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Tuesday, June 15, 2010

मॉनसून क्यों और मानसून क्यों नहीं?



प्रमोद जोशी

मैने हाल में अपने ब्लॉग में कहीं मॉनसून शब्द का इस्तेमाल किया। इसपर मुझसे एक पत्रकार मित्र ने पूछा मॉनसून क्यों मानसून क्यों नहीं? मैने उन्हें बताया कि दक्षिण भारतीय भाषाओं में और अंग्रेज़ी सहित अनेक विदेशी भाषाओं में ओ और औ के बीच में एक ध्वनि और होती है। ऐसा ही ए और ऐ के बीच है। Call को देवनागरी में काल लिखना अटपटा लगता है। देवनागरी ध्वन्यात्मक लिपि है तो हमें अधिकाधिक ध्वनियों को उसी रूप में लिखना चाहिए। इसलिए वृत्तमुखी ओ को ऑ लिखते हैं। हिन्दी के अलग-अलग क्षेत्रों में औ और ऐ को अलग-अलग ढंग से बोला जाता है। मेरे विचार से बाल और बॉल को अलग-अलग ढंग से लिखना बेहतर होगा।
बात औ या ऑ की नहीं। बात मानकीकरण की है। हिन्दी का जहाँ भी प्रयोग है वहां की प्रकृति और संदर्भ के साथ कुछ मानक होने ही चाहिए। मीडिया की भाषा को सरल रखने का दबाव है, पर सरलता और मानकीकरण का कोई बैर नहीं है। हिन्दी के कुछ अखबार अंग्रेज़ी शब्दों का इस्तेमाल ज्यादा करते हैं। उनके पाठक को वही अच्छा लगता है, तब ठीक है। पर वे टारगेट पर एंडरसन लिखेंगे  या टार्गेट यह भी तय करना होगा। प्रफेशनल होगा या प्रोफेशनल? वीकल होगा, वेईकल या ह्वीकल? ऐसा मैं हिन्दी के एक अखबार में प्रकाशित प्रयोगों को देखने के बाद लिख रहा हूँ। आसान भाषा बाज़ार की ज़रूरत है, सुसंगत भाषा भी उसी बाज़ार की ज़रूरत है। सारी दुनिया की अंग्रेज़ी भी एक सी नहीं है, पर एपी या इकोनॉमिस्ट की स्टाइल शीट से पता लगता है कि संस्थान की शैली क्या है। यह शैली सिर्फ भाषा-विचार नहीं है। इसमें अपने मंतव्य को प्रकट करने के रास्ते भी बताए जाते हैं। मसलन लैंगिक, जातीय, सामुदायिक, धार्मिक या क्षेत्रीय संवेदनाओं-मर्यादाओं को किस तरह ध्यान में रखें। किन शब्दों के अतिशय प्रयोग से बचें। किन शब्दों का प्रयोग करते वक्त क्या सावधानी बरतें वगैरह। इसी तरह कानून और पत्रकारीय नैतिकता के किन सवालों पर ध्यान दिया जाय यह भी शैली पुस्तिका के दायरे में आता है।
हिन्दी के अखबारों का विस्तार हो रहा है। शुरूआती अखबार किसी खास क्षेत्र में चलता था। उसके भाषा-प्रयोग उस क्षेत्र से जुड़े थे। क्षेत्र-विस्तार के बाद भाषा-प्रयोगों में टकराहट भी होती है। जनपद का यूपी में अर्थ कुछ है, एमपी में कुछ और। राजस्थान में जिसे पुलिया कहते हैं वह यूपी में पुल होता है। ऐसा होने पर क्या करें, यह भी शैली पुस्तिका का विषय है। इस अर्थ में शैली पुस्तिका एक स्थिर वस्तु नहीं है, बल्कि गतिशील है। आज नहीं तो कल हिन्दी का निरंतर बढ़ता प्रयोग हमें बाध्य करेगा कि मानकीकरण के रास्ते खोजें। प्रायः हर अखबार या मीडिया हाउस ने इस दिशा में कुछ न कुछ काम किया भी है। बेहतर हो कि भाषा को लेकर हिन्दी के सभी अखबार वर्तनी की एकरूपता पर ज़ोर दें। ऐसा होने के बाद ही हिन्दी न्यूज़ एजेंसियों की ऐसी वर्तनी बनेगी, जो सारे अखबारों को मंज़ूर हो। उसके बाद एकरूपता की संभावना बढ़ेगी।
हिन्दी पत्रकारिता का विस्तार जिस तेजी से हुआ है उस तेजी से उसका गुणात्मक नियमन नहीं हो पाया। एक से सौ तक की संख्याओं को हम कई तरह से लिखते हैं। मसलन सत्रह, सत्तरह, सतरह, सत्रा या अड़तालीस, अड़तालिस, अठतालिस वगैरह। एक विचार है कि एक से नौ तक संख्याएं शब्दों में फिर अंकों में लिखें। तारीखें अंकों में ही लिखें। प्रयोग में ऐसा नहीं हो पाता। प्रयोग करने वाले और इस प्रयोग को जाँचने वाले या तो एकमत नहीं हैं या इसके जानकार नहीं हैं। देशों के नाम, शहरों के नाम यहाँ तक कि व्यक्तियों के नाम भी अलग-अलग ढंग से लिखे जाते हैं। इसी तरह उर्दू या अंग्रेज़ी के शब्दों को लिखने के लिए नुक्तों का प्रयोग है। आचार्य किशोरीदास वाजपेयी नुक्तों को लगाने के पक्ष में नहीं थे। उनके विचार से हिन्दी की प्रकृति शब्दों को अपने तरीके से बोलने की है। इधर अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग धुआँधार बढ़ा है। नुक्ते लगाने में एक खतरा यह है कि ग़लत लग गया तो क्या होगा। उर्दू में ज़ंग और जंग में फर्क होता है। रेफ लगाने में अक्सर गलतियाँ होतीं हैं। आशीर्वाद को आप ज़्यादातर जगह आर्शीवाद पढ़ेंगे और मॉडर्न को मॉर्डन। मनश्चक्षु, भक्ष्याभक्ष्य, सुरक्षण, प्रत्यक्षीकरण जैसे क्ष आधारित शब्द लिखने वाले गलतियाँ करते हैं। इनमें से काफी शब्दों का इस्तेमाल हम करते ही नहीं, पर क्ष को फेंका भी नहीं जा सकता।
गलतियाँ करने वाले इच्छा को इक्षा, कक्षा को कच्छा लिखते हैं। क्षात्र और छात्र का फर्क नहीं कर पाते। ऐसा ही ण के साथ है। इसमें ड़ घुस जाता है। फिर लिंग की गड़बड़ियाँ हैं। दही, ट्रक, सड़क, स्टेशन, लालटेन, सिगरेट, मौसम, चम्मच,प्याज,न्याय पीठ स्त्रीलिंग हैं या पुर्लिंग? बड़ा भ्रम है। सीताफल, कद्दू, कासीफल, घीया, लौकी, तोरी, तुरई जैसे सब्जियों-फलों के नाम अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग हैं। यह सूची काफी बड़ी है। हाल में खेल, बिजनेस और साइंस के तमाम नए शब्द आए हैं। उन्हें किस तरह लिखें इसे लेकर भ्रम रहता है।
शैली पुस्तिका बनाने का मेरा एक अनुभव वैचारिक टकराव का है। एक धारणा है कि हमें अपने नए शब्द बनाने चाहिए। जैसे टेलीफोन के लिए दूरभाष। काफी लोग मानते हैं कि टेलीफोन चलने दीजिए। चल भी रहा है। इंटरनेट की एक साइट है अर्बन डिक्शनरी डॉट कॉम। इसपर आप जाएं तो हर रोज़ अंग्रेज़ी के अनेक नए शब्दों से आपका परिचय होगा। ये प्रयोग किसी ने अधिकृत नहीं किए हैं। पत्रकार चाहें तो अनेक नए शब्द गढ़ सकते हैं। नए शब्दों को स्टाइलशीट में रखने की व्यवस्था होनी चाहिए। सम्पादकीय विभाग के लिए विकसित हो रहे सॉफ्टवेयरों में इस तरह की व्यवस्थाएं की जा सकती हैं।
स्टाइलशीट का सबसे नया पहलू डिज़ाइन का है। अखबार के डिज़ाइन के बाबत मूल धारणा और प्रयोग डिज़ाइन की स्टाइलबुक में हो तो बेहतर है। यहाँ मेरा आशय क्वार्क या पेजमेकर की स्टाइलशीट से नहीं है। मेरा आशय है कि ग्रैफिक प्रयोगों, खासकर टैक्स्ट और विज़ुअल के गुम्फ़न से है। इसे इनफोग्रैफ कहते हैं। इसका चलन हिन्दी में कम है। यह विधा जानकारी को बेहतर ढंग से पाठक तक पहुँचाती है। रंगों और फॉर्म के प्रयोग किसी अखबार या किसी विषय की पहचान बन सकते हैं। इसे सार्थक बनाने के लिए स्टाइलशीट की ज़रूरत होती है। बल्कि लेखन, सम्पादन और डिज़ाइन के समन्वय के लिए ग्रिड बनाकर काम किया जा सकता है।
इतने सारे अखबारों के बीच अलग पहचान बनाने के लिए खास विषयों और उनके प्रेजेंटेशन पर फोकस की ज़रूरत होती है। इसके लिए लिखने से लेकर पेश करने तक क्वालिटी चेक के कई पायदान होने चाहिए। इधर हुआ इसका उल्टा है। अखबारों से प्रूफ रीडर नाम का प्राणी लुप्त हो गया। अब यह मानकर चलते हैं कि कोई कॉपी रिपोर्टर लिख रहा है तो उसमें प्रयुक्त वर्तनी आदि देखने की जिम्मेदारी उसकी है। व्यवहार में ऐसा नहीं है। रिपोर्टर ही नहीं अब कॉपी डेस्क पर भी भाषा और विषय की अच्छी समझ वाले लोग कम हो रहे हैं। मीडिया हाउसों को इस तरफ ध्यान देना चाहिए। अक्सर टीवी चैनलों के स्क्रॉल और कैप्शनों में बड़ी गलतियाँ होतीं हैं। सुपरिभाषित शैली पुस्तिका और एक अंदरूनी गुणवत्ता सिस्टम इसे ठीक कर सकता है। 
समाचार फॉर मीडिया कॉम पर प्रकाशित

Wednesday, June 9, 2010

ये चीनी बच्चे हिन्दी क्यों पढ़ रहे हैं?



मैने 21 मई की अपनी पोस्ट में एक सवाल पूछा था कि कल हमें चीनी भाषा में काम मिलेगा तो हम चीनी सीखंगे? जवाब है ज़रूर सीखेंगे। सीखना भी चाहिए। और जिस अंग्रेज़ी के हम मुरीद हैं, उसका महत्व भी हमारा पेट भरने से है। हमारे काम की न हो तो हम उसे भी नहीं पूछेंगे। अलबत्ता कुछ रिश्ते पैसे के नहीं स्वाभिमान के होते हैं। माँ गरीब हो तब भी माँ रहती है। हमें अपनी भाषा के बारे में भी कुछ करना चाहिए।

बहरहाल 21 मई की पोस्ट मैने गूगल के एक विज्ञापन के हवाले से शुरू की है। इस पोस्ट में भी गूगल विज्ञापन का हवाला है। इसमें चीनी लोग हिन्दी पढ़ते नज़र आते हैं। इकोनॉमिस्ट का यह प्रोमो रोचक है। हिन्दी काम देगी तो हिन्दी पढ़ेंगे। सच यह है कि पेट पालना है तो कुछ न कुछ सीखना होगा। बदलाव को समझिए। पर इस विज्ञापन को कोई आसानी से स्वीकार नहीं करेगा। न तो हिन्दी इतनी महत्वपूर्ण हुई है और न चीनी लोग हमारे यहाँ रोज़गार के लिए इतने उतावले हैं। यह तो इकोनॉमिस्ट मैग्ज़ीन को भारत में बेचने के लिए बना प्रोमो है। अलबत्ता इस प्रोमो पर बहस पढ़ना चाहते हैं तो यू ट्यूब पर जाएं। बड़ा मज़ा आएगा। 

Tuesday, June 8, 2010

लोकल खबरों का रोचक संसार

काफी पहले की बात है। अस्सी का दशक था। तब मैं लखनऊ में रहता था। मेरे पड़ोस में एक सज्जन रहते थे, जो बिजली के दफ्तर में क्लर्क थे। उनकी जीवन शैली बताती थी कि क्लर्क के वेतन के अलावा भी उनकी आय का कोई ज़रिया है। उनके घर को देखते ही उनकी हैसियत का पता लग जाता था। उनसे मेरा खास परिचय नहीं था। दूर की दुआ-सलाम थी। एक रोज सबेरे वे मेरे घर चले आए। इधर-उधर की बातें करने के बाद बोले, जोशी जी क्या आप मेरी पत्नी को अपने अखबार का संवाददाता बना सकते हैं? मुझे उनकी बात समझ में नहीं आई। मैने पूछा, क्या भाभी जी को लिखने-पढ़ने का शौक है? बोले ना जी। बात जे है कि मैं घर में टेलीफून लगाना चात्ता था। पता लगा कि पत्रकार कोट्टे से लग सकता है।

उस ज़माने में फोन आसानी से नहीं मिलता था। मेरे घर में भी फोन नहीं था। वह सज्जन बोले,आप रिपोर्टर बनवा दो बाक्की काम मैं कर लूँगा। मेरे पास जवाब नहीं था। उन दिनों मैं नवभारत टाइम्स में काम करता था। लखनऊ में स्ट्रिंगर होते नहीं थे। मेरे हाथ में स्ट्रिंगर बनाने की सामर्थ्य भी नहीं थी। बहरहाल उन्हें किसी तरह समझा कर विदा किया। तब तक टीवी चैनल शुरू नहीं हुए थे। पत्रकार को लोग इज़्ज़त की निगाह से देखते थे। जिलों और तहसीलों में स्ट्रिंगरों को काफी सम्मान मिलता था। इसलिए पत्रकार का कार्ड हासिल करने की होड़ रहती थी। हमारे पड़ोसी को फोन के अलावा घर के दरवाज़े पर पत्रकार का बोर्ड लगाने की इच्छा भी थी। उनकी वह इच्छा बाद में पूरी भी हुई। झाँसी के किसी साप्ताहिक अखबार ने उनकी पत्नी को संवाददाता बना लिया।

सन 1973 में जब मैं लखनऊ के स्वतंत्र भारत में काम करने आया तब रायबरेली, हरदोई, सीतापुर, बाराबंकी, लखीमपुर खीरी वगैरह में जो अंशकालिक संवाददाता काम कर रहे थे, वे बुज़ुर्ग और अपने इलाके में बेहद सम्मानित लोग थे। ज़्यादातर इलाके के प्रसिद्ध वकील थे या अध्यापक। उन्हें किसी कार्ड की ज़रूरत नहीं थी। हिन्दी का हमारा अखबार आठ पेज का था। न्यूज़ प्रिंट का संकट हो गया, तो छह पेज का भी करना पड़ा। आठ पेज के अखबार के डाक संस्करण में एक पेज जिलों की खबरों का होता था। हर रोज़ डाक से खबरें आती थीं। दिन में दो-ढाई बजे फोरमैन शेषनारायण शर्मा जी खबरें भेजने को मना कर देते थे। जो बचीं होल्डओवर में गईं। अगले दिन सुबह होल्डओवर देखकर आगे का काम होता था। अखबार में जगह नहीं होती थी। अलग-अलग जिलों की खबर लग जाएं इसके लिए हफ्ते में एकबार जिले की चिट्ठी छापकर खबरें निपटा देते थे। ज़रूरी खबरें होने पर संवाददाता तार कर देते थे। तार करने का मौका भी हफ्ते-दो हफ्ते में एकबार मिलता था।

26 जून 1975 के बाद हमें पहली बार लगा कि जिलों में कुछ हो रहा है। पहले नसबंदी की खबरें आईं, फिर उसके विरोध की खबरें। शुरू में संवाददाता लिख कर भेज देते थे। वे छपतीं नहीं थीं। फिर वे समझदार हो गए। व्यक्तिगत रूप से लखनऊ आकर बताने लगे कि किस तरह की प्रशासनिक सख्ती हो रही है। अब खबरों के साथ अफबाहें भी आने लगीं। कुछ सच, कुछ कल्पना। छपता कुछ नहीं था। जिला सूचना विभाग की विज्ञप्तियों ने खबरों की जगह ले ली। इस दौरान हमारे अनेक संवाददाताओं ने काम छोड़ दिया। स्वतंत्र भारत देश का अकेला अखबार है, जो ठीक 15 अगस्त 1947 को निकला। उसमें तमाम संवाददाता उसी दौर के थे। इमर्जेंसी के पहले और इमर्जेंसी के बाद के माहौल में ज़मीन-आसमान का फर्क आ गया। खबरों के गठ्ठर के गट्ठर आने लगे। हर जिले में आपत्काल की कथाएं थीं। हिन्दी ब्लिट्ज़ का सर्कुलेशन अंग्रेज़ी ब्लिट्ज का कई गुना ज़्यादा हो गया। हिन्दी के अखबार बढ़ने लगे। जिलों में संवाददाताओं की संख्या दुगुनी-तिगुनी-चौगुनी हो गई। कवरेज बढ़ गई। ग्रामीण क्षेत्र से दलितों पर अत्याचार, सरकारी विभागों के घोटालों और कई तरह की सामंती क्रूरताओं के समाचार आने लगे। इमर्जेंसी खत्म होने के बाद आनन्द बाज़ार पत्रिका ग्रुप ने पहले संडे निकाला, फिर रविवार। रविवार में ज़्यादातर कथाएं हिन्दी क्षेत्र के ग्रामीण इलाकों से थीं।

हिन्दी अखबारों की सफलता स्थानीय खबरों से जुड़ी है। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा के बड़े शहरों ही नहीं दूर-दराज़ इलाकों में आज संस्करण हैं। अभी विस्तार की खासी सम्भावना है। इन जगहों से संवाद संकलन व्यवस्था के बारे में सोचने का मौका नहीं मिल पाया। जैसा था, वह चलता रहा। अखबार आठ से बारह पेज के हुए। नब्बे का दशक खत्म होते-होते 16 पेज के हो गए। अब 20 के हो गए हैं। ज्यादातर हिन्दी अखबारों ने लोकल पेज बढ़े। चार पेज, फिर छह पेज, फिर आठ पेज की लोकल कवरेज हो रही है। जितनी खबरें नहीं हैं, उससे ज्यादा बनाई जा रहीं हैं। तारीफ में या टाँग खिचाई में खबरें लिखीं जा रहीं हैं। निरर्थक सनसनी के लिए भी। मनरेगा, आरटीआई, खेती-बाड़ी, शिक्षा, कमज़ोर वर्गों का उत्थान, नए रोज़गार ऐसे तमाम मसले हैं, जिनपर काफी काम किया जा सकता है। यह वह स्तर है, जहाँ गवर्नेंस का परीक्षण होना है। पर जिलों में पत्रकारों की ट्रेनिंग का इंतज़ाम नहीं है। सिर्फ पत्रकारिता का कार्ड चाहिए।

सेवंती नायनन ने अपनी पुस्तक हैडलाइंस फ्रॉम द हार्टलैंड में ग्रामीण क्षेत्रों के संवाद संकलन का रोचक वर्णन किया है। उन्होंने लिखा है कि ग्रामीण क्षेत्र में अखबार से जुड़े कई काम एक जगह पर जुड़ गए। सेल्स, विज्ञापन, समाचार संकलन और रिसर्च सब कोई एक व्यक्ति या परिवार कर रहा है। खबर लिखी नहीं एकत्र की जा रही है। उन्होंने छत्तीसगढ़ के कांकेर-जगदलपुर हाइवे पर पड़ने वाले गाँव बानपुरी की दुकान में लगे साइनबोर्ड का ज़िक्र किया है, जिसमें लिखा है-आइए अपनी खबरें यहां जमा कराइए। खबरों के कारोबार से लोग अलग-अलग वजह से जुड़े हैं। इनमें ऐसे लोग हैं, जो तपस्या की तरह कष्ट सहते हुए खबरों को एकत्र करके भेजते हैं। नक्सली खौफ, सामंतों की नाराज़गी, और पुलिस की हिकारत जैसी विपरीत परिस्थितियों का सामना करके खबरें भेजने वाले पत्रकार हैं। ऐसे भी हैं, जो टैक्सी चलाते हैं, रास्ते में कोई सरकारी मुलाजिम परेशान न करे इसलिए प्रेस का कार्ड जेब में रखते हैं।

हिन्दी अखबारों का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष लोकल कवरेज है। अखबारों में ऐसी खबरें छप रहीं हैं, जो हैं ही नहीं। जो हुआ ही नहीं। और जो हुआ, वह नहीं छपा। पत्रकारीय निष्ठा और मूल्यबद्ध कर्म की गौरव गाथाएं हैं, तो निहायत गैर-जिम्मेदारी के प्रसंग भी। इनके कार्टल बन गए हैं, जो अपने ढंग से खबरों को संचालित करते हैं। पत्रकारों की यह टीम राष्ट्रीय, प्रादेशिक और स्थानीय अखबारों और चैनलों को सामग्री मुहैया कराती है। इस लेवल के पत्रकारों पर अपने मैनेजमेंट की ओर से विज्ञापन लाने का दबाव भी है। कह नहीं सकते कि यह दबाव रहेगा या खत्म होगा, पर सूचना की ताकत और सूचना संकलन की पद्धति को ऑब्जेक्टिव और फेयर रखना है तो उसके कारोबारी रिश्तों को अच्छी तरह परिभाषित करना होगा। उसके पहले यह तय होना है कि इसका असर किसपर होता है। इसके बाद तय होगा कि इसे कौन परिभाषित करेगा और क्यों करेगा। आज टेलीफोन कनेक्शन पाने के लिए पत्रकार बनने की ज़रूरत नहीं है। पर सम्भव है मेरे पड़ोसी ने पत्रकारिता के कुछ नए संदर्भ खोजे हों। 


समाचार फॉर मीडिया डॉट कॉम में प्रकाशित

Monday, May 31, 2010

कृपया तेज़ी के इस दौर में सावधानी भी बरतें

30 मई को हिन्दी पत्रकारिता दिवस था। 184 साल के अनुभव के साथ हिन्दी पत्रकारिता एक ढलान पर आ गई है। इस ढलान ने उसकी गति तेज़ कर दी है। चढ़ाई चढ़ते वक्त गति धीमी होती है और दम ज़्यादा लगता है। ढलान में गति ज़्यादा होती है। ताकत कम लगती है, लम्बी दूरी कम समय में पार होती है। रास्ते चढ़ाई वाले होते हैं, सपाट भी और ढालदार भी। चलने वाले को उन्हें पार करना होता है। तीनों रास्तों में बरती जाने वाली सावधानियाँ ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं। ढलान में खतरा बाहन के भटकने या रास्ते से उछलकर टकराने का होता है। हिन्दी मीडिया को कुछ सावधानियों की ज़रूरत है।

हिन्दी मीडिया की प्रगति प्रशंसनीय है। इलाके में साक्षरता बढ़ रही है और गतिशीलता भी। यानी लोग एक जगह छोड़कर दूसरी जगह जा रहे हैं। मैं नहीं जानता कि ऐसे समाजशास्त्रीय अध्ययन हुए हैं या नहीं जिनसे पता लगे कि हिन्दी के अखबारों ने जीवन पर क्या प्रभाव डाला, पर ऐसे अध्ययनों की ज़रूरत है। मोटे तौर पर कमज़ोर तबकों को ताकत देने में कोई न कोई भूमिका अखबार की भी है। शायद यह बदलाव की एक प्रक्रिया है, जिसमें अखबार भी भागीदार हैं। अखबार, टीवी, रेडियो, मोबाइल फोन और सिनेमा हमारा सहज मासमीडिया है। इंटरनेट अभी नहीं है, शायद आने वाले समय में हो।

हिन्दी के अखबारों के सामने अपनी सामग्री को परिभाषित करने, टेक्नॉलजी और अपने संगठन को सुसंगत करने और पाठक की माँग को समझने की ज़रूरत है। करीब-करीब ऐसी ही ज़रूरत इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की है। दोनों में एक फर्क है। हिन्दी के ज्यादातर अखबार स्थानीय या किसी एक इलाके के थे। वे दूसरे इलाकों में गए। इसके विपरीत टेलीविज़न ने राष्ट्रीय कवरेज से शुरूआत की। वह अब लोकल बाज़ार खोज रहा है। दोनो स्थितियों में महत्वपूर्ण है हमारा दूर-दराज़ का इलाका। पिछले साल सितम्बर में आंध्र के मुख्यमंत्री वाईएसआर के हेलिकॉप्टर की दुर्घटना की कवरेज करने सबसे आगे कोई तेलुगु चैनल आया। हाल में दंतेवाड़ा में सीआरपी के दस्तों पर नक्सली हमले के दौरान साधना चैनल और किसी लोकल चैनल ने कमान सम्हाली। मंगलूर में विमान दुर्घटना की कवरेज के लिए कोई कन्नड़ चैनल मौज़ूद था। राष्ट्रीय चैनलों ने इन लोकल चैनलों की फुटेज का इस्तेमाल किया। इस फुटेज को लोकल चैनलों ने वॉटरमार्क करके पब्लिसिटी हासिल की।

हमारे पास सूचना संकलन का आधार ढाँचा बन रहा है। टेकनॉलजी सस्ती हो रही है। पूँजी भी आ रही है। नए पत्रकार, कैमरामैन, टेक्नीशियन बन रहे हैं। पर इतना ही पर्याप्त नहीं है। तेज विस्तार के कारण हम कंटेंट के बारे में ज्यादा सोच नहीं पाए हैं। सोचा भी है तो उसे लागू करने के तरीकों के बारे में नहीं सोचा गया है।
हाल में एक खबर थी किसी लड़की ने दहेज लोभी लड़के वालों का स्टिंग ऑपरेशन करके शादी तय होने के पहले ही उन्हें पकड़वा दिया। स्टिंग ऑपरेशन ने टीवी की ताकत बढ़ा दी। पर इसने कवरेज के विद्रूपण की राह भी खोल दी। दिल्ली में उमा खुराना मामले में यह नज़र आया। अचानक स्टिंग जर्नलिज्म की ट्रेनिंग देने वाले संस्थान खुलने लगे। इसका इस्तेमाल ब्लैक मेलिंग के लिए भी होने लगा। यह जल्दबाज़ी की वजह से हुआ। मोबाइल फोन के कैमरा ने क्रांति कर दी। पर अचानक एमएमएस की भरमार हो गई।

मीडिया दुधारी तलवार है। इसे ज्ञान और सूचना का वाहक और अभिव्यक्ति का जिम्मेदार माध्यम बनाए रखने के लिए अपने भीतर के मिकेनिज्म को भी समझना चाहिए। यह काम दो स्तर पर होगा। एक ओर पत्रकार संगठन आपस में मिलकर इसपर विचार करें और दूसरी ओर प्रत्येक संगठन भीतरी जाँच चौकियां बनाए। संविधान स्वीकृत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमें असीमित अधिकार नहीं देती। ज़रूरत इस बात की है कि हम सामान्य पत्रकार को उन मर्यादाओं की जानकारी दें, जिनका पालन उसे करना है। उसे पता होना चाहिए कि वह सार्वजनिक हित मे काम करता है, व्यक्तिगत हित में नहीं। पत्रकारों को सामान्य नागरिक की प्राइवेसी के बारे में भी जागरूक होना चाहे। इलेक्ट्रानिक मीडिया में काम करने वालों को यह बात खासकर समझनी होगी।

हिन्दी अखबारों में काम करने वाले पत्रकारों में से ज्यादातर अब पत्रकारिता संस्थानों से ट्रेनिंग लेकर आ रहे हैं। पत्रकारिता संस्थानों में सभी का स्तर समान नहीं है। काफी बड़ी संख्या में ये संस्थान निम्नस्तरीय और सिर्फ कमाई के अड्डे हैं। जो भी हैं उन्हें अखबारों की ज़रूरतों के अनुसार व्यावहारिक प्रशिक्षण देना चाहिए। उनका ज्यादातर प्रशिक्षण सैद्धांतिक है। मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि नए पत्रकार भाषा को लेकर संज़ीदा नहीं हैं। उन्हें इमला बोला जाए तो एक पैरा मे दस-दस गलतियाँ निकलतीं हैं। वे लोग अखबार में जाकर इन्हीं गलतियों को दोहराते हैं। एक ओर शाम को खबरों का दबाव ऊपर से ज्यादातर खबरों में भ्रष्ट भाषा। तीसरे ठीक से चेक करने की व्यवस्था की अनुपस्थिति। परिणाम आप किसी भी हिन्दी अखबार में छप रही गम्भीर गलतियों के रूप मे देख सकते हैं।

एक और जगह है जहाँ ध्यान देने की ज़रूरत है। वह है खबरों का चयन। ज्यादातर अखबार अब अपनी खबरों का सिलेक्शन या तो नेट से करते हैं या चैनलों से। चूंकि यहाँ रेडीमेड माल मिलता है इसलिए यह आसान लगता है। पर यह गलत है। एक तो यह नैतिक रूप से गलत है। किसी नेट साइट की पूरी खबर को उड़ाना चोरी है। दूसरे वह आपकी खबर नहीं है, इसलिए उसका वेरिफकेशन नहीं होता। पिछले दिनों एक हिन्दी अखबार ने दूसरों को पकड़ने के लिए अपने यहाँ फर्जी खबरें लगा दीं। नकलचियों ने उन्हें भी उठा लिया और अपनी थू-थू कराई। अखबार के सीनियर लोग खुद अपनी खबरें चुनें तो उनके प्रेजेंटेशन मे अपनापन हो। नकल करने पर सबका प्रेजेंटेशन एक सा होता है। वैसे भी बड़े-बड़े अखबारों को शोभा नहीं देता कि वे चोरी की खबरें छापें। आपके पास पैसा है। अपने स्रोत तैयार करें।

चैनलों से खबर उड़ाने या प्रेजेंटेशन का तरीका चुराने का असर अखबारों के लगातार सनसनीखेज़ होने के रूप में दिखाई पड़ रहा है। चैनल मामूली सी खबर को भी जबतक अच्छी तरह मसालों से टॉपअप नहीं करते उन्हें मज़ा नहीं आता। वे आपसी प्रतियोगिता में ऐसे घिरे हैं कि सनसनी छोड़ सादगी से खबरें दिखाने की सलाह देना वहाँ सबसे बड़ा पाप है। उसी सनसनी को अखबार पकड़ना चाहते हैं। यह शॉर्टकट उन्हें कहीं नहीं ले जाएगा। उनके पास इतनी अच्छी खबरें हैं कि वे प्रभावशाली अखबार निकाल सकते हैं, पर अच्छी भली जानकारी का मलीदा बना देते हैं।

अखबार शायद रहें, पर पत्रकारिता रहेगी। सूचना की ज़रूरत हमेशा होगी। सूचना चटपटी चाट नहीं है। यह बात हम सबको समझनी चाहिए। इस सूचना के सहारे हमारी पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था खड़ी होती है। अक्सर वह स्वाद में बेमज़ा भी होती है। हमारे सामने चुनौती यह है कि हम उसे सामान्य पाठक को समझाने लायक रोचक भी बनाएं, पर वह हो नहीं सका। उसकी जगह कचरे का बॉम्बार्डमेंट शुरू हो गया है। हिन्दी इलाके के सामाजिक–सांस्कृतिक जीवन में इतनी रंगीन खबरें हैं कि उन्हें कहीं जाने की ज़रूरत नहीं। जो बिकेगा वही देंगे का तर्क कमज़ोर लोगों का है। बिकने लायक सार्थक और दमदार चीज़ बनाने में मेहनत लगती है, समय लगता है। उसके लिए पर्याप्त अध्ययन की ज़रूरत भी होती है। वह हम करना नहीं चाहते। या कर नहीं पाते। चटनी बनाना आसान है। इसलिए हम चटनी का रास्ता पकड़ते हैं। हिन्दी पत्रकारिता का भविष्य उज्जवल है। उसे नकल के नहीं अकल के रास्ते पर चलना चाहिए। हमें याद रखना चाहिए कि इस ढलान के बाद एक सपाट रास्ता आएगा और शायद फिर चढ़ाई आए। उसके पहले अपनी कुशलता और रचनात्मकता को ऊँचाई तक पहुँचाना चाहिए।  

Sunday, May 30, 2010

हिन्दी पत्रकारिता दिवस



आज हिन्दी पत्रकारिता दिवस है। 184 साल हो गए। मुझे लगता है कि हिन्दी पत्रकार में अपने कर्म के प्रति जोश कम है। तमाम बातों पर ध्यान देने की ज़रूरत है। उदंत मार्तंड इसलिए बंद हुआ कि उसे चलाने लायक पैसे पं जुगल किशोर शुक्ल के पास नहीं थे। आज बहुत से लोग पैसा लगा रहे हैं। यह बड़ा कारोबार बन गया है। जो हिन्दी का क ख ग नहीं जानते वे हिन्दी में आ रहे हैं, पर मुझे लगता है कि कुछ खो गया है। क्या मैं गलत सोचता हूँ?

पिछले 184 साल में काफी चीजें बदलीं हैं। हिन्दी अखबारों के कारोबार में काफी तेज़ी आई है। साक्षरता बढ़ी है। पंचायत स्तर पर राजनैतिक चेतना बढ़ी है। साक्षरता बढ़ी है। इसके साथ-साथ विज्ञापन बढ़े हैं। हिन्दी के पाठक अपने अखबारों को पूरा समर्थन देते हैं। महंगा, कम पन्ने वाला और खराब कागज़ वाला अखबार भी वे खरीदते हैं। अंग्रेज़ी अखबार बेहतर कागज़ पर ज़्यादा पन्ने वाला और कम दाम का होता है। यह उसके कारोबारी मॉडल के कारण है। आज कोई हिन्दी में 48 पेज का अखबार एक रुपए में निकाले तो दिल्ली में टाइम्स ऑफ इंडिया का बाज़ा भी बज जाए, पर ऐसा नहीं होगा। इसकी वज़ह है मीडिया प्लानर।

कौन हैं ये मीडिया प्लानर? ये लोग माडिया में विज्ञापन का काम करते हैं, पर विज्ञापन देने के अलावा ये लोग मीडिया के कंटेंट को बदलने की सलाह भी देते हैं। चूंकि पैसे का इंतज़ाम ये लोग करते हैं, इसलिए इनकी सुनी भी जाती है। इसमें ग़लत कुछ नहीं। कोई भी कारोबार पैसे के बगैर नहीं चलता। पर सूचना के माध्यमों की अपनी कुछ ज़रूरतें भी होतीं हैं। उनकी सबसे बड़ी पूँजी उनकी साख है। यह साख ही पाठक पर प्रभाव डालती है। जब कोई पाठक या दर्शक अपने अखबार या चैनल पर भरोसा करने लगता है, तब वह उस  वस्तु को खरीदने के बारे में सोचना शुरू करता है, जिसका विज्ञापन अखबार में होता है। विज्ञापन छापते वक्त भी अखबार ध्यान रखते हैं कि वह विज्ञापन जैसा लगे। सम्पादकीय विभाग विज्ञापन से अपनी दूरी रखते हैं। यह एक मान्य परम्परा है।



मार्केटिंग के महारथी अंग्रेज़ीदां भी हैं। वे अंग्रेज़ी अखबारों को बेहतर कारोबार देते हैं। इस वजह से अंग्रेज़ी के अखबार सामग्री संकलन पर ज्यादा पैसा खर्च कर सकते हैं। यह भी एक वात्याचक्र है। चूंकि अंग्रेजी का कारोबार भारतीय भाषाओं के कारोबार के दुगने से भी ज्यादा है, इसलिए उसे बैठने से रोकना भी है। हिन्दी के अखबार दुबले इसलिए नहीं हैं कि बाज़ार नहीं चाहता। ये महारथी एक मौके पर बाज़ार का बाजा बजाते हैं और दूसरे मौके पर मोनोपली यानी इज़ारेदारी बनाए रखने वाली हरकतें भी करते हैं। खुले बाज़ार का गाना गाते हैं और जब पत्रकार एक अखबार छोड़कर दूसरी जगह जाने लगे तो एंटी पोचिंग समझौते करने लगते हैं।

पिछले कुछ समय से अखबार इस मर्यादा रेखा की अनदेखी कर रहे हैं। टीवी के पास तो अपने मर्यादा मूल्य हैं ही नहीं। वे उन्हें बना भी नहीं रहे हैं। मीडिया को निष्पक्षता, निर्भीकता, वस्तुनिष्ठता और सत्यनिष्ठा जैसे कुछ मूल्यों से खुद को बाँधना चाहिए। ऐसा करने पर वह सनसनीखेज नहीं होता, दूसरों के व्यक्तिगत जीवन में नहीं झाँकेगा और तथ्यों को तोड़े-मरोड़ेगा नहीं। यह एक लम्बी सूची है। एकबार इस मर्यादा रेखा की अनदेखी होते ही हम दूसरी और गलतियाँ करने लगते हैं। हम उन विषयों को भूल जाते हैं जो हमारे दायरे में हैं।

मार्केटिंग का सिद्धांत है कि छा जाओ और किसी चीज़ को इस तरह पेश करो कि व्यक्ति ललचा जाए। ललचाना, लुभाना, सपने दिखाना मार्केटिंग का मंत्र है। जो नही है उसका सपना दिखाना। पत्रकारिता का मंत्र है, कोई कुछ छिपा रहा है तो उसे सामने लाना। यह मंत्र विज्ञापन के मंत्र के विपरीत है। विज्ञापन का मंत्र है, झूठ बात को सच बनाना। पत्रकारिता का लक्ष्य है सच को सामने लाना। इस दौर में सच पर झूठ हावी है। इसीलिए विज्ञापन लिखने वाले को खबर लिखने वाले से बेहतर पैसा मिलता है। उसकी बात ज्यादा सुनी जाती है। और बेहतर प्रतिभावान उसी दिशा में जाते हैं। आखिर उन्हे जीविका चलानी है।

अखबार अपने मूल्यों पर टिकें तो उतने मज़ेदार नहीं होंगे, जितने होना चाहते हैं। जैसे ही वे समस्याओं की तह पर जाएंगे उनमें संज़ीदगी आएगी। दुर्भाग्य है कि हिन्दी पत्रकार की ट्रेनिंग में कमी थी, बेहतर छात्र इंजीनियरी और मैनेजमेंट वगैरह पढ़ने चले जाते हैं। ऊपर से अखबारों के संचालकों के मन में अपनी पूँजी के रिटर्न की फिक्र है। वे भी संज़ीदा मसलों को नहीं समझते। यों जैसे भी थे, अखबारों के परम्परागत मैनेजर कुछ बातों को समझते थे। उन्हें हटाने की होड़ लगी। अब के मैनेजर अलग-अलग उद्योगों से आ रहे हैं। उन्हें पत्रकारिता के मूल्यों-मर्यादाओं का ऐहसास नहीं है।

अखबार शायद न रहें, पर पत्रकारिता रहेगी। सूचना की ज़रूरत हमेशा होगी। सूचना चटपटी चाट नहीं है। यह बात पूरे समाज को समझनी चाहिए। इस सूचना के सहारे हमारी पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था खड़ी होती है। अक्सर वह स्वाद में बेमज़ा भी होती है। हमारे सामने चुनौती यह थी कि हम उसे सामान्य पाठक को समझाने लायक रोचक भी बनाते, पर वह हो नहीं सका। उसकी जगह कचरे का बॉम्बार्डमेंट शुरू हो गया। इसके अलावा एक तरह का पाखंड भी सामने आया है। हिन्दी के अखबार अपना प्रसार बढ़ाते वक्त दुनियाभर की बातें कहते हैं, पर अंदर अखबार बनाते वक्त कहते हैं, जो बिकेगा वहीं देंगे। चूंकि बिकने लायक सार्थक और दमदार चीज़ बनाने में मेहनत लगती है, समय लगता है। उसके लिए पर्याप्त अध्ययन की ज़रूरत भी होती है। वह हम करना नहीं चाहते। या कर नहीं पाते। चटनी बनाना आसान है। कम खर्च में स्वादिष्ट और पौष्टिक भोजन बनाना मुश्किल है। 



चटपटी चीज़ें पेट खराब करतीं हैं। इसे हम समझते हैं, पर खाते वक्त भूल जाते हैं। हमारे मीडिया मे विस्फोट हो रहा है। उसपर ज़िम्मेदारी भारी है, पर वह इसपर ध्यान नहीं दे रहा। मैं वर्तमान के प्रति नकारात्मक नहीं सोचता और न वर्तमान पीढ़ी से मुझे शिकायत है, पर कुछ ज़रूरी बातों की अनदेखी से निराशा है।  







Monday, May 24, 2010

क्या हमें विचार और ज्ञान की ज़रूरत नहीं?



प्रमोद जोशी
इस महीने भारतीय सिविल सेवा परीक्षा के परिणाम आने के बाद एनडीटीवी के अंग्रेजी चैनल ने पंजाब की एक सफल प्रतियोगी संदीप कौर से बात प्रसारित की। संदीप कौर के पिता चौथी श्रेणी के कर्मचारी हैं। यह सफलता बेटी की लगन और पिता के समर्थन की प्रेरणादायक कहानी है। जिस इलाके में स्त्री-पुरुष अनुपात बहुत खराब है और जहाँ से बालिका भ्रूण हत्या की खबरें बहुत ज्यादा आती हैं, उम्मीद है वहां संदीप कौर समाज के सामने नया आदर्श पेश करेगी। पंजाब सरकार ने इस दिशा में पहल भी की है।
संदीप कौर ने यह परीक्षा बगैर किसी कोचिंग के पास की। उसने एक बात और मार्के की कही। वह कहती हैं कि मेरी तैयारी का सबसे महत्वपूर्ण तत्व था दैनिक अखबार द हिन्दू को नियमित रूप से पढ़ना। संदीप के पिता या चचेरा भाई घर से करीब 20 किमी दूर खरड़ कस्बे से हिन्दू खरीद कर लाते थे। रोज़ अखबार नहीं मिलता था, तो अखबार का एजेंट उसके लिए दो-तीन दिन का अखबार अपने पास रखता था। संदीप का कहना है कि मैने हिन्दू के सम्पादकीय पेज पर छपे सारे लेख पढ़े हैं। इसके अलावा अखबार के ओपीनियन सेक्शन की सारी सामग्री भी पढ़ी। इस अखबार में करेंट अफेयर्स, नेशनल और इंटरनेशनल डेवलपमेंट की प्रॉपर इनसाइट मिलती है।
संदीप कौर का हिन्दू पढ़ना व्यक्तिगत पसंद का मामला है, पर पत्रकारिता को लेकर ज़ेहन में एक-दो बातें आतीं हैं। प्रतियोगिताओं की तैयारी करने वालों को हिन्दू पढ़ना पसंद है। इस अखबार में ही राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय खबरों को उचित पृष्ठभूमि के साथ छापा जाता है। बीस साल पहले दूसरे अंग्रेजी अखबार भी इसी तरह पढ़े जाते थे। पर अब शायद हिन्दू ही इस काम के लिए बचा है। इस बात का क्या पत्रकारिता से कोई रिश्ता है? कुछ समय पहले तक अखबार देश-काल का दर्पण होता था। पिछले दो दशक में सारे नहीं तो बड़ी संख्या में अखबारों ने टेबलॉयड अखबारों की सनसनी को अंगीकार कर लिया। एक ने किया तो दूसरे ने उसकी नकल की। बड़ी से बड़ी खबरें मिस होने पर भी अखबारों को शर्मिन्दगी नहीं होती। सामान्य खबरें और उनके फॉलोअप छापना अखबारों की प्राथमिकता में शामिल नहीं।
हिन्दू के बारे में दो-तीन बातें ऐसी हैं, जिन्हें सब मानते हैं। एक खबरों का वज़न तय करने का उसका परम्परागत ढंग है। यह अखबार सनसनी में भरोसा नहीं करता। उसकी एक राजनैतिक लाइन है, जिसे हम नापसंद कर सकते हैं। पर खबरें लिखते वक्त वह पत्रकारीय मर्यादाओं का पालन करता है। रेप विक्टिम का नाम नहीं छापना है, तो हिन्दू उसका पालन करता है। उसकी डिज़ाइन बहुत आकर्षक न लगती हो, पर वह विषय को पाठक पर आरोपित भी नहीं करती। खेल, विज्ञान, विदेशी मामलों से लेकर लोकल खबरों तक उसकी खबरें ऑब्जेक्टिविटी की परिभाषा पर खरी उतरतीं हैं। उसकी फेयरनेस पर आँच आने के भी एकाध मौके आए हैं। खासतौर से बंगाल में सिंगूर की हिंसा के दौरान उसकी कवरेज में एक पक्ष नज़र आया। यह उसकी नीति है। और किसी अखबार को उसका हक होता है। उसकी इस नीति और विचारधारा की आलोचना की जा सकती है, पर उसके सम्पादकीय और ऑप-एडिट पेज की गुणवत्ता के बारे में दो राय नहीं हो सकतीं।
इस लेख को शुरू करते वक्त मेरा उद्देश्य हिन्दू की प्रशंसा करना नहीं था। मैं दो-तीन बातों को हाइलाइट करना चाहता था। उसमें एक तो यह बात कि कुछ साल पहले तक अखबारों में अपने व्यवसाय को लेकर भी सामग्री पढ़ने को मिल जाती थी। मसलन जस्टिस गजेन्द्र गडकर की अध्यक्षता में बने पहले प्रेस आयोग की सिफारिश थी कि पत्र उद्योग को शेष उद्योग से डिलिंक किया जाय। यह विषय अखबारों के सम्पादकीय पेज पर भी उपस्थित था। आज का मीडिया अपने कारोबार के बारे में डिसकस करने को तैयार नहीं। इसलिए पेड न्यूज़ का मामला जब आया तब पी साईंनाथ के लेखों के लिए सिर्फ हिन्दू में ही जगह थी। ऐसा उसकी ओनरशिप के कारण हुआ। बेशक इंडियन एक्सप्रेस, टेलिग्राफ और टाइम्स ऑफ इंडिया का कवरेज स्तर आज भी काफी अच्छा है, पर कारोबार के मामले में उनपर पक्का यकीन नहीं किया जा सकता।
अखबारों के सम्पादकीय पेज और सम्पादकीय के बारे में भी सोचने का ज़माना शायद गया। यह सब मैं अंग्रेज़ी के अच्छे अखबारों के संदर्भ में कह रहा हूँ। हिन्दी अखबारों की बात अभी नहीं है। किसी ने कहा कि डीएवीपी की शर्त है कि सम्पादकीय होना चाहिए, वर्ना इसकी ज़रूरत ही क्या है। वास्तव में ज़रूरत नहीं है। जब जेब में विचार ही नहीं है, तब चेहरे पर विचारक की मुद्रा बनाने की ज़रूरत भी नहीं होनी चाहिए। संदीप कौर को एडिट पेज की ज़रूरत इसलिए थी क्योंकि सिविल सेवा परीक्षा के जनरल स्टडीज़ में करेंट अफेयर्स के सवाल पूछे जाते हैं। आज कौन बनेगा करोड़पति जैसा कोई कार्यक्रम भी नहीं है, जो लोगों को सामान्य ज्ञान की ज़रूरत हो। वास्तव में प्रथमिकता हमारी रोजी से तय होती है और हमारी रोजी में ज्ञान की ज़रूरत नहीं रह गई है।
किसी ने सलाह दी कि अखबार में विचार के पेज का मतलब क्या है। आप समाचार दीजिए पाठक अपने विचार बना लेगा। यों भी एडिट पेज को चार-छह फीसदी लोग ही पढ़ते हैं। बात सच है, पर हम अपने आसपास देखें। हमें ओपीनियन लीडर्स की ज़रूरत होती है। ऐसा न होता तो चैनलों पर सनसनीखेज खबर आते ही उसका विश्लेषण करने वालों की ज़रूरत महसूस होने लगती है। हाँ यह भी सही है कि मरे हुए विचार, पिटा-पिटाए तरीके से पेश करके हम विचार की बेइज्जती करते हैं। ऐसा क्यों है और रास्ता क्या है? इसका उत्तर देने के बजाय हम विचार की अवधारणा को ही त्याग देंगे, तो जो शून्य पैदा होगा वह खौफनाक होगा।
हिन्दी अखबार की सबसे बड़ी ज़रूरत पृष्ठभूमि देने की है। हमारा पाठक जानना चाहता है। उसे ज़मीन से आसमान तक की बातों की ज़रूरत है। हम उसे फैशन परेड की तस्वीरें, पार्टियां, मस्ती वगैरह पेश कर रहे हैं। यह सब भी ठीक है, पर उसके पहले बुनियादी ज्ञान की ज़रूरत है। संदीप कौर को कोई हिन्दी अखबार पसंद क्यों नहीं था? इसकी एक वजह यह भी है कि कोई हिन्दी अखबार हिन्दू जैसा बनना नहीं चाहता। हिन्दी में ज्ञान से जुड़ी बातें अधकचरा और अविश्वसनीय होतीं हैं। ज़रूरत इस बात की है कि हम युवा पत्रकारों को ज्ञान और विचार के लिए तैयार करें। चूंकि इस काम को प्रफेशनल ढंग से नहीं किया गया है इसलिए विचार की डोर एक्टिविस्ट्स के हाथों चली गई है। उनके पास विचार तो हैं, पर किसी एक संगठन या विचार से जुड़े हुए। वे अपने प्रतिस्पर्धी विचार को दबाना चाहते हैं। बहरहाल इस रास्ते पर सोचना चाहे। सम्पादकीय पेज पर फिल्मी कलाकारों के या सेलेब्रिटीज़ के लेख छापकर पाठकों का ध्यान तो खींचा जा सकता है, पर एक समझदार समाज की रचना नहीं हो सकती। पता नहीं समझदार समाज की रचना अखबार की जिम्मेदारी है भी या नहीं।

Thursday, May 20, 2010

साहित्य और मीडिया की डांड़ामेड़ी

साहित्य और मीडिया में क्या कोई टकराव है ? दोनों के उद्देश्य अलग-अलग हैं ? दोनों के संरक्षक अलग-अलग हैं ? संरक्षक माने पाठक और प्रकाशक। मुझे लगता है, हम अंतर्विरोधों को देखते वक्त चीजों को बहुत संकीर्ण दृष्टि से देखते हैं। जहाँ तक अभिव्यक्ति, रचना और विचार के माध्यम का सवाल है, साहित्य का स्थान सबसे ऊपर है। पर साहित्य माने सिर्फ लिखना नहीं है। वैसे ही पत्रकारिता माने सिर्फ लिखना, रिपोर्ट करना या फोटो लेना नहीं है। इसके मर्म को समझना चाहिए।

मीडिया में भटकाव की गुंजाइश ज्यादा है, क्योंकि उसे कारोबार चलता है। उसकी ज़रूरत संदेशवाहक के रूप में है। संदेश में तमाम उचित-अनुचित छिपे हैं। कई प्रकार के स्वार्थ हैं। राग-द्वेष हैं। संदेश को पाठक या दर्शक तक आने के पहले कुछ प्रक्रियाओं से गुज़रना होता है। इन प्रक्रियाओं के अंदर ही स्वार्थ के सूत्र बैठे हैं। उनकी प्राथमिकता में साहित्य नहीं है या साहित्य को अनदेखा करने की चाहत है, इतना मान लेते हैं। पर क्या पाठक या दर्शक मीडिया का ही मोहताज है ? साहित्य की लोकप्रियता का स्तर क्या है ? साहित्य अपेक्षाकृत कारोबारी व्यवस्था से मुक्त है। मैं पूरी तरह मुक्त नहीं कहता। वहाँ भी प्रकाशन मूल्य है। पूँजी की ज़रूरत है। पर यदि पाठक पढ़ने को तैयार है तो प्रकाशक क्यों नहीं छापेगा ?

यह भी यही है कि मीडिया ने पाठकों-दर्शकों की रुचि बिगाड़ दी है, पर साहित्यकार तो समाज के शिखर पर होता है या होना चाहिए। ऐसा नहीं है। साहित्यकार का हमने सम्मान कम किया है। इसमें साहित्यकार की क्या भूमिका है ? साहित्यकार समाज का नेतृत्व करता है और करता रहेगा। यदि हिन्दी समाज में ऐसा नहीं है, तो उसके कारण खोजने चाहिए। साहित्य के अनेक स्तर होते हैं। लोकप्रिय साहित्य उत्कृष्ट हो ऐसा ज़रूरी नहीं। पर उत्कृष्ट साहित्य अलोकप्रिय होगा, ऐसा भी नहीं मानना चाहिए। दो दशक पहले तक घरों में साहित्यिक पुस्तकें आतीं थीं। अब कम हो गईं हैं। लाइब्रेरी नाम की संस्था खत्म हो गई है। उसे लेकर किसी का आग्रह या दबाव नहीं है। ऐसा देश की सभी भाषाओं में होगा, पर हिन्दी में कुछ ज्यादा है।

ब्लॉग लिखने को लेकर भी चर्चा जोरों पर है। ब्लॉग लिखा जा सकता है तो लिखना चाहिए। कम से कम लेखक किसी के आसरे पर नहीं है। बड़ी संख्या में ब्लॉग लिखे जा रहे हैं। स्वाभाविक है कि इनमें काफी आत्मश्लाघा या  प्रचार से जुड़े हैं। बदमज़गी भी है। इसके िवपरीत कुछ ऐसे भी हैं जो चीजों को बड़े परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। या जो समझते हैं कि ऐसे नहीं दूसरे तरह के ब्लॉग होने चाहिए, उन्हें वैसे व्लॉग लिखने चाहिए। कोई किसी को रोक नहीं रहा। आपके पास लिखने का विकल्प है। यह बेहतर व्यवस्था है। साख बनाने और समझदार लोगों तक अपनी बात पहुँचाने में समय लग सकता है। लगने दीजिए।

Monday, May 17, 2010

कैसे होता है हिन्दी पत्रकारों का मूल्यांकन
प्रमोद जोशी
जब से अखबारों ने खुद को वेजबोर्ड के सैलरी स्ट्रक्चर से अलग किया है, अप्रेल-मई के महीने सालाना वेतन संशोधन के लिहाज से महत्वपूर्ण होते हैं। दफ्तरों में इंक्रीमेंट्स और प्रमोशन चर्चा के विषय होते हैं। चैनलों में भी ऐसा ही होता होगा। पत्रकारों की भरती, उनके प्रशिक्षण और मूल्यांकन की पद्धति के बारे में आमतौर पर चर्चा नहीं होती। सहयोगियों की संख्या छोटी हो तो कोई सम्पादक आमने-सामने की रोज़मर्रा मुलाकात से अपने साथी के गुण-दोष को समझ सकते हैं, पर अब सम्पादकीय विभाग बड़े होते जा रहे हैं। किसी एक व्यक्ति के लिए आसान काम नहीं है कि वह अपने साथियों के बारे में राय कायम करे। हालांकि यह मसला एचआर विभाग का है, पर एचआर के पास तमाम विभागों के लिए दशा-निर्देश हो सकते हैं, सम्पादकीय विभाग के लिए नहीं होते। किसी एचआर विभाग ने कोशिश भी की है तो उसे सम्पादकीय विभाग की मदद लेनी पड़ी होगी। परफॉर्मेंस इवैल्यूएशन सिस्टम किसी भी विभाग की सफलता या विफलता का बड़ा कारण बन सकता है।
इसे हम परफॉर्मेंस इवैल्यूएशन से तब जोड़ते हैं, जब व्यक्ति सम्पादकीय विभाग में काम कर रहा हो। पर जब उसे सम्पादकीय विभाग में शामिल करना होता है तभी मानक तैयार हो जाते हैं। हमें कैसा व्यक्ति पत्रकार के रूप में चाहिए? ऐसा जो बहुत दूर से खबर को सूंघ सकता हो। खबर के तमाम पहलुओं को समझ सकता हो। खेल पत्रकार हो तो खेल की बारीकियाँ और बिजनेस पत्रकार हो तो बिजनेस को समझता हो। उसके सामान्य ज्ञान, आईक्यू, व्यक्तित्व, इनीशिएटव की परख अलग होती है। हमारे पास भी कई तरह के काम हैं। रिपोर्टिंग के लिए अलग और डेस्क के लिए अलग तरह के गुण चाहिए। ग्रैफिक प्रेज़ेंटेशन और विज़ुएलाइज़ेशन नई ब्रांच है। रिसर्च और रेफरेंस के लिए अलग तरह के लोग चाहिए। दुर्भाग्य से हिन्दी अखबार इसमें काफी पिछड़े हैं। लिखने की शैली और भाषा के मामले में हाल में गिरावट आई है। रिपोर्टिंग में क्राइम की कवरेज के लिए अलग किस्म का व्यक्ति चाहिए और पॉलिटिक्स के लिए अलग किस्म का। यह सूची लम्बी हो जाएगी। मैं केवल इतना कहना चाहता हूँ कि अखबार की गुणवत्ता को स्थापित करने के लिए ज़रूरी मानक क्या हों, इसकी सूची बनाने की कोशिश होनी चाहिए।
सम्पादकीय विभागों में पद आमतौर पर काम को व्यक्त नहीं करते, रुतबे को बताते हैं। एक ज़माने में चीफ सब एडीटर अखबार का सबसे मुख्य कार्यकर्ता होता था। वह एडीशन का इंचार्ज होता था। सम्पादक और समाचार सम्पादक की अनुपस्थिति में सबसे ज़िम्मेदार व्यक्ति। समय के साथ नए पद बने हैं। इन पदों के नाम अनेक हैं। भूमिकाएं किसी की स्पष्ट नहीं हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से इनपुट और आउटपुट शब्द लेकर उन्हें अखबारों पर लागू करने का क्रांतिकारी काम भी कर लिया, दोनों मीडिया के फर्क को समझे बगैर। ऐसा अंग्रेज़ी अखबारों के मुकाबले हिन्दी अखबारों में ज़्यादा है। काम की प्रोसेस और वर्कफ्लो का भ्रम देश में विकसित हो रहे एडीटोरियल सॉफ्टवेयर्स में नज़र आता है। हिन्दी अखबार बड़ी गहराई तक मल्टिपल एडीशन पर काम करते हैं। उन्हें एक ओर अखबार की केन्द्रीय परिभाषा चाहिए वहीं, जबर्दस्त स्थानीयता। चंडीगढ़ और राँची के पाठक में ज़मीन-आसमान का फर्क है। इस एकता और भिन्नता को साफ-साफ परिभाषित करने की ज़रूरत है। उसके अनुरूप ही सहयोगियों के सिलेक्शन, ट्रेनिंग और एप्रेज़ल के नियम बनेंगे।
एप्रेज़ल के लिए आमतौर पर अंक देने की पद्धति विकसित की गई है। यह जिस सिद्धांत पर बनी है, वह सम्पादकीय विभाग पर पूरी तरह लागू नहीं होता। इसमें मूलतः पहले पूरे बिजनेस के, फिर विभाग के, फिर सेक्शन और व्यक्ति के सालाना लक्ष्य निर्धारित होते हैं। ये लक्ष्य यदि विज्ञापन के लिए हैं तो रुपए में और यदि सेल्स के हैं तो उसकी फिगर में होंगे। सम्पादकीय विभाग के लक्ष्य क्या होंगे। जो संख्यात्मक लक्ष्य हैं, उन्हें टैंजिबल कह सकते हैं। उन्हें संख्या में दर्शाया जा सकता है। सम्पादकीय विभाग के अनेक काम नॉन टैंजिबल हैं। उन्हें टैंजिबल कैसे बनाया जाय इसपर विचार की ज़रूरत है। यों दुनिया में पुस्तकों, लेखन यहाँ तक कि पत्रकारिता के पुरस्कार दिए जाते हैं। उसके लिए कोई पद्धति अपनाई जाती है। जिम्नास्टिक और कुश्ती की प्रतियोगिताओं में एक से ज्यादा जज अंक देते हैं, जिनका औसत निकालकर अंकों पर फैसले करते हैं। हम इसी प्रकार के क्षेत्रों से मूल्यांकन पद्धतियों को ले सकते हैं। मूल्यांकन पद्धति को पारदर्शी बनाने की ज़रूरत भी होगी। जिस व्यक्ति का मूलायंकन किया जा रहा है, उसे पता होना चाहिए कि उसका गुण क्या है और दोष क्या। यह बात साफ और यथा सम्भव लिखत रूप में बताई जानी चाहिए।
पत्रकार के चुनाव के पहले पता होना चाहिए कि हमें किस प्रकार का व्यक्ति चाहिए। उसे प्रशिक्षण की ज़रूरत है तो इन-हाउस प्रशिक्षण का प्रबंध भी होना चाहिए। प्रशिक्षण के मॉड्यूल अखबार की वास्तविक नीतियों और स्टाइल के तहत होगे। ये नीतियाँ क्या हैं, यह भी स्पष्ट होना चाहिए। कुछ अखबार रिसर्च कराते हैं। यह रिसर्च आमतौर पर मार्केटिंग विभाग के नेतृत्व में होती है। निश्चित रूप से यह उपयोगी होगी, पर यह सम्पादकीय विभाग की रिसर्च नहीं हो सकती। एक उदाहरण के लिए मैं हाल में हिन्दी अखबारों की भाषा का देना चाहूँगा। दिल्ली के जिस अखबार ने इसकी शुरूआत की वह मार्केटिंग रिसर्च कराता ही नहीं। इसे पाठक ने स्वीकार कर लिया, क्योंकि उसके पास विकल्प नहीं। बाकी अखबारों ने इसका अंधानुकरण शुरू कर दिया। भाषा को आसान बनाने पर किसी को आपत्ति नहीं होगी, पर मेरा विचार है कि आम पाठक अपनी भाषा के विद्रूप को पसंद नहीं करेगा। कुछ अखबारों ने ट्रेनीज़ की भरती का काम शुरू किया है। इस भरती को कैसे संचालित किया जाय और उसके पर्चे कैसे बनें यह वचार का विषय है। 1983 में जब जनसत्ता शुरू हुआ था प्रभाष जोशी ने पत्रकारों की भर्ती की एक छलनी बनाई थी। जनसत्ता के साथ उसी वक्त लखनऊ में नवभारत टाइम्स शुरू हुआ था। राजेन्द्र माथुर ने वहाँ खुद भरती की थी। उनका और जनसत्ता का लिखित परीक्षण फर्क था, पर दोनों की इच्छा अच्छे पत्रकारों को सामने लाने की थी। अब तो हिन्दी अखबार काफी बड़े हैं। उन्हें पहल करनी चाहिए। यह प्रफेशनल काम है।
पत्रकारों की भरती के तीन-चार तरीके हैं। एक तो पत्रकारिता विद्यालय के प्लेसमेंट सैल अपने छात्रों को इंट्रोड्यूस करते हैं। दूसरे पत्रकार इंटर्नशिप के दौरान सम्पर्क बनाकर अपने लिए रास्ता बनाते हैं। तीसरे सम्पादकीय विभाग के किसी सीनियर सहयोगी के परिचितों का आना। इससे ऊपर है राजनेताओं और रसूख वालों की पैरवी। सीनियर पत्रकारों का आवागमन व्यक्तिगत रिश्तों के आधार पर ज्यादातर होता है। इधर भास्कर समूह के बारे में खबर है कि वे टेलेंट हंट चलाते हैं और नए लोगों को ट्रेनिंग भी देते हैं। दरअसल जो उद्यमी अपने अखबार को भविष्य के लिए तैयार कर रहे हैं, उन्हें अपनी ह्यूमन रिसोर्स के बारे में सोचना चाहे। सच यह है कि हिन्दी में अच्छे पत्रकारों का टोटा है। उन्हें तैयार करना चाहिए। इससे अखबारों की शक्ल बदलेगी। यारी-दोस्ती, व्यक्तिगत पसंद-नापसंद और किसी लॉबी से जुड़ा होना माने नहीं रखता। सिर्फ परफॉर्मेंस माने रखता है। पर यह बात तब तक बेमानी है जब तक परफॉर्मेंस की परख करने वाली पारदर्शी व्यवस्था नहीं होगी।

समाचार फॉर मीडिया डॉट कॉम में प्रकाशित