प्रेम से बोलो, जय दीवाली!
जहां में यारो
अजब तरह का है ये त्यौहार।
किसी ने नकद लिया
और कोई करे उधार।।
खिलौने, खीलों, बताशों का गर्म है बाज़ार
हरेक दुकान में चिरागों
की हो रही है बहार।।
मिठाइयों की
दुकानें लगा के हलवाई।
पुकारते हैं
कह--लाला दीवाली है आई।।
बतासे ले कोई, बरफी किसी ने तुलवाई।
खिलौने वालों की
उन से ज्यादा है बन आई।।
नज़ीर अकबराबादी
ने ये पंक्तियाँ अठारहवीं सदी में कभी लिखी थीं. ये बताती हैं कि दीवाली आम
त्यौहार नहीं था. यह हमारे सामाजिक दर्शन से जुड़ा पर्व था. भारत का शायद यह सबसे
शानदार त्यौहार है. जो दरिद्रता के खिलाफ है. अंधेरे पर उजाले, दुष्चरित्रता पर
सच्चरित्रता, अज्ञान पर ज्ञान की और निराशा पर आशा की जीत. यह सामाजिक नजरिया है, ‘तमसो
मा ज्योतिर्गमय.’ ‘अंधेरे से उजाले की ओर जाओ’ यह उपनिषद की आज्ञा है. यह एक पर्व
नहीं है. कई पर्वों का समुच्चय है. हम इसे यम और नचिकेता की कथा के साथ भी जोड़ते
हैं. नचिकेता की कथा सही बनाम गलत, ज्ञान बनाम अज्ञान, सच्चा धन बनाम क्षणिक धन आदि के बारे में बताती है. पर क्या
हमारी दीवाली वही है, जो इसका विचार और दर्शन है? आसपास देखें तो आप पाएंगे कि आज सबसे गहरा अँधेरा और सबसे ज्यादा अंधेर
है। आज आपको अपने समाज की सबसे ज्यादा मानसिक दरिद्रता दिखाई पड़ेगी। अविवेक,
अज्ञान और नादानी का महासागर आज पछाड़ें मार रहा है।