी की रैली खत्म ही हुई थी कि मीनाक्षी लेखी का ट्वीट आ गया माँ की  बीमारी का नाम लेने पर तीन कांग्रेसी सस्पेंड कर दिए गए, अब राहुल गांधी वही कर रहे हैं। उधर दिग्विजय सिंह ने ट्विटर पर नरेन्द्र मोदी को चुनौती दी, मुझसे बहस करो। रंग-बिरंगे ट्वीटों की भरमार है। माना जा रहा है कि सन 2014 के लोकसभा चुनाव में पहली बार सोशल मीडिया का असर देखने को मिलेगा। इस साल अप्रेल में 'आयरिस नॉलेज फाउंडेशन और 'इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया' ने 'सोशल मीडिया एंड लोकसभा इलेक्शन्स' शीर्षक से एक अध्ययन प्रकाशित किया था, जिसमें कहा गया था कि भारत की 543 में से 160 लोकसभा सीटें ऐसी हैं जिनके नतीजों पर सोशल मीडिया का प्रभाव पड़ेगा। सोशल मीडिया का महत्व इसलिए भी है कि चुनाव से 48 घंटे पहले चुनाव प्रचार पर रोक लगने के बाद भी फेसबुक, ट्विटर और ब्लॉग सक्रिय रहेंगे। उनपर रोक की कानूनी व्यवस्था अभी तक नहीं है। दिल्ली में आप के पीछे सोशल मीडिया की ताकत भी है।

Sunday, October 20, 2013

राडिया टेपों की तार्किक परिणति

सुप्रीम कोर्ट ने कॉरपोरेट लॉबीस्ट नीरा राडिया के साथ प्रभावशाली लोगों की बातचीत से जुड़े छह मामलों में आगे जाँच के आदेश देकर इसे तार्किक परिणति तक पहुँचा दिया है। नीरा राडिया की नौकरशाहों, कारोबारियों और नेताओं के साथ रिकार्ड की गई बातचीत के बारे में अदालत ने कहा है कि पहली नजर में इसमें सरकारी अधिकारियों और निजी उद्यमियों की मिलीभगत से किसी गहरी साजिशका पता चलता है। बातचीत से जाहिर होता है कि प्रभावशाली लोग किसी दूसरे मकसद से निजी लाभ उठाने के लिए भ्रष्ट तरीके अपनाते हैं। नीरा राडिया मामला हमारी व्यवस्था के भीतर छिपे भ्रष्ट-आचरण और उसके निराकरण की सामर्थ्य का टेस्ट-केस साबित होगा। अभी तक यह मामला टू-जी के साथ पुछल्ले की तरह जुड़ा था। अब यह पूरी तरह स्वतंत्र मामलों का एक समूह बनेगा। अदालत ने इसके पहले सीबीआई को फटकार लगाई थी कि वह इसे केवल टू-जी से जोड़कर न चले। अब कोर्ट ने मिली-भगत और गहरी साजिश जैसे शब्दों का प्रयोग करके इस मामले को काफी महत्वपूर्ण बना दिया है। सम्भव है कल केवल ये टेप देश के रूपांतरण के सूत्रधार बनें।

Monday, October 14, 2013

इंटरनेशनल हैरल्ड ट्रिब्यून अब न्यूयॉर्क टाइम्स बना

अंतरराष्ट्रीय खबरों के लिए दुनिया के सबसे मशहूर अखबार इंटरनेशनल हैरल्ड ट्रिब्यून का आज आखिरी अंक प्रकाशित हुआ। कल यानी 15 अक्टूबर से यह नए नाम इंटरनेशनल न्यूयॉर्क टाइम्स नाम से निकलेगा। यह इस अखबार का पहली बार पुनर्नामकरण संस्कार नहीं हुआ ङै। न्यूयॉर्क हैरल्ड नाम के अमेरिकी अखबार ने सन 1887 में जब अपना यूरोप संस्करण शुरू किया तो उसका नाम रखा न्यूयॉर्क हैरल्ड ट्रिब्यून, जो बाद में इंटरनेशनल हैरल्ड ट्रब्यून बना।  इंटरनेशनल न्यूयॉर्क टाइम्स बनने का मतलब है कि यह अब पूरी तरह न्यूयॉर्क टाइम्स की सम्पत्ति हो गया है। कुछ साल पहले तक यह अखबार वॉशिंगटन पोस्ट के सहयोग से चल रहा था। इंटरनेशनल हैरल्ड ट्रिब्यून का एक भारतीय संस्करण हैदराबाद से निकलता था, जिसे डैकन क्रॉनिकल निकालता था। हालांकि भारत से विदेशी प्रकाशन को निकालना सम्भव नहीं है, पर कई प्रकार की जटिल जुगत करके इसे निकाला जा रहा था और इसके सम्पादक एमजे अकबर थे। यह संस्करण कल से नहीं मिलेगा। 

सन 2007 के वीडियो में देखिए किस तरह तैयार होता था इंटरनेशनल हैरल्ड ट्रिब्यून

Sunday, October 13, 2013

सरकार की ओर से जवाब तो राहुल को भी देना होगा

इंटरनेट पर पप्पू और फेंकू दो सबसे ज्यादा प्रचलित शब्द हैं। जाने-अनजाने भारतीय राजनीति दो नेताओं के इर्द-गिर्द सिमट गई है। परम्परा से भारतीय जनता पार्टी व्यक्ति केन्द्रित पार्टी नहीं है। और कांग्रेस हमेशा व्यक्ति केन्द्रित पार्टी रही है। पर इस बार दोनों अपनी परम्परागत भूमिकाओं से हट गईं हैं। भाजपा का सारा जोर व्यक्तिगत नेतृत्व पर है और कांग्रेस नेतृत्व के इस सीधे टकराव से भागती नजर आती है। सच बात है कि भारतीय चुनाव अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव की तरह नहीं होते जहाँ दो राष्ट्रीय नेता आमने-सामने बहस करें। यहाँ संसद का चुनाव होता है, जिसमें पार्टियाँ महत्वपूर्ण होती हैं। और संसदीय दल अपने नेता का चुनाव करते हैं। वास्तव में यह आदर्श स्थिति है। इंदिरा इज़ इंडिया तो कांग्रेस का ही नारा था। सच यह भी है कि लाल बहादुर शास्त्री, पीवी नरसिम्हाराव और मनमोहन सिंह तीनों नेताओं को प्रधानमंत्री बनने का मौका तब मिला जब परिवार का कोई नेता तैयार नहीं था। पर आज स्थिति पूरी तरह बदली हुई है।