Tuesday, June 11, 2013

मोदी के 'कांग्रेस मुक्त भारत' का मतलब क्या है?

 मंगलवार, 11 जून, 2013 को 07:25 IST तक के समाचार
क्लिक करेंभाजपा के चुनाव अभियान का जिम्मा सँभालने के बाद क्लिक करेंनरेंद्र मोदी ने अपने पार्टी कार्यकर्ताओं से 'कांग्रेस मुक्त भारत निर्माण' के लिए जुट जाने का आह्वान किया.
उन्होंने ट्विटर पर भी लिखा, "हम कांग्रेस मुक्त भारत निर्माण बनाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ेंगे."
नरेन्द्र मोदी की बातों में आवेश होता है, और ठहराव की कमी. चूंकि उन्होंने इस बात को कई बार कहा है. इसलिए यह समझने की ज़रूरत है कि वे कहना क्या चाहते है.
उन्होंने ‘कांग्रेस मुक्ति’ की अपनी अवधारणा स्पष्ट नहीं की. वे यदिक्लिक करेंकांग्रेस की चौधराहट को खत्म करना चाहते हैं तो यह उनका मौलिक विचार नहीं है.
साठ के दशक के शुरुआती दिनों में राम मनोहर लोहिया 'गैर-कांग्रेसवाद' का नारा दे चुके हैं.
इस गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति में तत्कालीन जनसंघ भी शामिल था और 1967 में पहली बार बनी कई संविद सरकारों में उसकी हिस्सेदारी थी.
'गैर-कांग्रेसवाद' राजनीतिक अवधारणा थी. इसमें कांग्रेस का विकल्प देने की बात थी, उसके सफाए की परिकल्पना नहीं थी.
बेशक कांग्रेस की राजनीति ने तमाम दोषों को जन्म दिया, पर उससे उसकी विरासत नहीं छीनी जा सकती.
क्लिक करेंकांग्रेस से मुक्ति माने कांग्रेस की विरासत से मुक्ति. आइए यह जानने की कोशिश करें कि कांग्रेस को समाप्त करने के मायने क्या हैं. कांग्रेस से मुक्ति के मायने इन बातों से मुक्तिः-

कुंठित पितामह का अंतिम अस्त्र

सोमवार को जेडीयू के कुछ नेताओं की प्रतिक्रिया से यह बात समझ में आती है कि पिछले कुछ महीनों से चल रहे जेडीयू के मोदी विरोधी अभियान के पीछे भाजपा की वह वरिष्ठ टोली थी, जिसके शिखर पर लालकृष्ण आडवाणी है। शिवसेना की प्रतिक्रिया के पीछे भी पार्टी नेतृत्व का यथास्थितिवादी दृष्टिकोण था। सच यह है कि आडवाणी जी समय के साथ लड़ाई में हार चुके हैं। उनके पास 2009 में आखिरी मौका था, पर वे चमत्कार नहीं दिखा सके। इसके पहले 2004 के चुनाव में पार्टी की विफलता का श्रेय भी उन्हें दिया जाए तो गलत नहीं होगा। उनके सुझाव पर ही समय से पहले चुनाव हुए। शाइनिंग इंडिया उनका ही विचार था और अटल बिहारी वाजपेयी को कुर्सी खाली करने का दबाव भी उनकी ओर से था। उस चुनाव में पार्टी ने एक नहीं दो नेताओं को सामने रखने का फैसला किया था, जिससे वाजपेयी खिन्न थे। 

भारतीय जनता पार्टी का वर्तमान संकट इस अर्थ में अभूतपूर्व है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की चाबुक भी काम नहीं कर पा रही है। लालकृष्ण आडवाणी ने जून 2005 में पाकिस्तान की यात्रा के दौरान जिन्ना की तारीफ के प्रसंग में इस्तीफा देकर उतना अपमान महसूस नहीं किया जितना वे नरेन्द्र मोदी को चुनाव अभियान समिति का प्रमुख बनाए जाने पर महसूस कर रहे हैं। हालांकि मोदी को जो पद दिया गया है वह 2004 में प्रमोद महाजन को और 2009 में अरुण जेटली को दिया गया था। यह कहीं से भावी प्रधानमंत्री का संकेत नहीं देता। संयोग से भाजपा सरकार बनी तो आडवाणी जी का दावा उस वक्त भी उतना ही मजबूत होगा, जितना आज है। पर उन्हें लगता है कि बाज़ी हाथ से निकल चुकी है। यह इस्तीफा उनका आखिरी हथियार है।   

Monday, June 10, 2013

अब तो शुरू हुई है मोदी की परीक्षा

रविवार की शाम नरेन्द्र मोदी ने नए दायित्व की प्राप्ति के बाद ट्वीट किया : 'आडवाणी जी से फोन पर बात हुई. अपना आशीर्वाद दिया. उनका आशीर्वाद और सम्मान प्राप्त करने के लिए अत्यंत आभारी.' पर अभी तक आडवाणी जी ने सार्वजनिक रूप से मोदी को आशीर्वाद नहीं दिया है। यह व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं का टकराव है या कोई सैद्धांतिक मतभेद है? उमा भारती, सुषमा स्वराज और यशवंत सिन्हा ने सार्वजनिक रूप से मोदी को स्वीकार कर लिया है। इसके बाद क्या लालकृष्ण आडवाणी अलग-थलग पड़ जाएंगे? या राजनाथ सिंह उन्हें मनाने में कामयाब होंगे? और यह भी समझना होगा कि पार्टी किस कारण से मोदी का समर्थन कर रही है? 


भारतीय जनता पार्टी को एक ज़माने तक पार्टी विद अ डिफरेंस कहा जाता था। कम से कम इस पार्टी को यह इलहाम था। आज उसे पार्टी विद डिफरेंसेज़ कहा जा रहा है। मतभेदों का होना यों तो लोकतंत्र के लिए शुभ है, पर क्या इस वक्त जो मतभेद हैं वे सामान्य असहमति के दायरे में आते हैं? क्या यह पार्टी विभाजन की ओर बढ़ रही है? और क्या इस प्रकार के मतभेदों को ढो रही पार्टी 2014 के चुनाव में सफल हो सकेगी?

Sunday, June 9, 2013

धन-संचय के मामले में पार्टियों की पर्दादारी ठीक नहीं

देश के छह राजनीतिक दलों को नागरिक के जानकारी पाने के अधिकार के दायरे में रखे जाने को लेकर दो तरह की प्रतिक्रियाएं आईं हैं। इसका समर्थन करने वालों को लगता है कि राजनीतिक दलों का काफी हिसाब-किताब अंधेरे में होता है। उसे रोशनी में लाना चाहिए। वे यह भी मानते हैं कि राजनीतिक दल सरकार की ओर से अनेक प्रकार की सुविधाएं पाते हैं तो उन्हें ज़िम्मेदार भी बनाया जाना चाहिए। पर इस फैसले का लगभग सभी राजनीतिक दलों ने विरोध किया है। कांग्रेस के प्रमुख प्रवक्ता जनार्दन द्विवेदी ने कहा कि पार्टियां किसी कानून से नहीं बनी हैं। वे सरकारी सहायता से नहीं चलती हैं।

Thursday, June 6, 2013

आरटीआई पर पार्टियों ने लगाया 'पाखंड का पर्दा'

आरटीआई पर पार्टियों ने लगाया 'पाखंड का पर्दा'

 गुरुवार, 6 जून, 2013 को 07:23 IST तक के समाचार
भारत के मुख्य सूचना आयोग की पूर्ण बेंच ने छह राजनीतिक दलों को क्लिक करेंसूचना के अधिकार के दायरे में लाकर उस वैश्विक प्रवृत्ति की ओर कदम बढ़ाया है, जिसका उद्देश्य लोकतंत्र को पारदर्शी बनाना है.
पर प्रतिक्रिया में लगभग सभी दलों ने कहा है कि हम सरकारी संस्था नहीं हैं. यानी वे इसके मर्म से बचते हुए तकनीकी पहलुओं पर ज्यादा बात कर रहे हैं.
दुनिया के 70 से ज़्यादा देशों में नागरिकों को जानकारी पाने का अधिकार है. इनमें से 19 देशों में इस अधिकार का दायरा निजी संस्थाओं तक है.
मसलन दुनिया भर में दवा बनाने वाली कंपनियाँ अपनी दवाओं की बिक्री बढ़ाने के लिए डॉक्टरों की मदद लेती है. यह बात मरीज़ के हितों के खिलाफ जाती है.

डॉक्टर और मरीज़ का रिश्ता

अमरीका में कानूनी व्यवस्थाओं के तहत 15 कंपनियों ने इस जानकारी को सार्वजनिक करना शुरू किया है. फिजिशियंस पेमेंट सनशाइन ऐक्ट का उद्देश्य मरीज़ और इलाज़ करने वालों के बीच हितों के टकराव को साफ करने के लिए पारदर्शिता कायम करना है.