एक तरीके से यह
समुद्र-मंथन जैसी गतिविधि है। प्रधानमंत्री ने झाड़-पोंछकर एकदम नई सरकार देश के सामने रख दी है। इसे विस्तार के
बजाय नवीनीकरण कहना चाहिए। अतीत में किसी मंत्रिमंडल का विस्तार
इतना विस्मयकारी नहीं हुआ होगा। संख्या के लिहाज से देखें, तो करीब 45 फीसदी नए
मंत्री सरकार में शामिल हुए हैं। इस मेगा-कैबिनेट विस्तार का मतलब है कि या तो
सरकार अपनी छवि को लेकर चिंतित है या फिर यह इमेज-बिल्डिंग का कोई नया प्रयोग
है। नए मंत्रियों के आगमन से ज्यादा विस्मयकारी है कुछ दिग्गजों का सरकार से पलायन। नरेन्द्र मोदी छोटी सरकार के हामी हैं, पर यह सरकार भारी-भरकम हो गई है। यह उनके विचार के साथ विसंगति है, पर जो भी हुआ है वह राजनीतिक कारणों से है।
इस मंत्रिमंडल
विस्तार को जातीय, भौगोलिक और क्षेत्रीय राजनीति के लिहाज से परखने और समझने में समय
लगेगा, पर इतना स्पष्ट है कि इसमें महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश
की आंतरिक राजनीति को संबोधित किया गया है। जिस तरीके से उत्तर प्रदेश का जातीय-रसायन
इस मंत्रिपरिषद में मिलाया गया है, उससे साफ है कि न केवल विधान सभा के अगले साल
होने वाले चुनाव, बल्कि 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए सरकार ने अभी से कमर कस ली है।
दूसरी तरफ सरकार अपनी छवि को सुधारने के लिए भी कृतसंकल्प लगती है। इसलिए इसमें
राजनीतिक-मसालों के अलावा विशेषज्ञता को भी शामिल किया गया है।
सरकार ने महसूस किया
है कि छवि को लेकर उसे कुछ करना चाहिए। प्रशासनिक अनुभव और छवि के अलावा
सामाजिक-संतुलन बल्कि देश के अलग-अलग इलाकों के माइक्रो-मैनेजमेंट की भूमिका भी इसमें
दिखाई पड़ती है। कई प्रकार के फॉर्मूलों को इस विस्तार में पढ़ा जा सकता है। स्वाभाविक
रूप से मंत्रिमंडल का गठन राजनीतिक गतिविधि है। इसका रिश्ता चुनाव जीतने से ही है।
नए मंत्रियों में उत्तर प्रदेश से सात, महाराष्ट्र से पाँच और गुजरात और कर्नाटक
से चार-चार शामिल हुए हैं। उत्तर प्रदेश में अगले साल चुनाव हैं, जहाँ
सोशल-इंजीनियरी की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। उत्तर प्रदेश में पार्टी ने न केवल
जातीय संरचना को बल्कि राज्य की भौगोलिक संरचना को भी ध्यान में रखा है। गुजरात
में भी अगले साल चुनाव हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी ने स्थापित किया है कि मैं बड़े से बड़ा फैसला करने को तैयार हूँ। इस
परिवर्तन से यह बात भी स्थापित हुई है कि पार्टी और सरकार के भीतर अपनी छवि को
लेकर गहरा मंथन है। कुछेक महत्वपूर्ण नेताओं को छोड़ दें, तो इस बदलाव के छींटे पुरानेमंत्रियों पर पड़े हैं। उनमें रविशंकर प्रसाद, प्रकाश जावडेकर, हर्षवर्धन, संतोष गंगवार, रमेश पोखरियाल निशंक जैसे सीनियर नेता
भी शामिल हैं। डॉ हर्षवर्धन को महामारी और खासतौर से दूसरी लहर का सामना करने में
विफलता की सजा मिली है, पर अर्थव्यवस्था भी मुश्किल में है, फिर भी निर्मला
सीतारमन अपनी जगह कायम हैं।
प्रधानमंत्री ने
निर्मला सीतारमन पर भरोसा जताया है। दूसरी तरफ रविशंकर प्रसाद और प्रकाश जावडेकर
को लेकर अभी समझ में नहीं आ रहा है कि वे क्यों हटे हैं। रविशंकर प्रसाद के कंधों
पर इलेक्ट्रॉनिक्स-क्रांति की जिम्मेदारी थी। ट्विटर और फेसबुक जैसी सोशल मीडिया
कम्पनियों के खिलाफ मोर्चा भी उन्होंने खोला था। क्या उन्हें विफल माना गया? या उन्हें कोई दूसरी भूमिका देने की
योजना है? यही बात प्रकाश
जावडेकर पर लागू होती है। इस समय वे सरकार के सबसे महत्वपूर्ण प्रवक्ता माने जाते
थे। जितना जबर्दस्त मंत्रिमंडल का विस्तार है, उससे ज्यादा जबर्दस्त है सरकार का
संकुचन।