यूपीए सरकार और उसकी राजनीति में अंतर्विरोध था। सरकार
आर्थिक उदारीकरण पर कटिबद्ध थी और पार्टी नेहरूवादी सोच में कैद थी। मोदी सरकार के
सामने भी अंतर्द्वंद है। पर मनमोहन सरकार के मुकाबले वह ज्यादा खुलकर काम कर सकती है।
यह बात योजना आयोग को लेकर चल रही अटकलों के संदर्भ में कही जा सकती है। योजना
मंत्री राव इंद्रजीत सिंह ने पिछले हफ्ते राज्यसभा में लिखित उत्तर में कहा कि
आयोग को फिलहाल खत्म करने या उसके मौजूदा स्वरूप को युक्तिसंगत बनाने का कोई
प्रस्ताव सरकार के विचाराधीन नहीं है। पर इस बार के बजट का साफ संकेत है कि आयोग
के पर कतरे जाएंगे।
योजनागत और गैर-योजनागत व्यय में अंतर पिछली सरकार ने अपने
अंतरिम बजट में ही कर दिया था। सरकारी विभागों को दो तरीके से धनराशि आवंटित होती
है। एक,
वित्त मंत्रालय के जरिए और दूसरे योजना आयोग से। इस विसंगति को दूर किया जा रहा है। यह अवधारणा
मोदी सरकार की देन नहीं है। इसकी सिफारिश रंगराजन समिति ने की थी। पूर्व
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बरसों से इसकी बात करते रहे हैं। उन्होंने अपने विदाई
भाषण में लगातार खुलती जा रही अर्थव्यवस्था में योजना आयोग की भूमिका की समीक्षा
करने की सलाह दी थी। भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में भी आयोग के पुनर्गठन की बात कही
गई है। अलबत्ता वामपंथी दलों को यह विचार पसंद नहीं आएगा।