इतिहास की विसंगतियाँ,
विडंबनाएं
और कटुताएं केवल किताबों में ही नहीं रहतीं। वे लोक-साहित्य,
संगीत और सांस्कृतिक रीति-रिवाजों में भी संचित होती हैं। यह सामाजिक
जिम्मेदारी है कि वह उनसे सबक सीखकर एक बेहतर समाज बनाने की ओर आगे बढ़े,
पर अतीत की अनुगूँज को नकारा नहीं जा सकता। विवेक अग्निहोत्री की
फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ ने राष्ट्रीय-बहस के जो दरवाजे खोले हैं,
उसके सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव दोनों हैं। इस फिल्म में अतीत की
भयावहता के कुछ प्रसंग हैं,
जो हमें विचलित करते हैं। पर इससे
जुड़े कुछ सवाल हैं,
जिनसे फिल्म की उपादेयता या निरर्थकता
साबित होगी।
क्या यह झूठ है?
क्या हम इन घटनाओं से अपरिचित थे? फिल्म में जो दिखाया गया है, क्या वह झूठ या
अतिरंजित है? जब यह हो रहा था, तब
देश क्या कर रहा था? इस उत्पीड़न को क्या नाम देंगे?
नरमेध, जनसंहार या मामूली हिंसा, जो इन परिस्थितियों में हो जाती है? उनके
पलायन को क्या कहेंगे, जगमोहन की साजिश, पंडितों का प्रवास या एक कौम का जातीय सफाया ‘एथिनिक क्लींजिंग’?
फिल्म को लेकर कई तरह का प्रतिक्रियाएं हैं, जिनके
मंतव्यों को भी पढ़ना होगा। देखना होगा कि फिल्म को बनाने के पीछे इरादा क्या है। अलबत्ता इस मामले को देश की राजनीति के चश्मे
से देखने पर हम मूल विषय से भटक जाएंगे। मसलन कहा जाता है कि दिल्ली में वीपी सिंह
के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चा की जो सरकार थी, उसे भारतीय जनता पार्टी का
समर्थन प्राप्त था। समर्थन तो वाम मोर्चा का भी प्राप्त था। इससे साबित क्या हुआ? पंडितों की हत्याएं इस सरकार के आगमन के पहले से चल रही थीं और उनका
पलायन इस सरकार के गिरने के बाद भी जारी रहा। कश्मीर में जेहादियों का असर बढ़ने
के कारणों को हमें कहीं और खोजना होगा।
बहरहाल फिल्म व्यावसायिक रूप से सफल है,
क्योंकि उसे जनता का समर्थन मिला है। पर जैसे नारे सिनेमाघरों में
सुनाई पड़ रहे हैं, क्या वे चिंता का विषय नहीं हैं? दूसरी तरफ कश्मीरी पंडितों की बदहाली
के लिए भारत के मुसलमान दोषी नहीं हैं। सच यह भी है कि इस फिल्म के बनने के साथ ही
इसका विरोध शुरू हो गया था। यह सफलता इसके विरोध की प्रतिक्रिया को भी दर्शा रही
है। हमारी कथित प्रगतिशील राजनीति जमीनी सच्चाई को देख पाती, तो बहुत सी घटनाएं
होती ही नहीं। सवाल है कि यह फिल्म नफरत फैला रही है या इसके पीछे राष्ट्रवादी
चेतना की अभिव्यक्ति है? इसका जवाब बरसों बाद मिलेगा।
झकझोरने वाली फिल्म
तमाम सवाल हैं और उनके संतुलित, वस्तुनिष्ठ और ईमानदार जवाब देना बहुत कठिन काम है। फिल्म न तो पूरी
तरह डॉक्यूमेंट्री है और न काल्पनिक कथाचित्र। इस पृष्ठभूमि पर पहले भी फिल्में
आईं हैं, पर ज्यादातर में भयावहता और कटुता से बचने की
कोशिश की गई है, पर इस फिल्म का ट्रीटमेंट फर्क है। यह
भी नैरेटिव है, जो काफी लोगों को विचलित कर रहा है।
इसे पूरी तरह डॉक्यूमेंट्री के रूप में नहीं बनाया गया है, बल्कि
एक कहानी बुनी गई है, जिसके साथ वास्तविक प्रसंगों को जोड़ा
गया है। शिल्प और कला की दृष्टि से फिल्म कैसी बनी है, यह
एक अलग विषय है, पर इसमें दो राय नहीं कि इसने काफी
बड़े तबके को झकझोर कर रख दिया है।
राजनीतिक उद्देश्य?
क्या इसे राजनीतिक इरादे से बनाया गया है?
फिल्म 11 मार्च, 2022 को रिलीज हुई। पाँच राज्यों में
चुनाव परिणाम आने के बाद। अब कहा जा रहा है कि इसका लक्ष्य गुजरात के चुनाव हैं।
इतना तय है कि इस फिल्म का सामाजिक जीवन पर भारी असर होगा, जो
सिनेमाघरों में दिखाई पड़ रहा है। कश्मीर का मसला मोदी सरकार बनने के बाद खड़ा
नहीं हुआ है। ‘कश्मीर फाइल्स’ को बनाने के पीछे राजनीति है, तो
उसके विरोध के पीछे भी राजनीति है। आप वक्तव्यों को पढ़ें। नेशनल कॉन्फ्रेंस के
नेता मुस्तफा कमाल ने शुक्रवार को कहा कि कश्मीरी पंडितों के साथ जो हुआ, वह उनकी अपनी मर्जी से हुआ। नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता फारूक
अब्दुल्ला उसके लिए जिम्मेदार नहीं थे। राज्य में जगमोहन की सरकार थी। फारूक
अब्दुल्ला वास्तव में जिम्मेदार नहीं थे, पर इसे जगमोहन
की योजना बताना भी गलत है। पंडितों की हत्याएं जगमोहन के आने के काफी पहले से शुरू
हो गईं थीं। दूसरे उनके राज्यपाल बनने के अगले दिन से ही भारी पलायन शुरू हो गया।
इसके पीछे पाकिस्तान-समर्थित जेहादी ग्रुप थे, जो
आज भी वहाँ सक्रिय हैं। कौन छोड़ता है अपना घर? यह
कोई एक-दो दिन या एक-दो साल का घटनाक्रम नहीं था।