Wednesday, July 3, 2019

बहस का आग़ाज़ तो ज़ायरा ने ही किया है

ज़ायरा वसीम ने फिल्में छोड़ने का फैसला बगैर किसी सार्वजनिक घोषणा के किया होता, तो शायद इतनी चर्चा नहीं हुई होती. गत 30 जून को उन्होंने अपने फेसबुक पेज पर इस घोषणा के साथ एक लम्बा बयान भी जारी किया, जिसमें उन्होंने अपने आध्यात्मिक अनुभवों का विवरण दिया है. इन अनुभवों पर भी किसी को कुछ भी कहने का हक नहीं बनता है. पर उनके लम्बे वक्तव्य से ध्वनि निकलती है कि वे ‘अनजाने में ईमान के रास्ते से भटक गई थीं.’ उनकी इसी बात पर बहस है. क्या फिल्मों में काम करना ईमान के रास्ते से भटकना है?

ज़ायरा ने लिखा है, ‘इस क्षेत्र ने मुझे बहुत प्यार, सहयोग और तारीफ़ दी, लेकिन यह मुझे गुमराही के रास्ते पर भी ले आया है. मैं ख़ामोशी से और अनजाने में अपने ईमान से बाहर निकल गई. मैंने ऐसे माहौल में काम करना जारी रखा जिसने लगातार मेरे ईमान में दखलंदाजी की. मेरे धर्म के साथ मेरा रिश्ता ख़तरे में आ गया.’ अगरचे उन्होंने यह लम्बा बयान नहीं दिया होता, तो इस बात पर किसी को एतराज नहीं होता. उन्होंने अपने भटकाव को फिल्मों के काम से जोड़ा, इसलिए यह बहस है. धर्म यदि व्यक्तिगत मामला है, तो इसे व्यक्तिगत रखतीं, तो बेहतर था. वे खामोशी से फिल्मों से हट जातीं. चूंकि उनकी सार्वजनिक पहचान है, इसलिए उनसे सवाल फिर भी किए जाते. वे कह सकती थीं कि यह मेरा निजी मामला है.

भारतीय समाज में लड़कियों का फिल्मों में काम करना शुरूआती वर्षों से ही पाप समझा गया. देश की पहली फिल्म में नायिका का रोल करने के लिए लड़के को चुना गया. दादा साहब फाल्के की फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ में तारामती के रोल को निभाने के लिए तवायफें भी तैयार नहीं थीं, तब अन्ना सालुंके को यह रोल दिया गया. उस फिल्म के सौ साल से ज्यादा हो चुके हैं. इन सौ वर्षों में भारतीय जीवन और समाज में काफी बदलाव आए हैं. लड़कियाँ जीवन के हरेक क्षेत्र में आगे आईं हैं. सिनेमा भी एक कार्यक्षेत्र है. इस समझ को ठेस नहीं लगनी चाहिए. व्यक्तिगत कार्य-व्यवहार में जीवन के हर क्षेत्र से शिकायतें मिलती हैं, पर इसके जिम्मेदारी व्यवसाय की नहीं, व्यक्तियों की होती है.

हिन्दी फिल्मों में नर्गिस, मीना कुमारी, मधुबाला, वहीदा रहमान से लेकर शबाना आज़मी तक तमाम मुस्लिम महिलाएं काम करती रहीं हैं और सबका सम्मान है. भारत में ही नहीं तमाम मुस्लिम देशों में भी जहाँ फिल्में बनती हैं, फिल्मों में लड़कियाँ भी काम करती हैं. यह बात बहस का विषय कभी नहीं बनी. ज़ायरा वसीम भी चर्चा का विषय नहीं बनतीं. उनके निर्णय को चुनौती देने की कोई वजह नहीं है, पर एक अंदेशा है. कहीं उनको किसी ने धमकी तो नहीं दी थी?

Monday, July 1, 2019

संस्कृत के प्रति इस अनुराग के मायने क्या हैं?


हाल में नव-निर्वाचित लोकसभा सदस्यों के शपथ-समारोह में देखने को मिला कि हिंदी और संस्कृत में शपथ लेने वालों की संख्या बढ़ रही है और अंग्रेज़ी में शपथ लेने वालों की संख्या कम हो रही है। सन 2014 में जहाँ 114 सदस्यों ने अंग्रेज़ी में शपथ ली, वहीं इसबार 54 ने। सन 2014 में संस्कृत में शपथ लेने वालों की संख्या 39 थी, जो इसबार बढ़कर 44 हो गई। हिंदी और अंग्रेज़ी के बाद तीसरे स्थान पर सबसे ज्यादा शपथ संस्कृत में ली गईं।
इन बातों से क्या हम कोई निष्कर्ष निकाल सकते हैं? क्या संस्कृत भाषा की हमारे जीवन में कोई भूमिका है? संस्कृत ही नहीं देश में शास्त्रीय भाषाओं का महत्व क्या है? क्या इसे सांस्कृतिक-राजनीति मानें? शेष पाँच शास्त्रीय भाषाओं की जीवन के सभी क्षेत्रों में सक्रिय-भूमिकाएं हैं, क्योंकि वे जीवंत-भाषाएँ हैं। संस्कृत भाषा की क्या भूमिका है?


काफी लोग संस्कृत को मृत-भाषा मान चुके हैं। ऐसा नहीं मानें, तब भी आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और शिक्षा के माध्यम के रूप में उसकी भूमिका दिखाई नहीं पड़ती। तब क्या केवल जन-भावनाओं के कारण उसे बढ़ावा दिया जा रहा है? भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रवाद की पृष्ठभूमि में उसकी क्या कोई भूमिका है? सवाल यह भी है कि संस्कृत भाषा की अनदेखी करके क्या आधुनिक भारतीय राष्ट्र-राज्य का विकास हो सकता है?

Sunday, June 30, 2019

किस जमीन पर खड़ी है कांग्रेस?


कांग्रेस फिर संकट में है, पर यह संकट बाहर से नहीं भीतर से पैदा हुआ है। राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने पर अड़े हैं। पार्टी के भीतर से उनपर अध्यक्ष बने रहने का दबाव है। शुक्रवार को सवा सौ के आसपास कांग्रेस पदाधिकारियों ने अचानक इस्तीफे देकर घटनाक्रम को नाटकीय बना दिया। इस्तीफे देने वालों में युवा कांग्रेस, महिला कांग्रेस और सचिव शामिल हैं। एक तरफ राहुल गांधी ने पार्टी के ज्यादातर कामों से हाथ खींच रखा है, वहीं शुक्रवार को उन्होंने छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर मोहन मार्कम को नियुक्त भी किया है।
पार्टी के भीतर और बाहर संशय की स्थिति है। किसी के समझ में नहीं आ रहा है कि राहुल गांधी की योजना क्या है। क्या वे और अधिकार सम्पन्न होना चाहते हैं? या वे आंतरिक लोकतंत्र की किसी व्यवस्था की स्थापना करना चाहते हैं? क्या पार्टी गांधी-नेहरू परिवार के बगैर काम चला सकती है? शुक्रवार को हुए इस्तीफे अनायास नहीं हुए हैं। बुधवार को राहुल गांधी ने युवा कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ पदाधिकारियों से मुलाकात की और उनसे कहा कि मैं अपने इस्तीफे पर कायम हूँ।

Saturday, June 29, 2019

कांग्रेस का नया तराना ‘कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन!’

अचानक न्यू इंडिया शब्द विवाद के घेरे में आ गया है। हाल में अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर सेना की ‘डॉग यूनिट' के कार्यक्रम से जुड़ी तस्वीरें शेयर करते हुए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने ट्वीट किया, जिसमें लिखा, न्यू इंडिया'। उनका आशय क्या था, इसे लेकर अपने-अपने अनुमान हैं, पर सरकारी पक्ष ने उसे देश की नई व्यवस्था पर तंज माना। लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद कांग्रेस पार्टी के कुछ सदस्यों ने देशद्रोह, राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रवाद जैसी बातों को चुनाव में पराजय का कारण माना। हालांकि कांग्रेस ने इस आशय का कोई औपचारिक बयान जारी नहीं किया है, पर परोक्ष रूप से बीजेपी के नए भारत पर लानतें जरूर भेजी जा रही हैं।

संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर चली बहस के दौरान संसद के दोनों सदनों में कांग्रेस के सदस्यों ने पिछली सरकार के पाँच साल पर निशाना लगाया। खासतौर से राज्यसभा में कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद ने ध्यान खींचा। उन्होंने कहा, मैं आपसे निवेदन करता हूं कि नया भारत आप अपने पास रखें और हमें हमारा पुराना भारत दे दें जहां प्‍यार और भाईचारा था। जब मुस्‍लिम और दलित को चोट पहुंचती थी, तब हिंदुओं को पीड़ा का अहसास होता था और जब हिंदुओं की आंखों में कुछ पड़ जाता था तब मुस्लिमों और दलितों की आंखों से आंसू निकल जाते थे।

Wednesday, June 26, 2019

कैसे बचेंगी सरकारी टेलीकॉम कंपनियाँ?

पिछले दो दशक में भारत की सफलता की कहानियों में सबसे बड़ी भूमिका टेलीकम्युनिकेशंस की है. इस दौर में जहाँ निजी क्षेत्र की कई कंपनियाँ तेजी से आगे बढ़ीं, वहीं सार्वजनिक क्षेत्र की बीएसएनएल और एमटीएनएल के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है. यह संकट पूँजी, तकनीक और प्रबंधकीय कौशल तीनों में किसी न किसी प्रकार की खामी का संकेत दे रहा है. सरकार के सामने पहली बड़ी चुनौती इन कंपनियों को बचाने और निजी क्षेत्र की कंपनियों के मुकाबले में खड़ा करने की है. पिछले कई महीनों से खबरें हैं कि हजारों कर्मचारियों की छँटनी होने जा रही है. नई सरकार के सामने बड़ी चुनौती इस बात की है कि कोई अलोकप्रिय फैसला किए बगैर इस संकट का समाधान करे.

खबर है कि बीएसएनएल ने सरकार से कहा है कि अब हम काम नहीं चला पाएंगे. जून के महीने का वेतन देने के लिए भी हमारे पास पैसे नहीं हैं. संस्था पर करीब 13,000 करोड़ रुपये की देनदारी है, जिसके कारण कार्य-संचालन असम्भव है. जून के महीने की तनख्वाह के लिए 850 करोड़ रुपये का इंतजाम करना तक मुश्किल है.