Sunday, December 29, 2013

सीले पटाखों से कैसे मनेगी कांग्रेस की दीवाली?

पाँच राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव परिणाम आने के पहले राहुल गांधी के चेहरे पर हल्की सी दाढ़ी बढ़ी होती थी। पिछली 22 दिसंबर को फिक्की की सभा में राहुल गांधी का या दूसरे शब्दों में कांग्रेस नया चेहरा सामने आया। इस सभा में राहुल चमकदार क्लीनशेव चेहरे में थे। उद्योग और व्यवसाय के प्रति वे ज्यादा संवेदनशील नज़र आए। संयोग से उसी दिन पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन ने इस्तीफा दिया था। उस इस्तीफे को लोकसभा चुनाव के पहले की संगठनात्मक कवायद माना गया था। अंदरखाने की खबरें हैं कि देश के कॉरपोरेट सेक्टर को सरकार से शिकायतें हैं। विधानसभा चुनाव के पहले तक राहुल गांधी का ध्यान गाँव और गरीब थे। अब शहर, मध्य वर्ग और कॉरपोरेट सेक्टर भी उनकी सूची में है।

Wednesday, December 25, 2013

'आप' की सरकार पर कुछ प्रतिक्रियाएं

मंजुल का कार्टून

फेसबुक पर बीबीसी हिंदी के पेज पर एक पाठक की प्रतिक्रियाः-

कमाल जनता है मेरे देश की
जब आन्दोलन कर
रहे थे तो कहने लगे
 अनशन आन्दोलन से कुछ नही होगा पार्टी बनाइये चुनाव लड़िये!
चुनाव लड़ने लगे तो कहने लगे,
नौसिखिये हैं, बुरी तरह हारेंगे! 
चुनाव जीत गये तो कहते हैं, 
सत्ता के भूखे हैं! 
सत्ता छोड़ के विपक्ष मे बैठने लगे तो कहते हैं, 
के जनता को किये वादे पूरे नहीं कर सकते इसलिये डर गये!
जनता को किये वादे पूरे करने के लिये सरकार बनाने लगे 
तो कहते हैं के
जनता को धोखा दे कर कांग्रेस से हाथ मिला लिया! 
जनता से पूछने गये की क्या कांग्रेस से समर्थन लेके सरकार सरकार बना सकते हैं, 
तो कहते है
की क्या हर काम अब जनता से पूछ के होगा!
मेरे भाई आखिर चाहते क्या हो?
इतने सवाल 50 सालों मे कांग्रेस भाजपा से कर लेते 
तो आज आम आदमी पार्टी की
ज़ुरूरत ही नही पैदा होती!!


फेसबुक पर बीबीसी हिंदी के पेज पर एक और प्रतिक्रियाः-
अल्पमत की सरकार : मेरे विचार में दिल्ली में बनने जा रही "आप" की सरकार को गठबंधन या समर्थन की सरकार के बतौर देखना गलत है, ये सीधे-सीधे अल्पमत की सरकार है जो चुनाव परिणाम आने के बाद रिफ्रेँडम द्वारा जनता के बहुमत की इच्छा के आधार पर बनाया जा रहा है, और इसीलिए आज मजबूरी में कौन इसे समर्थन दे रहा है और कौन नहीं ये महत्वपूर्ण ही नहीं है बल्कि ज्यादा दिलचस्प और निर्णायक तो ये देखना होगा कि कौन पार्टी इस अल्पमत की सरकार को गिराने का दुस्साहस करती है, क्योंकि "आप" की इस सरकार को गिराने केलिए भी भाजपा और काँग्रेस को तो एक साथ मिलकर ही वोटिँग करना पड़ेगा और इसीलिए ये अल्पमत की सरकार भी दोनों पार्टियों पर बहुत भारी पड़ने जा रही है ?

भैया जी ने सरकार बना डाली तो वह अद्भुत सरकार होगी। सरकार ईमानदारी की कही जाएगी, लेकिन समर्थन बेईमानों का होगा। अगर बेईमान लोग चलवाएंगे ईमानदार सरकार तो चल गई सरकार।

Tuesday, December 24, 2013

'आप' ने ओखली में सिर दिया

 मंगलवार, 24 दिसंबर, 2013 को 06:38 IST तक के समाचार
आम आदमी पार्टी के नेता
हिंदी की कहावत है 'ओखली में सिर दिया तो मूसल से क्या डरना?' आम आदमी पार्टी ने जोखिम उठाया है तो उसे इस काम को तार्किक परिणति तक पहुँचाना भी होगा.
यह तय है कि उसे समर्थन देने वाली पार्टी ने उसकी 'कलई खोलने' के अंदाज़ में ही उसे समर्थन दिया है और 'आप' के सामने सबसे बड़ी चुनौती है इस बात को गलत साबित करना और परंपरागत राजनीति की पोल खोलना.
'आप' सरकार की पहली परीक्षा अपने ही हाथों होनी है. यह पार्टी परंपरागत राजनीति से नहीं निकली है.
देखना होगा कि इसका आंतरिक लोकतंत्र कैसा है, प्रशासनिक कार्यों की समझ कैसी है और दिल्ली की समस्याओं के कितने व्यावहारिक समाधान इसके पास हैं?
इससे जुड़े लोग पद के भूखे नहीं हैं लेकिन वे सरकारी पदों पर कैसा काम करेंगे? सादगी, ईमानदारी और भलमनसाहत के अलावा सरकार चलाने के लिए चतुराई की जरूरत भी होगी, जो प्रशासन के लिए अनिवार्य है.

Monday, December 23, 2013

मीडिया-उन्माद का विषय मत बनाइए देवयानी मामले को

देवयानी खोबरागड़े का मामला मीडिया संग्राम का शिकार हो गया। दोनों देशों की सरकारों ने अब इस मामले पर ठंडा पानी डालने की कोशिश की है। हमारे मीडिया को समझना चाहिए कि हर बात को राष्ट्रीय अपमान, पश्चिम के भारत विरोधी रवैये और भारत के दब्बूपन पर केंद्रित न करे। दूसरी ओर पश्चिमी देशों को भारतीय संवेदनशीलता को ध्यान में रखना चाहिए। इधर जब भारत सरकार ने अमेरिकी राजनयिकों को मिल रही सुविधाओं को खत्म करने की घोषणा की तब अखबारों की सुर्खियाँ इस आशय की थीं कि भारत के पास भी रीढ़ की हड्डी है। अमेरिकी विदेश मंत्री के खेद प्रकट करने के बावजूद भारत की ओर से माफी माँगने और इस मुकदमे को वापस लेने की माँग होने लगी।

Sunday, December 22, 2013

'लोक' जाग जाता है तो लोकपाल आता है

लोकपाल विधेयक पास होने के बाद अब अनेक सवाल उठेंगे। क्या अब देश से भ्रष्टाचार का सफाया हो जाएगा? क्या हमें इतना ही चाहिए था? सवाल यह भी है कि यह काम दो साल पहले क्यों नहीं पाया था? जो राजनीतिक दल कल तक इस कानून का मज़ाक उड़ा रहे थे वे इसे पास करने में एकजुट कैसे हो गए? और अरविंद केजरीवाल और उनके साथी जो कल तक अन्ना हजारे के ध्वज वाहक थे आज इसे जोकपाल कानून क्यों कह रहे हैं? राहुल गांधी ने इस कानून को लेकर पहले गहरी दिलचस्पी नहीं दिखाई। वे अब इसे अपना कानून क्यों बता रहे हैं? इसे पास कराने में भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बीच इतनी जबरदस्त सहमति कैसे बन गई?
दो साल पहले केजरीवाल कहते थे कि हम चुनाव लड़ने नहीं आए हैं। उन्होंने चुनाव लड़ा। ऐसी तमाम अंतर्विरोधी बातों से ही एक लोकतांत्रिक व्यवस्था विकसित होती है। इन दिनों अचानक एक नए किस्म की राजनीति ने जन्म लिया है। यह शुभ लक्षण है। जरूरी नहीं कि यह उत्साह बना रहे। संभव है कि निराशा का कोई और कारण हमारे भीतर पैदा हो। फिलहाल हमें धैर्य और समझदारी का परिचय देना चाहिए।