Wednesday, May 1, 2024

मतदाता कर पाएगा ‘डिफिडेंस’ और ‘कॉन्फिडेंस’ का फर्क?


 देस-परदेस

पिछले हफ्ते हैदराबाद के एक कार्यक्रम में विदेशमंत्री एस जयशंकर ने कहा कि 2008 के मुंबई आतंकवादी हमले के बाद तत्कालीन यूपीए सरकार ने कुछ भी नहीं करने का फैसला किया था. यह मान लिया गया कि पाकिस्तान पर हमला करने के मुकाबले हमला नहीं करना सस्ता पड़ेगा.

तत्कालीन सरकार के सुरक्षा सलाहकार ने लिखा है कि हमने इस विषय पर विचार-विमर्श किया और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि पाकिस्तान पर हमला करने की कीमत ज्यादा होगी. एस जयशंकर के इस बयान को राजनीतिक चश्मे से, खासतौर से लोकसभा-चुनाव के संदर्भ में देखने की जरूरत है.

जयशंकर के शब्दों में भारतीय विदेश-नीति डिफिडेंस (असमंजस) के दौर से निकल करकॉन्फिडेंस (आत्मविश्वास) के दौर में आ गई है. आज हम अमेरिका के सामने पहले की तुलना में बेहतर आत्मविश्वास के साथ बात कर सकते हैं. इस बात को किसी भी दृष्टि से देखे, पर सच यह है कि भारतीय जनता पार्टी ने विदेश-नीति को भी अपने चुनाव-अभियान में अच्छी खासी जगह दी है.

Thursday, April 25, 2024

फलस्तीनी-एकता के प्रयास और बाधाएं

इस्माइल हानिये और एर्दोआन

 देस-परदेस

दो लेखों की श्रृंखला का दूसरा भाग। इसका पहला भाग यहाँ पढ़ें

पिछले छह महीने से गज़ा में चल रही लड़ाई में हमास के संगठन और सैनिक-तंत्र को भारी क्षति पहुँची है. वह उसकी भरपाई कर पाएगा या नहीं, यह तो वक्त बताएगा, पर यह देखना ज्यादा महत्वपूर्ण है कि फलस्तीनी एकता को लेकर हमास की राय क्या है. हमास और फतह गुट की प्रतिद्वंद्विता से एक मायने में इसराइल को राहत मिली है, क्योंकि अब उसपर फतह का दबाव कम है.

हमास की स्थापना हालांकि 1987 में हो गई थी, पर उसे लोकप्रियता तब मिली, जब फतह ग्रुप के अधीन फलस्तीन अथॉरिटी अलोकप्रिय होने लगी. उसकी अलोकप्रियता के तमाम कारण थे. उसे इसराइल के प्रति नरम माना गया. प्राधिकरण, भ्रष्टाचार का शिकार भी था. 2004 में यासर अरफात के निधन के बाद फतह गुट के पास करिश्माई नेतृत्व भी नहीं बचा.

एक जमाने तक अरफात का गुट ही फलस्तीनियों का सर्वमान्य समूह था. उसने ही इसराइलियों के साथ समझौता किया था. पर प्रकारांतर से आक्रामक हमास गुट बड़ी तेजी से उभर कर आया, जिसने फतह पर इसराइल से साठगाँठ का आरोप लगाया.

दोनों का फर्क

दोनों में अंतर क्या है?  यह अंतर वैचारिक है और रणनीतिक भी. फतह एक तरह से पुरानी लीक के सोवियत साम्यवादी संगठन जैसा है और हमास का जन्म मुस्लिम-ब्रदरहुड से हुआ है. फतह ने इसराइल को स्वीकार कर लिया है और इसराइल ने उसे. दूसरी तरफ हमास और इसराइल के बीच कोई रिश्ता नहीं है. दोनों एक-दूसरे को स्वीकार नहीं करते.

अभी तक हमास और इसराइल के बीच आमतौर पर मध्यस्थ की भूमिका क़तर ने निभाई है, पर अब क़तर कह रहा है कि हम अपनी भूमिका पर पुनर्विचार करेंगे. लगता यह भी है कि तुर्की की इच्छा इस भूमिका को निभाने में है. पर क्या वह फलस्तीनी गुटों के बीच भी मध्यस्थ की भूमिका भी निभा पाएगा?

Wednesday, April 24, 2024

फलस्तीन-समस्या के समाधान में रुकावटें


दो लेखों की श्रृंखला का पहला भाग

दमिश्क में ईरानी दूतावास पर इसराइली हमले और फिर इसराइल पर ईरानी हमले के बाद अंदेशा था कि पश्चिम एशिया में बड़ी लड़ाई की शुरुआत हो गई है. हालांकि अंदेशा खत्म नहीं हुआ है, फिर भी लगता है कि दोनों पक्ष मामले को ज्यादा बढ़ाने के पक्ष में नहीं हैं. यों तो भरोसे के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता, पर लगता है कि शुक्रवार 19 अप्रेल को ईरान के इस्फ़हान शहर पर इसराइल के एक सांकेतिक हमले के बाद फिलहाल मामला रफा-दफा हो गया है. 

अमेरिकी मीडिया ने शुक्रवार की सुबह खबर दी कि इसराइल ने ईरान के इस्फ़हान शहर पर जवाबी हमला बोला है. सबसे पहले अमेरिका के दो अधिकारियों ने कहा कि इसराइल ने ईरान पर मिसाइल से हमला किया. अमेरिकी अधिकारियों ने यह जानकारी सीबीएस न्यूज़ को दी.

इस्फ़हान में ईरान की सेना का बड़ा एयर बेस है और इस क्षेत्र में परमाणु हथियारों से जुड़े कई अहम ठिकाने भी हैं. ईरानी स्रोतों ने पहले कहा कि कोई हमला नहीं हुआ है, पर बाद में माना कि उधर कुछ विस्फोट हुए हैं. साथ ही विश्वस्त सरकारी सूत्रों के हवाले से कहा गया कि देश के कई हिस्सों में जो धमाके सुनाई पड़े थे, वे एयर डिफेंस सिस्टम के अज्ञात मिनी ड्रोन्स को निशाना बनाने के कारण हुए थे.

सुरक्षा परिषद में वीटो

शुक्रवार की शाम तक, ईरान के सरकारी मीडिया ने कहा कि इसराइल के इस हमले से ईरान को कोई ख़ास नुक़सान नहीं पहुँचा और ईरान जवाबी कार्रवाई नहीं करेगा. दोनों देशों की इस समझदारी से क्या फलस्तीन-समस्या के बाबत कोई निष्कर्ष निकाला जा सकता है?  क्या किसी दूरगामी समझौते के आसार निकट भविष्य में बनेंगे? उससे पहले सवाल यह भी है कि फलस्तीन मसले में ईरान की क्या कोई भूमिका है?

इन सवालों पर बात करने के पहले पिछले गुरुवार को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में फलस्तीन को संयुक्त राष्ट्र की पूर्ण सदस्यता देने के एक प्रस्ताव पर भी नज़र डालें, जो अमेरिकी वीटो के बाद फिलहाल टल गया है. इस टलने का मतलब क्या है और इसका फलस्तीन-इसराइल समस्या के स्थायी समाधान से क्या कोई संबंध है?

प्रति-प्रश्न यह भी है कि प्रस्ताव पास हो जाता, तो क्या समस्या का समाधान हो जाता और अमेरिकी वीटो का मतलब क्या यह माना जाए कि वह फलस्तीन के गठन का विरोधी है? सबसे बड़ी रुकावट इसराइल को माना जाता है, जिसकी उग्र-नीतियाँ फलस्तीन को बनने से रोक रही हैं. माना यह भी जाता है कि फलस्तीनियों और उनके समर्थक मुस्लिम-देशों की सहमति बन जाए, तो इसराइल पर भी दबाव डाला जा सकता है.

Monday, April 22, 2024

हिंदी और मध्यम वर्ग का विकास

1853 में जब रेलगाड़ी चली, तब आगरा के साप्‍ताहिक अखबार बुद्धि प्रकाश ने लिखा,हिंदुस्‍तान के निवासियों को प्रकट हो कि एक लोहे की सड़क इस देश में भी बन गई 

अमृतलाल नागर

अमृतलाल नागर का यह लेख 1962 में प्रकाशित हुआ था। इस लेख को मैंने अपने पास कुछ संदर्भों के लिए जमा करके रखा था। ब्लॉग पर लगाने का उद्देश्य यह है कि जिन्होंने इसे नहीं पढ़ा है, वे भी पढ़ लें। इसमें नागर जी ने हिंदी समाचार लेखन की कुछ पुरानी कतरनों को उधृत किया है, जो मुझे रोचक लगीं। हिंदी गद्य के बारे में कुछ लोगों का विचार है कि कलकत्ता के फोर्ट विलियम कॉलेज की खड़ी बोली गद्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका है, पर मुझे कुछ ऐसे संदर्भ मिले हैं, जो बताते हैं कि उसके काफी पहले से खड़ी बोली हिंदी गद्य लिखा जाने लगा था। बहरहाल उस विषय पर कभी और, फिलहाल इस लेख को पढ़ें:

समय निकल जाता है, पर बातें रह जाती हैं। वे बातें मानव पुरखों के पुराने अनुभव जीवन के नए-नए मोड़ों पर अक्‍सर बड़े काम की होती हैं। उदाहरण के लिए, भारत देश की समस्त राष्ट्रभाषाओं के इतिहास पर तनिक ध्यान दिया जाए। हमारी प्रायः सभी भाषाएँ किसी न किसी एक राष्ट्रीयता के शासन-तंत्र से बँध कर उसकी भाषा के प्रभाव या आतंक में रही हैं। हजारों वर्ष पहले देववाणी संस्कृत ने ऊपर से नीचे तक, चारों खूँट भारत में अपनी दिग्विजय का झंडा गाड़ा था। फिर अभी हजार साल पहले उसकी बहन फारसी सिंहासन पर आई। फिर कुछ सौ बरसों बाद सात समुंदर पार की अंग्रेजी रानी हमारे घर में अपने नाम के डंके बजवाने लगी। यही नहीं, संस्कृत के साथ कहीं-कहीं समर्थ, जनपदों की बोलियाँ भी दूसरी भाषाओं को अपने रौब में रखती थीं।

Saturday, April 20, 2024

पिछले पाँच बरसों में कश्मीर में क्या बदला

9 अप्रैल 2024 की इस तस्वीर में इंडिया के ज़ेर-ए-इंतज़ाम कश्मीर के दार-उल-हुकूमत श्रीनगर के एक बाज़ार में लोगों का हुजूम देखा जा सकता है। फोटो: तौसीफ़ मुस्तफ़ा एएफ़पी

नईमा अहमद महजूर
एक ज़माने में मैं बीबीसी की हिंदी और उर्दू प्रसारण सेवाओं को नियमित रूप से सुनता था। सुबह और शाम दोनों वक्त। उसकी  एक वजह लखनऊ के नवभारत टाइम्स का  दैनिक  कॉलम 'परदेस' था, जिसे मैं लिखने लगा था, यों बीबीसी का श्रोता मैं  1965 से था, जब भारत-पाकिस्तान लड़ाई हुई थी।  बहरहाल नव्वे के दशक में  बीबीसी उर्दू सेवा के दो प्रसारक ऐसे थे, जो हिंदी के कार्यक्रमों में भी सुनाई पड़ते थे। उनमें एक थे शफी नक़ी जामी और दूसरी नईमा अहमद महजूर। कार्यक्रमों को पेश करने में दोनों का जवाब नहीं। नईमा अहमद कश्मीर से हैं और उनकी प्रसिद्धि केवल बीबीसी की वजह से नहीं है। वे पत्रकार होने के साथ कथा लेखिका भी हैं। हाल में इंटरनेट की  सैर करते हुए मुझे उनका एक लेख पाकिस्तान के अखबार  'इंडिपेंडेंट 'में पढ़ने को मिला। उर्दू अखबार के लेख को मैं यों तो पढ़ नहीं पाता, पर तकनीक ने अनुवाद और लिप्यंतरण की सुविधाएं उपलब्ध करा दी हैं। उर्दू के मामले में मैं दोनों की सहायता लेता हूँ, पर वरीयता मैं लिप्यंतरण को देता हूँ। लिप्यंतरण भी शत-प्रतिशत सही नहीं होता। इस लेख में भी मैंने कुछ जगह बदलाव किए हैं। बहरहाल लिप्यंतरण से जुड़े मसलों और कश्मीर की स्थितियों को समझने की कोशिश में मैंने इस लेख को चुना है। आप पढ़ें और यदि सुझाव दे सकें, तो दें। लेख के अंत में आपकी टिप्पणी के लिए जगह है। यह लेख काफी ताज़ा है और श्रीनगर के हालात से जुड़ा है। मैं समझता हूँ कि आप भी इसे पढ़ना चाहेंगे।

1 जुमा, 12 अप्रैल 2024

लंदन में पाँच साल रहने के बाद जब मैंने इंडिया के ज़ेर-ए-इंतज़ाम कश्मीर जाने के लिए एयरपोर्ट की राह इख़्तियार की तो अपने आबाई घर पहुंचने का वो तजस्सुस (जिज्ञासा) और जल्दी नहीं थी, जो माज़ी (अतीत) में दौरां सफ़र मैंने हमेशा महसूस की है।

मेरे ज़हन में2019 की यादें ताज़ा हैं।

दिल्ली से श्रीनगर का सफ़र कश्मीरी मुसाफ़िरों के साथ हमकलाम होने में गुज़र जाता। आज तय्यारे में चंद ही कश्मीरी पीछे की नशिस्तों पर बैठे थे जबकि पूरा तय्यारा जापानी और इंडियन सय्याहों (यात्रियों) से भरा पड़ा था।

क्या कश्मीरी हवाई सफ़र कम करने लगे हैं या सय्याहों की तादाद के बाइस (कारण) टिकट नहीं मिलता या फिर वो अब महंगे टिकट ख़रीदने की सकत नहीं रखते?

अपने ज़हन को झटक कर मैंने दुबारा पीछे की जानिब नज़र दौड़ाई शायद कोई जान पहचान वाला नज़र आ जाए। जापानी सय्याह मुँह पर मास्क चढ़ाए मज़े की नींद सो रहे थे और इंडियन खिड़कियों से बाहर बरफ़पोश पहाड़ों की फोटोग्राफी में मसरूफ़ थे।

आर्टिकल-370 को हटाने के बाद इंडियन आबादी को बावर (यकीन) कराया गया है कि इस के ज़ेर-ए-इंतज़ाम जम्मू-ओ-कश्मीर को जैसे आज़ाद करा के इंडिया में शामिल कर दिया गया है।