नरेन्द्र मोदी की चीन यात्रा
का महत्वपूर्ण पहलू है कुछ कठोर बातें जो विनम्रता से कही गईं हैं। भारत और चीन के
बीच कड़वाहट के दो-तीन प्रमुख कारण हैं। एक है सीमा-विवाद। दूसरा है पाकिस्तान के
साथ उसके रिश्तों में भारत की अनदेखी। तीसरे दक्षिण चीन तथा हिन्द महासागर में
दोनों देशों की बढ़ती प्रतिस्पर्धा। चौथा मसला अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद का है। भारत
लगातार आतंकवाद को लेकर पाकिस्तानी भूमिका
की शिकायत करता रहा है। संयोग से पश्चिम चीन के शेनजियांग प्रांत में इस्लामी
कट्टरतावाद सिर उठा रहा है। चीन को इस मामले में व्यवहारिक कदम उठाने होंगे।
पाकिस्तानी प्रेरणा से अफगानिस्तान में भी चीन अपनी भूमिका देखने लगा है। यह
भूमिका केवल इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण तक सीमित नहीं है, बल्कि अफगान सरकार और
तालिबान के बीच मध्यस्थता से भी जुड़ी है।
Sunday, May 17, 2015
Saturday, May 16, 2015
रिटेल में विदेशी पूँजी यानी विसंगति राजनीति की
यूपीए सरकार ने
2012 में कई शर्तों के साथ बहु-ब्रांड खुदरा में 51 फीसदी एफडीआई को अनुमति दी थी।
उस नीति के तहत विदेशी कंपनियों को अनुमति देने या नहीं देने का फैसला राज्यों पर
छोड़ दिया गया था। राजनीतिक हल्कों में यह मामला पहेली ही बना रहा। चूंकि यूपीए
सरकार की यह नीति थी, इसलिए भारतीय जनता पार्टी को इसका विरोध करना ही था। और अब
जब एनडीए सरकार यूपीए सरकार की अनेक नीतियों को जारी रखने की कोशिश कर रही है तो
उसके अपने अंतर्विरोध सामने आ रहे हैं। पिछले साल चुनाव के पहले और जीतने के बाद
एनडीए ने रिटेल कारोबार में विदेशी पूँजी निवेश के मामले पर अपने विचार को कभी स्पष्ट
नहीं किया।
Thursday, May 14, 2015
चीनी जादूनगरी से क्या लाएंगे मोदी?
अपनी सरकार की पहली
वर्षगाँठ के समांतर हो रही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चीन यात्रा के अनेक
निहितार्थ हैं. सरकार महंगाई, किसानों की आत्महत्याओं और बेरोजगारी की वजह से दबाव
में है वहीं वह विदेशी मोर्चे पर अपेक्षाकृत सफल है. चीन यात्रा को वह अपनी पहली
वर्षगाँठ पर शोकेस करेगी. देश के आर्थिक रूपांतरण में भी यह यात्रा मील का पत्थर
साबित हो सकती है. वैश्विक राजनीति तेजी से करवटें ले रही है. हमें एक तरफ पश्चिमी
देशों के साथ अपने रिश्तों को परिभाषित करना है वहीं चीन और रूस की विकसित होती
धुरी को भी ध्यान में रखना है.
Sunday, May 10, 2015
‘अन्याय’ हमारे भीतर है
" हम भारत के लोग, ...समस्त नागरिकों को :सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए...इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।"
सलमान खान को सज़ा सुनाए जाने से पहले बड़ी संख्या में लोगों का कहना था हमें अपनी न्याय-व्यवस्था पर पूरा भरोसा है। सज़ा घोषित होते ही उन्होंने कहा, हमारा विश्वास सही साबित हुआ। पर फौरन ज़मानत मिलते ही लोगों का विश्वास डोल गया। फेसबुक पर पनीले आदर्शों से प्रेरित लम्बी बातें फेंकने का सिलसिला शुरू हो गया। निष्कर्ष है कि गरीब के मुकाबले अमीर की जीत होती है। क्या इसे साबित करने की जरूरत है? न्याय-व्यवस्था से गहराई से वाकिफ सलमान के वकीलों ने अपनी योजना तैयार कर रखी थी। इस हुनर के कारण ही वे बड़े वकील हैं, जिसकी लम्बी फीस उन्हें मिलती है। व्यवस्था में जो उपचार सम्भव था, उन्होंने उसे हासिल किया। इसमें गलत क्या किया?
Saturday, May 9, 2015
‘दस’ बनाम ‘एक’ साल
मई 2005 में राष्ट्रीय
जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार का एक साल
पूरा होने पर 'चार्जशीट'
जारी की थी।
एनडीए का कहना था कि एक साल के शासन में यूपीए सरकार ने जितना नुक़सान लोकतांत्रिक
संस्थाओं को पहुँचाया है, उतना नुक़सान इमरजेंसी को
छोड़कर किसी शासन काल में नहीं हुआ। एनडीए ने उसे 'अकर्मण्यता और
कुशासन का एक वर्ष' क़रार दिया था। सरकार ने अपनी तारीफ के पुल
बाँधे और समारोह भी किया, जिसमें उसके मुख्य सहयोगी वाम दलों ने हिस्सा नहीं लिया।
पिछले दस साल में
केंद्र सरकार को लेकर ‘तारीफ के सालाना पुलों’ और ‘आरोप पत्रों’ की एक नई राजनीति चालू हुई है। मोदी सरकार का
एक साल पूरा हो रहा है। एक साल में मंत्रालयों ने कितना काम किया, इसे लेकर प्रजेंटेशन
तैयार हो रहे हैं। काफी स्टेशनरी और मीडिया फुटेज इस पर लगेगी। इसके समांतर ‘आरोप पत्रों’ को भी पर्याप्त फुटेज
मिलेगी। सरकारों की फज़ीहत में मीडिया को मज़ा आता है। मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्वच्छ भारत, बेटी पढ़ाओ,
बेटी बढ़ाओ, स्मार्ट सिटी वगैरह-वगैरह फिर से सुनाई पड़ेंगे। दूसरी ओर काला धन,
महंगाई, रोज़गार और किसानों की आत्महत्याओं पर केंद्रित कांग्रेस साहित्य तैयार हो
रहा है। सरकारी उम्मीदों के हिंडोले हल्के पड़ रहे हैं। मोदी सरकर के लिए मुश्किल
वक्त है, पर संकट का नहीं। उसके हाथ में चार साल हैं। यूपीए के ‘दस साल’ की निराशा के मुकाबले ‘एक साल’ की हताशा ऐसी बुरी भी
नहीं।
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