पिछले साल मैंने
फेसबुक पर अपनी एक पोस्ट में लिखा था कि इस साल मैंने अखबारों के कूपन खरीद लिए
हैं, पर अगले साल से मैं अखबार लेना बंद कर दूँगा.
इन दिनों कोरोना के कारण हमारी सोसायटी में अखबार बंद हुए, तो बंद हो ही गए. शायद मैं अब फिर से अखबारों के कूपन नहीं
खरीदूँगा. चूंकि हमें कागज का अखबार पढ़ने की पुरानी आदत है, इसलिए वह काफी सुविधाजनक लगता है. काफी हद तक वह सुविधाजनक
है भी.
बहरहाल पिछले एक
साल में मैंने इंडियन एक्सप्रेस, बिजनेस स्टैंडर्ड, वॉलस्ट्रीट जरनल, स्क्रॉल, लाइव लॉ, ईटी प्राइम, दैनिक भास्कर ई-पेपर,
हिंदू, बिजनेस लाइन, फ्रंटलाइन और
स्पोर्ट्स्टार का कम्बाइंड सब्स्क्रिप्शन लिया है. ईपीडब्लू का मैं काफी पहले से
ग्राहक हूँ. अब लगता है कि ज्यादातर अखबार अब अपने ई-पेपर का शुल्क लेना शुरू
करेंगे. शुल्क से उन्हें कोई बड़ा आर्थिक लाभ नहीं होगा, पर वे इसके सहारे पाठक वर्ग तैयार करेंगे. इसके सहारे वे
विज्ञापन बटोरेंगे.
सूखती स्याही
हाल में मीडिया
विशेषज्ञ सेवंती नायनन ने कोलकाता के अखबार टेलीग्राफ में एक लेख
लिखा था, जिसका आशय कोरोना काल में अचानक आए भारतीय अखबारों के उतार के
निहितार्थ का विश्लेषण करना था. सेवंती नायनन का कहना था कि न्यूयॉर्क टाइम्स,
फाइनेंशियल टाइम्स, वॉशिंगटन पोस्ट और द गार्डियन जैसे अखबारों ने ऑनलाइन सब्स्क्रिप्शन
का अच्छा आधार बना लिया है, जो भारतीय अखबार नहीं बना पाए हैं. सेवंती नायनन का
कहना है कि भारतीय समाचार उद्योग पहले से ही दिक्कत में चल रहा था, ऐसे में यह नई
आपदा परेशानियाँ पैदा कर रही है.