Monday, August 29, 2011

दस दिन का अनशन


हरिशंकर परसाई की यह रचना रोचक है और आज के संदर्भों से जुड़ी है। इन दिनों नेट पर पढ़ी जा रही है। आपने पढ़ी न हो तो पढ़ लें। इसे मैने  एक जिद्दी धुन  नाम के ब्लॉग से लिया है। लगे हाथ मैं एक बात साफ कर दूँ कि मुझे इसके आधार पर अन्ना हजारे के अनशन का विरोधी न माना जाए। मैं लोकपाल बिल के आंदोलन के साथ जुड़ी भावना से सहमत हूँ। 



10 जनवरी

आज मैंने बन्नू से कहा, " देख बन्नू, दौर ऐसा आ गया है कि संसद, क़ानून, संविधान, न्यायालय सब बेकार हो गए हैं. बड़ी-बड़ी मांगें अनशन और आत्मदाह की धमकी से पूरी हो रही हैं. २० साल का प्रजातंत्र ऐसा पक गया है कि एक आदमी के मर जाने या भूखा रह जाने की धमकी से ५० करोड़ आदमियों के भाग्य का फैसला हो रहा है. इस वक़्त तू भी उस औरत के लिए अनशन कर डाल."

बन्नू सोचने लगा. वह राधिका बाबू की बीवी सावित्री के पीछे सालों से पड़ा है. भगाने की कोशिश में एक बार पिट भी चुका है. तलाक दिलवाकर उसे घर में डाल नहीं सकता, क्योंकि सावित्री बन्नू से नफरत करती है.

कैसा संवाद संकलन?


27 के इंडियन एक्सप्रेस में श्रीमती मृणाल पांडे का लेख प्रकाशित हुआ है, जिसमें हिन्दी अखबारों के संवाददाताओं को विज्ञापन लाने के काम में लगाने का जिक्र है। हिन्दी अखबारों की प्रवृत्तियों पर इंटरनेट के अलावा दूसरे मीडिया पर बहुत कम लिखा जाता है। अन्ना हजारे के अनशन के दौरान कुछ लोगों ने कहा कि हमारी भ्रष्ट-व्यवस्था में मीडिया की भूमिका भी है। ज्यादातर लोग मीडिया से उम्मीद करते हैं कि वह जनता की ओर से व्यवस्था से लड़ेगा। पर क्या मीडिया इस व्यवस्था का हिस्सा नहीं है? और मीडिया का कारोबारी नज़रिया उसे जन-पक्षधरता से दूर तो नहीं करता? बिजनेस तो इस व्यवस्था का हिस्सा है ही। 

मीडिया का कारोबारी चेहरा न तो हाल की उत्पत्ति है और न वह भारत में ही पहली बार उजागर हुआ है। संयोग से हाल में ब्रिटिश संसद ने न्यूज़ ऑफ द वर्ल्ड को लेकर उसके मालिक रूपर्ट मर्डोक की जैसी घिसाई की उससे इतना भरोसा ज़रूर हुआ कि दुनिया के लोग किसी न किसी दिन इस तरफ ध्यान देंगे। अब हम मीडिया शब्द का इतना ज्यादा इस्तेमाल करते हैं कि पत्रकारिता शब्द भूलते जा रहे हैं। मीडिया में कारोबार शामिल है। पत्रकारिता शब्द में झलकता है लिखने-पढ़ने का कौशल और कुछ नैतिक मर्यादाएं।

अन्ना या नो अन्ना, देश की भावना को समझिए



संसद में शनिवार की बहस सुनने के बाद आपको क्या लगता है? संसद में मौजूद सांसदों और पार्टियों का सबसे बड़ा वर्ग टीम अन्ना के प्रस्तावों से सहमत है। ऐसा लगता है कि हर पार्टी गैलरी के लिए बोल रही है। और यह गैलरी पूरा देश नहीं, अपना चुनाव कोना है। अपने समर्थकों तक अपनी बात पहुँचाने की कोशिश में कोई पूरा सच बोलना नहीं चाहता। उन्हें भड़काए रखना चाहता है। संविधान से टकराव और संसदीय मर्यादा की बात सब कह रहे हैं, पर किसका किससे टकराव हुआ? टकराव है तो सामने आता। आश्चर्य इस बात का है कि पिछले छह महीने से देश एक ऐसे मसले की बारीकियों पर पिला पड़ा है, जिससे सिद्धांततः किसी को आपत्ति नहीं। व्यावहारिक आपत्तियों की लम्बी सूची है।

Friday, August 26, 2011

अब अनशन की ज़रूरत नहीं


सर्वदलीय बैठक के अगले दिन लोकसभा में प्रधानमंत्री, विपक्ष की नेता और लोकसभा अध्यक्ष के वचन देने के बाद अन्ना हजारे के आंदोलन का एक चरण पूरा हो गया है। उनका अनशन सफल हुआ है, विफल नहीं। अब उसे जारी रखने की ज़रूरत नहीं। पहली बार देश की संसद ने इस प्रकार का आश्वासन दिया है। अन्ना को श्रेय जाता है कि उन्होंने जनता की नाराज़गी को इस ऊँचाई तक पहुँचाया। अब संसद को फैसला करना चाहिए। बेशक जनता की भागीदारी के मौके कभी-कभार आते हैं, पर जनता का दबाव खत्म हो जाएगा, ऐसा नहीं मानना चाहिए। एक अर्थ में एक नए किस्म का आंदोलन देश में अब शुरू हो रहा है। खत्म नहीं। राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था के तमाम पहलुओं पर अभी विचार होना है। अन्ना चाहते हैं कि उनके जन-लोकपाल बिल पर संसद विचार करे। वह अब होगा। कम से कम उसपर बहस जनता के सामने होगी। इसके बाद जो कानून बनकर आएगा वह सम्भव है जन-लोकपाल विधेयक से ज्यादा प्रभावशाली हो।

Wednesday, August 24, 2011

मीडिया असंतुलित है, अपराधी नहीं

अन्ना हजारे के आंदोलन के उद्देश्य और लक्ष्य के अलावा दो-तीन बातों ने ध्यान खींचा है। ये बातें सार्वजनिक विमर्श से जुड़ी हैं, जो अंततः लोकमत को व्यक्त करता है और उसे बनाता भी है। इस आंदोलन का जितना भी शोर सुनाई पड़ा हो, देश के बौद्धिक-वर्ग की प्रतिक्रिया भ्रामक रही। एक बड़े वर्ग ने इसे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रवर्तित माना। संघ के साथ इसे सवर्ण जातियों का आंदोलन भी माना गया। सिविल सोसायटी और मध्यवर्ग इनकी आलोचना के केन्द्र में रहे।

आंदोलन के विरोधी लोग इसे अल्पजनसंख्या का प्रभावहीन आंदोलन तो कह रहे हैं, पर लगभग नियमित रूप से  इसकी आलोचना कर रहे हैं। यदि यह प्रभावहीन और जन-प्रतिनिधित्वविहीन है तो इसकी इतनी परवाह क्यों है? हालांकि फेसबुक और ट्विटर विमर्श का पैमाना नहीं है, पर सुबह से शाम तक कई-कई बार वॉल पर लिखने से इतना तो पता लगता है कि आप इसे महत्व दे रहे हैं। एक वाजिब कारण यह समझ में आता है कि मीडिया ने इस आंदोलन को बड़ी तवज्जो दी, जो इस वर्ग के विचार से गलत था। इनके अनुसार इस आंदोलन को मीडिया ने ही खड़ा किया।  चूंकि इस आंदोलन के मंच पर कुछ जाने-पहचाने नेता नहीं थे, इसलिए इसे प्रगतिशील आंदोलन मानने में हिचक है।