Friday, May 22, 2020

अखबार के अंत का प्रारम्भ


पिछले साल मैंने फेसबुक पर अपनी एक पोस्ट में लिखा था कि इस साल मैंने अखबारों के कूपन खरीद लिए हैं, पर अगले साल से मैं अखबार लेना बंद कर दूँगा. इन दिनों कोरोना के कारण हमारी सोसायटी में अखबार बंद हुए, तो बंद हो ही गए. शायद मैं अब फिर से अखबारों के कूपन नहीं खरीदूँगा. चूंकि हमें कागज का अखबार पढ़ने की पुरानी आदत है, इसलिए वह काफी सुविधाजनक लगता है. काफी हद तक वह सुविधाजनक है भी.
बहरहाल पिछले एक साल में मैंने इंडियन एक्सप्रेस, बिजनेस स्टैंडर्ड, वॉलस्ट्रीट जरनल, स्क्रॉल, लाइव लॉ, ईटी प्राइम, दैनिक भास्कर ई-पेपर, हिंदू, बिजनेस लाइन, फ्रंटलाइन और स्पोर्ट्स्टार का कम्बाइंड सब्स्क्रिप्शन लिया है. ईपीडब्लू का मैं काफी पहले से ग्राहक हूँ. अब लगता है कि ज्यादातर अखबार अब अपने ई-पेपर का शुल्क लेना शुरू करेंगे. शुल्क से उन्हें कोई बड़ा आर्थिक लाभ नहीं होगा, पर वे इसके सहारे पाठक वर्ग तैयार करेंगे. इसके सहारे वे विज्ञापन बटोरेंगे.
सूखती स्याही
हाल में मीडिया विशेषज्ञ सेवंती नायनन ने कोलकाता के अखबार टेलीग्राफ में एक लेख लिखा था, जिसका आशय कोरोना काल में अचानक आए भारतीय अखबारों के उतार के निहितार्थ का विश्लेषण करना था. सेवंती नायनन का कहना था कि न्यूयॉर्क टाइम्स, फाइनेंशियल टाइम्स, वॉशिंगटन पोस्ट और द गार्डियन जैसे अखबारों ने ऑनलाइन सब्स्क्रिप्शन का अच्छा आधार बना लिया है, जो भारतीय अखबार नहीं बना पाए हैं. सेवंती नायनन का कहना है कि भारतीय समाचार उद्योग पहले से ही दिक्कत में चल रहा था, ऐसे में यह नई आपदा परेशानियाँ पैदा कर रही है.

Tuesday, May 19, 2020

सुनो समय क्या कहता है


एक मोटा अनुमान है कि देश में करीब 12 करोड़ प्रवासी मजदूर काम करते हैं. ये सारे मजदूर किसी रोज तय करें कि उन्हें अपने घर वापस जाना चाहिए, तो अनुमान लगाएं कि उन्हें कितना समय लगेगा. हाल में जो रेलगाड़ियाँ चलाई गई हैं, उनमें एकबार में 1200 लोग जाते हैं. ऐसी एक हजार गाड़ियाँ हर रोज चलें, तो इन सबको पहुँचाने में सौ से सवा सौ दिन लगेंगे. ऐसा भी तब होगा, जब एक पॉइंट से चली गाड़ी सीधे मजदूर के घर तक पहुँचाए.

रास्तों और स्टेशनों का व्यापक जाल देशभर में फैला हुआ है. इतने बड़े स्तर पर आबादी का स्थानांतरण आसान काम नहीं है. यह प्रवासन एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है और दुनियाभर में चल रही है. भारत के बाहर काम कर रहे लोगों के बारे में तो अभी हमने ज्यादा विचार किया ही नहीं है. कोरोना-दौर में केवल लोगों के परिवहन की बात ही नहीं है. उनके दैहिक अलगाव, स्वास्थ्य और स्वच्छता सम्बद्ध मानकों का पालन भी महत्वपूर्ण है. इस अफरातफरी के कारण संक्रमण बढ़ रहा है.

Monday, May 18, 2020

कमजोर विकेट पर खड़े इमरान खान


जिस वक्त हम कोरोना वायरस के वैश्विक हमले को लेकर परेशान हैं, दुनिया में कई तरह की गतिविधियाँ और चल रही हैं, जिनका असर आने वाले वक्त में दिखाई पड़ेगा। अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था, डॉलर को पदच्युत करने की चीनी कोशिशों और दूसरी तरफ चीन पर बढ़ते अमेरिकी हमलों वगैरह के निहितार्थ हमें कुछ दिन बाद सुनाई और दिखाई पड़ेंगे। उधर अफगानिस्तान में अंतिम रूप से शांति समझौते की कोशिशें तेज हो गई हैं। अमेरिका के विशेष दूत ज़लमय खलीलज़ाद दोहा से दिल्ली होते हुए इस्लामाबाद का एक और दौरा करके गए हैं। अमेरिका ने पहली बार औपचारिक रूप से कहा है कि भारत को अब तालिबान से सीधी बात करनी चाहिए और अपनी चिंताओं से उन्हें अवगत कराना चाहिए।

मई के दूसरे हफ्ते में एक और बात हुई। भारतीय मौसम विभाग ने अपने मौसम बुलेटिन में पहली बार पाक अधिकृत कश्मीर को शामिल किया। मौसम विभाग ने मौसम सम्बद्ध अपनी सूचनाओं में गिलगित, बल्तिस्तान और मुजफ्फराबाद की सूचनाएं भी शामिल कर लीं। इसके बाद जवाब में रविवार 10 मई से पाकिस्तान के सरकारी चैनलों ने जम्मू-कश्मीर के मौसम का हाल सुनाना शुरू कर दिया है। भारत के मौसम दफ्तर के इस कदम के पहले पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने गिलगित और बल्तिस्तान में चुनाव कराने की घोषणा की थी, जिसपर भारत सरकार ने कड़ा विरोध जाहिर किया था।

कश्मीर में मुठभेड़ें
कश्मीर में आतंकवादियों के साथ सुरक्षाबलों की मुठभेड़ें बढ़ गई हैं, क्योंकि यह समय घुसपैठ का होता है। उधर हिज्बुल मुज़ाहिदीन के कमांडर रियाज़ नायकू की मुठभेड़ के बाद हुई मौत से भी इस इलाके में खलबली है। इसबार सुरक्षाबलों ने नायकू का शव उनके परिवार को नहीं सौंपा। इसके पीछे कोरोना का कारण बताया गया, पर इसका साफ संदेश है कि सरकार अंतिम संस्कार के भारी भीड़ नहीं चाहती। बहरहाल खबरें हैं कि कश्मीर को लेकर पाकिस्तान अपनी रणनीति में बदलाव कर रहा है। हाल में पाकिस्तानी सेना की ग्रीन बुक से लीक होकर जो जानकारियाँ बाहर आईं हैं, उनके मुताबिक पाकिस्तानी सेना अब छाया युद्ध में सूचना तकनीक और सोशल मीडिया का इस्तेमाल और ज्यादा करेगी।

Sunday, May 17, 2020

हम जरूर होंगे कामयाब


पिछले मंगलवार को राष्ट्र के नाम अपने संबोधन के माध्यम से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक पुरानी बहस को एक नए नाम से फिर से शुरू कर दिया है। उन्होंने कहा कि कोविड-19 संकट ने हमें स्थानीय उत्पादन और सप्लाई चेन के महत्व से परिचित कराया है। अब समय आ गया है कि हम आत्मनिर्भरता के महत्व को स्वीकार करें। उनका नया नारा है वोकल फॉर लोकल। प्रधानमंत्री ने अपने इस संदेश में बीस लाख करोड़ रुपये के एक पैकेज की घोषणा की, जिसका विवरण वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने चार दिनों में दिया।

क्या यह पैकेज पर्याप्त है, उपयोगी है और क्या हम इसके सहारे डांवांडोल नैया को मँझधार से निकाल पाएंगे? ऐसे तमाम सवाल हैं, पर बुनियादी सवाल है कि क्या हम इस आपदा की घड़ी को अवसर में बदल पाएंगे, जैसाकि प्रधानमंत्री कह रहे हैं? क्या वैश्विक मंच पर भारत के उदय का समय आ गया है? दुनिया एक बड़े बदलाव के चौराहे पर खड़ी है। चीन की आर्थिक प्रगति का रथ अब ढलान पर है। कुछ लोग पूँजीवादी व्यवस्था का ही मृत्यु लेख लिख रहे हैं। अमेरिकी अर्थव्यवस्था का भी ह्रास हो रहा है। इस बीच जापान ने घोषणा की है कि बड़ी संख्या में उसकी कम्पनियाँ चीन में अपना निवेश खत्म करेंगी। चीन में सबसे ज्यादा जापानी कम्पनियों की सहायक इकाइयाँ लगी हैं। अमेरिकी कम्पनियाँ भी चीन से हटना चाहती हैं। सवाल है कि क्या यह निवेश भारत आएगा? जिस तरह सत्तर के दशक में चीन ने दुनिया की पूँजी को अपने यहाँ निमंत्रण दिया, क्या वैसा ही भारत के साथ अब होगा?

Tuesday, May 12, 2020

बदलता पेट्रो-डॉलर परिदृश्य


पिछले महीने सोमवार 20 अप्रेल को अमेरिकी बेंचमार्क क्रूड वेस्ट टेक्सास इंटरमीडिएट (डब्ल्यूटीआई) में खनिज तेल की कीमतें -40.32 डॉलर के नकारात्मक स्तर पर पहुँच गईं। कच्चे तेल के अंतरराष्ट्रीय वायदा बाजार में यह अजब घटना थी। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि कोरोना वायरस के कारण अमेरिका सहित बड़ी संख्या में देशों में लॉकडाउन है। तेल की माँग लगातार घटती जा रही है। दूसरी तरफ उत्पादन जारी रहने के कारण भविष्य के खरीद सौदे शून्य होने के बाद नकारात्मक स्थिति आ गई। हालांकि यह स्थिति बाद में सुधर गई, फिर भी पेट्रोलियम के भावी कारोबार को लेकर उम्मीदें टूटने लगी हैं। उधर ओपेक देशों और रूस ने येन-केन प्रकारेण अपने उत्पादन को कम करने का फैसला करके भावी कीमतों को और गिरने से रोकने की कोशिश जरूर की है, पर इस कारोबार की तबाही के लक्षण नजर आने लगे हैं। सब जानते हैं कि एक दिन पेट्रोलियम का वर्चस्व खत्म होगा, पर क्या वह समय इतनी जल्दी आ गया है? क्या कोरोना ने उसकी शुरुआत कर दी है?  

कोरोना वायरस ने मनुष्य जाति के अस्तित्व को चुनौती देने का काम किया है।  आधुनिक विज्ञान और तकनीक को इस बात का श्रेय दिया जा सकता है कि उसने एकदम नए किस्म की इस बीमारी की पहचान करने और उसके इलाज के रास्ते खोजने की दिशा में तेजी से काम शुरू कर दिया है। इसकी पहचान करने वाले किट, रोकने वाली वैक्सीन और इलाज करने वाली दवाएं विकसित करने का काम तेजी से चल निकला है। करीब साढ़े तीन महीने पुरानी इस बीमारी को रोकने वाली वैक्सीन की पाँच-छह किस्मों का मनुष्यों पर परीक्षण चल रहा है। आशा है कि अगले एक वर्ष में इसपर पूरी तरह विजय पाई जा सकेगी, पर यह बीमारी विश्व-व्यवस्था के सामने कुछ सवाल लेकर आई है।

नई विश्व व्यवस्था
ये सवाल कम से कम तीन वर्गों में विभाजित किए जा सकते हैं। पहला सवाल पेट्रोलियम से ही जुड़ा है। क्या ऊर्जा के परम्परागत स्रोतों का युग समाप्त होने जा रहा है? विश्व-व्यवस्था और शक्ति-संतुलन में पेट्रोलियम की महत्वपूर्ण भूमिका है। पेट्रोलियम की भूमिका समाप्त होगी, तो उससे जुड़ी शक्ति-श्रृंखलाएं भी कमजोर होंगी। उनका स्थान कोई और व्यवस्था लेगी। हम मोटे तौर पर पेट्रो डॉलर कहते हैं, वह ध्वस्त होगा तो उसका स्थान कौन लेगा?  यह परिवर्तन नई वैश्विक-व्यवस्था को जन्म देगा। क्या पूँजीवाद और समाजवाद जैसे सवालों का भी अंत होगा?  क्या अमेरिका का महाशक्ति रूप ध्वस्त हो जाएगा? क्या भारत का महाशक्ति के रूप में उदय होगा? कोरोना से लड़ाई में राज्य को सामने आना पड़ा। क्या बाजार का अंत होगा? नब्बे के दशक से वैश्वीकरण को जो लहर चली थी, उसका क्या होगा? उत्पादन, व्यापार और पूँजी निवेश तथा बौद्धिक सम्पदा से जुड़े प्रश्नों को अब दुनिया किन निगाहों से देखेगी? इनके साथ ही वैश्विक-सुरक्षा के सवाल भी जुड़े हैं। वैश्विक-सुरक्षा की परिभाषा में जलवायु परिवर्तन और संक्रामक बीमारियाँ भी शामिल होने जा रही हैं, जो राजनीतिक सीमाओं की परवाह नहीं करती हैं।