Sunday, April 29, 2018

कर्नाटक-चुनाव के राष्ट्रीय निहितार्थ


कर्नाटक विधानसभा चुनाव के लिए नाम वापसी के बाद अब मुकाबले साफ हो गए हैं। वहाँ दो नहीं तीन राजनीतिक शक्तियाँ मुकाबले में हैं। कांग्रेस, बीजेपी और जेडीएस। जेडीएस के साथ बहुजन समाज पार्टी भी चुनाव मैदान में है, जिसके 18 प्रत्याशी मैदान में है। जेडीएस और बसपा-गठबंधन के निहितार्थ चुनाव परिणाम आने के बाद बेहतर समझ में आएंगे, क्योंकि मुकाबला केवल उन 18 सीटों पर ही महत्वपूर्ण नहीं होगा, जहाँ बसपा चुनाव लड़ रही है। कर्नाटक में दलित-वोटरों की संख्या सबसे ज्यादा है, तकरीबन उतनी ही, जितनी उत्तर प्रदेश में है। कई मानों में कर्नाटक की सामाजिक-संरचना उत्तर प्रदेश जैसी है। बीएसपी वहाँ प्रवेश करना चाहती है।

राज्य में ही नहीं राष्ट्रीय राजनीति में अबकी बार बीजेपी के हिन्दुत्व की परीक्षा है। दक्षिण भारत के इस हिस्से में अतीत में काफी धर्मांतरण हुआ है। खाड़ी देशों में रोजगार के कारण यहाँ का मुस्लिम-समुदाय समृद्ध है। राज्य में तीन राजनीतिक शक्तियों के कारण चुनाव-परिणामों को लेकर संदेह है कि वह किसी एक पक्ष में जाएंगे भी या नहीं। राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से ये चुनाव कांग्रेस और बीजेपी दोनों के लिए जीवन और मरण का सवाल बने हुए हैं। यह चुनाव इस साल राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव परिणामों को प्रभावित ही नहीं करेगा, बल्कि सन 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए भी महत्वपूर्ण साबित होगा। बीजेपी जीती तो तीनों हिन्दी राज्यों में बीजेपी के चुनाव-प्रचार में जान पड़ेगी। नहीं जीती तो सम्भव है कि लोकसभा चुनाव समय से पहले हो जाएं।

Friday, April 27, 2018

निराशाराम!!!

एक नाबालिग लड़की से बलात्कार के मामले में जोधपुर कोर्ट ने बाबा आसाराम को उम्र कैद की सज़ा सुनाई है। उनके साथियों को भी सजाएं हुईं हैं। आसाराम बापू का नाम उन बाबाओं में लिया जाता है, जिनका गहरा राजनीतिक रसूख रहा है। देश के बड़े-बड़े नेता उनके दरबार में मत्था टेकते रहे हैं। कांग्रेस पार्टी ने एक वीडियो जारी किया है, जिसमें नरेन्द्र मोदी के साथ आसाराम नजर आ रहे हैं। सच यह है कि बीजेपी ही नहीं, कांग्रेस के बड़े नेता भी उनके भक्त रहे हैं। भक्तों की बड़ी संख्या राजनीति को इस धंधे की तरफ खींचती है।  

संयोग है कि पिछले दो-तीन साल में एक के बाद अनेक कथित संतों का भंडाफोड़ हुआ है। बाबा रामपाल, आसाराम बापू और फिर गुरमीत राम रहीम की जेल-यात्रा ने भारत की बाबा-संस्कृति को लेकर बुनियादी सवाल खड़े किए हैं। क्या बात है, जो इन बाबाओं के पीछे इतनी बड़ी संख्या में भक्त खड़े हो जाते हैं? आसाराम बापू के संगठन का दावा है कि दुनियाभर में उनके चार करोड़ भक्त हैं। वे यह मानने को तैयार नहीं कि बाबा पर लगे आरोप सही हैं। वे मानते हैं कि उन्हें फँसाया गया है।

Thursday, April 26, 2018

संतन को कहा सीकरी सों काम


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संतों को राज्याश्रय नहीं जनाश्रय चाहिए। उनका रहन-सहन भी आम लोगों जैसा होता है। इस नजरिए से आज के प्रसिद्ध संतों को संत कहना अनुचित है। उनकी जीवन शैली को देखें, तो यह अंतर बड़ा साफ नजर आता है। सम्भव है आज भी उस परम्परा के संत हमारे बीच हों, पर ज्यादातर प्रसिद्ध संत देश की संत परम्परा के उलट हैं। ऐसा क्यों है, विचार इसपर होना चाहिए। बहरहाल इस अंतर को पंद्रहवीं-सोलहवीं सदी के संत कुम्भनदास (1468-1583) के उदाहरण से समझा जा सकता है। कुम्भनदास अष्टछाप के प्रसिद्ध कवि थे। वे ब्रज में गोवर्धन से कुछ दूर जमुनावतो गाँव में रहते थे। अपने गाँव से वे पारसोली चन्द्रसरोवर होकर श्रीनाथ जी के मन्दिर में कीर्तन करने जाते थे। उनका जन्म क्षत्रिय कुल में हुआ था। उन्होंने 1492 में महाप्रभु वल्लभाचार्य से दीक्षा ली थी।

कुम्भनदास पूरी तरह से विरक्त और धन, मान, मर्यादा की इच्छा से कोसों दूर थे। उन्होंने किसी के सामने हाथ नहीं पसारा। अलबत्ता उनकी रचनाओं की लोकप्रियता के कारण एक दौर ऐसा आया जब बड़े-बड़े राजा-महाराजा उनका दर्शन करने में सौभाग्य मानने लगे। आर्थिक संकट और दीनता के बावजूद उन्होंने राज्याश्रय को स्वीकार नहीं किया। बादशाह अकबर की राजसभा में किसी गायक ने कुम्भनदास का पद गाया, तो बादशाह ने उस पद के लेखक कुम्भनदास को फतेहपुर सीकरी बुलाया।

कुम्भनदास जाना नहीं चाहते थे,  पर दूतों का विशेष आग्रह देखकर वे पैदल ही गए। पर उन्हें अकबर का ऐश्वर्य दो कौड़ी का लगा। वहाँ इनका बड़ा सम्मान हुआ, पर कुम्भनदास को इसका खेद ही रहा कि जिसका चेहरा देखने से दुःख होता है, उसे सलाम बोलना पड़ा। उनका यह पद संत-परम्परा को स्थापित करता है कि जो फक्कड़ है, वही संत है।

संतन को कहा सीकरी सों काम/आवत जात पनहियाँ टूटी, बिसरि गयो हरि नाम/जिनको मुख देखे दुख उपजत, तिनको करिबे परी सलाम/कुम्भनदास लाल गिरिधर बिनु और सबै बेकाम।


Tuesday, April 24, 2018

न्यायिक-मर्यादा पर हावी होती राजनीति

जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ विपक्ष के महाभियोग प्रस्ताव के नोटिस को उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने खारिज कर दिया है, पर यह विवाद जल्द ही खत्म नहीं होगा. पिछले हफ्ते के घटनाक्रम ने हमारी न्याय-व्यवस्था को धक्का पहुँचाया है. कपिल सिब्बल ने रविवार को कहा था कि उप राष्ट्रपति इस नोटिस को खारिज नहीं कर पाएंगे, क्योंकि इसका उन्हें अधिकार नहीं है. उनके अनुसार सदन के सभापति को तीन सदस्यों वाली एक जाँच समिति बनानी चाहिए, जिसकी राय मिलने के बाद इस प्रस्ताव पर विचार करने या उसे खारिज करने का फैसला होना चाहिए. यह बात उन्होंने राजनीतिक-पेशबंदी में कही थी, या विधिवेत्ता के रूप में, कहना मुश्किल है. विडंबना है कि दोनों के बीच विभाजक रेखा बहुत महीन रह गई है. यह बात दोनों राजनीतिक पक्षों के लिए कही जा सकती है. 

बहरहाल उप राष्ट्रपति ने इस नोटिस को पहले चरण पर ही अस्वीकार कर दिया है, इसलिए सम्बद्ध दूसरा पक्ष अब सुप्रीम कोर्ट जा सकता है. वह उप राष्ट्रपति के अधिकार को चुनौती देगा. कांग्रेस के प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा है कि उप राष्ट्रपति को इस प्रस्ताव पर फैसला करने का अधिकार नहीं है. ज़ाहिर है कि अब इस प्रक्रिया में कुछ समय लगेगा. कुछ नए सवाल भी खड़े होंगे. जितनी तेजी से उप राष्ट्रपति ने फैसला किया है, उससे लगता है कि सत्तारूढ़ दल ने पेशबंदी कर ली है. यह भी साफ है कि अब यह सीधे कांग्रेस और बीजेपी के बीच टकराव का मामला बन गया है. शुद्ध न्यायिक मसला नहीं रह गया, जिसका दावा कांग्रेस कर रही है.  

Sunday, April 22, 2018

खतरे में न्यायिक-मर्यादा


सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग लाए जाने के पक्ष में एक दलील यह दी जा रही है कि महाभियोग सांविधानिक-व्यवस्था है और संविधान में बताए गए तरीके से ही इसका नोटिस दिया गया है. दूसरी बात यह कही जा रही है कि इसके पीछे राजनीतिक उद्देश्य नहीं हैं, यह शुद्ध न्यायिक-मर्यादा की रक्षा में उठाया गया कदम है. संसद में इस विषय पर विचार होगा या नहीं यह बाद की बात है, इस समय यह विषय आम चर्चा में है. सवाल है कि न्यायालय की भावना को लेकर इस किस्म की सार्वजनिक चर्चा करना क्या न्यायिक मर्यादा के पक्ष में है? कहा जाता है कि महाभियोग लाने वालों का उद्देश्य इस चर्चा को बढ़ावा देने का ही है. वे चाहते हैं कि सन 2019 के चुनाव तक यह चर्चा चलती रहे. संसद में संख्या-बल को देखते हुए तो यह प्रस्ताव पास होने की संभावना यों भी कम है.
एक सवाल यह भी है कि क्या यह प्रस्ताव पार्टियों की तरफ से रखा गया है या 64 सदस्यों की व्यक्तिगत हैसियत से लाया गया है? तब इस सिलसिले में शुक्रवार को हुई प्रेस कांफ्रेंस का आयोजक किसे माना जाए? सात दलों को या 64 सदस्यों के प्रतिनिधियों को?  इस प्रेस कांफ्रेंस में जो बातें कही गईं, उन्हें चर्चा माना जाए या नहीं? हमारे संविधान ने संसद सदस्यों को कई तरह के विशेषाधिकार दिए हैं. सार्वजनिक हित में वे ऐसे विषयों पर भी चर्चा कर सकते हैं, जिनपर सदन के बाहर बातचीत सम्भव नहीं (अनुच्छेद 105). मसलन वे सदन के भीतर मानहानिकारक बातें भी कह सकते हैं, जिनके लिए उन्हें उत्तरदायी नहीं माना जाता है. सामान्य नागरिक का वाक्-स्वातंत्र्य अनुच्छेद 19(2) में निर्दिष्ट निबंधनों के अधीन है. मानहानि-कानून के अधीन. पर सांसद को संसद या उसकी समिति में कही गई किसी बात के लिए न्यायालय में उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता.
इसके बावजूद न्यायपालिका की मर्यादा की रक्षा के लिए संसद में भीतर भी वाक्-स्वातंत्र्य सीमित है. उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश के अपने कर्तव्यों के निर्वहन में किए गए, आचरण के विषय में संसद में कोई चर्चा, उस न्यायाधीश को हटाने की प्रार्थना करने वाले आवेदन को राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत करने के प्रस्ताव पर सदन में विचार की अनुमति मिलने के बाद ही होगी, अन्यथा नहीं (अनुच्छेद 121). सवाल है कि इन दिनों हम जो विमर्श देख-सुन रहे हैं, वह इस दायरे में आएगा या नहीं? यह विषय भी अब अदालत के सामने है. इस सिलसिले में बीजेपी और कांग्रेस के अलावा दूसरे दलों के जो राजनीतिक बयान आ रहे हैं, उनसे नहीं लगता कि किसी की दिलचस्पी न्यायिक मर्यादा में है. देश में वकीलों और कानून के जानकारों के बीच भी जबर्दस्त विभाजन देखने को मिल रहा है, जबकि जरूरत इस बात की है कि कम से कम कुछ मामलों पर सर्वानुमति हो. 


इतिहास के कुछ लम्हे ऐसे होते हैं, जिनका असर सदियों तक होता है। उनका निहितार्थ बरसों बाद समझ में आता है। दुनिया में लोकतांत्रिक-व्यवस्था सदियों के अनुभव से विकसित हुई है। बेशक यह पूर्ण और परिपक्व नहीं है, पर जैसी भी है उसका विकल्प नहीं है। उसकी सीमाओं और सम्भावनाओं को लेकर हमारे मन के द्वार हमेशा खुले रहने चाहिए। इसी रोशनी में और ठंडे दिमाग से सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ रखे गए महाभियोग प्रस्ताव को देखना चाहिए।