डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया के विनियमन के लिए केंद्र सरकार की नवीनतम कोशिशों को लेकर तीन तरह की दलीलें सुनाई पड़ रही हैं। पहली यह कि विनियमन न केवल जरूरी है, बल्कि इसे ‘नख-दंत’ की जरूरत है। यह बात सुप्रीम कोर्ट ने भी कही है। दूसरी, विनियमन ठीक है, पर इसका अधिकार सरकार के पास नहीं रहना चाहिए। इस दलील में उन बड़ी तकनीकी कंपनियों के स्वर भी शामिल हैं, जिनके हाथों में डिजिटल (या सोशल) मीडिया की बागडोर है। और तीसरी दलील मुक्त-इंटरनेट के समर्थकों की है, जिनका कहना है कि सरकारी गाइडलाइन न केवल अनैतिक है, बल्कि असांविधानिक भी हैं। इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन का यह विचार आगे जाकर आधार, आरोग्य सेतु और प्रस्तावित डीएनए कानून को भी सरकारी सर्विलांस का उपकरण मानता है।
लोकतंत्र के तीन स्तम्भ धीरे-धीरे आकार ले रहे हैं। इनमें पहला राज्य है,
जिसमें सरकार एक निकाय है, और जिसमें न्यायपालिका और राजनीतिक संस्थाएं शामिल हैं।
दूसरे बाजार है, यानी बड़ी तकनीकी कम्पनियाँ। तीसरे स्वयं नागरिक। दुनिया के करीब
सात अरब नागरिकों में से हरेक का अपना एजेंडा है। उनके प्रतिनिधित्व का दावा करने
वाला एक अलग संसार है।
ग्लोबल ऑडियंस
सूचना के नियमन की कोशिश केवल भारत में ही नहीं है। युवाल नोवा हरारी के
शब्दों में ‘वैश्विक समस्याओं के वैश्विक समाधान’ खोजे जा रहे हैं। हाल में पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा
रवि को जमानत पर रिहा करने का आदेश देते हुए अदालत ने कहा था, ‘बोलने और अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता में ग्लोबल ऑडियंस की तलाश का अधिकार शामिल है। संचार पर भौगोलिक
बाधाएं नहीं हैं। एक नागरिक के पास कानून के अनुरूप संचार प्राप्त करने के
सर्वोत्तम साधनों का उपयोग करने का मौलिक अधिकार है।’
स्वतंत्रता का यह एक नया आयाम है। इंटरनेट ने यह वैश्विक-खिड़की खोली है। नागरिक के जानकारी पाने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़े अधिकारों को पंख लगाने वाली तकनीक ने उसकी उड़ान को अंतरराष्ट्रीय जरूर बना दिया है, पर उसकी आड़ में बहुत से खतरे राष्ट्रीय सीमाओं में प्रवेश कर रहे हैं। सोचना उनके बारे में भी होगा।