Tuesday, November 19, 2019

पाँचवीं पीढ़ी के स्वदेशी लड़ाकू विमान की तैयारी


भारतीय वायुसेना के अध्यक्ष एयर चीफ मार्शल राकेश कुमार सिंह भदौरिया ने इस साल के वायुसेना दिवस के ठीक पहले कहा कि भारत की योजना अब विदेशी लड़ाकू विमानों के आयात की नहीं है और हम अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए स्वदेशी एडवांस्ड मीडियम कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (एएमसीए या एम्का) के विकास पर ध्यान केंद्रित करेंगे। उनका यह वक्तव्य अनेक कारणों से महत्वपूर्ण है और इससे देश की रक्षा प्राथमिकताओं पर प्रकाश भी पड़ता है, पर उससे पहले सवाल है कि स्वतंत्रता के 72 साल बाद आज हम ऐसी बात क्यों कह रहे हैं? हमने पहले ही स्वदेशी तकनीक के विकास पर ध्यान क्यों नहीं दिया?
सवाल यह भी है कि क्या पाँचवीं पीढ़ी के विमान का विकास करने की तकनीकी सामर्थ्य हमारे पास है? प्रश्न केवल स्वदेशी युद्धक विमान का ही नहीं है, बल्कि संपूर्ण रक्षा तकनीक में आत्मनिर्भर होने का है। रक्षा के क्षेत्र में बेहद जटिल और उच्चस्तरीय तकनीकों और उसमें समन्वय और सहयोग की जरूरत भी होती है। दुनिया में कोई भी संस्था ऐसी नहीं है, जो पूरा लड़ाकू विमान तैयार करती हो। विमान के अलग-अलग अंगों को कई तरह की संस्थाएं विकसित करती हैं। विमान की परिकल्पना और विभिन्न उपकरणों को जोड़कर विमान बनाना (इंटीग्रेशन) और उपकरणों की आपूर्ति का इंतजाम करने की महारत भी आपके पास होनी चाहिए।
निजी क्षेत्र की भागीदारी
रक्षा तकनीक खुले बाजार में नहीं बिकती। उसके लिए सरकारों के साथ समन्वय करना होता है। दुनियाभर में सरकारें रक्षा-तकनीक को नियंत्रित करती हैं। यह सच है कि हम अपनी रक्षा आवश्यकताओं की 60-65 फीसदी आपूर्ति विदेशी सामग्री से करते हैं। दूसरी तरफ यह भी सच है कि विकासशील देशों में भारत ही ऐसा देश है, जिसके पास रक्षा उत्पादन का विशाल आधार-तंत्र है। हमारे पास रक्षा अनुसंधान विकास से जुड़े संस्थान हैं, जिनमें सबसे बड़ा रक्षा अनुसंधान विकास संगठन (डीआरडीओ) संगठन है।

Monday, November 18, 2019

राफेल-राजनीति को विदा कीजिए


राफेल विमान सौदे को लेकर दायर किए गए मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला सुनाया है, उसके बाद इस विवाद को खत्म हो जाना चाहिए या कम से कम इसे राजनीतिक विवाद का विषय नहीं बनाना चाहिए। पर फैसले के बाद आई कुछ प्रतिक्रियाओं से लगता है कि ऐसा होगा नहीं। इस मामले में न तो किसी प्रकार की धार बची और न जनता की दिलचस्पी इसके पिष्ट-पेषण में है। अदालत ने कहा कि हमें ऐसा नहीं लगता है कि इस मामले में कोई एफआईआर दर्ज होनी चाहिए या फिर किसी तरह की जांच की जानी चाहिए।
अदालत ने केंद्र सरकार के हलफनामे में हुई एक भूल को स्वीकार किया है, पर उससे कोई महत्वपूर्ण निष्कर्ष नहीं निकाला है। बुनियादी तौर पर कांग्रेस पार्टी की दिलचस्पी लोकसभा कि पिछले चुनाव में थी। चुनाव में यह मुद्दा सामने आया ही नहीं। इस मामले में उच्चतम न्यायालय के 14 दिसंबर 2018 के आदेश पर प्रशांत भूषण समेत अन्य लोगों की ओर से पुनर्विचार के लिए याचिका दाखिल की गई थी।
याचिका में कुछ 'लीक' दस्तावेजों के हवाले से आरोप लगाया गया था कि डील में पीएमओ ने रक्षा मंत्रालय को बगैर भरोसे में लिए अपनी ओर से बातचीत की थी। कोर्ट ने अपने पिछले फैसले में कहा था कि बिना ठोस सबूतों के हम रक्षा सौदे में कोई भी दखल नहीं देंगे। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, जस्टिस एसके कौल और जस्टिस केएम जोसफ ने पाया कि पुनर्विचार याचिकाओं में मेरिट यानी कि दम नहीं है।

Tuesday, November 12, 2019

अब राष्ट्र-राज्य का मंदिर बनाइए


अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विश्लेषण लंबे समय तक होता रहेगा, पर एक बात निर्विवाद रूप से स्थापित हुई है कि भारतीय राष्ट्र-राज्य के मंदिर का निर्माण सर्वोपरि है और इसमें सभी धर्मों और समुदायों की भूमिका है. हमें इस देश को सुंदर और सुखद बनाना है. हमें अपनी अदालत को धन्यवाद देना चाहिए कि उसने एक जटिल गुत्थी को सुलझाया. प्रतीक रूप में ही सही अदालत ने यह फैसला सर्वानुमति से करके एक संदेश यह भी दिया है कि हम एक होकर अपनी समस्याओं के समाधान खोजेंगे. इस फैसले में किसी एक जज की भी राय अलग होती, तो उसके तमाम नकारात्मक अर्थ निकाले जा सकते थे.

एक तरह से यह फैसला भारतीय सांविधानिक व्यवस्था में मील का पत्थर साबित होगा. सुप्रीम कोर्ट के सामने कई तरह के सवाल थे और बहुत सी ऐसी बातें, जिनपर न्यायिक दृष्टि से विचार करना बेहद मुश्किल काम था, पर उसने भारतीय समाज के सामने खड़ी एक जटिल समस्या के समाधान का रास्ता निकाला. इस सवाल को हिन्दू-मुस्लिम समस्या के रूप में देखने के बजाय राष्ट्र-निर्माण के नजरिए से देखा जाना चाहिए. सदियों की कड़वाहट को दूर करने की यह कोशिश हमें सही रास्ते पर ले जाए, तो इससे अच्छा क्या होगा?

Sunday, November 10, 2019

इस फैसले की भावना को समझिए


अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनेक पहलू हैं, जिनपर अलग-अलग तरीके से विचार करना होगा। सबसे महत्वपूर्ण पहलू है एक विवाद का खत्म होना। देश की राजनीतिक ताकतों को इसे हाथोंहाथ लेना चाहिए। इस विवाद की समाप्ति के पीछे देश में रचनात्मक माहौल बनाने की कोशिश है। लम्बे अरसे से चली आ रही कड़वाहट को खत्म होना चाहिए। जनता के बड़े तबके की आस्था से जुड़े इस मामले का इससे बेहतर समाधान नहीं हो सकता था। जहाँ तक इसके कानूनी पहलुओं की बात है, अदालत के फैसले का विस्तार से अध्ययन करना होगा। इसपर विशेषज्ञों की राय भी जल्द सामने आएगी।

गौर करने वाली बात है कि यह पाँच जजों के पीठ का सर्वानुमति से दिया गया फैसला है। एक भी जज की विपरीत राय होती, तो शायद वह बड़ी खबर होती, पर सर्वानुमति से फैसला होना उससे भी बड़ी खबर है। बेहतर होता कि सभी पक्ष इस बात को अदालत के बाहर समझौता करके स्वीकार कर लेते, पर इस बात को नामंजूर करके कुछ लोग बेवजह सामाजिक टकराव को बढ़ावा देना चाहते हैं।

सर्वानुमति इस फैसले की विशेषता है


अयोध्या फैसले के कानूनी पहलू, अपनी जगह हैं और राजनीतिक और सामाजिक पहलू अपनी जगह। असदुद्दीन ओवेसी का कहना है कि हमें नहीं चाहिए पाँच एकड़ जमीन। हम जमीन खरीद सकते हैं। उन्हें फैसले पर आपत्ति है। उन्होंने कहा भी है कि हम अपनी अगली पीढ़ी को यह संदेश देकर जाएंगे। जफरयाब जिलानी साहब अभी फैसले का अध्ययन कर रहे हैं, पर पहली नजर में उन्हें खामियाँ नजर आ गईं हैं। कांग्रेस पार्टी ने फैसले का स्वागत किया है। प्रतिक्रियाएं अभी आ ही रही हैं।

इस फैसले का काफी बारीकी से विश्लेषण होगा। पहली नजर में शुरू हो भी चुका है। अदालत क्यों और कैसे अपने निष्कर्ष पर पहुँची। यह समझ में आता है कि अदालत ने परंपराओं और ऐतिहासिक घटनाक्रम को देखते हुए माना है कि इस स्थान पर रामलला का विशिष्ट अधिकार बनता है, जबकि मुस्लिम पक्ष यह साबित नहीं कर पाया कि विशिष्ट अधिकार उसका है। अदालत ने 116 पेज का एक परिच्छेद इस संदर्भ में अपने फैसले के साथ लगाया है।

अलबत्ता अदालत ने बहुत साफ फैसला किया है और सर्वानुमति से किया है। सर्वानुमति छोटी बात नहीं है। छोटे-छोटे मामलों में भी जजों की असहमति होती है। पर इस मामले में पाँचों जजों ने कॉमा-फुल स्टॉप का अंतर भी अपने फैसले में नहीं छोड़ा। यह बात अभूतपूर्व है। 1045 पेज के इस फैसले की बारीकियों और कानूनी पहलुओं पर जाने के अलावा इस फैसले की सदाशयता पर ध्यान देना चाहिए।

सन 1994 में पीवी नरसिंहराव सरकार ने अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से इस मसले पर सलाह मांगी थी। तब सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में राय देने से मना कर दिया था, पर आज उसी अदालत ने व्यापक हित में फैसला सुनाया है। इसे स्वीकार किया जाना चाहिए। 

यह भी कहा जा रहा है कि अयोध्या तो पहला मामला है, अभी मथुरा और काशी के मामले उठेंगे। उनके पीछे एक लंबी कतार है। शायद ऐसा नहीं होगा, क्योंकि सन 1991 में पीवी नरसिंह राव की सरकार ने धार्मिक स्थल कानून बनाकर भविष्य में ऐसे मसलों की संभावना को खत्म कर दिया था।

Friday, November 8, 2019

दिल्ली के पुलिस-वकील टकराव के सबक


दिल्ली की सड़कों पर मंगलवार को और अदालतों में बुधवार को जो दृश्य दिखाई पड़े, वे देश की कानून-व्यवस्था और न्याय-प्रक्रिया पर बड़े सवाल खड़े करते हैं. देश में सांविधानिक न्याय और कानून-व्यवस्था की रक्षक यही मशीनरी है, तो फिर इसका मतलब है कि हम गलत जगह पर आ गए हैं. यह देश की राजधानी है. यहाँ पर अराजकता का यह आलम है, तो फिर जंगलों में क्या होता होगा? गाँवों और कस्बों की तो बात ही अलग है. कानून के शासन की धज्जियाँ वे लोग उड़ा रहे हैं, जिनपर कानून की रक्षा की जिम्मेदारी है.
दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट में एक पुलिसकर्मी और एक वकील के बीच पार्किंग को लेकर मामूली से विवाद ने एक असाधारण राष्ट्रीय समस्या का रूप ले लिया. पार्किक विवाद से शुरू हुआ यह मामला दो समूहों के बीच संघर्ष के रूप में तब्दील हो गया. शनिवार को तीस हजारी कोर्ट में हुए इस संघर्ष में आठ वकील और 20 पुलिस वाले घायल हुए. एक पुलिस वाले ने गोली भी चलाई. इसके बाद सोमवार को साकेत अदालत के बाहर फिर टकराव हुआ. कड़कड़डूमा कोर्ट के बाहर एक पुलिसकर्मी की पिटाई कर दी गई.
टकराव की छोटी-मोटी कई खबरें सुनाई पड़ीं. इस बीच मोटरसाइकिल पर सवार एक वर्दीधारी पुलिसकर्मी को कोहनी मारते और उसे थप्पड़ मारते हुए वीडियो सामने आने के बाद पुलिस वालों का गुस्सा भड़का और मंगलवार को उन्होंने दिल्ली पुलिस के मुख्यालय को घेर लिया. मुख्यालय की सुरक्षा के लिए केंद्रीय रिजर्व पुलिस को तैनात करना पड़ा. समझाने-बुझाने के बाद अंततः पुलिसकर्मियों का आंदोलन वापस हो गया, पर अपने पीछे कई सवाल छोड़ गया.
उधर तीस हजारी में हुए टकराव को लेकर बुधवार को दिल्ली हाई कोर्ट में सुनवाई भी हुई. अदालत ने दोनों पक्षों को सलाह दी कि वे साथ बैठकर आपसी झगड़े को सुलझाएं. कोर्ट ने कहा कि वकीलों और पुलिस के जिम्मेदार प्रतिनिधियों के बीच संयुक्त बैठक होनी चाहिए, ताकि विवाद को सुलझाने की कोशिशें हो सकें. कोर्ट ने कहा, बार कौंसिल और पुलिस प्रशासन दोनों कानून की रक्षा के लिए हैं. न्याय के सिक्के के ये दो पहलू हैं और उनके बीच कोई भी असंगति या टकराव शांति और सद्भाव के लिए निंदनीय है. हाई कोर्ट द्वारा बनाई गई एक कमेटी इस मामले की जांच भी करेगी.

Tuesday, November 5, 2019

एफएटीएफ क्या रोक पाएगा पाकिस्तानी उन्माद?


फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) की सूची में पाकिस्तान फिलहाल फरवरी तक ग्रे लिस्ट में बना रहेगा। पेरिस में हुई बैठक में यह फैसला हुआ है। इस फैसले में पाकिस्तान को कड़ी चेतावनी भी दी गई है। कहा गया है कि यदि फरवरी 2020 तक पाकिस्तान सभी 27 कसौटियों पर खरा नहीं उतरा तो उसे काली सूची में डाल दिया जाएगा। यह चेतावनी आमराय से दी गई है। पाकिस्तान का नाम काली सूची में रहे या भूरी में, इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। ज्यादा महत्वपूर्ण है जेहादी संगठनों के प्रति उसका रवैया। क्या वह बदलेगा?
पिछले महीने संरा महासभा में इमरान खान ने कश्मीर में खून की नदियाँ बहाने और नाभिकीय युद्ध छेड़ने की जो धमकी दी है, उससे उनकी विश्व-दृष्टि स्पष्ट हो जाती है। ज्यादा बड़ा प्रश्न यह है कि अब क्या होगा? पाकिस्तान की इस उन्मादी और जुनूनी मनोवृत्ति पर नकेल कैसे डाली जाएगी? एफएटीएफ ने पाकिस्तान को आतंकी वित्तपोषण और धन शोधन जैसे मुद्दों से निपटने के लिए अतिरिक्त कदम उठाने के निर्देश दिए हैं। क्या वह इनका अनुपालन करेगा?

Monday, November 4, 2019

वॉट्सएप जासूसी के पीछे कौन?


वॉट्सएप मैसेंजर पर स्पाईवेयर पेगासस की मदद से दुनिया के कुछ लोगों की जासूसी की खबरें आने के बाद से इस मामले के अलग-अलग पहलू एकसाथ उजागर हुए हैं। पहला सवाल है कि यह काम किसने किया और क्यों? जासूसी करना-कराना कोई अजब-अनोखी बात नहीं है। सरकारें भी जासूसी कराती हैं और अपराधी भी कराते हैं। दोनों एक-दूसरे की जासूसी करते हैं। राजनीतिक उद्देश्यों को लिए जासूसी होती है और राष्ट्रीय हितों की रक्षा और मानवता की सेवा के लिए भी। यह जासूसी किसके लिए की जा रही थी? और यह भी कि इसकी जानकारी कौन देगा?
इसका जवाब या तो वॉट्सएप के पास है या इसरायली कंपनी एनएसओ के पास है। बहुत सी बातें सिटिजन लैब को पता हैं। कुछ बातें अमेरिका की संघीय अदालत की सुनवाई के दौरान पता लगेंगी। इन सवालों के बीच नागरिकों की स्वतंत्रता और उनके निजी जीवन में राज्य के हस्तक्षेप का सवाल भी है। सबसे बड़ा सवाल है कि तकनीकी जानकारी के सदुपयोग या दुरुपयोग की सीमाएं क्या हैं? फिलहाल इस मामले के भारतीय और अंतरराष्ट्रीय संदर्भ अलग-अलग हैं।

Sunday, November 3, 2019

अमेरिका में भारत की किरकिरी


भारतीय विदेश नीति के नियंता मानते हैं कि भारत का नाम दुनिया में इज्जत से लिया जाता है और पाकिस्तान की इज्जत कम है। इसकी बड़ी वजह भारतीय लोकतंत्र है। हमारी सांविधानिक संस्थाएं कारगर हैं और लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता परिवर्तन होता है। अक्सर जब भी भारत और पाकिस्तान के बीच टकराव होता है, तो हम कहते हैं कि पाकिस्तान अलग-थलग पड़ गया है। हम यह भी मानते हैं कि कश्मीर समस्या भारत-पाकिस्तान के बीच का द्विपक्षीय मामला है और दुनिया इसे स्वीकार करती है। और यह भी कि पाकिस्तान कश्मीर समस्या के अंतरराष्ट्रीयकरण का प्रयास करता है, पर वह इसमें विफल है।
उपरोक्त बातें काफी हद तक आज भी सच हैं, पर 5 अगस्त के बाद दुनिया की समझ में बदलाव आया है। हमारी खुशफहमियों को धक्का लगाने वाली कुछ बातें भी हुईं हैं, जिनसे देश की छवि को बहुत गहरी न सही किसी न किसी हद तक ठेस लगी है। विदेश-नीति संचालकों को इस प्रश्न पर ठंडे दिमाग से विचार करना चाहिए। बेशक जब हम कश्मीर के मामले को संयुक्त राष्ट्र में ले गए थे, तब उसका अंतरराष्ट्रीयकरण हो गया था, पर अब उससे कुछ ज्यादा हो गया है। पिछले तीन महीने के घटनाक्रम पर नजर डालें, तो कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं:-
·      हम कुछ भी कहें, पाकिस्तान अलग-थलग नहीं पड़ा है। चीन, तुर्की और मलेशिया ने पहले संरा में और उसके बाद एफएटीएफ में उसे खुला समर्थन दिया है। चीन और रूस के सामरिक रिश्ते सुधरते जा रहे हैं और इसका प्रभाव रूस-पाकिस्तान रिश्तों में नजर आने लगा है। यह सब अलग-थलग पड़ने की निशानी नहीं है।
·      हाल में ब्रिटिश शाही परिवार के प्रिंस विलियम और उनकी पत्नी केट मिडल्टन की पाकिस्तान यात्रा से भी क्या संकेत मिलता है?  ब्रिटिश शाही परिवार का पाकिस्तान दौरा 13 साल बाद हुआ है। इससे पहले प्रिंस ऑफ वेल्स और डचेस ऑफ कॉर्नवेल कैमिला ने 2006 में देश का दौरा किया था।
·      इसके पहले ब्रिटेन के मुख्य विरोधी दल लेबर पार्टी ने कश्मीर पर एक आपात प्रस्ताव पारित करते हुए पार्टी के नेता जेरेमी कोर्बिन से कहा था कि वे कश्मीर में अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों को भेजकर वहाँ की स्थिति की समीक्षा करने का माँग करें और वहाँ की जनता के आत्म-निर्णय के अधिकार की मांग करें।
·      अमेरिका में हाउडी मोदी के बावजूद डोनाल्ड ट्रंप ने इमरान खान की न केवल पर्याप्त आवभगत की, बल्कि बार-बार कहा कि मैं तो कश्मीर मामले में मध्यस्थता करना चाहता हूँ, बशर्ते भारत माने। ह्यूस्टन की रैली में नरेंद्र मोदी ने ट्रंप का समर्थन करके डेमोक्रेट सांसदों की नाराजगी अलग से मोल ले ली है।
·      भारत की लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और बहुलवादी व्यवस्था को लेकर उन देशों में सवाल उठाए जा रहे हैं, जो भारत के मित्र समझे जाते हैं। इसका सबसे ताजा उदाहरण है दक्षिण एशिया में मानवाधिकार विषय पर अमेरिकी संसद में हुई सुनवाई, जिसमें भारत पर ही निशाना लगाया गया।
·      इस सुनवाई में डेमोक्रेटिक पार्टी के कुछ सांसदों की तीखी आलोचना के कारण भारत के विदेश मंत्रालय को सफाई देनी पड़ी। मोदी सरकार के मित्र रिपब्लिकन सांसद या तो इस सुनवाई के दौरान हाजिर नहीं हुए और जो हाजिर हुए उन्होंने भारतीय व्यवस्था की आलोचना की।

Saturday, November 2, 2019

कांग्रेस को अब चाहिए क्षेत्रीय क्षत्रप


महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव में अपेक्षाकृत बेहतर परिणामों से उत्साहित कांग्रेस पार्टी ने अपने पुनरोदय का एक कार्यक्रम तैयार किया है। इसमें संगठनात्मक बदलाव के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर पर जनता से जुड़े मुद्दों पर आंदोलन छेड़ने की योजना भी है। हालांकि इन चुनाव परिणामों को बेहतर कहने के पहले कई तरह के किन्तु-परन्तु हैं, पर पार्टी इन्हें बेहतर मानती है। पार्टी का निष्कर्ष यह है कि हमने कुछ समय पहले जनांदोलन छेड़ा होता, तो परिणाम और बेहतर होते। लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस के लिए यह संतोष का विषय है। उत्तर प्रदेश में पार्टी ने अपना सदस्यता कार्यक्रम लॉन्च करने की घोषणा भी की है।
पार्टी ने अपनी सफलता का नया सूत्र खोजा है क्षेत्रीय क्षत्रपों को बढ़ावा दो। यह कोई नई बात नहीं है। उसे समझना होगा कि क्षेत्रीय क्षत्रप दो रोज में तैयार नहीं होते। अपने कार्यकर्ताओं को बढ़ावा देना होता है। बड़ा सच यह है कि पार्टी ने राहुल गांधी के नेतृत्व को विकसित करने के फेर में अपने युवा नेतृत्व को उस स्तर का समर्थन नहीं दिया, जो उन्हें मिलना चाहिए था। पिछले साल राजस्थान और मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्रियों का चयन करते समय यह बात अच्छी तरह साफ हो गई थी। अब क्षेत्रीय क्षत्रपों से पार्टी का आशय क्या है?  पुराने नेता, लोकप्रिय नेता या युवा नेता?
वैचारिक अंतर्मंथन
केवल नेतृत्व की बात ही नहीं है। पार्टी को वैचारिक स्तर पर भी अंतर्मंथन करना होगा। बीजेपी केवल नरेंद्र मोदी के भाषणों के कारण लोकप्रिय नहीं है। उसने सामाजिक स्तर पर भी अपनी जगह बनाई है। बहरहाल कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर सुस्त अर्थव्यवस्था को मुद्दा बनाकर केंद्र सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलने जा रही है। इस मोर्चे की घोषणा के साथ खबर यह भी आई है कि पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी फिर विदेश दौरे पर चले गए हैं। वे कहाँ गए हैं, यह जानकारी तो नहीं दी गई है, पर इतना जरूर कहा गया है कि वे 'मेडिटेशन' के लिए गए हैं।

यूरोपियन सांसदों के दौरे के बाद कश्मीर


पाकिस्तान की दिलचस्पी कश्मीर समस्या के अंतरराष्ट्रीयकरण में है. इसके लिए पिछले तीन महीनों में उसने अपनी पूरी ताकत लगा दी है. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में खून की नदियाँ बहाने की साफ-साफ धमकी दी थी. हाल में पाक-परस्तों ने सेब के कारोबार से जुड़े लोगों की हत्या करने का जो अभियान छेड़ा है, उससे उनकी पोल खुली है.
पाक-परस्त ताकतों ने भारत की लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और बहुलवादी व्यवस्था को लेकर उन देशों में जाकर सवाल उठाए हैं, जो भारत के मित्र समझे जाते हैं. वे जबर्दस्त प्रचार युद्ध में जुटे हैं. ऐसे में हमारी जिम्मेदारी है कि हम कश्मीर के संदर्भ में भारत के रुख से सारी दुनिया को परिचित कराएं और पाकिस्तान की साजिशों की ओर दुनिया का ध्यान खींचें. इसी उद्देश्य से हाल में भारत ने यूरोपियन संसद के 23 सदस्यों को कश्मीर बुलाकर उन्हें दिखाया कि पाकिस्तान भारत पर मानवाधिकार हनन के जो आरोप लगा रहा है, उनकी सच्चाई वे खुद आकर देखें.

Friday, November 1, 2019

राज्य पुनर्गठन के बाद जम्मू-कश्मीर


गत 5 और 6 अगस्त को संसद ने जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन के जिस प्रस्ताव को पास किया था, वह अपनी तार्किक परिणति तक पहुँच चुका है। राज्य का नक्शा बदल गया है और वह दो राज्यों में तब्दील हो चुका है। पर यह औपचारिकता का पहला चरण है। इस प्रक्रिया को पूरा होने में अभी समय लगेगा। कई प्रकार के कानूनी बदलाव अब भी हो रहे हैं। सरकारी अफसरों से लेकर राज्यों की सम्पत्ति के बँटवारे की प्रक्रिया अभी चल ही रही है। राज्य पुनर्गठन विधेयक के तहत साल भर का समय इस काम के लिए मुकर्रर है, पर व्यावहारिक रूप से यह काम बरसों तक चलता है। तेलंगाना राज्य अधिनियम 2013 में पास हुआ था, पर पुनर्गठन से जुड़े मसले अब भी सुलझाए जा रहे हैं।
बहरहाल पुनर्गठन से इतर राज्य में तीन तरह की चुनौतियाँ हैं। पहली पाकिस्तान-परस्त आतंकी गिरोहों की है, जो राज्य की अर्थव्यवस्था पर हमले कर रहे हैं। हाल में ट्रक ड्राइवरों की हत्या करके उन्होंने अपने इरादों को जता भी दिया है, पर इस तरीके से वे स्थानीय जनता की नाराजगी भी मोल लेंगे, जो उनकी बंदूक के डर से बोल नहीं पाती थी। अब यदि सरकार सख्ती करेगी, तो उसे कम से कम सेब के कारोबार से जुड़े लोगों का समर्थन मिलेगा। दूसरी चुनौती राज्य में राजनीतिक शक्तियों के पुनर्गठन की है। और तीसरी चुनौती नए राजनीतिक मुहावरों की है, जो राज्य की जनता को समझ में आएं। ये तीनों चुनौतियाँ कश्मीर घाटी में हैं। जम्मू और लद्दाख में नहीं।

Sunday, October 27, 2019

एग्जिट पोल हास्यास्पद क्यों?


महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद एक पुराना सवाल फिर उठ खड़ा हुआ है कि हमारे यहाँ एग्जिट पोल की विश्वसनीयता कितनी है? यह सवाल इसलिए क्योंकि अक्सर कहा जाता है कि ओपीनियन पोल के मुकाबले एग्जिट पोल ज्यादा सही साबित होते हैं, क्योंकि इनमें वोट देने के फौरन बाद मतदाता की प्रतिक्रिया दर्ज कर ली जाती है। कई बार ये पोल सच के करीब होते हैं और कई बार एकदम विपरीत। ऐसा क्यों होता है? सवाल इनकी पद्धति को लेकर उतना नहीं हैं, जितने इनकी मंशा को लेकर हैं। भारतीय मीडिया अपनी विश्वसनीयता को खो रहा है। इसमें एग्जिट और ओपीनियन पोल की भी भूमिका है।
इसबार महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव में एग्जिट पोल ने जो बताया था, परिणाम उससे हटकर आए। एक पोल ने परिणाम के करीब का अनुमान लगाया था, पर उसके परिणाम को भी बारीकी से पढ़ें, तो उसमें झोल नजर आने लगेगा। एक्सिस माई इंडिया-इंडिया टुडे के पोल ने महाराष्ट्र में बीजेपी-शिवसेना की सरकार बनने के संकेत तो दिए थे, लेकिन प्रचंड बहुमत के नहीं। इस पोल ने भाजपा-नीत महायुति को 166-194, कांग्रेस-एनसीपी अघाड़ी को 72-90 और अन्य को 22-34 सीटें दी थीं। वास्तविक परिणाम रहे 161, 98 और 29। यानी भाजपा+ को अनुमान की न्यूनतम सीमा से भी कम, कांग्रेस+ को अधिकतम सीमा से भी ज्यादा और केवल अन्य को सीमा के भीतर सीटें मिलीं।

Wednesday, October 23, 2019

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव की पाँच खास बातें


एक्ज़िट पोल एकबार फिर से महाराष्ट्र में एनडीए की सरकार बनने की भविष्यवाणी कर रहे हैं। सभी का निष्कर्ष है कि विधानसभा की 288 सीटों में से दो तिहाई से ज्यादा भाजपा-शिवसेना गठबंधन की झोली में गिरेंगी। देश की कारोबारी राजधानी मुंबई के कारण महाराष्ट्र देश के सबसे महत्वपूर्ण राज्यों में एक है। लोकसभा में सीटों की संख्या के लिहाज से उत्तर प्रदेश के बाद दूसरा सबसे महत्वपूर्ण राज्य महाराष्ट्र है। चुनाव में मुख्य मुकाबला भाजपा—शिवसेना की ‘महायुति’ और कांग्रेस—राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ‘महा-अघाड़ी' के बीच है। फिलहाल लगता है कि यह मुकाबला भी बेमेल है। चुनाव का विश्लेषण करते वक्त परिणामों से हटकर भी महाराष्ट्र की कुछ बातों पर ध्यान में रखना चाहिए।
1.भाजपा-शिवसेना संबंध
महाराष्ट्र की राजनीति का सबसे रोचक पहलू है भारतीय जनता पार्टी के रिश्तों का ठंडा-गरम पक्ष। इसमें दो राय नहीं कि इनकी ‘महायुति’ राज्य में अजेय शक्ति है, पर इस युतिको बनाए रखने के लिए बड़े जतन करने पड़ते हैं। इसका बड़ कारण है दोनों पार्टियों की वैचारिक एकता। एक विचारधारा से जुड़े होने के बावजूद शिवसेना महाराष्ट्र केंद्रित दल है। शिवसेना ने 2014 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी का साथ छोड़कर अकेले चुनाव लड़ा, पर इससे उसे नुकसान हुआ। भारतीय जनता पार्टी ने इस बीच अपने आधार का विस्तार भी कर लिया। एक समय तक राज्य में शिवसेना बड़ी पार्टी थी, पर आज स्थिति बदल गई है और भारतीय जनता पार्टी अकेले सरकार बनाने की स्थिति में नजर आने लगी है। एक जमाने में जहाँ सीटों के बँटवारे में भाजपा दूसरे नंबर पर रहती थी, वहाँ अब वह पहले नंबर पर रहती है। एक जमाने में मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री पद का फैसला भी सीटों की संख्या पर होता था। इस चुनाव के बाद महायुति की सरकार बनने के पहले का विमर्श महत्वपूर्ण होगा। सन 2014 में दोनों का गठबंधन टूट गया था, पर इसबार दोनों ने फिर से मिलकर चुनाव लड़ा है। दोनों पार्टियों के अनेक बागी नेता भी मैदान में हैं।
2.कांग्रेस-राकांपा रिश्ते
महायुति के समांतरमहा-अघाड़ी के दो प्रमुख दलों के रिश्ते भी तनाव से भरे रहते हैं। शरद पवार ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर कांग्रेस छोड़कर 1999 में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का गठन किया था। दोनों दलो के बीच तबसे ही दोस्ती और दुश्मनी के रिश्ते चले आ रहे हैं। दोनों पार्टियों ने राज्य में मिलकर 15 साल तक सरकार चलाई। एनसीपी केंद्र में यूपीए सरकार में भी शामिल रही, पर दोनों के बीच हमेशा टकराव रहा। संयोग से कांग्रेस और एनसीपी दोनों की राजनीति उतार पर है। दोनों ही दलों में चुनाव के ठीक पहले अनुशासनहीनता अपने चरम पर थी। यह बात चुनाव परिणामों को प्रभावित करेगी। यह बात दोनों दलों के केंद्रीय नेतृत्व की कमजोरी को भी व्यक्त करती है। 

हरियाणा विधानसभा चुनाव की पाँच खास बातें


हरियाणा में मतदान हो चुका है। गुरुवार को पता भी लग जाएगा कि कौन जीता और कौन हारा। हार और जीत के अलावा कुछ ऐसी बातें हैं, जिनपर गौर करने की जरूरत होगी।
1.भावी राजनीति की दिशा
हरियाणा विधानसभा के 2014 के चुनाव परिणामों से कई मायनों में सबको हैरत हुई थी। लोकसभा चुनाव में बीजेपी में कुल दस में से सात सीटें जीती थीं। प्रेक्षक यह समझना चाहते थे कि यह जीत कहीं तुक्का तो नहीं थी। लोकसभा चुनाव के बाद हुए 13 राज्यों के उप चुनावों से कुछ प्रेक्षकों ने निष्कर्ष निकाला कि ‘मोदी मैजिक’ ख़त्म हो गया। हरियाणा ने इस संभावना को गलत सिद्ध किया था। हरियाणा विधानसभा चुनाव के परिणाम विस्मयकारी थे। इनके बाद ही लगा कि केवल लोकसभा में ही नहीं उत्तर भारत में राज्यों की राजनीति में भी बड़ा उलट-फेर होने वाला है। गठबंधन सहयोगियों के बगैर हरियाणा में मिली सफलता से भाजपा का आत्मविश्वास और महत्वाकांक्षाएं बढ़ीं। इसबार का चुनाव भारतीय जनता पार्टी की इस ताकत का परीक्षण है। हरियाणा के जातीय समीकरण पिछले चुनाव में बिगड़ गए थे। उनकी स्थिति क्या है, इस चुनाव में पता लगेगी। राज्य की 90 में से 35 सीटों पर जाट मतदाता का वर्चस्व है। सवाल है कि वह है किसके साथ?
2.विरोधी ताकत कौन?
एक्ज़िट पोल बता रहे हैं कि राज्य में बीजेपी पिछली बार से भी ज्यादा बड़ी ताकत बनकर उभरेगी। ऐसे में सवाल पैदा होता है कि मुख्य विरोधी दल कौन सा होगा? हरियाणा में पार्टियों के बनने और बिगड़ने का लंबा इतिहास है। यहाँ विशाल हरियाणा पार्टी, हरियाणा विकास पार्टी, हरियाणा जनहित कांग्रेस और इनेलो बनीं और फिर पृष्ठभूमि में चली गईं। पाँच साल पहले तक कांग्रेस और इनेलो दो बड़ी ताकतें होती थीं। पर 2014 के विधानसभा में दोनों का पराभव हो गया। जनता पार्टी के लोकदल घटक की प्रतिनिधि इनेलो सीट और वोट प्रतिशत के आधार पर पिछले विधानसभा चुनाव के पहले तक दूसरे नंबर की ताकत थी। बाद में इनेलो और कांग्रेस दोनों आंतरिक टकराव की शिकार हुईं हैं। इस चुनाव से पता लगेगा कि इन दलों की ताकत क्या है और राज्य की राजनीति किस दिशा में जा रही है। लोकसभा के पिछले चुनावों के पहले उम्मीद थी कि विरोधी दल कोई बड़ा मोर्चा बनाने में कामयाब होंगे। ऐसा नहीं हुआ। चुनाव के ठीक पहले प्रदेश कांग्रेस के शिखर नेतृत्व में हुए बदलाव के परिणामों पर भी नजर रखनी होगी।

Tuesday, October 22, 2019

अयोध्या पर क्यों न हम सकारात्मक रूप से सोचें?


दुर्भाग्य है कि पिछले 27 साल से हमारे सामाजिक जीवन में कुछ लोग 6 दिसम्बर को ‘शौर्य दिवस’ मनाते हैं और कुछ ‘यौमे ग़म.’ एक गहरा सामाजिक विभाजन एक घटना के कारण हमारे जीवन में पैदा हो गया है. अयोध्या में राम जन्मभूमि को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला इस साल 6 दिसंबर के पहले ही आ जाएगा. इस फैसले को लेकर कई तरह के कयास हैं. क्या अदालत इसे केवल स्वामित्व के रूप में देखेगी? क्या वह आस्था के सवाल पर फैसला करेगी? क्या उसपर जनमत का दबाव होगा? ऐसे बीसियों सवाल हैं. उम्मीदें भी हैं और अंदेशे भी. बेहतर यही होगा कि हम उम्मीद करें कि फैसला ऐसा होगा कि सभी पक्ष इसे स्वीकार करेंगे और हम इस साल से इस फैसले की तारीख को ‘राष्ट्र निर्माण दिवस’ के रूप में मनाना शुरू करेंगे.
इस मामले की सुनवाई के आखिरी दिन तक और अब भी यह सवाल हमारे मन में है कि क्या इसका निपटारा आपसी समझौते से संभव नहीं था? क्या अब भी यह संभव नहीं है? दुर्भाग्य से ऐसा संभव नहीं हुआ. संभव था, तो अबतक हो चुका होता. अब मनाना चाहिए कि यह निपटारा सामाजिक बदमज़गी पैदा न करे. इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में 40 दिन की लगातार सुनवाई के दौरान यह बदमज़गी भी किसी न किसी रूप में व्यक्त हुई थी. सुनवाई के आखिरी दिन भी कुछ ऐसे प्रसंग आए, जिनसे लगा कि कड़वाहट कहीं न कहीं बैठी है और बहुत गहराई से बैठी है.

Sunday, October 20, 2019

मामल्लापुरम से निकले चीनी डिप्लोमेसी के इशारे


चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग की यात्रा के ठीक पहले भारतीय और चीनी मीडिया में इस बात को रेखांकित किया गया कि तमिलनाडु के प्राचीन नगर मामल्लापुरम (महाबलीपुरम) का चयन क्यों किया और किसने किया। खबरें थीं कि चीन ने खासतौर से इस जगह को चुना। चीनी डिप्लोमेसी की विशेषता है कि वे संकेतों का सोच-समझकर इस्तेमाल करते हैं। तमिलनाडु के साथ चीन के ईसा की पहली-दूसरी सदी के रिश्ते हैं। छठी-सातवीं सदी में पल्लव राजाओं ने चीन में अपने दूत भेजे थे। सातवीं सदी में ह्वेनसांग इस इलाके में आए थे।
सन 1956 में तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाऊ-एन-लाई भी मामल्लापुरम आए थे। क्या चीन ने जानबूझकर ऐसी जगह का चुनाव किया, जो भगवा मंडली के राजनीतिक प्रभाव से मुक्त है? शायद इन रूपकों और प्रतीकों की चर्चा होने की वजह से ही हमारे विदेश मंत्रालय ने सफाई पेश की कि इस जगह को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुना था। मोदी ने शी के स्वागत में खासतौर से तमिल परिधान वेष्टी को धारण किया।

अयोध्या पर कड़वाहट खत्म होने की घड़ी


अयोध्या मामले पर सत्तर साल से ज्यादा समय से चल रहा कानूनी विवाद तार्किक परिणति तक पहुँचने वाला है। न्याय-व्यवस्था के लिए तो यह मामला मील का पत्थर साबित होगा ही, देश के सामाजिक ताने-बाने के लिए भी युगांतरकारी होगा। मामले की सुनवाई के आखिरी दिन तक और अब फैसला आने के पहले इस बात को लेकर कयास हैं कि क्या इस मामले का निपटारा आपसी समझौते से संभव है? ऐसा संभव होता तो अबतक हो चुका होता। न्यायिक व्यवस्था को ही अब इसका फैसला करना है। अब मनाना चाहिए कि इस निपटारे से किसी किस्म की सामाजिक बदमज़गी पैदा न हो।
इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में 40 दिन की लगातार सुनवाई के दौरान यह बदमज़गी भी किसी न किसी रूप में व्यक्त हुई थी। अदालत में सुनवाई के आखिरी दिन भी कुछ ऐसे प्रसंग आए, जिनसे लगा कि कड़वाहट कहीं न कहीं गहराई तक बैठी है। अदालत के सामने अलग-अलग पक्षों ने अपनी बात रखी है। उसके पास मध्यस्थता समिति की एक रिपोर्ट भी है। इस समिति का गठन भी अदालत ने ही किया था।

Tuesday, October 15, 2019

करतारपुर कॉरिडोर से खुलेगा नया अध्याय


भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में ज्वार-भाटा जैसा तेज उतार-चढ़ाव आता है. यह जितनी तेजी से आता है, उतनी ही तेजी से उतर जाता है. पिछले एक साल में दोनों देशों के बीच तनाव और टकराव की बातों के साथ-साथ करतारपुर कॉरिडोर के मार्फत दोनों को जोड़ने की बातें भी चल रही हैं. उम्मीद है कि नवम्बर में गुरुनानक देव की 550वीं जयंती के अवसर पर यह गलियारा खुलने के बाद एक नया अध्याय शुरू होगा. केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने जानकारी दी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 8 नवंबर को करतारपुर कॉरिडोर का उद्घाटन करेंगे.72 साल की कड़वाहट के बीच खुशनुमा हवा का यह झोंका आया है.

करतारपुर गलियारा सिखों के पवित्र डेरा बाबा नानक साहिब और गुरुद्वारा दरबार साहिब करतारपुर को जोड़ेगा. करीब 4.7 किलोमीटर लम्बे इस मार्ग से भारत के श्रद्धालु बगैर वीजा के पाकिस्तान स्थित गुरुद्वारे तक जा सकेंगे. इस गलियारे का प्रस्ताव एक अरसे से चल रहा है, पर पिछले साल दोनों देशों ने मिलकर इस गलियारे के निर्माण की योजना बनाई. दोनों देशों के बीच धार्मिक पर्यटन की बेहतरीन संभावनाएं हैं, पर किसी न किसी कारण से इनमें अड़ंगा लग जाता है. 

Monday, October 14, 2019

पाकिस्तान में घहराती घटाएं


Image result for business community meet army chiefसंयुक्त राष्ट्र में इमरान खान के भावुक प्रदर्शन के बाद पाकिस्तान में सवाल उठ रहा है कि अब क्या? इस हफ्ते जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट ने नियंत्रण रेखा पर मार्च किया। शहरों, स्कूलों और सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं में कश्मीर को लेकर कार्यक्रम हुए। पर सवाल है कि इससे क्या होगा? पाकिस्तानी शासकों का कहना है कि हम इस मामले के अंतरराष्ट्रीयकरण में कामयाब हुए हैं। दूसरी तरफ एक और सवाल उठ रहा है कि क्या देश में एक और सत्ता परिवर्तन होगा? सवाल उठाने वालों के पास कई तरह के कयास हैं। जमीयत उलेमा—इस्लाम (फज़ल) के प्रमुख फज़लुर रहमान ने 31 अक्तूबर को ‘आज़ादी मार्च’ निकालने का ऐलान कर दिया है। इस मार्च का केवल एक उद्देश्य है सरकार को गिराना। क्या विरोधी दल एक साथ आएंगे? उधर तालिबान प्रतिनिधियों से इस्लामाबाद में अमेरिकी दूत जलमय खलीलज़ाद की हुई मुलाकात के बाद लगता है कि डिप्लोमेसी के कुछ पेच और सामने आने वाले हैं।

पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति में बदलाव समर्थकों का अनुमान है कि इमरान के कुछ मंत्रियों पर गाज गिरेगी। संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान की स्थायी प्रतिनिधि मलीहा लोधी की छुट्टी कर दी गई है। उन्हें हटाए जाने को लेकर भी चिमगोइयाँ हैं। सरकार ने स्पष्ट किया है कि यह सामान्य बदलाव  है, पर इस फैसले के समय और तरीके को लेकर कई तरह के अनुमान हैं। कयास तो यह भी है कि इमरान साहब की छुट्टी भी हो सकती है। कौन करेगा छुट्टी? इसके दो तरीके हैं। देश का विपक्ष एकजुट होने की कोशिश भी कर रहा है। दूसरा रास्ता है कि देश की सेना उनकी छुट्टी कर दे।
भला सेना छुट्टी क्यों करेगी?  इमरान तो सेना के ही सिपाही साबित हुए हैं। सेना ने ही उन्हें स्थापित किया है। बाकायदा चुनाव जिताने में मदद की है। सबसे बड़ा सच यह है कि देश के सामने खड़ा आर्थिक संकट बहुत भयावह शक्ल लेने वाला है। अब लगता है कि सेना ने अर्थव्यवस्था को ठीक करने का जिम्मा भी खुद पर ओढ़ लिया है। अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने जानकारी दी है कि हाल में सेनाध्यक्ष कमर जावेद बाजवा ने देश के प्रमुख कारोबारियों के साथ निजी तौर पर कई बैठकें की हैं। गत 2-3 अक्तूबर की रात हुई बैठक के बारे में तो सेना ने आधिकारिक रूप से विज्ञप्ति भी जारी की है।
व्यापारियों के साथ बैठकें
बिजनेस मीडिया हाउस ब्लूमबर्ग के अनुसार देश की व्यापारिक राजधानी कराची और सेना के मुख्यालय रावलपिंडी में कम से कम तीन बैठकें हो चुकी हैं। इन बैठकों की खबरें आने के पहले जुलाई में जब इमरान खान अमेरिका की यात्रा पर गए थे, तब उनके साथ सेनाध्यक्ष बाजवा और आईएसआई के चीफ फैज़ हमीद भी गए थे। उस वक्त माना गया कि शायद वे इसलिए गए होंगे, क्योंकि अफगानिस्तान में शांति समझौते के लिए तालिबान के साथ बातचीत चल रही थी। पाकिस्तानी सेना की तालिबान के साथ नजदीकियों से सब वाकिफ हैं।

Sunday, October 13, 2019

मामल्लापुरम से आगे का परिदृश्य


चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग की दो दिन की भारत यात्रा के बाद दोनों देशों के बीच पैदा हुई कड़वाहट एक सीमा तक कम हुई है। फिर भी इस बातचीत से यह निष्कर्ष नहीं निकाल लेना चाहिए कि हमारे रिश्ते बहुत ऊँचे धरातल पर पहुँच गए हैं। ऐसा नाटकीय बदलाव कभी संभव नहीं। दिसम्बर 1956 में भी चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री चाऊ-एन-लाई इसी मामल्लापुरम में आए थे। उन दिनों हिन्दी-चीनी भाई-भाई का था। उसके छह साल बाद ही 1962 की लड़ाई हो गई। दोनों के हित जहाँ टकराते हैं, वहाँ ठंडे दिमाग से विचार करने की जरूरत है।  विदेश नीति का उद्देश्य दीर्घकालीन राष्ट्रीय हितों की रक्षा करना होता है।
भारतीय विदेश नीति के सामने इस समय तीन तरह की चुनौतियाँ हैं। एक, राष्ट्रीय सुरक्षा, दूसरे आर्थिक विकास की गति और तीसरे अमेरिका, चीन, रूस तथा यूरोपीय संघ के साथ रिश्तों में संतुलन बनाने की। मामल्लापुरम की शिखर वार्ता भले ही अनौपचारिक थी, पर उसका औपचारिक महत्व है। पिछले साल अप्रेल में चीन के वुहान शहर में हुए अनौपचारिक शिखर सम्मेलन से इस वार्ता की शुरुआत हुई है, जिसका उद्देश्य टकराव के बीच सहयोग की तलाश।
दोनों देशों के बीच सीमा इतनी बड़ी समस्या नहीं है, जितनी बड़ी चिंता चीनी नीति में पाकिस्तान की केन्द्रीयता से है। खुली बात है कि चीन न केवल पैसे से बल्कि सैनिक तकनीक और हथियारों तथा उपकरणों से भी पाकिस्तान को लैस कर रहा है। भारत आने के पहले शी चिनफिंग ने इमरान खान को बुलाकर उनसे बात की थी। सही या गलत यह एक प्रकार का प्रतीकात्मक संकेत था। सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता और एनएसजी में चीनी अड़ंगा है। मसूद अज़हर को लेकर चीन ने कितनी आनाकानी की।

Friday, October 11, 2019

नए आत्मविश्वास के साथ तैयार भारतीय वायुसेना


इस साल फरवरी में हुए पुलवामा हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान को माकूल जवाब देने के लिए कई तरह के विकल्पों पर विचार किया और फिर ऑपरेशन बंदर की योजना बनाई गई। इसकी जिम्मेदारी वायुसेना को मिली। भारतीय वायुसेना ने सन 1971 के बाद पहली बार अपनी सीमा पर करके पाकिस्तानी सीमा में प्रवेश किया।
सन 1999 के करगिल अभियान के बाद यह अपनी तरह का सबसे बड़ा और जटिल अभियान था। तकनीकी योजना तथा आधुनिक अस्त्रों के इस्तेमाल के विचार से यह हाल के वर्षों में इसे भारत के ही नहीं दुनिया के सबसे बड़े अभियानों में शामिल किया जाएगा। दिसंबर 2001 में संसद पर हुए हमले के बाद अगस्त 2002 में एक मौका ऐसा आया था, जब वायुसेना ने नियंत्रण रेखा के उस पार पाकिस्तानी ठिकाने पर हवाई हमला और किया था, पर उसका आधिकारिक विवरण सामने नहीं आया। अलबत्ता पिछले वायुसेनाध्यक्ष ने उसका उल्लेख जरूर किया।  
वायुसेना का संधिकाल
भारतीय वायुसेना के सामने बालाकोट अभियान एक बड़ी चुनौती थी, जिसका निर्वाह उसने सफलतापूर्वक किया। वह आधुनिकीकरण की प्रक्रिया से गुजर रही है। एक अर्थ में वह अपने संधिकाल में है। नए लड़ाकू विमान उसे समय से नहीं मिल पाए। पुराने विमान सेवा-निवृत्त होते चले गए। उसके पास लड़ाकू विमानों के 42 स्क्वॉड्रन होने चाहिए, पर उनकी संख्या घटते-घटते 32 के आसपास आ गई है।

Thursday, October 10, 2019

स्विस बैंकों की सूची क्या तोड़ेगी काले धन का जाल?


अंततः भारत सरकार को स्विस बैंकों में जमा धन के बारे में आधिकारिक जानकारियों का सिलसिला शुरू हो गया है. इसी हफ्ते की खबर है कि सरकार को स्विस बैंकों में भारतीय खाता धारकों के ब्यौरे की पहली लिस्ट मिल गई है.  यह सूचना भारत को स्विट्ज़रलैंड सरकार ने ऑटोमेटिक एक्सचेंज ऑफ इनफॉर्मेशन (एईओआई) की नई व्यवस्था के तहत दी है. यह जानकारी केवल भारत के लिए विशेष नहीं है, बल्कि स्विट्जरलैंड के फेडरल टैक्स एडमिनिस्ट्रेशन ने 75 देशों को दी है. भारत भी इनमें शामिल है.

इस सूची से भारत को कितने काले धन की जानकारी मिलेगी और हम कितना काला धन वसूल कर पाएंगे, ऐसे सवालों का जवाब फौरन नहीं मिलेगा. इन विवरणों की गहराई से जाँच करने की जरूरत होगी. अलबत्ता महत्वपूर्ण वह व्यवस्था है, जिसके तहत यह जानकारी मिली है. यह एक अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था है, जिसका उद्देश्य दुनियाभर में टैक्स चोरी को रोकना तथा काले धन पर काबू पाना है. भारत ने काफी संकोच के बाद 3 जून 2015 को स्विट्ज़रलैंड के साथ इस समझौते पर दस्तखत किए थे और यह व्यवस्था इस साल सितंबर से लागू हुई है.

Monday, October 7, 2019

गांधी की बातें, जो हमने नहीं मानीं


कुछ लोग कहते हैं, मजबूरी का नाम महात्मा गांधी। उनके जन्मदिन को राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाने और तमाम शहरों की सड़कों को महात्मा गांधी मार्ग बनाने के बावजूद हमें लगता है कि उनकी जरूरत 1947 के पहले तक थी। अब होते भी तो क्या कर लेते? वैश्विक अर्थव्यवस्था को लेकर हम उनकी धारणाओं पर विचार करते भी नहीं हैं, पर आज जब समाजवाद के बाद पूँजीवाद के अंतर्विरोध सामने आ रहे हैं, हमें गांधी याद आते हैं। गांधी अगर प्रासंगिक हैं, तो दुनिया के लिए हैं, केवल भारत के लिए नहीं
गांधी उतने अव्यावहारिक नहीं थे, जितना समझा जाता है। हमने उनकी ज्यादातर भूमिका स्वतंत्रता संग्राम में ही देखी। और उन्हें प्रतिरोध के आगे देख नहीं पाते हैं। स्वतंत्र होने के बाद देश के सामने जब प्रशासनिक-राजनीतिक समस्याएं आईं तबतक वे चले गए। फिर भी गांधी की प्रशासनिक समझ का जायजा उनके लेखन और व्यावहारिक गतिविधियों से लिया जा सकता है। देखने की जरूरत है कि कौन से ऐसे क्षेत्र हैं, जिनमें हमने गांधी की सरासर उपेक्षा की है। कम से कम तीन विषय ऐसे हैं, जिनमें गांधी की सरासर उपेक्षा हुई है। 1.स्त्रियाँ, 2.भाषा और 3.शिक्षा।