दोनों बातों में ज्यादा बड़ा सच क्या है? किसी ने लिखा, पकड़ा जाता तो कुछ लोगों के नाम
बताता। इसके जवाब में किसी ने लिखा, सैयद शहाबुद्दीन, गाजी फकीर, मुन्ना बजरंगी और
अतीक अहमद ने किसका नाम बताया? सच तो यह भी है कि विकास
दुबे ने थाने में घुस कर एक राज्यमंत्री की सरेआम हत्या कर दी थी। तीस पुलिस वालों
में से एक ने भी गवाही नहीं दी। जमानत पर छूटकर बाहर आ गया।
यूपी के इस डॉन
की मौत किन परिस्थितियों में हुई, यह विचार का अलग विषय है। सच यह है कि बड़ी
संख्या में लोग इस कार्रवाई से खुश हैं। उन्हें लगता है कि जब कुछ नहीं हो सकता,
तो यही रास्ता है। पिछले साल के अंत में जब हैदराबाद में चार बलात्कारियों की मौत
पुलिस मुठभेड़ में हुई, तब जनता ने पुलिस वालों का फूल मालाओं से स्वागत किया था।
क्यों किया था? ऐसा नहीं कि लोग फर्जी
मुठभेड़ों को सही मानते हैं। सब मानते हैं कि कानून का राज हो, पर कैसे? न्याय-व्यवस्था की सुस्ती और उसके भीतर के
छिद्र उसे नाकारा बना रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि सरकारें पुलिस सुधार से बच रही हैं। राजनीतिक कारणों से मुकदमे वापस लिए जाते हैं और राजनीतिक कारणों से मुकदमे चलाए भी जाते हैं। सिर्फ न्यायपालिका को दोष देना भी गलत है। सरकार समझती है कि अपराधियों को ठोकने से काम चल जाएगा, तो वह गलत सोचती है।