सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ
महाभियोग लाए जाने के पक्ष में एक दलील यह दी जा रही है कि महाभियोग
सांविधानिक-व्यवस्था है और संविधान में बताए गए तरीके से ही इसका नोटिस दिया गया
है. दूसरी बात यह कही जा
रही है कि इसके पीछे राजनीतिक उद्देश्य नहीं हैं, यह शुद्ध न्यायिक-मर्यादा की
रक्षा में उठाया गया कदम है. संसद में इस विषय पर विचार होगा या नहीं यह बाद की
बात है, इस समय यह विषय आम चर्चा में है. सवाल है कि न्यायालय की भावना को लेकर इस
किस्म की सार्वजनिक चर्चा करना क्या न्यायिक मर्यादा के पक्ष में है? कहा जाता है कि महाभियोग लाने वालों का उद्देश्य इस चर्चा को बढ़ावा देने का ही
है. वे चाहते हैं कि सन 2019 के चुनाव तक यह चर्चा चलती रहे. संसद में संख्या-बल को देखते हुए तो यह प्रस्ताव पास होने की संभावना यों भी
कम है.
एक सवाल यह भी है कि क्या यह प्रस्ताव पार्टियों की तरफ से रखा गया है या
64 सदस्यों की व्यक्तिगत हैसियत से लाया गया है? तब
इस सिलसिले में शुक्रवार को हुई प्रेस कांफ्रेंस का आयोजक किसे माना जाए? सात
दलों को या 64 सदस्यों के प्रतिनिधियों को? इस प्रेस
कांफ्रेंस में जो बातें कही गईं, उन्हें चर्चा माना जाए या नहीं? हमारे
संविधान ने संसद सदस्यों को कई तरह के विशेषाधिकार दिए हैं. सार्वजनिक हित में वे
ऐसे विषयों पर भी चर्चा कर सकते हैं, जिनपर सदन के बाहर बातचीत सम्भव नहीं
(अनुच्छेद 105). मसलन वे सदन के भीतर मानहानिकारक बातें भी कह सकते हैं, जिनके लिए
उन्हें उत्तरदायी नहीं माना जाता है. सामान्य नागरिक का वाक्-स्वातंत्र्य अनुच्छेद
19(2) में निर्दिष्ट निबंधनों के अधीन है. मानहानि-कानून के अधीन. पर सांसद को संसद
या उसकी समिति में कही गई किसी बात के लिए न्यायालय में उत्तरदायी नहीं ठहराया जा
सकता.
इसके बावजूद न्यायपालिका की मर्यादा की रक्षा के लिए संसद में भीतर भी वाक्-स्वातंत्र्य सीमित है. उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय के किसी
न्यायाधीश के अपने कर्तव्यों के निर्वहन में किए गए, आचरण के विषय में
संसद में कोई चर्चा, उस न्यायाधीश को हटाने की प्रार्थना
करने वाले आवेदन को राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत करने के प्रस्ताव पर सदन में विचार की अनुमति मिलने के बाद ही होगी, अन्यथा
नहीं (अनुच्छेद 121). सवाल है कि इन दिनों हम जो विमर्श देख-सुन रहे हैं, वह इस
दायरे में आएगा या नहीं? यह विषय भी अब अदालत के सामने है. इस सिलसिले में बीजेपी और कांग्रेस के अलावा दूसरे दलों के जो राजनीतिक बयान आ रहे हैं, उनसे नहीं लगता कि किसी की दिलचस्पी न्यायिक मर्यादा में है. देश में वकीलों और कानून के जानकारों के बीच भी जबर्दस्त विभाजन देखने को मिल रहा है, जबकि जरूरत इस बात की है कि कम से कम कुछ मामलों पर सर्वानुमति हो.
इतिहास
के कुछ लम्हे ऐसे होते हैं, जिनका असर सदियों तक
होता है। उनका निहितार्थ बरसों बाद समझ में आता है। दुनिया में लोकतांत्रिक-व्यवस्था सदियों के अनुभव से विकसित हुई है। बेशक यह पूर्ण और
परिपक्व नहीं है, पर जैसी भी है उसका
विकल्प नहीं है। उसकी सीमाओं और सम्भावनाओं को लेकर हमारे मन के द्वार हमेशा खुले
रहने चाहिए। इसी रोशनी में और ठंडे
दिमाग से सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ रखे गए महाभियोग
प्रस्ताव को देखना चाहिए।