Thursday, March 8, 2012

चुनाव के सबक

हर चुनाव का कोई सबक होता है और हर चुनाव ऐतिहासिक होता है। पार्टियों का व्यवहार बताता है कि सबक कितनी ईमानदारी से लिया गया। इस बार के चुनाव में खास तौर से उत्तर प्रदेश में एंटी इनकम्बैंसी का फायदा लेने के लिए सिर्फ सपा ही तैयार नज़र आई, कांग्रेस और भाजपा कभी इस दौड़ में दिखाई नहीं दी। इसी बीजेपी का गोवा नेतृत्व सत्ता हाथ में लेने को तैयार नज़र आया। पंजाब में अमरेन्द्र सिंह भी विकल्प के रूप में आगे नहीं बढ़े। देश के चुनींदा अखबारों की सम्पादकीय टिप्पणियाँ दो बातों की ओर इशारा कर रही हैं। एक तो यह कि ये परिणाम कांग्रेस के लिए अपेक्षाकृत ज्यादा दुखद हैं और दूसरे सत्तापक्ष के बराबर ही विपक्ष की भूमिका होती है। उसका काम है सत्ता की कमज़ोरियों पर से पर्दा उठाना। लोकतंत्र का काम तभी पूरा होता है। हिन्दू के सम्पादकीय में इस बात की ओर इशारा किया गया है। टाइम्स ऑफ इंडिया की निगाह में इस चुनाव ने पहचान की राजनीति को परास्त किया है। कहना मुश्किल है कि सपा और बसपा ने इस संदेश को ग्रहण किया है। इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार समाजवादी पार्टी को अब कमान अखिलेश के हाथों में सौंप देनी चाहिए।

Wednesday, March 7, 2012

इस ‘जीत’ के पीछे है एक ‘हार’


दावे हर पार्टी करती है. पर सबको यकीन नहीं होता। समाजवादी पार्टी को यकीन रहा होगा, पर इस बात को खुलकर मीडिया नहीं कह रहा था। वैसे ही जैसे 2007 में नहीं कह पा रहा था। फिर भी यह चुनाव समाजवादी पार्टी की जबर्दस्त जीत के साथ-साथ बसपा, कांग्रेस और भाजपा की हार के कारण भी याद किया जाएगा। इन पराजयों के बगैर सपा की विजय-कथा अपूर्ण रहेगी। साथ ही इसमें भविष्य के कुछ संदेश भी छिपे हैं, जो राजनीतिक दलों और मतदाताओं दोनों के लिए हैं।

यह वोट बसपा की सरकार के खिलाफ वोट था। वैसे ही जैसे पिछली बार सपा की सरकार के खिलाफ था। जिस तरह मुलायम सिंह पिछली बार नहीं मान पा रहे थे लगता है इस बार मायावती भी नहीं मान पा रहीं थीं कि हार सिर पर मंडरा रही है। सरकार को बेहद मामूली काम करना होता है। सामान्य प्रशासन। उसके प्रचार वगैरह की ज़रूरत नहीं होती। और न आलोचनाओं से घबराने की ज़रूरत होती है। छवि को ठीक रखने के लिए सावधान रहने की जरूरत होती है।

Friday, March 2, 2012

कुदानकुलम में नादानियाँ

हमारे स्वतंत्रता आंदोलन की दो बुनियादी बातें थीं। पहली थी स्वतंत्रता और दूसरी आत्म निर्भरता। स्वतंत्रता का मतलब अंग्रेजों की जगह भारतीय साहबों को बैठाना भर नहीं था। स्वतंत्रता का मतलब है विचार-अभिव्यक्ति, आस्था, आने-जाने, रहने, सभाएं करने वगैरह की आज़ादी। इसमें लोकतांत्रिक तरीके से प्रतिरोध की स्वतंत्रता बेहद महत्वपूर्ण है। सामाजिक न्याय और आर्थिक विकास तब तक सम्भव नहीं जब तक नागरिक को प्रतिरोधी स्वर व्यक्त करने की आज़ादी न हो। हमारे संविधान में मौलिक अधिकारों को जिस तरह कानूनी संरक्षण दिया गया है वह विलक्षण है, पर व्यवहार में वह बात दिखाई नहीं पड़ती। 1947 से आज तक यह सवाल बार-बार उठता है कि जनांदोलनों के साथ हमारी व्यवस्था और पुलिस जिस तरह का व्यवहार करती है क्या वह अंग्रेजी सरकारों के तरीके से अलग है?

सुप्रीम कोर्ट ने रामलीला मैदान पर बाबा रामदेव के अनुयायियों पर हुए लाठी चार्ज की निन्दा करके और दिल्ली पुलिस पर जुर्माना लगाकर इस बात को रेखांकित किया है कि शांतिपूर्ण प्रतिरोध लोकतंत्र का बुनियादी अधिकार है। उसके साथ छेड़खानी नहीं होनी चाहिए। संविधान में मौलिक अधिकारों पर युक्तियुक्त प्रतिबंध भी हैं, पर धारा 144 जैसे अधिकार सरकारों को खास मौकों पर निरंकुश होने का मौका देते हैं। रामलीला मैदान में सोते व्यक्तियों पर लाठी चार्ज बेहद अमानवीय और अलोकतांत्रिक था, इसे अदालत ने स्वीकार किया है। यह आंदोलन किस हद तक शांतिपूर्ण था या उसकी माँगें कितनी उचित थीं, यह विचार का अलग विषय है। शांतिपूर्ण आंदोलन की भी मर्यादाएं हैं। आंदोलन के अराजक और हिंसक होने का समर्थन नहीं किया जा सकता, पर सरकारी मशीनरी की अराजकता तो और भी भयावह है।

Friday, February 17, 2012

पश्चिम एशिया के क्रॉस फायर में भारत

बुधवार को ईरानी राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेज़ाद ने तेहरान के रिसर्च रिएक्टर में अपने बनाए नाभिकीय ईंधन के रॉड्स के इस्तेमाल की शुरूआत करके अमेरिका और इस्रायल को एक साथ चुनौती दी है। इस्रायल कह रहा है कि पानी सिर से ऊपर जा रहा है अब कोई कड़ी कारवाई करनी होगी। ईरान ने नाभिकीय अप्रसार संधि पर दस्तखत कर रखे हैं। उसका कहना है एटम बम बनाने का हमारा इरादा नहीं है, पर ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए हमारे एटमी कार्यक्रमों को रोका नहीं जा सकता। इसके साथ ही खबरें मिल रही हैं कि दिल्ली में इस्रायली दूतावास की कार पर हुए हमले का सम्बन्ध बैंकॉक की घटनाओं से जोड़ा जा सकता है।

दिल्ली में इस्रायली दूतावास की गाड़ी में हुआ विस्फोट क्या किसी बड़े वैश्विक महाविस्फोट की भूमिका है? क्या भारतीय विदेश नीति का चक्का पश्चिम एशिया की दलदल में जाकर फँस गया है? एक साथ कई देशों को साधने की हमारी नीति में कोई बुनियादी खोट है? इसके साथ यह सवाल भी है कि हमारी सुरक्षा व्यवस्था इतनी लचर क्यों है? दिल्ली के सबसे संवेदनशील इलाके में इस्रायल जैसे देश की अरक्षित कार को निशाना बनाने में सफल होना हमारी विफलता को बताता है। चिन्ता की बात यह भी है कि प्रधानमंत्री निवास काफी करीब था।

Saturday, February 11, 2012

लोकतांत्रिक राह में असम्भव कुछ भी नहीं

अपनी चुनाव प्रक्रिया को देखें तो आशा और निराशा दोनों के दर्शन होते हैं। पिछले 60 साल के अनुभव ने इस काम को काफी सुधारा है। दो दशक पहले बूथ कैप्चरिंग चुनाव का महत्वपूर्ण हिस्सा थी। चुनाव आयोग की मुस्तैदी से वह काफी कम हो गई। वोटर आईडी और ईवीएम ने भी इसमें भूमिका निभाई। गो कि इन दोनों को लेकर शिकायतें हैं। प्रचार का शोर कम हुआ है। पैसे के इस्तेमाल की मॉनीटरिंग सख्त हुई है। पार्टियों को अपराधियों से बगलगीर होने में गुरेज़ नहीं, पर जनता ने उन्हें हराना शुरू कर दिया है, जिनकी छवि ज्यादा खराब है। मतलब यह भी नहीं कि बाहुबलियों की भूमिका कम हो गई। केवल एक प्रतीकात्मक संकेत है कि जनता को यह पसंद नहीं।

प्रत्याशियों के हलफनामों का विश्लेषण करके इलेक्शन वॉच अपनी वैबसाइट पर रख देता है, जिसका इस्तेमाल मीडिया अपने ढंग से करता है। प्रत्याशियों की आय के विवरण उपलब्ध हैं। अब यह तुलना सम्भव है कि पिछले चुनाव से इस चुनाव के बीच प्रत्याशी के आय-विवरण में किस प्रकार की विसंगति है। जन प्रतिनिधि की शिक्षा से लोकतंत्र का बहुत गहरा नाता नहीं है। व्यक्ति को समझदार और जनता से जुड़ाव रखने वाला होना चाहिए। काफी पढ़े-लिखे लोग भी जन-विरोधी हो सकते हैं। कानूनों का उल्लंघन और अपराध को बचाने की शिक्षा भी इसी व्यवस्था से मिलती है। बहरहाल प्रत्याशियों से इतनी अपेक्षा रखनी चाहिए कि वह मंत्री बने तो अपनी शपथ का कागज खुद पढ़ सके और सरकारी अफसर उसके सामने फाइल रखें तो उस पर दस्तखत करने के पहले उसे पढ़कर समझ सके।