Sunday, February 16, 2020

‘आप’ की जीत पर कांग्रेस की कैसी खुशी?


दिल्ली में आम आदमी पार्टी की भारी जीत के बाद कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम ने ट्वीट किया, 'आप की जीत हुई, बेवकूफ बनाने तथा फेंकने वालों की हार। दिल्ली के लोग, जो भारत के सभी हिस्सों से हैं, ने बीजेपी के ध्रुवीकरण, विभाजनकारी और खतरनाक एजेंडे को हराया है। मैं दिल्ली के लोगों को सलाम करता हूं जिन्होंने 2021 और 2022 में अन्य राज्यों के लिए, जहां चुनाव होंगे मिसाल पेश की है।' इस ट्वीट के निहितार्थ को समझने के पहले कांग्रेस प्रवक्ता और पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की पुत्री शर्मिष्ठा मुखर्जी के दो ट्वीट पर भी ध्यान देना चाहिए।
चिदंबरम के ट्वीट के पहले उन्होंने ट्वीट किया, ''हम फिर से एक भी सीट नहीं जीत पाए. आत्ममंथन बहुत हो गया अब एक्शन लेने की ज़रूरत है। शीर्ष के नेताओं ने फ़ैसले लेने में बहुत देरी की। हमारे पास कोई रणनीति नहीं थी और न ही एकता थी। कार्यकर्ताओं में निराशा थी और ज़मीन से कोई जुड़ाव नहीं था। कांग्रेस पार्टी के संगठन का हिस्सा होने के नाते मेरी भी ज़िम्मेदारी है।''

Saturday, February 15, 2020

केजरीवाल की चतुर रणनीति


दिल्ली के चुनाव परिणामों ने आम आदमी पार्टी को एकबार फिर से सत्तानशीन कर दिया है, साथ ही भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस को आत्ममंथन का एक मौका दिया है। इसके अलावा इन परिणामों का एक और संदेश है। वह है शहरी वोटर की महत्वपूर्ण होती भूमिका। बीजेपी और कांग्रेस के अलावा उसमें आप के लिए भी कुछ संदेश छिपे हैं। यों तो आप और बीजेपी दोनों सफलता क दाव कर सकती हैं, पर यह केजरीवाल की चतुर रणनीति की जीत है।  
बेशक आप की सरकार लगातार तीसरी बार बनेगी और केजरीवाल मुख्यमंत्री बनेंगे, पर उसकी सीटें कम हुई हैं और वोट प्रतिशत भी कुछ घटा है। ऐसा तब हुआ है, जब कांग्रेस का काफी वोट आप को ट्रांसफर हुआ। बीजेपी की सीटों और वोट प्रतिशत दोनों में वृद्धि हुई है, पर वह आप को अपदस्थ करने में विफल हुई है। सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस का हुआ है, जो वोट प्रतिशत के आधार पर इतिहास के सबसे निचले स्तर पर आ गई है। कुछ पर्यवेक्षक मानते हैं कि कांग्रेस ने बीजेपी को हराने के लिए जानबूझकर खुद को मुकाबले से अलग कर लिया। ऐसा है, तो यह आत्मघाती सोच है।

Thursday, February 13, 2020

दिल्ली चुनाव का राजनीतिक संदेश


दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणाम आने के एक दिन पहले आम आदमी पार्टी के सोशल मीडिया सेल की एक कार्यकर्ता ने ट्वीट किया, जिसका भावार्थ था कि अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में जो शुरुआत की है, उसपर दूसरे राज्यों ने भी चलना शुरू कर दिया है। इस ट्वीट को अरविंद केजरीवाल ने रिट्वीट किया और अपनी टिप्पणी लगाई जिसका आशय था कि दिल्ली ने सस्ती बिजली ने राष्ट्रीय राजनीतिक विमर्श को दिशा दी है और साबित किया है कि इससे वोट भी मिलते हैं।
इस ट्वीट श्रृंखला की शुरुआत इस खबर के साथ हुई थी कि केजरीवाल के फॉर्मूले से प्रभावित होकर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने महाराष्ट्र में सस्ती बिजली देने का कार्यक्रम बनाया है। दिल्ली में फिर से भारी विजय के बाद आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता फिर से कहने लगे हैं कि हमें राष्ट्रीय राजनीति में फिर से प्रवेश करना चाहिए। पार्टी की प्रवक्ता प्रीति शर्मा मेनन ने कहा है कि हम आने वाले समय में महाराष्ट्र के सभी चुनाव लड़ेंगे। सन 2022 में बृहन्मुम्बई महानगरपालिका के चुनाव हैं।

Wednesday, February 12, 2020

राष्ट्रीय राजनीति को बदलेंगे दिल्ली के परिणाम


दिल्ली के चुनाव परिणाम के अनेक संकेत हैं, पर सबसे बड़ा संदेश है शहरी गरीब वोटर की महत्वपूर्ण होती भूमिका. मोटे तौर पर इन परिणामों में बीजेपी, कांग्रेस और आप तीनों के लिए कुछ संदेश छिपे हैं. आप और बीजेपी दोनों अपनी सफलता का दावा कर सकती हैं. बेशक आप की सरकार लगातार तीसरी बार बनेगी और केजरीवाल मुख्यमंत्री बनेंगे, पर उसकी सीटें कम हुई हैं और वोट प्रतिशत भी घटा है. ऐसा तब हुआ है, जब कांग्रेस का काफी वोट आप को ट्रांसफर हुआ.
बीजेपी की सीटों और वोट प्रतिशत दोनों में वृद्धि हुई है, पर वह आप को अपदस्थ करने में विफल हुई है. सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस का हुआ है, जो वोट प्रतिशत के आधार पर इतिहास के सबसे निचले स्तर पर आ गई है. बहरहाल इतना तय है कि ये परिणाम आने वाले समय में राष्ट्रीय राजनीति की धारा को बदलेंगे जरूर.

केजरीवाल की गुगली से भ्रमित भाजपा

केजरीवाल की चतुर रणनीति, लोकसभा चुनाव परिणामों से आत्म मुग्ध भारतीय जनता पार्टी की अंतिम क्षणों में हड़बड़ी और सदा की भांति कांग्रेस की आत्मघाती राजनीति, जिसे इस बात पर संतोष होगा कि बीजेपी भी तो हारी। इस चुनाव ने आम आदमी पार्टी को फिर से सत्तानशीन कर दिया है, साथ ही भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस को आत्ममंथन का मौका दिया है।

इन परिणामों का एक बड़ा संदेश है कि अब आप शहरी गरीब वोटर पर भी ध्यान दें। बीजेपी की लोकसभा चुनाव में भारी विजय के पीछे पुलवामा वगैरह के अलावा ग्रामीण गरीबों के कल्याण की गई उसकी योजनाएं भी थीं। पर वे योजनाएं ग्राम केंद्रित थीं। अब शहरों पर भी ध्यान देना होगा। अगले एक दशक में ग्रामीण आबादी का भारी पलायन शहरों की ओर होगा या बड़े गाँव शहरों की शक्ल लेंगे। दिल्ली में मुफ्त बिजली-पानी का जादू सबने देख लिया है।

Sunday, February 9, 2020

क्या बताने वाले हैं दिल्ली के परिणाम?


दिल्ली विधानसभा चुनाव का शोर-शराबा खत्म हो चुका है, अब परिणाम का इंतजार है। पहली उत्सुकता परिणामों को लेकर ही है। किसकी जीत होगी और किसकी हार? एक्ज़िट पोल बता रहे हैं कि परिणाम कमोबेश 2015 जैसे होंगे, शायद बीजेपी कुछ सीटें बढ़ाने में कामयाब होगी। चुनाव की घोषणा के पहले से कहा जा रहा था कि आम आदमी पार्टी की बढ़त है, पर अंतिम क्षणों में खबरें आईं कि परिणाम आश्चर्यजनक होंगे। वे उतने एकतरफा नहीं होंगे, जितने समझे जा रहे हैं। यानी कि भारतीय जनता पार्टी भी मुकाबले में है। उधर कांग्रेस पार्टी सायास या अनायास इस मुकाबले से बाहर नजर आ रही है। वह मुकाबले में क्यों नहीं है?
तमाम सवालों के जवाब इन परिणामों में छिपे हैं, पर ज्यादा बड़ा सवाल है कि क्या नागरिकता कानून के कारण साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ है? क्या 2024 के लोकसभा चुनाव का यह प्रस्थान-बिंदु है? दिल्ली पूरी तरह राज्य भी नहीं है। राष्ट्रीय राजनीति में उसकी कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं है, फिर भी पिछले कुछ वर्षों से किसी न किसी वजह से दिल्ली की राजनीति राष्ट्रीय चर्चा में रहती है। इसका एक बड़ा कारण सन 2011 का अन्ना आंदोलन है, जिसने भ्रष्टाचार को राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में खड़ा कर दिया था। उसकी परिणति आम आदमी पार्टी के रूप में एक राजनीतिक दल में हुई, जिसे 2013 के चुनाव में पहले आंशिक सफलता मिली और फिर 2015 में भारी। इन दोनों परिघटनाओं के बीच आम आदमी पार्टी और उसकी राजनीति के अंतर्विरोध सामने आते चले गए।

Sunday, February 2, 2020

निराशा दूर करने की कोशिश


अर्थव्यवस्था में सुस्ती आने और गाँवों से लेकर शहरों तक फैली निराशा के बीच वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने बड़ी घोषणाएं करके बताने की कोशिश की है कि सरकार देश की आर्थिक समस्याओं का समाधान करने की पुरजोर कोशिश कर रही है. इस बजट में उन्होंने कोई सेक्टर नहीं छोड़ा. उन्होंने इंफ्रास्ट्रक्चर और कृषि में निवेश घोषणाएं की हैं, साथ ही आय के नए तरीके भी खोजने का प्रयास किया है. मध्य वर्ग और ग्रामीण उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति बढ़ाने के नए तरीके खोजे गए हैं, ताकि वे खर्च करें और उपभोक्ता वस्तुओं का माँग बढ़े. करदाताओं और कम्पनियों को परेशान न किया जाए, इसके लिए कम्पनी कानून में बदलाव होगा, वहीं टैक्स-पेयर चार्टर बनाने की घोषणा भी की गई है.
सरकार ने धनार्जन को उचित मानते हुए कारोबारियों को संतुष्ट करने की कोशिश की है. खर्च बढ़ाने के बावजूद सरकार ने अगले वित्तवर्ष में राजस्व घाटे को जीडीपी के 3.8 फीसदी तक रखने का वायदा किया है. यह वायदा पूरा होगा या नहीं, यह अगले साल ही पता लगेगा. अलबत्ता सरकार पूरे हौसले के साथ मैदान में उतरी है. वित्तमंत्री ने जो बड़ी घोषणाएं की हैं, उनमें जीवन बीमा निगम और रेलवे के आंशिक निजीकरण से जुड़े फैसले हैं. आयकर और कम्पनी कर ढाँचे में व्यापक सुधार और स्टार्टअप्स को बढ़ावा देने की घोषणा की गई है. जीएसटी के और सरलीकरण का वायदा है. सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए पाँच करोड़ तक के कारोबारियों को लेखा परीक्षा से छूट देने की घोषणा की है.

पुरज़ोर इरादों का बजट


पहली नजर में निर्मला सीतारमण का बजट अर्थव्यवस्था की जड़ता और निराशा को दूर करने का प्रयास करता नजर आता है। इसमें जीडीपी की सुस्ती तोड़ने के सभी फॉर्मूलों को एकसाथ लागू करने की कोशिश की गई है। इसमें उपभोक्ता की क्रय शक्ति को बढ़ाने, बाजार में उपलब्ध की माँग बढ़ाने, कारोबारियों को निवेश बढ़ाने और आयात तथा निर्यात दोनों की माँग बढ़ाने का प्रयास है। सरकार चाहती है कि मेक इन इंडिया के साथ-साथ असेम्बल इन इंडिया की अवधारणा को अपना संबल बनाया जाए। विदेशी माल खरीदें और मूल्य-वर्धन कर उसका निर्यात करें। यह उम्मीदों भरा बजट है, फिर भी सवाल अपनी जगह है कि तब शेयर बाजार ने डुबकी क्यों लगाई? शायद शेयर बाजार की दिलचस्पी रियलिटी और विनिर्माण सेक्टर के सिलसिले में बड़ी घोषणाओं तक सीमित थी।
बजट का सकारात्मक प्रभाव होगा, तो सोमवार के बाद शेयर बाजार में भी बदलाव नजर आने लगेगा। बजट को दो नजरियों से देखना चाहिए। एक, सामान्य आर्थिक गतिविधियों और नीतियों के संदर्भ में और दूसरे अर्थव्यवस्था के दीर्घकालीन स्वास्थ्य को पुष्ट करने में इसके योगदान के नजरिए से। छह महीनों से देश में आर्थिक संवृद्धि को लेकर बहस है। पिछली दो तिमाहियों में जीडीपी के आंकड़ों में तेज गिरावट है। अब इस बजट में अगले साल जीडीपी की निवल (नॉमिनल) संवृद्धि 10 फीसदी होने का अनुमान है। आर्थिक समीक्षा में सकल संवृद्धि 6 से 6.5 फीसदी होने का अनुमान बताया गया है। वापसी हुई, तो मतलब होगा कि सरकार नैया को मँझधार से बाहर निकालने में कामयाब हुई है।

Thursday, January 30, 2020

वैश्विक-विमर्श का ज़रिया बनेंगे जनांदोलन


नए साल की शुरुआत आंदोलनों से हो रही है। शिक्षा संस्थानों के परिसर आंदोलनों की रणभूमि बने हैं। मोहल्लों और सड़कों में असंतोष और विरोध के स्वर हैं। देश के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षितिज पर आए बदलावों के अंतर्विरोध मुखर रहे हैं। असंतोष के पीछे व्यवस्था के प्रति नाराजगी है। यह विश्वव्यापी नाराजगी है। वैश्वीकरण केवल आर्थिक अवधारणा नहीं है, वैचारिक भी है।
जनवरी 2011 में हमें मिस्र और ट्यूनीशिया के मध्यवर्ग में असंतोष की खबरें मिलीं थीं। उसी साल गांधी के निर्वाण दिवस यानी 30 जनवरी को भारत में बगैर किसी योजना के अनेक शहरों में भ्रष्टाचार-विरोधी रैलियाँ में भीड़ उमड़ पड़ी। उसी साल सितम्बर में अमेरिका में ऑक्युपाई वॉलस्ट्रीट आंदोलन शुरू हुआ। वह नौजवानों के प्रतिरोध का आंदोलन था। यूरोप के अनेक शहरों में ऐसे आंदोलन खड़े हो गए। चिली, ब्रिटेन, अल्जीरिया, अमेरिका, फ्रांस, कैटालोनिया, इराक, लेबनॉन से लेकर हांगकांग की सड़कों पर आंदोलनकारी नौजवानों के जुलूस निकल रहे हैं।  

आंतरिक उमड़-घुमड़, जो हमारी वैश्विक छवि को बनाती या बिगाड़ती है


अमेरिकी विदेश विभाग ने जम्मू-कश्मीर में 15 देशों के राजदूतों की यात्रा को महत्वपूर्ण कदम बताया है। साथ ही यह भी कहा है कि राज्य के राजनीतिक नेताओं का जेल में रहना और इलाके में इंटरनेट सेवाओं पर पाबंदियाँ परेशान करती हैं। पिछले साल 5 अगस्त के बाद पहली बार 15 देशों के राजनयिकों ने 9 जनवरी को जम्मू-कश्मीर यात्रा की जिसमें अमेरिकी राजदूत कैनेथ आई जस्टर भी शामिल थे। इन राजनयिकों ने कश्मीर में कई राजनीतिक पार्टियों के प्रतिनिधियों, नागरिक संस्थाओं के सदस्यों और सेना के शीर्ष अधिकारियों के साथ मुलाकात की। इस यात्रा को लेकर सरकार पर आरोप लगे हैं कि यह ‘गाइडेड टूर’ है। बहरहाल अमेरिका की दक्षिण एवं मध्य एशिया की कार्यवाहक सहायक सचिव एलिस जी वेल्स ने 11 जनवरी को उम्मीद जताई कि इस क्षेत्र में स्थिति सामान्य होगी।
वेल्स इस हफ्ते 15 से 18 जनवरी तक भारत में थीं और उन्होंने रायसीना संवाद में भी भाग लिया, जो विदेश-नीति के संदर्भ में भारत का सबसे महत्वपूर्ण अनौपचारिक मंच बनता जा रहा है। इस मंच में ईरानी विदेशमंत्री जव्वाद जरीफ भी शामिल हुए। स्वाभाविक है कि इस वक्त दुनिया का ध्यान अमेरिका-ईरान मामलों पर है, पर जम्मू-कश्मीर के बरक्स भी घटनाक्रम बदल रहा है। एलिस वेल्स भारत-यात्रा पूरी करने के बाद पाकिस्तान जाने वाली हैं।

Monday, January 27, 2020

बजट जो भरोसा बहाल करे


वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण आगामी 1 फरवरी को जो बजट पेश करेंगी, वह मोदी सरकार का सबसे महत्त्वपूर्ण बजट होगा। हरेक क्षेत्र को कुछ फैसलों की आशा है। औद्योगिक माहौल ठंडा है, गाँवों में निराशा है और नौजवान चेहरों की चमक गायब हो रही है। फिर भी देश को आशा है। बेशक अर्थव्यवस्था पटरी से उतरी नहीं है, पर उसकी गति भरोसा पैदा करने वाली भी नहीं है। अर्थशास्त्री कहते हैं कि माँग और निवेश दोनों बढ़ाने की जरूरत है। दोनों ही मोर्चों पर संकट है।
बावजूद इसके निराश होने और हारकर बैठ जाने की जरूरत भी नहीं है। बजट ऐसा होना चाहिए जो देश की अर्थव्यवस्था में भरोसा बहाल करे और निवेशकों तथा देश के उद्यमी जगत को आश्वस्त करे। उन्हें भरोसा होना चाहिए कि सुधार सरकार की प्राथमिकता में हैं। चिंता इसलिए बढ़ी, क्योंकि हाल में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने चालू वित्त वर्ष की आर्थिक संवृद्धि दर का अपना अनुमान घटाकर 4.8 प्रतिशत कर दिया है। यह अनुमान भारत सरकार के आधिकारिक अग्रिम वृद्धि अनुमान 5 प्रतिशत से भी कम है। भारत की संवृद्धि में कमी के असर से विश्व की संवृद्धि दर नीचे जा रही है।  

Wednesday, January 22, 2020

जीडीपी को लेकर बढ़ती चुनौतियाँ


अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने चालू वित्त वर्ष की आर्थिक वृद्धि दर का अपना अनुमान घटाकर 4.8 प्रतिशत कर दिया है. यह अनुमान भारत सरकार के आधिकारिक अग्रिम वृद्धि अनुमान 5 प्रतिशत से भी कम है. इतना ही नहीं यह अनुमान आईएमएफ के ही पहले के अनुमान की तुलना में 1.3 प्रतिशत कम है. मुद्रा कोष के अनुसार भारत की आर्थिक वृद्धि कम होने का असर वैश्विक अर्थव्यवस्था पर भी पड़ेगा और विश्व की संवृद्धि दर नीचे चली जाएगी. आईएमएफ ही नहीं भारत सरकार समेत देश के अर्थशास्त्री पहले से मान रहे हैं कि संवृद्धि दर गिरेगी, पर सवाल है कि कितनी और यह गरावट कब तक रहेगी?
मुद्राकोष के अनुसार आगामी वित्त वर्ष में भारत की संवृद्धि दर का अनुमान 5.8 प्रतिशत है, जो उसके पहले के अनुमान की तुलना में 1.2 प्रतिशत कम है. एजेंसी के अनुसार उसके अगले वर्ष यानी 2021-22 में संवृद्धि दर 6.5 प्रतिशत रहेगी, जो उसके पहले के अनुमान की तुलना में 0.9 प्रतिशत अंक कम है. आईएमएफ की मुख्य अर्थशास्त्री गीता गोपीनाथ ने अपने ब्लॉग में लिखा है कि वैश्विक आर्थिक वृद्धि दर में गिरावट के पीछे प्रमुख भूमिका भारत की है, जहां गैर बैंकिंग वित्तीय क्षेत्र में दबाव और कमजोर ग्रामीण आर्थिक वृद्धि के कारण दबाव बढ़ा है. घरेलू मांग बहुत तेजी से गिरी है.

Sunday, January 19, 2020

शाहीन बाग और दिल्ली का चुनाव


दिल्ली का शाहीन बाग राष्ट्रीय सुर्खियों में है। पिछले महीने की 15 तारीख से वहाँ दिन-रात एक धरना चल रहा है। यह धरना नागरिकता कानून और जामिया मिलिया और अलीगढ़ विवि के छात्रों के खिलाफ पुलिस कार्रवाई के विरोध में शुरू हुआ था। इसे नागरिकता कानून के खिलाफ सबसे बड़ा शांतिपूर्ण प्रदर्शन बताया जा रहा है। इस आंदोलन के साथ प्रतिरोध से जुड़ी कविताएं, चित्र, नाटक और तमाम तरह की रचनात्मक अभिव्यक्तियाँ देखने को मिल रही हैं। दूसरी तरफ इस धरने के कारण दिल्ली और नोएडा को जोड़ने वाला महत्वपूर्ण मार्ग बंद है, जिससे बड़ी संख्या में लोगों को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। संयोग से दिल्ली विधानसभा के चुनाव नजदीक हैं और लगता नहीं कि यह आंदोलन चुनाव परिणाम आने से पहले खत्म होगा।
यह धरना 14-15 दिसम्बर को इस इलाके में रहने वाली 15-20 महिलाओं ने शुरू किया था। देखते ही देखते यह राष्ट्रीय सुर्खियों में आ गया है। दिल्ली पुलिस ने पिछले शुक्रवार को प्रदर्शनकारियों से अनुरोध किया कि वे सार्वजनिक हित में इस रास्ते को खाली कर दें, ताकि यातायात शुरू हो सके। यह रास्ता दिल्ली को नोएडा से जोड़ता है। स्कूली बच्चों, रोज कामकाज और दूसरे जरूरी काम के लिए आने-जाने लोगों को परेशानी है। इस क्षेत्र में काफी बड़े शो रूम हैं, जो एक महीने से ज्यादा समय से बंद पड़े हैं। काम करने वाले कर्मचारियों की दिहाड़ी की समस्या खड़ी हो गई है। सरिता विहार रेज़ीडेंट वेलफेयर एसोसिएशन ने इस रास्ते को खुलवाने के लिए दिल्ली हाईकोर्ट में अपील की तो शुक्रवार को अदालत ने दिल्ली पुलिस से कहा कि वह रास्ता बंद होने की समस्या की ओर ध्यान दे।

Thursday, January 16, 2020

क्या अब खुलेंगी कश्मीरी आतंकवाद से जुड़ी विस्मयकारी बातें?


जम्मू कश्मीर में हिज्बुल मुजाहिदीन के दो आतंकवादियों के साथ पुलिस अधिकारी दविंदर सिंह की गिरफ्तारी के बाद कई तरह के सवाल खड़े हो रहे हैं. यह गिरफ्तारी ऐसे मौके पर हुई है, जब राज्य की प्रशासनिक और पुलिस व्यवस्था में आमूल परिवर्तन हुआ है. केंद्र शासित प्रदेश होने के नाते अब राज्य की पुलिस पूरी तरह केंद्र सरकार के अधीन है. क्या यह गिरफ्तारी उस बदलाव के महत्व को को रेखांकित कर रही है, या राज्य पुलिस की उस कार्यकुशलता को बता रही है, जिसे राजनीतिक कारणों से साबित करने का मौका नहीं मिला
कश्मीर के आतंकवाद के साथ जुड़ी कुछ बातें शायद अब सामने आएं. जो हुआ है, उसमें कहीं न कहीं उच्च प्रशासनिक स्तर पर स्वीकृति होगी. यह मामला इतना छोटा नहीं होना चाहिए, जितना अभी नजर आ रहा है. मोटे तौर पर ज़ाहिर हुआ है कि इस डीएसपी के साथ हिज्बुल मुजाहिदीन का सम्पर्क था. यह सम्पर्क क्यों था और क्या इसमें कुछ और लोग भी शामिल थे, इस बात की जाँच होनी चाहिए. क्या वह डबल एजेंट की काम कर रहा था? जाँच आगे बढ़ने पर 13 दिसम्बर, 2001 को संसद पर हुए हमले के बाबत भी कुछ जानकारियाँ सामने आएंगी. 

Monday, January 13, 2020

विस्फोटक समय में भारतीय विदेश-नीति के जोखिम


नए साल की शुरुआत बड़ी विस्फोटक हुई है। अमेरिका में यह राष्ट्रपति-चुनाव का साल है। देश की सीनेट को राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के विरुद्ध लाए गए महाभियोग पर फैसला करना है। अमेरिका और चीन के बीच एक नए आंशिक व्यापार समझौते पर इस महीने की 15 तारीख को दस्तखत होने वाले हैं। बातचीत को आगे बढ़ाने के लिए ट्रंप इसके बाद चीन की यात्रा भी करेंगे। ब्रिटिश संसद को ब्रेक्जिट से जुड़ा बड़ा फैसला करना है। अचानक पश्चिम एशिया में युद्ध के बादल छाते नजर आ रहे हैं। इन सभी मामलों का असर भारतीय विदेश-नीति पर पड़ेगा। हम क्रॉसफायरिंग के बीच में हैं। पश्चिमी पड़ोसी के साथ हमारे रिश्ते तनावपूर्ण हैं, जिसमें पश्चिम एशिया में होने वाले हरेक घटनाक्रम की भूमिका होती है। संयोग से इन दिनों इस्लामिक देशों के आपसी रिश्तों पर भी बदलाव के बादल घिर रहे हैं।

Sunday, January 12, 2020

जेएनयू की हिंसा से उठते सवाल


जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी कैंपस में हुई हिंसा के मामले में दिल्ली पुलिस ने जो जानकारियाँ दी हैं, उन्हें देखते हुए किसी को भी देश की शिक्षा-व्यवस्था की दुर्दशा पर अफसोस होगा। जरूरी नहीं कि पुलिस की कहानी पर यकीन किया जाए, पर हिंसा में शामिल पक्षों की कहानियों के आधार पर भी कोई धारणा नहीं बनाई जानी चाहिए। लम्बे अरसे से लगातार होते राजनीतिकरण के कारण भारतीय शिक्षा-प्रणाली वैश्विक मीडिया के लिए उपहास का विषय बन गई है। सन 1997 में उत्तर प्रदेश विधानसभा में हुई हिंसा का भी दुनिया के मीडिया ने इसी तरह उपहास उड़ाया था। सन 1973 में लखनऊ विवि के छात्र आंदोलन के दौरान ही पीएसी का विद्रोह हुआ था। हालांकि तब न तो आज का जैसा मीडिया था और राजनीतिक स्तर पर इतनी गलाकाट प्रतियोगिता थी, जैसी आज है। आज जो हो रहा है वह राजनीतिक विचार-वैषम्य नहीं अराजकता है।

विश्वविद्यालय अध्ययन के केंद्र होते हैं। बेशक छात्रों के सामने देश और समाज के सारे सवाल होते हैं। उनकी सामाजिक जागरूकता की भी जरूरत है, पर यह कैसी जागरूकता है? यह कहानी केवल जेएनयू की ही नहीं है। देश के दूसरे विश्वविद्यालयों से भी जो खबरें आ रही हैं, उनसे संकेत मिलता है कि छात्रों के बीच राजनीति की गहरी पैठ हो गई है। छात्र-नेता जल्द से जल्द राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित करना चाहते हैं। जेएनयू के पूर्व छात्रों में नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री हैं, लीबिया और नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री हैं। तमाम बड़े नेता, राजनयिक, कलाकार और समाजशास्त्री हैं। यह विवि भारत की सर्वोच्च रैंकिंग वाले संस्थानों में से एक है। आज भी यहाँ आला दर्जे का शोध चल रहा है, पर हालात ऐसे ही रहे तो क्या इसकी यह तारीफ शेष रहेगी?

Thursday, January 9, 2020

निर्भया-प्रसंग ने हमारे सामाजिक दोषों को उघाड़ा

निर्भया दुष्कर्म मामले के दोषियों को फाँसी पर लटकाने का दिन और वक्त तय हो गया है. दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट ने चारों दोषियों के डैथ वारंट जारी कर दिए हैं. आगामी 22 जनवरी की सुबह 7 बजे उन्हें तिहाड़ जेल में फांसी के फंदे पर लटकाया जाएगा. गणतंत्र दिवस के ठीक पहले होने वाली इस परिघटना का संदेश क्या है? इसके बाद अब क्या? क्या यह हमारी न्याय-व्यवस्था की विजय है? या जनमत के दबाव में किया गया फैसला है? कहना मुश्किल है कि उपरोक्त तिथि को फाँसी होगी या नहीं. ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि इस समस्या के मूल में क्या बात है? यह सामान्य अपराध का मामला नहीं है, बल्कि उससे ज्यादा कुछ और है.


इस मामले में अभियुक्तों के पास अभी कुछ रास्ते बचे हैं. कानून विशेषज्ञ मानते हैं कि वे डैथ वारंट के खिलाफ अपील कर सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट में उपचार याचिका दायर कर सकते हैं और राष्ट्रपति के सामने दया याचिका पेश कर सकते हैं. अभियुक्तों के वकील का कहना है कि मीडिया और राजनीति के दबाव के कारण सजा देने की प्रक्रिया में तेजी लाई जा रही है.

Tuesday, January 7, 2020

देश के भव्य रूपांतरण की महत्वाकांक्षी परियोजना



प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के अपने भाषण में आधारभूत संरचना पर 100 लाख करोड़ रुपये खर्च करने की बात कही थी. इसके बाद एक कार्यबल बनाया गया था, जिसने 102 लाख करोड़ की परियोजनाओं की पहचान की है. नए साल पर अब केंद्र सरकार ने अब इंफ्रास्ट्रक्चर विकास की इस महत्वाकांक्षी परियोजना की घोषणा की है. यह परियोजना न केवल देश की शक्ल बदलेगी, बल्कि सुस्त पड़ती अर्थव्यवस्था को गति भी प्रदान करेगी. मंगलवार को वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन (एनआईपी) की घोषणा की, जिसके तहत अगले पांच साल में 102 लाख करोड़ रुपये की परियोजनाओं को पूरा किया जाएगा.
ये परियोजनाएं ऊर्जा, सड़क, रेलवे और नगरों से जुड़े इंफ्रास्ट्रक्चर की हैं. इनमें से 42 फीसदी परियोजनाओं पर पहले से ही काम चल रहा है, 19 फीसदी विकास की स्थिति में और 31 फीसदी अवधारणा तैयार करने के स्टेज पर हैं. अच्छी बात यह है कि एनआईपी टास्क फोर्स ने एक-एक परियोजना की संभाव्यता जाँच की है और राज्यों के साथ उनपर विचार किया है. इस प्रकार एनआईपी अब भविष्य की एक खिड़की के रूप में काम करेगी, जहाँ से हम अपने इंफ्रास्ट्रक्चर विकास पर नजर रख सकेंगे. समय-समय पर इसकी समीक्षा होती रहेगी, जिससे हम इसकी प्रगति या इसके सामने खड़ी दिक्कतों को देख पाएंगे. यानी कि यह केवल परियोजनाओं की सूची मात्र नहीं है, बल्कि उनकी प्रगति का सूचकांक भी है.

Monday, January 6, 2020

यह साल कांग्रेस को मौके देगा


पिछले साल लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की भारी पराजय और उसके बाद महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में मिली आंशिक सफलता दो तरह के संदेश दे रही है। पराजय के बावजूद उसके पास वापसी का विकल्प भी मौजूद है। सन 2014 के बाद से कई बार कहा जा रहा है कि कांग्रेस फीनिक्स पक्षी की भांति फिर से जीवित होकर बाहर निकलेगी। सवाल है कि कब और कैसे?
देश के पाँच राज्यों में कांग्रेस के मुख्यमंत्री हैं और दो में वह गठबंधन में शामिल है। चिंता की बात यह है कि वह उत्तर प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और पूर्वोत्तर के राज्यों में उसकी उपस्थिति कमजोर है। इस साल बिहार, दिल्ली और तमिलनाडु में चुनाव होने वाले हैं। इन तीनों राज्यों में अपनी स्थिति को सुधारने का उसके पास मौका है। बिहार और तमिलनाडु में उसके प्रमुख गठबंधन सहयोगी काफी हद तक तय हैं। क्या दिल्ली में वह आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन करेगी? आप भी क्या अब उसके साथ गठबंधन के लिए तैयार होगी?
पर ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि पार्टी के नेतृत्व का स्वरूप क्या बनेगा? सोनिया गांधी अस्थायी रूप से कार्यकारी अध्यक्ष का काम कर रहीं हैं, पर पार्टी को उनके आगे के बारे में सोचना है। क्या इस साल कोई स्थायी व्यवस्था सामने आएगी? पार्टी की अस्तित्व रक्षा के लिए यह सबसे बड़ा सवाल है। पिछले साल 26 मई को जब राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफे की घोषणा की थी, तो काफी समय तक पार्टी ने इस खबर को बाहर आने ही नहीं दिया। यह बात नेतृत्व को लेकर उसकी संवेदनशीलता और असुरक्षा को रेखांकित करती है।

Monday, December 30, 2019

एसपीजी सुरक्षा को लेकर निरर्थक राजनीतिक विवाद


हमारे देश में राजनेताओं की हैसियत का पता उनके आसपास के सुरक्षा घेरे से लगता है। एक समय था, जब देश में बड़े से बड़े राजनेता और जनता के बीच दूरियाँ नहीं होती थीं, पर अस्सी के दशक में आतंकवादी गतिविधियाँ बढ़ने के बाद नेताओं तथा अन्य विशिष्ट व्यक्तियों की सुरक्षा के बारे में सोचा जाने लगा और उसके लिए विशेष सुरक्षा बल गठित किए गए। यह सब सहज भाव से हुआ था, पर सुरक्षा के अनेक प्रकार के घेरों के कारण यह रुतबे और रसूख का प्रतीक बन गया। राजनेताओं की ऐसी जमात तैयार हो गई, जिन पर खतरा हो या न हो, उन्हें सुरक्षा चाहिए। ऐसे अनेक मौके आए, जब राजनेताओं ने माँग की कि हमें अमुक प्रकार की सुरक्षा दी जाए।
सन 2007 में उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने केंद्र सरकार से कहा कि मुझे भी खतरा है, मुझे भी विशेष संरक्षा समूह यानी एसपीजी (स्पेशल प्रोटेक्‍शन ग्रुप) की सुरक्षा दी जाए। यह माँग उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से बाकायदा औपचारिक तरीके से की गई थी। इसे लेकर केंद्र और राज्य सरकार के बीच विचार-विमर्श के कई दौर चले और अंततः जनवरी 2008 में केंद्र सरकार ने औपचारिक रूप से उत्तर प्रदेश को सूचित किया कि एसपीजी सुरक्षा केवल वर्तमान प्रधानमंत्री और पूर्व प्रधानमंत्रियों तथा उनके निकटवर्ती पारिवारिक सदस्यों को ही दी जाती है। कानूनन यह सम्भव नहीं है।

Sunday, December 29, 2019

विदेशमंत्री जयशंकर ने अमेरिका में क्यों की प्रमिला जयपाल की अनदेखी?


नागरिकता संशोधन कानून को लेकर जितनी लहरें देश में उठ रही हैं, तकरीबन उतनी ही विदेश में भी उठी हैं। भारतीय राष्ट्र-राज्य में मुसलमानों की स्थिति को लेकर कई तरह के सवाल हैं। इस सिलसिले में अनुच्छेद 370 और 35ए को निष्प्रभावी बनाए जाने से लेकर पूरे जम्मू-कश्मीर में संचार-संपर्क पर लगी रोक और अब नागरिकता कानून के विरोध में शिक्षा संस्थानों तथा कई शहरों में हुए विरोध प्रदर्शनों की गूँज विदेश में भी सुनाई पड़ी है। गत 18 से 21 दिसंबर के बीच क्वालालम्पुर में इस्लामिक देशों का शिखर सम्मेलन अपने अंतर्विरोधों का शिकार न हुआ होता, तो शायद भारत के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय सुर्खियाँ बन चुकी होतीं।
हुआ क्या था?
सवाल यह है कि भारत अपनी छवि को सुधारने के लिए राजनयिक स्तर पर कर क्या कर रहा है? यह सवाल भारत में नहीं अमेरिका में उठाया गया है। भारत और अमेरिका के बीच ‘टू प्लस टू’ श्रृंखला की बातचीत के सिलसिले में रक्षामंत्री राजनाथ सिंह और विदेशमंत्री एस जयशंकर अमेरिका गए हुए थे। गत 18 अक्तूबर को दोनों देशों ने इसके तहत सामरिक और विदेश-नीति के मुद्दों पर चर्चा की। इसी दौरान जयशंकर ने कई तरह के प्रतिनिधियों से मुलाकातें कीं। इनमें एक मुलाकात संसद की फॉरेन अफेयर्स कमेटी के साथ भी होनी थी, जिसमें डेमोक्रेटिक पार्टी की सांसद प्रमिला जयपाल का नाम भी था।

कांग्रेस के आत्मघात का साल


कांग्रेस पार्टी हर साल 28 दिसंबर को अपना स्थापना दिवस मनाती है। इस साल पार्टी का 135 वाँ जन्मदिन शनिवार को मनाया गया। आज रविवार को पार्टी झारखंड की नई सरकार में शामिल होने जा रही है, पर वह इसका नेतृत्व नहीं कर रही है। इस सरकार के प्रमुख होंगे झारखंड मुक्ति मोर्चा के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन। जिस पार्टी को देश के राष्ट्रीय आंदोलन के संचालन का श्रेय दिया जाता है, वह आज अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष कर रही है। झारखंड के नतीजों ने पार्टी का उत्साह बढ़ाया जरूर है, पर भीतर-भीतर पार्टी के भीतर असमंजस है। यह असमंजस इस साल अपने चरम पर जा पहुँचा है।
कांग्रेस के जीवन में यह 134वाँ साल सबसे भारी पराजय का साल रहा है। पिछले हफ्ते पार्टी के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने एक इंटरव्यू में कहा कि यह हमारे लिए संकट की घड़ी है। ऐसा संकट पिछले 134 साल में कभी नहीं आया। पाँच साल पहले हमारे सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हुआ था, जो आज भी है। कोई जादू की छड़ी हमारी पार्टी का उद्धार करने वाली नहीं है। पार्टी का नेतृत्व सोनिया गांधी के हाथों में है। ऐसा इसलिए करना पड़ा, क्योंकि इस साल की हार के बाद राहुल गांधी ने इस्तीफा दे दिया। यह भी एक प्रकार का संकट है। अभी तक यह तय नहीं है कि पार्टी का भविष्य का नेतृत्व कैसा होगा।

Saturday, December 28, 2019

अपने जन्मदिन पर असमंजस में कांग्रेस


आज 28 दिसंबर को कांग्रेस पार्टी अपना 135 वाँ जन्मदिन मना रही है। जो पार्टी को देश के राष्ट्रीय आंदोलन के संचालन का श्रेय दिया जाता है, वह आज अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष कर रही है। हालांकि झारखंड विधानसभा चुनाव के नतीजों ने पार्टी का उत्साह बढ़ा दिया है, पर सच यह है कि वहाँ वह झारखंड मुक्ति मोर्चा की सहयोगी के रूप में खड़ी है। बहरहाल इस सफलता से उत्साहित पार्टी के नेता कई तरह के दावे कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि भारतीय जनता पार्टी का पराभव शुरू हो गया है और कांग्रेस की वापसी में ज्यादा देर नहीं है। नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी के अंदेशों से पैदा हुए प्रतिरोधी स्वरों ने पार्टी के उत्साह को और बढ़ाया है। 
हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव परिणाम पार्टी के आत्मविश्वास का आधार बने हैं। ऐसे में पार्टी के एक तबके ने फिर से माँग शुरू कर दी है कि राहुल गांधी को वापस लाओ। यहीं से इस पार्टी के अंतर्विरोधों की कहानी शुरू होती है। पार्टी का सबसे बड़ा एजेंडा आज भी यही है कि किसी तरह से राहुल गांधी को लाओ। पिछले हफ्ते पार्टी के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने एक इंटरव्यू में कहा कि यह हमारे लिए संकट की घड़ी है। कोई जादू की छड़ी हमारी पार्टी का उद्धार करने वाली नहीं है।

Wednesday, December 25, 2019

चीफ ऑफ़ डिफेंस स्टाफ से जुड़ी चुनौतियाँ


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस साल लालकिले के प्राचीर से स्वतंत्रता दिवस के भाषण में रक्षा-व्यवस्था को लेकर एक बड़ी घोषणा की थी. उन्होंने कहा कि देश के पहले ‘चीफ ऑफ़ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस)’ की जल्द नियुक्ति की जाएगी. यह भी कहा कि सीडीएस थल सेना, नौसेना और वायु सेना के बीच तालमेल सुनिश्चित करेगा और उन्हें प्रभावी नेतृत्व देगा. नियुक्ति की वह घड़ी नजदीक आ गई है. मंगलवार को कैबिनेट ने इस पद को अपनी स्वीकृति भी दे दी. इस महीने के अंत में 31 दिसंबर को भारतीय सेना के वर्तमान सह-प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल मनोज मुकुंद नरवाने वर्तमान सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत से कार्यभार संभालेंगे, जो उस दिन सेवानिवृत्त हो रहे हैं.
इस नियुक्ति के बाद देखना होगा कि तीनों सेनाओं के लिए घोषित शिखर पद सीडीएस के रूप में किसकी नियुक्ति होगी. आमतौर पर इस पद के लिए निवृत्तमान सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत का नाम लिया जा रहा है. सीडीएस के रूप में उपयुक्त पात्र का चयन करने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल की अध्यक्षता में एक क्रियान्वयन समिति का गठन किया था. इस समिति ने अपनी सिफारिशें रक्षा मामलों से संबद्ध कैबिनेट कमेटी (सीसीएस) को सौंप दी हैं.

Monday, December 23, 2019

नागरिकता कानून ने भारत की वैश्विक छवि बिगाड़ी


मोदी सरकार के नागरिकता संशोधन कानून को लेकर देश के कई इलाकों में रोष व्यक्त किया जा रहा है। सामाजिक जीवन में कड़वाहट पैदा हो रही है और कई तरह के अंतर्विरोध जन्म ले रहे हैं। धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था को लेकर सवाल हैं। इन सबके साथ वैश्विक स्तर पर देश की छवि का सवाल भी जन्म ले रहा है। भारत और भारतीय समाज की उदार, सहिष्णु और बहुलता की संरक्षक छवि को ठेस लगी है। जापानी प्रधानमंत्री शिंजो एबे की यात्रा स्थगित होने के बड़े राजनयिक निहितार्थ भले ही न हों, बांग्लादेश और पाकिस्तान की प्रतिक्रियाएं महत्वपूर्ण हैं। इसके अलावा संयुक्त राष्ट्र की संस्थाओं और पश्चिमी देशों के मीडिया की प्रतिक्रियाएं महत्वपूर्ण हैं। भारत की उदार और प्रबुद्ध लोकतंत्र की छवि को बनाने में इनकी प्रमुख भूमिका है।
नागरिकता कानून में संशोधन के बाद कुछ अमेरिकी सांसदों ने काफी कड़वी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। राज्यसभा से कानून पास होने के कुछ समय बाद ही अमेरिकी सांसद आंद्रे कार्सन ने बयान जारी करके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना की और इस कानून को ड्रैकोनियन बताया और कहा कि इसके कारण भारत में मुसलमान दोयम दर्जे के नागरिक बन जाएंगे। न्यूयॉर्क टाइम्स, वॉशिंगटन पोस्ट, ब्रिटेन के अखबार इंडिपेंडेंट और अल जज़ीरा ने आलोचनात्मक टिप्पणियाँ कीं हैं। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेश के प्रवक्ता ने कहा कि भारत के इस कानून पर संयुक्त राष्ट्र की निगाहें भी हैं। संयुक्त राष्ट्र के कुछ बुनियादी आदर्श हैं और हम मानते हैं कि मानवाधिकारों के सार्वभौमिक घोषणापत्र से प्रतिपादित उद्देश्यों का उल्लंघन नहीं होना चाहिए।

Sunday, December 22, 2019

क्यों डरा रहे हैं मुसलमानों को?


तीन तरह की ताकतें मुसलमानों को डरा रहीं हैं। एक, सत्ता की राजनीति। इसमें दोनों तरह के राजनीतिक दल शामिल हैं। जो सत्ता में हैं और जो सत्ता हासिल करना चाहते हैं। दूसरे, मुसलमानों के बीच अपने नेतृत्व को कायम करने की कोशिश करने वाले लोग। और तीसरे कुछ न्यस्त स्वार्थी तत्व, जिनका हित अराजकता पैदा करने से सधता है। समाज को सांप्रदायिक आधार पर विभाजित करने के बाद ये लोग अपनी रोटियाँ सेंकते हैं। नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध में जब पूर्वोत्तर का आंदोलन थमने लगा था, दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों का आंदोलन अचानक शुरू हुआ। और अब दिल्ली और उत्तर प्रदेश में एक लहर सी उठी है, जिसमें आधिकारिक रूप से 6 और गैर-सरकारी सूत्रों के अनुसार इससे कहीं ज्यादा लोगों की मौत हुई है। असम और पूर्वोत्तर के आंदोलनों के पीछे के कारण वही नहीं हैं, जो दिल्ली, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश में नजर आ रहे हैं। यह आंदोलन मुसलमानों के मन में भय बैठाकर खड़ा किया गया है। उन्हें भरोसा दिलाने की जरूरत है कि उनका अहित नहीं होगा। पर उन्हें डराया गया है। कहीं न कहीं राजनीतिक ताकतें सक्रिय हैं। क्या वजह है कि राजस्थान, छत्तीसगढ़, पंजाब और मध्य प्रदेश में आंदोलन खड़े नहीं हुए?
भारत के मुसलमानों की हिफाजत की जिम्मेदारी बहुसंख्यक समुदाय की है। उनके साथ अन्याय नहीं होना चाहिए, पर यह भी देखना होगा कि कोई ताकत है, जो हमें भीतर से कमजोर करना चाहती है। क्या वजह है कि जो आंदोलनकारी नागरिकता संशोधन विधेयक और नागरिकता रजिस्टर के बारे में कुछ नहीं जानते, वे रटी-रटाई बातें बोल रहे हैं कि सीएए+एनआरसी से मुसलमानों को खतरा है। शुक्रवार को दिन में जब मीडिया प्रतिनिधि दिल्ली में जामा मस्जिद के पास जमा भीड़ से बात कर रहे थे, तब लोग कह रहे थे कि 370 हटाया गया, हमसे तीन तलाक छीन लिया गया और बाबरी मस्जिद पर कब्जा कर लिया गया। अब हमें निकालने की साजिश की जा रही है।

Saturday, December 21, 2019

सार्वजनिक उद्योगों के पास खाली क्यों पड़ी है इतनी जमीन?


अर्थव्यवस्था को ठीक बनाए रखने और औद्योगिक संवृद्धि को तेज करने के इरादे से सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों के विनिवेश  में तेजी लाने का फैसला किया है। इसके साथ-साथ सरकार ने नौ सार्वजनिक उद्योगों की जमीन और भवनों को बेचने का कार्यक्रम भी बनाया है। देश के सार्वजनिक उद्योगों के पास काफी जमीन पड़ी है, जिसका कोई इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है। सरकार के पास भी शायद इस बात की पूरी जानकारी भी नहीं है कि कितनी जमीन इन उद्योगों के पास है। अब इस संपदा को बेचने के लिए सरकार वैश्विक कंपनियों की सलाह ले रही है।
कानपुर को औद्योगिक कब्रिस्तान कहा जाता है। आप शहर से गुजरें तो जगह-जगह बंद पड़े परिसर नजर आएंगे। यह जगह कभी गुलज़ार रहा करती थी। शहर के बंद पड़े सार्वजनिक उद्योगों, मुम्बई के वस्त्र उद्योग और बेंगलुरु के एचएमटी इलाके में ऐसी खाली जमीन को देखा जा सकता है। देश के अनेक शहरों में ऐसे दृश्य देखे जा सकते हैं। अक्तूबर 2017 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत सरकार के पास 13,505 वर्ग किलोमीटर जमीन है। भूमि का यह परिमाण दिल्ली के क्षेत्रफल (1.483 वर्ग किलोमीटर) का नौगुना है। देश के 51 केंद्रीय मंत्रालयों में से 41 और 300 से ऊपर सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में से 22 से प्राप्त विवरणों पर यह जानकारी आधारित थी।

Thursday, December 19, 2019

न्याय में विलंब और गैर-जिम्मेदार राजनीति



राजनीतिक दलों को अधिकार है कि वे किसी भी मामले को राजनीतिक नजरिए से देखें, पर सामान्य नैतिकता का तकाज़ा है कि कम से कम बलात्कार जैसे जघन्य अपराध को वे मानवीय दृष्टि से देखें। हाल के वर्षों में कई बार ऐसा हुआ है, जब बलात्कार को लेकर हुई बहस बेवजह राजनीतिक मोड़ ले लेती है। हाल में उन्नाव कांड पर लोकसभा में चर्चा के दौरान केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी के साथ दुर्व्यवहार को लेकर कांग्रेस के दो सदस्यों के विरुद्ध प्रस्ताव रखा जाना इस दुखद पहलू का नवीनतम उदाहरण है। इस संबंध में संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने सदन में प्रस्ताव रखा और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने कहा कि वह इस विषय पर न्यायपूर्ण निर्णय करेंगे। कांग्रेस के दो सदस्यों पर केवल दुर्व्यवहार की आरोप ही नहीं था, बल्कि शुक्रवार 6 दिसंबर को आसन की ओर से निर्देश के बावजूद दोनों सदस्यों ने माफी नहीं मांगी।
इस प्रकरण को अलग कर दें, तब भी बलात्कार जैसे प्रकरण पर बहस का रुख अपराध और उसके निराकरण पर होना चाहिए। पूरा देश पहले हैदराबाद और फिर उन्नाव की घटना को लेकर बेहद गुस्से में है। यह गुस्सा अपराधियों और अपराध की ओर केंद्रित होने के बजाय राजनीतिक प्रतिस्पर्धी की ओर होता है, तो ऐसी राजनीति पर शर्म आती है। संसद में गंभीर टिप्पणियों का जवाब गंभीर टिप्पणियों से ही दिया जाना चाहिए। रोष की मर्यादापूर्ण अभिव्यक्ति के लिए भी कोशों में शब्दों की कमी नहीं है। कम से कम ऐसे मौकों पर हमारे स्वर एक होने चाहिए।

Wednesday, December 18, 2019

किसने हाईजैक किया इस छात्र आंदोलन को?


नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध में जब पूर्वोत्तर का आंदोलन थमने लगा था, दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों का आंदोलन अचानक शुरू हुआ और उसने देशभर का ध्यान अपनी ओर खींचा है. यह आंदोलन अब देश के दूसरे इलाकों में भी शुरू हो गया है. आंदोलन से जुड़ी, जो तस्वीरें सामने आई हैं, उनसे इसके दो पहलू उजागर हुए हैं. पहला है कि आगजनी और हिंसा का और दूसरा है पुलिस की  कठोर कार्रवाई का. इस मामले ने भी सुप्रीम कोर्ट में दस्तक दी है. वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह की अर्जी पर सुप्रीम कोर्ट सुनवाई को तो तैयार है, पर चीफ जस्टिस शरद अरविंद बोबडे ने हिंसा को लेकर अपनी नाराजगी जाहिर की और कहा कि हिंसा रुकने पर ही सुनवाई होगी.

छात्रों का कहना है कि हिंसा हमने नहीं की है, बल्कि बाहरी लोग हैं. कौन हैं बाहरी लोग? वे कहाँ से आए हैं और विश्वविद्यालय में उनकी दिलचस्पी क्यों है? लोकतांत्रिक व्यवस्था में शांतिपूर्ण विरोध हमारा सांविधानिक अधिकार है, पर इस अधिकार का इस्तेमाल सांविधानिक तरीके से ही होना चाहिए. सार्वजनिक परिवहन से जुड़ी बसों और निजी वाहनों को आग लगाना कहाँ का विरोध प्रदर्शन है? उधर ममता बनर्जी कोलकाता में प्रदर्शन कर रहीं हैं. उनके पास भी इस बात की जवाब नहीं है कि ट्रेनों में आग लगाने का काम कौन लोग कर रहे हैं? रेल की पटरियाँ कौन उखाड़ रहा है?  दिल्ली से खबरें मिल रही हैं कि जामिया का आंदोलन शांतिपूर्ण तरीके से ही शुरू हुआ था, पर अचानक यह हिंसक हो गया. किसी ने इसे हाईजैक कर लिया. किसने हाईजैक कर लिया और क्यों?