Monday, October 15, 2012

ऐसे जन सत्याग्रहों की हमें ज़रूरत है


मज़रूह सुलतानपुरी  की नज़्म है , 'मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल मगर, लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया।' ( मूल आलेख में मैंने इसे मखदूम मोहियुद्दीन की  रचना लिखा था, जिसे अब मैंने सुधार दिया है। इसका संदर्भ कमेंट में देखें।)

हालांकि एकता परिषद की कहानी के पीछे वामपंथी जोश-खरोश नहीं है। और न इसकी कार्यशैली और नारे इंकलाबी हैं, पर यह संगठन रेखांकित करता है कि आधुनिक भारत का विकास गरीब-गुरबों, दलितों, आदिवासियों, खेत-मज़दूरों और छोटे किसानों के विकास के बगैर सम्भव नहीं है। और इनके अधिकारों की उपेक्षा करके बड़े औद्योगिक-आर्थिक विकास की कल्पना नहीं की जा सकती । पर इस विशाल जन-शक्ति का आवाज़ उठाने के लिए ज़रूरी नहीं है कि कड़वाहट भरा, तिक्त-शब्दावली से गुंथा-बुना सशस्त्र आंदोलन खड़ा किया जाए। इसके कार्यक्रम सुस्पष्ट हैं और इनमें नारेबाजी की जगह मर्यादा और अनुशासन है। इससे जुड़े लोगों ने पूरे देश में कई तरह की यात्राएं की है, जिससे इनका जुड़ाव सार्वदेशिक है। आप चाहें तो इसे राजनीतिक आंदोलन कह सकते हैं क्योंकि आखिरकार यह राजव्यवस्था और राजनीति से जुड़े महत्वपूर्ण सवाल उठाता है, पर सत्ता को सीधे अपने हाथ में लेने का प्रयास नहीं करता है। पिछले हफ्ते इसका  जन सत्याग्रह एक मोड़ पर आकर वापस हो गया। साथ में अनेक सवाल पीछे छोड़ गया। यह बात अलग है कि इसकी आवाज़ उतने ज़ोर से नहीं सुनी गई, जितने ज़ोर से कुछ दूसरे आंदोलनों की सुन ली जाती है। यह बात हमारे लोकतंत्र, सरकारी कार्य-प्रणाली और मीडिया की समझ को भी रोखांकित करती हैं।

पिछले साल जब अन्ना-आंदोलन की लाइव कवरेज मीडिया में हो रही थी, तब थोड़ी देर के लिए महसूस हुआ कि हमारा मीडिया अब राष्ट्रीय महत्व के सवालों को उठाना चाहता है। यह गलतफहमी जल्द दूर हो गई। पिछले हफ्ते 11 अक्टूबर को महानायक अमिताभ बच्चन के जन्मदिन की कवरेज देखने से लगा कि हमारी वरीयताएं बदली नहीं हैं। न जाने क्यों मीडिया की शब्दावली का ‘फटीग फैक्टर’ इन जन्मदिनों पर लागू नहीं होता? साँप-सपेरे, जादू-टोना, प्रिंस, मटुकनाथ, सचिन, धोनी, सहवाग से लेकर राहुल महाजन और राखी सावंत तक सारे प्रयोग करके देख लिए। पर मस्ती-मसाला को लेकर मीडिया थका नहीं। बहरहाल पिछली दो अक्टूबर को ग्वालियर से तकरीबन साठ हजार लोगों का एक विशाल मर्यादित जुलूस दिल्ली की ओर चला था। इसका नाम था जन सत्याग्रह 2012। उम्मीद थी कि इस बार मीडिया की नजरे इनायत इधर भी होगी। और सरकार ने इसी खतरे को भाँपते हुए समय रहते इसे टाल दिया। 

Friday, October 12, 2012

तोता राजनीति के मैंगो पीपुल

भारतीय राज-व्यवस्था के प्राण तोतों में बसने लगे हैं। एक तोता सीबीआई का है, जिसमें अनेक राजनेताओं के प्राण हैं। फिर मायावती, मुलायम सिंह, ममता और करुणानिधि के तोते हैं। उनमें यूपीए के प्राण बसते हैं। तू मेरे प्राण छोड़, मैं तेरे प्राण छोड़ूं का दौर है। ये सब तोते सात समंदर और सात पहाड़ों के पार सात परकोटों से घिरी मीनार की सातवीं मंजिल में सात राक्षसों के पहरे में रहते हैं। तोतों, पहाड़ों और राक्षसों की अनंत श्रृंखलाएं हैं, और राजकुमार लापता हैं। तिरछी गांधी टोपी सिर पर रखकर अरविन्द केजरीवाल दिल्ली में कटी बत्तियाँ जोड़ रहे हैं। हाल में उन्होंने गांधी के हिन्द स्वराज की तर्ज पर एक किताब लिखी है। टोपियाँ पहने  आठ-दस लोगों ने एक नई पार्टी बनाने की घोषणा की है। पिछले 65 साल में भारतीय राजनीति में तमाम प्रतीक और रूपक बदले पर टोपियों और तोतों के रूपक नहीं बदले। इस दौरान हमने अपनी संस्थाओं, व्यवस्थाओं और नेताओं की खिल्ली उड़ानी शुरू कर दी है। आम आदमी ‘मैंगो पीपुल’ में तब्दील हो गया है। संज़ीदगी की जगह घटिया कॉमेडी ने ले ली है। 

Monday, October 8, 2012

समस्या उदारीकरण नहीं, कुप्रशासन है

आधुनिकीकरण, औद्योगीकरण और आर्थिक गतिविधियों में तेजी के बगैर हमारे देश में गहराई तक बैठी गरीबी और पिछड़ेपन को दूर करने का तरीका नज़र नहीं आता। इसके साथ कुछ बातें जुड़ी हैं। जैसे ही ऊपर बताई गतिविधियँ शुरू होंगी सबसे पहले इससे वे लोग ही जुड़ेंगे जो शिक्षित, किसी खास धंधे में कुशल, स्वस्थ और सक्रिय हैं। दुनिया में इस समय जो व्यवस्था है वह पूँजीवादी है। इस दौरान सोवियत संघ और चीन जैसे कुछ देशों में पूँजीवाद का समाजवादी मॉडल आया था, जिसमें नियोजन और लगभग युद्ध की अर्थव्यवस्था के तर्ज पर पिछड़ेपन को दूर करने की कोशिश की गई थी। इस कोशिश में रूस के लाखों किसान मारे गए थे। चीन में ग्राम-केन्द्रित क्रांति हुई थी, जिसने तीन दशक पहले रास्ता बदल लिया। एक मानवीय और उच्चस्तरीय व्यवस्था के आने के पहले जिसे आप समाजवाद कह सकते हैं, पिछड़ेपन से छुटकारा ज़रूरी है। पिछड़ेपन के तमाम रूप हैं। सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक वगैरह। यूरोप और अमेरिका का समाज रूस और चीन के समाज से ऊँचे स्तर पर आ चुका था, पर वहाँ समाजवाद नहीं आया। इसका मतलब यह नहीं कि वहाँ नहीं आ सकता या नहीं आएगा। कार्ल मार्क्स आज प्रासंगिक हैं तो पूँजीवाद के विश्लेषण के कारण। पर उन्होंने अपने समाजवाद की कोई रूपरेखा नहीं दी थी। लेनिन ने अपने तरीके से उसे परिभाषित किया और रूस में एक शुरूआत की। मार्क्सवाद के कुछ प्रवर्तकों को संशोधनवादी कहा जाता है। इनमें बंर्सटीन और कौटस्की भी हैं। इनका विचार है कि पूँजीवादी व्यवस्था का समाजवाद में रूपांतरण होना चाहिए। इस लिहाज से समाजवाद भी पूँजीवाद की तरह वैश्विक विचार है। इस अवधारणा पर जब आगे बढ़ते हैं तब कई प्रकार के विचार एक साथ सामने आते हैं। सोवियत संघ में आर्थिक गतिविधियाँ पूरी तरह राज्य केन्द्रित थीं। वॉशिंगटन कंसेंसस पूरी तरह से निजी हाथों में और समृद्ध होने को आतुर व्यक्तियों के हाथों में सत्ता देने को आतुर है। रूसी साम्यवाद परास्त हुआ और वॉशिंगटन कंसेंसस भी विफल है। पर हम अभी मँझधार में हैं। हमें वैश्विक आर्थिक और तकनीकी प्रतियोगिता में बने रहने के लिए विशाल ताने-बाने की ज़रूरत है। इस प्रयास में टू-जी और कोल-गेट वगैरह होते हैं। ज़रूरत इनके नियमन और जनता के दबाव की है। इसके लिए जनता का स्वस्थ, शिक्षित और जागरूक होना ज़रूरी है। बेहतर हो हम तरीके बताएं कि यह काम कैसे होगा। मेरे विचार से हम लोग मध्य वर्ग से ताल्लुक रखते हैं। यह वर्ग पढ़ा-लिखा और अपेक्षाकृत जागरूक और व्यवस्था को समझने वाला होता है। अभी मैं हस्तक्षेप में अरुण महेश्वरी का लेख पढ़ रहा था। उन्हें ममता बनर्जी के राज में निराशा मिली है। दरअसल वाम मोर्चा को लम्बे समय बाद यह समझ में आया कि रास्ता कहाँ है। तब तक राजनीतिक रूप से वे गलतियाँ कर चुके थे। वामपंथी पार्टियों को वैश्विक गतिविधियों के बरक्स अपने विचार बनाने चाहिए। रूसी म़डल फेल हो चुका है। चीन में अभी कम्युनिस्ट पार्टी का शासन है। यह शासन दो-चार लोगों की साज़िश का परिणाम नहीं है। उसके अंतर्विरोध भी सामने आ रहे हैं। हमें पहले तय करना चाहिए कि हम तेज आधुनिकीकरण चाहते हैं या नहीं। बेशक क्रोनी कैपिटलिज़्म, कॉरपोरेट क्राइम और पूँजी के नाम पर प्राकृतिक सम्पदा का ध्वंस गलत है, पर निजी पूँजी, विदेशी पूँजी और शहरीकरण में चाहिए। यदि आप समझते हैं कि नहीं चाहिए, तब फिर अपनी पूरी बात को बताएं कि आपका रास्ता क्या है।  नीचे सी एक्सप्रेस में प्रकाशित लेख है, पर यह संदर्भ इसलिए ज़रूरी है कि हम सारी चीजों को एक साथ देख रहे हैं। समस्या उदारीकरण है तो उसे खत्म कीजिए। उपयोगी है तो पूरी ताकत से लागू कीजिए।

Friday, October 5, 2012

हिन्दी में रक्षा और सामरिक विषयों पर पत्रिका ‘डिफेंस मॉनिटर’


हिन्दी में रक्षा, आंतरिक सुरक्षा, विदेशनीति और नागरिक उड्डयन जैसे विषयों पर केन्द्रित पत्रिका डिफेंस मॉनिटर का पहला अंक प्रकाशित होकर सामने आया है। अंग्रेज़ी में निश या विशिष्ट पत्रिकाओं का चलन है। हिन्दी में यह अपने किस्म की पहली पत्रिका है। इसका पहला अंक वायुसेना विशेषांक है। इसमें पूर्व नौसेनाध्यक्ष अरुण प्रकाश, एयर मार्शल(सेनि) एके सिंह, एयर वाइस मार्शल(सेनि) कपिल काक, हर्ष वी पंत, घनश्री जयराम और राजीव रंजन के अलावा मृणाल पांडे का उन्नीसवी सदी के भारतीय फौजियों पर विशेष लेख है। इसके अलावा सुखोई विमानों में ब्रह्मोस मिसाइल तैनात करने पर एक विशेष आलेख है। हिन्दी सिनेमा और भारतीय सेना पर आलेख है साथ ही एचएएल के चेयरमैन आरके त्यागी और डीआरडीओ के प्रमुख वीके सारस्वत के इंटरव्यू हैं। पत्रिका के प्रबंध सम्पादक सुशील शर्मा ने बताया कि इसी विषय पर केन्द्रित द्विभाषी वैबसाइट भारत डिफेंस कवच की सफलता के बाद इसे द्वैमासिक पत्रिका के रूप में शुरू किया गया है। कुछ समय बाद इसकी समयावधि मासिक करने की योजना है। पत्रिका के मुख्य सम्पादक हैं प्रमोद जोशी।   

Tuesday, October 2, 2012

न्यूयॉर्कर में समीर जैन और टाइम्स ऑफ इंडिया



बुनियादी तौर पर अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर के जीवन और संस्कृति पर केन्द्रित पत्रिका न्यूयॉर्कर निबंध लेखन, फिक्शन, व्यंग्य लेखन, कविता और खासतौर से कार्टूनों के लिए विशिष्ट है। किसी ज़माने में हिन्दी में भी ऐसी पत्रिकाएं थीं, पर आधुनिकता की दौड़ में हमने सबको खत्म होने दिया। इधर पिछले कुछ वर्षों में भारत केन्द्रित लेख भी प्रकाशित हुए हैं। पत्रिका के ताज़ा अंक (8अक्टूबर,2012) में भारत के समीर जैन, विनीत जैन और टाइम्स ऑफ इंडिया के बारे में इसके प्रसिद्ध मीडिया क्रिटिक केन ऑलेटा का नौ पेज का आलेख छपा है। ऑलेटा 1992 से एनल्स ऑव कम्युनिकेशंस कॉलम लिख रहे हैं। सिटिज़ंस जैन शीर्षक आलेख में उन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया के विस्तार का विवरण दिया है। आलेख के पहले सफे के सबसे नीचे इसका सार इन शब्दों में दिया गया है, "Their success is a product of an unorthodox philosophy."