Wednesday, June 23, 2010

किर्गिस्तान में क्या हो रहा है?


किर्गीज़ माने होता है अपराजेय। सेंट्रल एशिया का यह दुरूह क्षेत्र हजारों साल से अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए जूझता रहा है। रूस, चीन, ईरान, पाकिस्तान और भारत जैसे बड़े पड़ोसियों के अलावा अमेिरका के हित भी इस इलाके से जुड़े हैं। अफगानिस्तान में लड़ रही अमेरिकी फौजों के लिए रसद किर्गिस्तान से होकर जाती है। किर्गिस्तान की किंवदंतियों का नायक है मनस जिसने यहाँ के चालीस कबीलों को एकत्र कर शत्रु से लोहा तिया था। किगिर्स्तान के राष्ट्रीय ध्वज में 40 किरणों वाला सूर्य उसका प्रतीक है।

एक ज़माने में इस क्षेत्र पर बौद्ध प्रभाव था। अरबों के हमलों के बाद इस्लाम आया। बोल्शेविक क्रांति के बाद यह इलाका रूस के अधीन रहा। इस दौरान यहाँ की जातीय संरचना में बदलाव हुआ। इधर के लोग उधर भेजे गए। किर्गिस्तान के दक्षिण में उज्बेकिस्तान है। देश के दक्षिणी इलाके में उज्बेक आबादी ज्यादा है, हालांकि अल्पसंख्यक है। सोवियत संघ के विघटन के बाद इस इलाके में आलोड़न-विलोड़न चल रहा है।

किर्गिस्तान मे लोकतांत्रिक सरकार भ्रष्टाचार और अकुशलता के आरोपों से घिरी रही है। पिछले अप्रेल में सेना की मदद से एक सत्ता परिवर्तन हुआ है। इसके साथ ही अचानक जातीय दंगे शुरू हो गए। शायद सत्ता के प्रतिष्ठान से जुड़ी ताकतों का खेल है। इधर रूस का व्यवहार आश्चर्यजनक है। वह सैनिक हस्तक्षेप करने से कतरा रहा है। इस इलाके की सुरक्षा के लिए एक संधि है, जिसका प्रमुख रूस ही है। रूस की हिचक के कई माने हैं। अफगानिस्तान के अनुभव के बाद वह शायद कहीं अपनी सेना भेजने से डरता है। या फिर किर्गिस्तान की वास्तविकता को समझने में समय ले रहा है।

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Tuesday, June 22, 2010

सब पर भारी सूचना की बमबारी


विश्वकप फुटबॉल प्रतियोगिता चल रही है। साथ ही श्रीलंका में एशियाकप क्रिकेट प्रतियोगिता भी। देश में क्रिकेट की लोकप्रियता मुकाबले फुटबॉल के कहीं ज्यादा है। पर मीडिया की कवरेज देखें तो फुटबॉल की कवरेज क्रिकेट से ऊपर है। वह तब जब इसमें भारतीय फुटबॉल टीम खेल भी नहीं रही है। यों हिन्दी के एक मार्केट सैवी अखबार ने अपने संडे एडीशन के पहले सफे पर हैडिंग दी फुटबॉल पर भारी पड़ा क्रिकेट का रोमांच। उसी अखबार के खेल पन्नों पर फुटबॉल का रोमांच हावी था। शाब्दिक बाज़ीगरी अपनी जगह है, पर सारे रोमांच पाठक तय नहीं करते। फरबरी-मार्च में विश्वकप हॉकी प्रतियोगिता दिल्ली में हुई थी। उसकी कवरेज़ आईपीएल के मुकाबले फीकी थी। अपने अखबारों में आपको हर रोज़ एक न एक खबर फॉर्मूला कार रेस की नज़र आती है। कितना लोकप्रिय है यह खेल हमारे यहाँ? यही हाल गॉल्फ का है। टाइगर वुड हाल तक खबरों पर हावी थे। हिन्दी के कितने पाठकों की दिलचस्पी टाइगर वुड के खेल में है? कितने लोग उसके व्यक्तिगत जीवन में दिलचस्पी रखते थे? मीडिया ने तय किया कि आपको क्या पसंद आना चाहिए।

बाजार का सिद्धांत है, जो ग्राहक कहे वह सही। पर मार्केटिंग टीमें यह तय करतीं हैं कि ग्राहक को क्या पसंद करवाना है। फुटबॉल की वैश्विक व्यवस्था क्रिकेट की वैश्विक व्यवस्था से ज्यादा ताकतवर है। यह क्या आसानी से समझ में नहीं आता? मीडिया का कार्यक्षेत्र उतना सीमित नहीं है जितना दिखाई पड़ता है। पाठक को परोसी जाने वाली खबरें और विचार इसका छोटा सा पहलू है। सरकारों, कम्पनियों, संस्थाओं और कारोबारियों के भीतर होने वाला संवाद ज्यादा बड़ा पहलू है। यह हमारे जीवन को परोक्ष रूप से प्रभावित करता है। हर रोज़ हज़ारों-लाखों पावर पॉइंट प्रेजेंटेशन आने वाले वक्त के सांस्कृतिक-सामाजिक जीवन की रूपरेखा तय करते हैं। वे मीडिया का एजेंडा तय करते हैं। पाठक, दर्शक या श्रोता उसका ग्राहक है सूत्रधार नहीं।

vहमारे पाठक पश्चिमी देशों के पाठकों से फर्क हैं। हम लोग अधिकतर सद्यःसाक्षर हैं, जागृत विश्व से दूर हैं और अपने हालात को बदलने के फेर में फँसे हैं।

vहम पर चारों ओर से सूचना की जबर्दस्त बमबारी होने लगी है। इस सूचना का हमसे क्या रिश्ता है हम जानते ही नहीं। इसमें काफी सूचना हमारे संदर्भों से कटी है, पर हम इसमें कुछ कर नहीं सकते।

vमार्शल मैकलुहान के शब्दों में मीडिया इज़ मैसेज(जो बाद में मसाज हो गया)। यानी सूचना से ज्यादा महत्वपूर्ण है मीडिया। फेसबुक में मेरे अनेक मित्रों की राय है कि यहाँ गम्भीर संवाद संभव नहीं। फेसबुक दोस्त बनाने का टूल है। इसमें मस्ती ज्यादा है। संज़ीदगी डालने की कोशिश करेंगे तो उसे मंज़ूरी नहीं मिलेगी।  

vव्यक्तिगत विचार व्यक्त करने का बेहतर माध्यम ब्लॉग है, पर ब्लॉग में भी चटपटेपन को लोकप्रियता मिलती है। या उन्हें जो हमारे रोज़ के जीवन में उपयोगी हैं।

vएक बदलते समाज को देश-काल की बुनियादी बातों का पता भी होना चाहिए। खबरों के संदर्भों की जानकारी होनी चाहिए। उन्हें बताने की जिम्मेदारी किसकी है? मीडिया आपको नहीं बताता तो आप उसका क्या कर लेंगे?

vजो हो रहा है वह सब अनाचार ही नहीं है। खेल और फुटबॉल में कोई करिश्मा ज़रूर है, जो इतने लोग उसके दीवाने हैं। उसे समझने और फिर उसे वृहत् स्तर पर मानव कल्याण से जोड़ने वाली समझ हमारे पास होनी चाहिए।

किर्गीज़िस्तान में हिंसा क्यों हो रही है? वहाँ भारतीय क्या करने गए थे? बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को उस पोस्टर पर क्या आपत्ति थी, जिसमें वे नरेन्द्र मोदी का हाथ पकड़ कर खड़े हैं? भाजपा और जद(यू) एक-दूसरे को पसंद नहीं करते तो मिलकर सरकार क्यों चलाते हैं? भोपाल मामला क्या है? जस्टिस अहमदी ने कानून की सीमा के बारे में जो बात कही है, वह क्या हैमसलन प्रातिनिधिक दायित्व (विकेरियस लायबिलिटी) क्या है? उसकी बारीकियाँ क्या हैं? इस तरह के हादसों से जुड़े कानून बनाने के बारे में क्या हुआ? जाति आधारित जनगणना की माँग क्यों हो रही है? उसके पक्ष में क्या तर्क हैं और उसे न कराने के पीछे क्या कारण हैं?

ऐसे अनेक सवाल एक सामान्य पाठक के मन में उठते होंगे। पर हिन्दी का सामान्य पाठक कौन है? वह विश्वविद्यालय का छात्र है, सरकारी कर्मचारी है, रिटायर कर्मचारी है, छोटा और मझोला व्यापारी है, घरेलू महिला है। इनमें किसान हैं, कुछ मज़दूर भी हैं। प्राइमरी कक्षाओं के बाद पढ़ाई छोड़ देने वाले से लेकर स्नातकोत्तर कक्षाओं तक के छात्र इनमें शामिल हैं। काफी बड़ा तबका ऐसा है जो सारी बारीकियों को नहीं समझता। जानकारी उच्चस्तरीय स्पेस साइंस और कानूनी बारीकियों की हो तो दिक्कत और ज़्यादा है। उसे सही संदर्भ में जानकारी चाहिए।

जब सूचना का विस्फोट हो रहा हो, हर मिनट लाखों-करोड़ों शब्द आपकी मुट्ठी में मौज़ूद आईपैड, आईफोन, ब्लैकबैरी या मामूली मोबाइल फोन के रास्ते इधर से उधर हो रहे हों, तो उम्मीद करनी चाहिए कि देखते ही देखते समूचा समाज जानकार हो जाएगा। सब कुछ साफ हो जाएगा। एक सूचना आधारित विश्व होगा। अमर्त्य सेन के शब्दों में अकाल नहीं पड़ेंगे क्योंकि जागरूक जन समुदाय के दबाव में वितरण व्यवस्था दुरुस्त रहेगी। जानकारी पाने के अधिकार ने भी द्वार खोल दिए हैं। पर बुनियादी भ्रम दूर नहीं हो रहा, बल्कि सूचना के बॉम्बार्डमेंट के कारण बढ़ गया है। यह उस मिकैनिज्म के कारण है, जो सूचना-क्रांति को भी अपने पक्ष में मोड़ लेने की ताकत रखता है। यह वैचारिक भ्रम नहीं है। सूचना का भ्रम है।  

पिछली पीढ़ी बताती है कि शुरू में लोग रोज़ चाय पीने के आदी नहीं थे। चाय को लोकप्रिय बनाने के लिए कम्पनियों ने कई तरह के काम किए। ऐसा डालडा के साथ भी हुआ। लोग नूडल्स खाने के आदी नहीं थे, पर मार्केटिंग ने आदी बनाया। पीत्ज़ा, बर्गर और कोक के साथ भी ऐसा ही हुआ। हुक्के की जगह सिगरेट ने ली। देसी की जगह अंग्रेजी शराब ने ली। इसमें दो तत्वों की भूमिका थी। एक संदेश की और दूसरे ग्राहक की। संदेश आधुनिक बनने का है। लोग अपने बच्चों के करियर के लिए अपना पैसा, समय और ऊर्जा खर्च करते हैं। इन बच्चों को टार्गेट बनाकर बाज़ार अपनी मार्केटिंग रणनीति तय करता है।

चेंज या बदलाव नई जेनरेशन जल्दी स्वीकार करती है। इसलिए तकरीबन हर प्रोडक्ट में मस्ती का भाव है। यह मस्ती युवा वर्ग का एक सहज गुण है। पर यही एक गुण नहीं है। युवा वर्ग में उत्कंठा या जिज्ञासा भी होती है। वह आदर्शों से प्रेरित होता है और रोमांचकारी काम करने को तैयार रहता है। नूडल्स और टूथपेस्ट बेचने के पीछे व्यावसायिक प्रवृत्ति है। पूँजी को बढ़ाने की इच्छा है। सही संदर्भ में जानकारी देना, सामाजिक बदलाव के लिए तैयार करना और देश-दुनिया की व्यापक समझ बनाना उसकी प्राथमिकता नहीं है। तब फिर किसकी प्राथमिकता है? इस रासते पर बढ़ने के लिए हमारे पास इंसेंटिव क्या हैं?  और हम किसी को ज़िम्मेदार-जागरूक बनाना ही क्यों चाहते हैं?

सामाजिक जीवन में निजी प्रॉफिट-लॉस एक तरफ हैं और सार्वजनिक प्रॉफिट-लॉस दूसरी तरफ। सार्वजनिक हित भी किसीकी जिम्मेदारी है, खासकर मीडिया के संदर्भ में। कौन है जिसे सार्वजनिक हित के बारे में सोचना चाहिए? या तो पाठक को या सरकार को। आर्थिक विकास के वर्तमान मॉडल को आप न मानें तब भी चलना उसके ही साथ है। कोई विकल्प सामने नहीं है। इसलिए जो है उसके अंतर्विरोध ही बेहतर परिस्थिति का निर्माण करेंगे। ग्लोबल वॉर्मिंग के प्रति चेतना उस सार्वजनिक संकट से उपजी है, जो सबके सामने खड़ा है। बेहतर शिक्षा-व्यवस्था की ज़रूरत आर्थिक और सामाजिक दोनों व्यवस्थाओं को है। लोकतांत्रिक व्यवस्था को चलाने के लिए शिक्षित और जागरूक जन-समूह चाहिए। यह शिक्षित जन-समूह बेहतर मीडिया के सहारे शक्ल लेता है और फिर बेहतर मीडिया को शक्ल देता है। विकसित और शिक्षित समाजों में ऐसा ही हुआ है।

हमारे मीडिया में जो भ्रम है वह सारी दुनिया के मीडिया में नहीं है। पश्चिमी देशों के टेबलॉयड अखबारों और संजीदा अखबारों में जो अंतर है वह हमारे यहाँ नहीं है। हमारे ब्रॉडशीट अखबार टेबलॉयड का काम भी कर रहे हैं। टीवी पर बीबीसी की खबरें वैसी ही हैं, जैसी होती थीं। बीबीसी से तुलना न करें, फॉक्सन्यूज़ भी भारतीय चैनलों के मुकाबले सोबर है। इसकी वजह दर्शक की उदासीनता भी है। शायद ही कोई दर्शक अपनी नाराज़गी मीडिया हाउस तक लिख कर भेजता है। वह अपनी जानकारी को लेकर उदासीन है। या प्राप्त जानकारी से संतुष्ट। अभी इस मीडिया के अंतर्विरोध उभरे नहीं हैं। फिलहाल हमारे सामने दो विकल्प हैं या तो हम समानांतर मीडिया तैयार करें, जिसके लिए पूँजी चाहिए। या फिर सूचना के सही संदर्भों से जुड़े बाज़ार के विकसित होने का इंतज़ार करें। ये सूचना-संदर्भ लोकतांत्रिक-व्यवस्था का कच्चा माल है। यह इस बाज़ार-व्यवस्था का विरोधी भी नहीं है। लोकतंत्र अपने आप में एक बड़ी बाज़ार व्यवस्था है।    
    

    

Thursday, June 17, 2010

उत्तर कोरिया ने भी चौंकाया

इस बार के वर्ल्ड कप में स्पेन की हार अब तक का सबसे बड़ा अपसेट है। पर जिस टीम की ओर ध्यान देना चाहिए वह उत्तर कोरिया है। यह निराली टीम है। अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में न के बराबर खेलती है। इसके पहले 1966 के वर्ल्ड कप मे खेली थी और पुर्तगाल को हराकर हंगामा कर दिया। इस बार ब्राजील से 2-1 से हार गई, पर शान से हारी

दुनिया की नम्बर 1 टीम और 103 नम्बर की टीम के बीच मैच का परिणाम 2-1 रहना अपने आप में रोचक है। उससे ज्यादा रोचक है, स्टेडियम में खेल का माहौल। कोरिया समर्थक दर्शक दो तरह के थे। एक चीन से किराए पर लाए गए फर्जी दर्शक थे। दूसरे थे उत्तरी कोरिया के कम्युनिस्ट शासकों से नाराज़ होकर भागे लोग जो इंग्लैंड या दूसरे देशों में पनाह लेकर रह रहे हैं। इन लोगों को अपने देश से प्यार है. वे मानते हैं कि ङमारा बैर शासकों से है, देशवासियों से नहीं।

उत्तरी कोरिया की सरकार ने अपने देश के लोगों को विश्व कप देखने के लिए नहीं आने दिया। शायद कोई डर होगा। वहाँ खेल का लाइव ब्रॉडकास्ट भी नहीं होता। टीम की तैयारी के लिए साधन भी नहीं हैं। इस लिहाज से इस टीम का ब्राज़ील के खिलाफ प्रदर्शन शानदार ही कहा जाएगा। इस टीम में ज्यादातर खिलाड़ी उत्तर कोरिया में ही रहते हैं। कुछ खिलाड़ी जापान में रहने वाले उत्तर कोरियाई हैं। यहां के कुछ खिलाड़ी विदेशी मैदानों मे भी खेलते हैं।



उत्तर कोरिया के समर्थक चीन से आए

एक सपना जो पूरा हुआ

Wednesday, June 16, 2010

क्या खेल सामाजिक बदलाव भी कर सकते हैं?

खेल हमारी ऊर्जा, हमारे विचार और सामूहिक अभियान का सबसे अच्छा उदाहरण है। एक स्वस्थ समाज खेल में भी स्वस्थ होना चाहिए। खेलों को सिर्फ मनोरंजन नहीं मानना चाहिए। वे मनोरंजन भी देते हैं। मनोरंजन की भी हमारे विकास में भूमिका है। मूलतः खेल हमें अनुशासित, आत्म विश्वासी और स्वाभिमानी बनाते हैं। समाज के पिछड़े वर्गों को भागीदारी देकर हम उन्हें खेल के मार्फत अपनी सामर्थ्य दिखाने का मौका दे सकते हैं। लड़कियों को आगे लाने मे खेल की जबर्दस्त भूमिका। आज के हिन्दुस्तान में प्रकाशित मेरा लेख इसी विषय पर केन्द्रित है।




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यू ट्यूब पर देखिए यह फिल्म जो इस धारणा को पुष्ट करती है।

Tuesday, June 15, 2010

मॉनसून क्यों और मानसून क्यों नहीं?



प्रमोद जोशी

मैने हाल में अपने ब्लॉग में कहीं मॉनसून शब्द का इस्तेमाल किया। इसपर मुझसे एक पत्रकार मित्र ने पूछा मॉनसून क्यों मानसून क्यों नहीं? मैने उन्हें बताया कि दक्षिण भारतीय भाषाओं में और अंग्रेज़ी सहित अनेक विदेशी भाषाओं में ओ और औ के बीच में एक ध्वनि और होती है। ऐसा ही ए और ऐ के बीच है। Call को देवनागरी में काल लिखना अटपटा लगता है। देवनागरी ध्वन्यात्मक लिपि है तो हमें अधिकाधिक ध्वनियों को उसी रूप में लिखना चाहिए। इसलिए वृत्तमुखी ओ को ऑ लिखते हैं। हिन्दी के अलग-अलग क्षेत्रों में औ और ऐ को अलग-अलग ढंग से बोला जाता है। मेरे विचार से बाल और बॉल को अलग-अलग ढंग से लिखना बेहतर होगा।
बात औ या ऑ की नहीं। बात मानकीकरण की है। हिन्दी का जहाँ भी प्रयोग है वहां की प्रकृति और संदर्भ के साथ कुछ मानक होने ही चाहिए। मीडिया की भाषा को सरल रखने का दबाव है, पर सरलता और मानकीकरण का कोई बैर नहीं है। हिन्दी के कुछ अखबार अंग्रेज़ी शब्दों का इस्तेमाल ज्यादा करते हैं। उनके पाठक को वही अच्छा लगता है, तब ठीक है। पर वे टारगेट पर एंडरसन लिखेंगे  या टार्गेट यह भी तय करना होगा। प्रफेशनल होगा या प्रोफेशनल? वीकल होगा, वेईकल या ह्वीकल? ऐसा मैं हिन्दी के एक अखबार में प्रकाशित प्रयोगों को देखने के बाद लिख रहा हूँ। आसान भाषा बाज़ार की ज़रूरत है, सुसंगत भाषा भी उसी बाज़ार की ज़रूरत है। सारी दुनिया की अंग्रेज़ी भी एक सी नहीं है, पर एपी या इकोनॉमिस्ट की स्टाइल शीट से पता लगता है कि संस्थान की शैली क्या है। यह शैली सिर्फ भाषा-विचार नहीं है। इसमें अपने मंतव्य को प्रकट करने के रास्ते भी बताए जाते हैं। मसलन लैंगिक, जातीय, सामुदायिक, धार्मिक या क्षेत्रीय संवेदनाओं-मर्यादाओं को किस तरह ध्यान में रखें। किन शब्दों के अतिशय प्रयोग से बचें। किन शब्दों का प्रयोग करते वक्त क्या सावधानी बरतें वगैरह। इसी तरह कानून और पत्रकारीय नैतिकता के किन सवालों पर ध्यान दिया जाय यह भी शैली पुस्तिका के दायरे में आता है।
हिन्दी के अखबारों का विस्तार हो रहा है। शुरूआती अखबार किसी खास क्षेत्र में चलता था। उसके भाषा-प्रयोग उस क्षेत्र से जुड़े थे। क्षेत्र-विस्तार के बाद भाषा-प्रयोगों में टकराहट भी होती है। जनपद का यूपी में अर्थ कुछ है, एमपी में कुछ और। राजस्थान में जिसे पुलिया कहते हैं वह यूपी में पुल होता है। ऐसा होने पर क्या करें, यह भी शैली पुस्तिका का विषय है। इस अर्थ में शैली पुस्तिका एक स्थिर वस्तु नहीं है, बल्कि गतिशील है। आज नहीं तो कल हिन्दी का निरंतर बढ़ता प्रयोग हमें बाध्य करेगा कि मानकीकरण के रास्ते खोजें। प्रायः हर अखबार या मीडिया हाउस ने इस दिशा में कुछ न कुछ काम किया भी है। बेहतर हो कि भाषा को लेकर हिन्दी के सभी अखबार वर्तनी की एकरूपता पर ज़ोर दें। ऐसा होने के बाद ही हिन्दी न्यूज़ एजेंसियों की ऐसी वर्तनी बनेगी, जो सारे अखबारों को मंज़ूर हो। उसके बाद एकरूपता की संभावना बढ़ेगी।
हिन्दी पत्रकारिता का विस्तार जिस तेजी से हुआ है उस तेजी से उसका गुणात्मक नियमन नहीं हो पाया। एक से सौ तक की संख्याओं को हम कई तरह से लिखते हैं। मसलन सत्रह, सत्तरह, सतरह, सत्रा या अड़तालीस, अड़तालिस, अठतालिस वगैरह। एक विचार है कि एक से नौ तक संख्याएं शब्दों में फिर अंकों में लिखें। तारीखें अंकों में ही लिखें। प्रयोग में ऐसा नहीं हो पाता। प्रयोग करने वाले और इस प्रयोग को जाँचने वाले या तो एकमत नहीं हैं या इसके जानकार नहीं हैं। देशों के नाम, शहरों के नाम यहाँ तक कि व्यक्तियों के नाम भी अलग-अलग ढंग से लिखे जाते हैं। इसी तरह उर्दू या अंग्रेज़ी के शब्दों को लिखने के लिए नुक्तों का प्रयोग है। आचार्य किशोरीदास वाजपेयी नुक्तों को लगाने के पक्ष में नहीं थे। उनके विचार से हिन्दी की प्रकृति शब्दों को अपने तरीके से बोलने की है। इधर अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग धुआँधार बढ़ा है। नुक्ते लगाने में एक खतरा यह है कि ग़लत लग गया तो क्या होगा। उर्दू में ज़ंग और जंग में फर्क होता है। रेफ लगाने में अक्सर गलतियाँ होतीं हैं। आशीर्वाद को आप ज़्यादातर जगह आर्शीवाद पढ़ेंगे और मॉडर्न को मॉर्डन। मनश्चक्षु, भक्ष्याभक्ष्य, सुरक्षण, प्रत्यक्षीकरण जैसे क्ष आधारित शब्द लिखने वाले गलतियाँ करते हैं। इनमें से काफी शब्दों का इस्तेमाल हम करते ही नहीं, पर क्ष को फेंका भी नहीं जा सकता।
गलतियाँ करने वाले इच्छा को इक्षा, कक्षा को कच्छा लिखते हैं। क्षात्र और छात्र का फर्क नहीं कर पाते। ऐसा ही ण के साथ है। इसमें ड़ घुस जाता है। फिर लिंग की गड़बड़ियाँ हैं। दही, ट्रक, सड़क, स्टेशन, लालटेन, सिगरेट, मौसम, चम्मच,प्याज,न्याय पीठ स्त्रीलिंग हैं या पुर्लिंग? बड़ा भ्रम है। सीताफल, कद्दू, कासीफल, घीया, लौकी, तोरी, तुरई जैसे सब्जियों-फलों के नाम अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग हैं। यह सूची काफी बड़ी है। हाल में खेल, बिजनेस और साइंस के तमाम नए शब्द आए हैं। उन्हें किस तरह लिखें इसे लेकर भ्रम रहता है।
शैली पुस्तिका बनाने का मेरा एक अनुभव वैचारिक टकराव का है। एक धारणा है कि हमें अपने नए शब्द बनाने चाहिए। जैसे टेलीफोन के लिए दूरभाष। काफी लोग मानते हैं कि टेलीफोन चलने दीजिए। चल भी रहा है। इंटरनेट की एक साइट है अर्बन डिक्शनरी डॉट कॉम। इसपर आप जाएं तो हर रोज़ अंग्रेज़ी के अनेक नए शब्दों से आपका परिचय होगा। ये प्रयोग किसी ने अधिकृत नहीं किए हैं। पत्रकार चाहें तो अनेक नए शब्द गढ़ सकते हैं। नए शब्दों को स्टाइलशीट में रखने की व्यवस्था होनी चाहिए। सम्पादकीय विभाग के लिए विकसित हो रहे सॉफ्टवेयरों में इस तरह की व्यवस्थाएं की जा सकती हैं।
स्टाइलशीट का सबसे नया पहलू डिज़ाइन का है। अखबार के डिज़ाइन के बाबत मूल धारणा और प्रयोग डिज़ाइन की स्टाइलबुक में हो तो बेहतर है। यहाँ मेरा आशय क्वार्क या पेजमेकर की स्टाइलशीट से नहीं है। मेरा आशय है कि ग्रैफिक प्रयोगों, खासकर टैक्स्ट और विज़ुअल के गुम्फ़न से है। इसे इनफोग्रैफ कहते हैं। इसका चलन हिन्दी में कम है। यह विधा जानकारी को बेहतर ढंग से पाठक तक पहुँचाती है। रंगों और फॉर्म के प्रयोग किसी अखबार या किसी विषय की पहचान बन सकते हैं। इसे सार्थक बनाने के लिए स्टाइलशीट की ज़रूरत होती है। बल्कि लेखन, सम्पादन और डिज़ाइन के समन्वय के लिए ग्रिड बनाकर काम किया जा सकता है।
इतने सारे अखबारों के बीच अलग पहचान बनाने के लिए खास विषयों और उनके प्रेजेंटेशन पर फोकस की ज़रूरत होती है। इसके लिए लिखने से लेकर पेश करने तक क्वालिटी चेक के कई पायदान होने चाहिए। इधर हुआ इसका उल्टा है। अखबारों से प्रूफ रीडर नाम का प्राणी लुप्त हो गया। अब यह मानकर चलते हैं कि कोई कॉपी रिपोर्टर लिख रहा है तो उसमें प्रयुक्त वर्तनी आदि देखने की जिम्मेदारी उसकी है। व्यवहार में ऐसा नहीं है। रिपोर्टर ही नहीं अब कॉपी डेस्क पर भी भाषा और विषय की अच्छी समझ वाले लोग कम हो रहे हैं। मीडिया हाउसों को इस तरफ ध्यान देना चाहिए। अक्सर टीवी चैनलों के स्क्रॉल और कैप्शनों में बड़ी गलतियाँ होतीं हैं। सुपरिभाषित शैली पुस्तिका और एक अंदरूनी गुणवत्ता सिस्टम इसे ठीक कर सकता है। 
समाचार फॉर मीडिया कॉम पर प्रकाशित