साम्प्रदायिक हिंसा के खिलाफ प्रस्तावित कानून की भावना जितनी अच्छी है उतना ही मुश्किल है इसका व्यावहारिक रूप। यह कानून अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए बनाया जा रहा है। पर इसका जितना प्रचार होगा उतना ही बहुसंख्यक वर्ग इसके खिलाफ जाएगा। हो सकता है कि कांग्रेस को इससे राजनीतिक लाभ मिले, पर भाजपा को भी तो मिलेगा। इस कानून के संघीय व्यवस्था के संदर्भ में भी कुछ निहितार्थ हैं। इसका नुकसान किसे होगा? बहरहाल इस कानून की भावना जो भी हो इसे सामने लाने का समय ठीक नहीं है।
यूपीए दो की सरकार बनने के बाद लगा कि भाजपा के दिन लद गए। अटल बिहारी वाजपेयी के नेपथ्य में जाने के बाद पार्टी के पास मंच पर कोई दूसरा नेता नहीं बचा। पिछले दो साल से पार्टी की नैया हिचकोले खा रही है। पिछले साल झारखंड में शिबू सोरेन के साथ लेन-देन के शुरूआती झटकों के बाद पार्टी के नेतृत्व में सरकार बन गई। कर्नाटक में अच्छी भली सरकार बन गई थी, पर येदियुरप्पा को रेड्डी बंधुओं की दोस्ती रास नहीं आई। सन 2009 के अंत में एकदम अनजाने से नितिन गडकरी पार्टी अध्यक्ष बने तब लगा कि इसे चलाने वालों का सिर फिर गया है। पर वक्त की बात है कि इसे प्रणवायु मिलती रही। इसमे पार्टी की अपनी भूमिका कम दूसरों की ज्यादा है। पिछले डेढ़ साल से भाजपा को यूपीए सरकार प्लेट में रखकर मौके दे रही है। पता नहीं अन्ना-आंदोलन में इनका कितना हाथ था, पर ये फायदा उठा ले गए। और अब सरकार संसद के शीत सत्र में साम्प्रदायिक हिंसा के खिलाफ जो विधेयक पेश करने वाली है, उसका फायदा कांग्रेस को मिले न मिले, भाजपा को ज़रूर मिलेगा।