गुजरात में 15 अगस्त को पूर्ण हुई दलित अस्मिता यात्रा ने राष्ट्रीय राजनीति में
एक नई ताकत के उभरने का संकेत किया है। दलितों और मुसलमानों को एक मंच पर लाने की
कोशिशें की जा रहीं है। राजनीति कहने पर हमारा पहला ध्यान ‘वोट बैंक’ पर जाता है। गुजरात में दलित वोट लगभग 7 फीसदी है। इस
लिहाज से यह गुजरात में तो बड़ी राजनीतिक ताकत नहीं बनेगी, पर राष्ट्रीय ताकत बन
सकती है। बेशक इससे गुजरात के चुनाव पर असर पड़ेगा, पर फौरी तौर पर रैली का
राष्ट्रीय निहितार्थ ज्यादा बड़ा है।
इस ताकत को खड़ा करने के पहले कई किन्तु-परन्तु भी
हैं। सच यह है कि सभी दबी-कुचली जातियाँ किसी एक मंच पर या किसी एक नेता के पीछे
खड़ी नहीं होतीं। उनकी वर्गीय चेतना पर जातीय चेतना हावी रहती है। सभी जातियों के
मसले एक जैसे नहीं हैं। प्रायः सभी दलित जातियाँ भूमिहीन हैं। उनकी समस्या
रोजी-रोटी से जुड़ी है। दूसरी समस्या है उत्पीड़न और भेदभाव। जैसे मंदिर में
प्रवेश पर रोक वगैरह। इन दोनों के समाधान पीछे रह जाते हैं और राजनीतिक दल इन्हें ‘वोट बैंक’ से ज्यादा नहीं समझते।