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Sunday, November 3, 2019

अमेरिका में भारत की किरकिरी


भारतीय विदेश नीति के नियंता मानते हैं कि भारत का नाम दुनिया में इज्जत से लिया जाता है और पाकिस्तान की इज्जत कम है। इसकी बड़ी वजह भारतीय लोकतंत्र है। हमारी सांविधानिक संस्थाएं कारगर हैं और लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता परिवर्तन होता है। अक्सर जब भी भारत और पाकिस्तान के बीच टकराव होता है, तो हम कहते हैं कि पाकिस्तान अलग-थलग पड़ गया है। हम यह भी मानते हैं कि कश्मीर समस्या भारत-पाकिस्तान के बीच का द्विपक्षीय मामला है और दुनिया इसे स्वीकार करती है। और यह भी कि पाकिस्तान कश्मीर समस्या के अंतरराष्ट्रीयकरण का प्रयास करता है, पर वह इसमें विफल है।
उपरोक्त बातें काफी हद तक आज भी सच हैं, पर 5 अगस्त के बाद दुनिया की समझ में बदलाव आया है। हमारी खुशफहमियों को धक्का लगाने वाली कुछ बातें भी हुईं हैं, जिनसे देश की छवि को बहुत गहरी न सही किसी न किसी हद तक ठेस लगी है। विदेश-नीति संचालकों को इस प्रश्न पर ठंडे दिमाग से विचार करना चाहिए। बेशक जब हम कश्मीर के मामले को संयुक्त राष्ट्र में ले गए थे, तब उसका अंतरराष्ट्रीयकरण हो गया था, पर अब उससे कुछ ज्यादा हो गया है। पिछले तीन महीने के घटनाक्रम पर नजर डालें, तो कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं:-
·      हम कुछ भी कहें, पाकिस्तान अलग-थलग नहीं पड़ा है। चीन, तुर्की और मलेशिया ने पहले संरा में और उसके बाद एफएटीएफ में उसे खुला समर्थन दिया है। चीन और रूस के सामरिक रिश्ते सुधरते जा रहे हैं और इसका प्रभाव रूस-पाकिस्तान रिश्तों में नजर आने लगा है। यह सब अलग-थलग पड़ने की निशानी नहीं है।
·      हाल में ब्रिटिश शाही परिवार के प्रिंस विलियम और उनकी पत्नी केट मिडल्टन की पाकिस्तान यात्रा से भी क्या संकेत मिलता है?  ब्रिटिश शाही परिवार का पाकिस्तान दौरा 13 साल बाद हुआ है। इससे पहले प्रिंस ऑफ वेल्स और डचेस ऑफ कॉर्नवेल कैमिला ने 2006 में देश का दौरा किया था।
·      इसके पहले ब्रिटेन के मुख्य विरोधी दल लेबर पार्टी ने कश्मीर पर एक आपात प्रस्ताव पारित करते हुए पार्टी के नेता जेरेमी कोर्बिन से कहा था कि वे कश्मीर में अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों को भेजकर वहाँ की स्थिति की समीक्षा करने का माँग करें और वहाँ की जनता के आत्म-निर्णय के अधिकार की मांग करें।
·      अमेरिका में हाउडी मोदी के बावजूद डोनाल्ड ट्रंप ने इमरान खान की न केवल पर्याप्त आवभगत की, बल्कि बार-बार कहा कि मैं तो कश्मीर मामले में मध्यस्थता करना चाहता हूँ, बशर्ते भारत माने। ह्यूस्टन की रैली में नरेंद्र मोदी ने ट्रंप का समर्थन करके डेमोक्रेट सांसदों की नाराजगी अलग से मोल ले ली है।
·      भारत की लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और बहुलवादी व्यवस्था को लेकर उन देशों में सवाल उठाए जा रहे हैं, जो भारत के मित्र समझे जाते हैं। इसका सबसे ताजा उदाहरण है दक्षिण एशिया में मानवाधिकार विषय पर अमेरिकी संसद में हुई सुनवाई, जिसमें भारत पर ही निशाना लगाया गया।
·      इस सुनवाई में डेमोक्रेटिक पार्टी के कुछ सांसदों की तीखी आलोचना के कारण भारत के विदेश मंत्रालय को सफाई देनी पड़ी। मोदी सरकार के मित्र रिपब्लिकन सांसद या तो इस सुनवाई के दौरान हाजिर नहीं हुए और जो हाजिर हुए उन्होंने भारतीय व्यवस्था की आलोचना की।

Sunday, October 20, 2019

मामल्लापुरम से निकले चीनी डिप्लोमेसी के इशारे


चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग की यात्रा के ठीक पहले भारतीय और चीनी मीडिया में इस बात को रेखांकित किया गया कि तमिलनाडु के प्राचीन नगर मामल्लापुरम (महाबलीपुरम) का चयन क्यों किया और किसने किया। खबरें थीं कि चीन ने खासतौर से इस जगह को चुना। चीनी डिप्लोमेसी की विशेषता है कि वे संकेतों का सोच-समझकर इस्तेमाल करते हैं। तमिलनाडु के साथ चीन के ईसा की पहली-दूसरी सदी के रिश्ते हैं। छठी-सातवीं सदी में पल्लव राजाओं ने चीन में अपने दूत भेजे थे। सातवीं सदी में ह्वेनसांग इस इलाके में आए थे।
सन 1956 में तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाऊ-एन-लाई भी मामल्लापुरम आए थे। क्या चीन ने जानबूझकर ऐसी जगह का चुनाव किया, जो भगवा मंडली के राजनीतिक प्रभाव से मुक्त है? शायद इन रूपकों और प्रतीकों की चर्चा होने की वजह से ही हमारे विदेश मंत्रालय ने सफाई पेश की कि इस जगह को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुना था। मोदी ने शी के स्वागत में खासतौर से तमिल परिधान वेष्टी को धारण किया।

Monday, October 7, 2019

गांधी की बातें, जो हमने नहीं मानीं


कुछ लोग कहते हैं, मजबूरी का नाम महात्मा गांधी। उनके जन्मदिन को राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाने और तमाम शहरों की सड़कों को महात्मा गांधी मार्ग बनाने के बावजूद हमें लगता है कि उनकी जरूरत 1947 के पहले तक थी। अब होते भी तो क्या कर लेते? वैश्विक अर्थव्यवस्था को लेकर हम उनकी धारणाओं पर विचार करते भी नहीं हैं, पर आज जब समाजवाद के बाद पूँजीवाद के अंतर्विरोध सामने आ रहे हैं, हमें गांधी याद आते हैं। गांधी अगर प्रासंगिक हैं, तो दुनिया के लिए हैं, केवल भारत के लिए नहीं
गांधी उतने अव्यावहारिक नहीं थे, जितना समझा जाता है। हमने उनकी ज्यादातर भूमिका स्वतंत्रता संग्राम में ही देखी। और उन्हें प्रतिरोध के आगे देख नहीं पाते हैं। स्वतंत्र होने के बाद देश के सामने जब प्रशासनिक-राजनीतिक समस्याएं आईं तबतक वे चले गए। फिर भी गांधी की प्रशासनिक समझ का जायजा उनके लेखन और व्यावहारिक गतिविधियों से लिया जा सकता है। देखने की जरूरत है कि कौन से ऐसे क्षेत्र हैं, जिनमें हमने गांधी की सरासर उपेक्षा की है। कम से कम तीन विषय ऐसे हैं, जिनमें गांधी की सरासर उपेक्षा हुई है। 1.स्त्रियाँ, 2.भाषा और 3.शिक्षा।

Monday, September 16, 2019

अफ़ग़ान शांति-वार्ता के अंतर्विरोध


अस्सी के दशक में जब अफ़ग़ान मुज़ाहिदीन रूसी सेना के खिलाफ लड़ रहे थे, तब अमेरिका उनके पीछे था। अमेरिका के डिक्लैसिफाइडखुफिया दस्तावेजों के अनुसार 11 सितंबर 2001 के अल कायदा हमले के कई बरस पहले बिल क्लिंटन प्रशासन का तालिबान के साथ राब्ता था। वहाँ अंतरराष्ट्रीय सहयोग से नई सरकार बनने के बाद सन 2004 और 2011 में भी तालिबान के साथ बातचीत हुई थी। सन 2013 में तालिबान ने कतर में दफ्तर खोला। चूंकि उन्होंने निर्वासित सरकार के रूप में खुद को पेश किया था, इसलिए काबुल सरकार ने उसे स्वीकार नहीं किया। इस संवाद में पाकिस्तान की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही। सन 2015 में पाकिस्तान की कोशिशों से अफगान सरकार और तालिबान के बीच आमने-सामने की बात हुई। उन्हीं दिनों खबर आई कि तालिबान के संस्थापक मुल्ला उमर की मौत तो दो साल पहले हो चुकी है। इस तथ्य को तालिबान और पाकिस्तान दोनों ने छिपाकर रखा था। सन 2018 में ईद के मौके पर तीन दिन का युद्धविराम भी हुआ। सितंबर 2018 में अमेरिका ने ज़लमय खलीलज़ाद को तालिबान के साथ बातचीत के लिए अपना दूत नियुक्त किया। उनके साथ दोहा में कई दौर की बातचीत के बाद समझौते के हालात बने ही थे कि बातचीत टूट गई। क्या यह टूटी डोर फिर से जुड़ेगी?


फिलहाल अमेरिका और तालिबान के बीच एक अरसे से चल रही शांति-वार्ता एक झटके में टूट गई है, पर यह भी लगता है कि संभावनाएं पूरी तरह खत्म नहीं हुईं हैं। बातचीत का टूटना भी एक अस्थायी प्रक्रिया है। उम्मीद है कि इस दिशा में प्रगति किसी न किसी दिशा में जरूर होगी। राष्ट्रपति ट्रंप के सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन की अचानक बर्खास्तगी से संकेत यही मिलता है कि विदेशमंत्री पॉम्पियो जो कह रहे हैं, वह ज्यादा विश्वसनीय है। यों भी समस्या से जुड़े सभी पक्षों के पास विकल्प ज्यादा नहीं हैं और इस लड़ाई को लंबा चलाना किसी के भी हित में नहीं है। अफगान समस्या के समाधान के साथ अनेक क्षेत्रीय समस्याओं के समाधान भी जुड़े हैं।
अफ़ग़ानिस्तान के लिए नियुक्त अमेरिका के विशेष दूत ज़लमय ख़लीलज़ाद ने उससे पहले सोमवार 2 सितंबर को तालिबान के साथ 'सैद्धांतिक तौर' पर एक शांति समझौता होने का एलान किया था। प्रस्तावित समझौते के तहत अमेरिका अगले 20 हफ़्तों के भीतर अफ़ग़ानिस्तान से अपने 5,400 सैनिकों को वापस लेने वाला था। अमेरिका और तालिबान के बीच क़तर में अब तक नौ दौर की शांति-वार्ता हो चुकी है। प्रस्तावित समझौते में प्रावधान था कि अमेरिकी सैनिकों की विदाई के बदले में तालिबान सुनिश्चित करता कि अफ़ग़ानिस्तान का इस्तेमाल अमेरिका और उसके सहयोगियों पर हमले के लिए नहीं किया जाएगा।
कितनी मौतें?
अफ़ग़ानिस्तान में सन 2001 में अमेरिका के नेतृत्व में शुरू हुए सैनिक अभियान के बाद से अंतरराष्ट्रीय गठबंधन की सेना के करीब साढ़े तीन हजार सैनिकों की जान जा चुकी है। इनमें 2300 अमेरिकी हैं। आम लोगों, चरमपंथियों और सुरक्षाबलों की मौत की संख्या का अंदाज़ा लगाना कठिन है। अलबत्ता इस साल संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि वहाँ 32,000 से ज़्यादा आम लोगों की मौत हुई है। वहीं ब्राउन यूनिवर्सिटी के वॉटसन इंस्टीट्यूट का कहना है कि वहाँ 58,000 सुरक्षाकर्मी और 42,000 विद्रोही मारे गए हैं।

Saturday, September 7, 2019

सुरक्षा परिषद क्यों नहीं करा पाई कश्मीर समस्या का समाधान?


अमेरिका की डेमोक्रेटिक पार्टी से राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी बनने की रेस में शामिल रह चुके वरिष्ठ सीनेटर बर्नी सैंडर्स ने पिछले हफ्ते कहा कि कश्मीर के हालात को लेकर उन्हें चिंता है। अमेरिकी मुसलमानों की संस्था इस्लामिक सोसायटी ऑफ़ नॉर्थ अमेरिका के 56वें अधिवेशन में उन्होंने यह भी कहा कि अमेरिकी सरकार को इस मसले के समाधान के लिए संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव का समर्थन में खुलकर समर्थन करना चाहिए। हालांकि बर्न सैंडर्स की अमेरिकी राजनीति में कोई खास हैसियत नहीं है और यह भी लगता है कि वे मुसलमानों के बीच अपना वोट बैंक तैयार करने के लिए ऐसा बोल रहे हैं, पर उनकी दो बातें ऐसी हैं, जो अमेरिकी राजनीति की मुख्यधारा को अपील करती हैं।
इनमें से एक है कश्मीर में अमेरिकी मध्यस्थता या हस्तक्षेप का सुझाव और दूसरी कश्मीर समस्या का समाधान सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों के तहत करने की। पाकिस्तानी नेता भी बार-बार कहते हैं कि इस समस्या का समाधान सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों के तहत करना चाहिए। यानी कि कश्मीर में जनमत संग्रह कराना चाहिए। आज सत्तर साल बाद हम यह बात क्यों सुन रहे हैं? सन 1949 में ही समस्या का समाधान क्यों नहीं हो गया? भारत इस मामले को सुरक्षा परिषद में संरा चार्टर के अनुच्छेद 35 के तहत ले गया था। जो प्रस्ताव पास हुए थे, उनसे भारत की सहमति थी। वे बाध्यकारी भी नहीं थे। अलबत्ता दो बातों पर आज भी विचार करने की जरूरत है कि तब समाधान क्यों नहीं हुआ और इस मामले में सुरक्षा परिषद की भूमिका क्या रही है?
प्रस्ताव के बाद प्रस्ताव
सन 1948 से 1971 तक सुरक्षा परिषद ने 18 प्रस्ताव भारत और पाकिस्तान के रिश्तों को लेकर पास किए हैं। इनमें प्रस्ताव संख्या 303 और 307 सन 1971 के युद्ध के संदर्भ में पास किए गए थे। उससे पहले पाँच प्रस्ताव 209, 210, 211, 214 और 215 सन 1965 के युद्ध के संदर्भ में थे। प्रस्ताव 123 और 126 सन 1956-57 के हैं, जो इस इलाके में शांति बनाए रखने के प्रयास से जुड़े थे। वस्तुतः प्रस्ताव 38, 39 और 47 ही सबसे महत्वपूर्ण हैं, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण है प्रस्ताव 47 जिसमें जनमत संग्रह की व्यवस्था बताई गई थी।

Tuesday, September 3, 2019

अमेज़न की आग: इंसानी नासमझी की दास्तान


अमेज़न के जंगलों में लगी आग ने संपूर्ण मानवजाति के नाम खतरे का संदेश भेजा है। यह आग केवल ब्राजील और उसके आसपास के देशों के लिए ही खतरे का संदेश लेकर नहीं आई है। संपूर्ण विश्व के लिए यह भारी चिंता की बात है।  ये जंगल दुनिया के पर्यावरण की रक्षा का काम करते हैं। इन जंगलों में लाखों किस्म की जैव और वनस्पति प्रजातियाँ हैं। अरबों-खरबों पेड़ यहां खड़े हैं। ये पेड़ दुनिया की कार्बन डाई ऑक्साइड को जज्ब करके ग्लोबल वॉर्मिंग के खतरे को कम करते हैं। दुनिया की 20 फीसदी ऑक्सीजन इन जंगलों से तैयार होती है। इसे पृथ्वी के फेफड़े की संज्ञा दी जाती है। समूचे दक्षिण अमेरिका की 50 फीसदी वर्ष इन जंगलों के सहारे है। अफसोस इस बात का है कि यह आग इंसान ने खुद लगाई है। उससे ज्यादा अफसोस इस बात का है कि हमारे मीडिया का ध्यान अब भी इस तरफ नहीं गया है। 
जंगलों की इस आग की तरफ दुनिया का ध्यान तब गया, जब ब्राजील के राष्ट्रीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (आईएनईपी) ने जानकारी दी कि देश में जनवरी से अगस्त के बीच जंगलों में 75,336 आग की घटनाएं हुई हैं। अब ये घटनाएं 80,000 से ज्यादा हो चुकी हैं। आईएनईपी ने सन 2013 से ही उपग्रहों की मदद से जंगलों की आग का अध्ययन करना शुरू किया है। कई तरह के अनुमान हैं। पिछले एक दशक में ऐसी आग नहीं लगी से लेकर ऐसी आग कभी नहीं लगी तक।
यह आग इतनी जबर्दस्त है कि ब्राजील के शहरों में इन दिनों सूर्यास्त समय से कई घंटे पहले होने लगा है। देश में आपातकाल की घोषणा कर दी गई है। आग बुझाने के लिए सेना बुलाई गई है और वायुसेना के विमान भी आकाश से पानी गिरा रहे हैं। फ्रांस में हो रहे जी-7 देशों के शिखर सम्मेलन में इस संकट पर खासतौर से विचार किया गया और इसके समाधान के लिए तकनीकी सहायता उपलब्ध कराने की पेशकश की गई है।
पूरी दुनिया पर खतरा
आग सिर्फ ब्राजील के जंगलों में ही नहीं लगी है, बल्कि वेनेजुएला, बोलीविया, पेरू और पैराग्वे के जंगलों में भी लगी है। वेनेज़ुएला दूसरे नंबर पर है जहां आग की 2600 घटनाएं सामने आई हैं, जबकि 1700 घटनाओं के साथ बोलीविया तीसरे नंबर पर है। ब्राजील में आग की घटनाओं का सबसे अधिक प्रभाव उत्तरी इलाक़ों में पड़ा है। घटनाओं में रोराइमा में 141%, एक्रे में 138%, रोंडोनिया में 115% और अमेज़ोनास में 81% वृद्धि हुई है, जबकि दक्षिण में मोटो ग्रोसो डूो सूल में आग की घटनाएं 114% बढ़ी हैं।

Monday, August 26, 2019

अंतरराष्ट्रीय फोरमों पर विफल पाकिस्तान


पिछले 72 साल में पाकिस्तान की कोशिश या तो कश्मीर को फौजी ताकत से हासिल करने की रही है या फिर भारत पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाने की रही है। पिछले दो या तीन सप्ताह में स्थितियाँ बड़ी तेजी से बदली हैं। कहना मुश्किल है कि इस इलाके में शांति स्थापित होगी या हालात बिगड़ेंगे। बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि भारत-पाकिस्तान और अफगानिस्तान की आंतरिक और बाहरी राजनीति किस दिशा में जाती है। पर सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि पाकिस्तानी डीप स्टेट का रुख क्या रहता है।
विभाजन के दो महीने बाद अक्तूबर 1947 में फिर 1965, फिर 1971 और फिर 1999 में कम से कम चार ऐसे मौके आए, जिनमें पाकिस्तान ने बड़े स्तर पर फौजी कार्रवाई की। बीच का समय छद्म युद्ध और कश्मीर से जुड़ी डिप्लोमेसी में बीता है। हालांकि 1948 में संयुक्त राष्ट्र में इस मामले को लेकर भारत गया था, पर शीतयुद्ध के उस दौर में पाकिस्तान को पश्चिमी देशों का सहारा मिला। फिर भी समाधान नहीं हुआ।
चीनी ढाल का सहारा
इस वक्त पाकिस्तान एक तरफ चीन और दूसरी तरफ अमेरिका के सहारे अपने मंसूबे पूरे करना चाहता है। पिछले कुछ वर्षों में पाकिस्तानी डिप्लोमेसी को अमेरिका से झिड़कियाँ खाने को मिली हैं। इस वजह से उसने चीन का दामन थामा है। उसका सबसे बड़ा दोस्त या संरक्षक अब चीन है। अनुच्छेद 370 के सिलसिले में भारत सरकार के फैसले के बाद से पाकिस्तान ने राजनयिक गतिविधियों को तेजी से बढ़ाया और फिर से कश्मीर के अंतरराष्ट्रीयकरण पर पूरी जान लगा दी। फिलहाल उसे सफलता नहीं मिली है, पर कहानी खत्म भी नहीं हुई है।

Monday, August 19, 2019

हांगकांग ने किया चीन की नाक में दम

हांगकांग में लोकतंत्र समर्थक आंदोलन थमने का नाम नहीं ले रहा है। पिछले तीन महीने से यहाँ के निवासी सरकार-विरोधी आंदोलन चला रहे हैं। पिछले हफ्ते पुलिस और आंदोलनकारियों के बीच कई झड़पे हैं हुई हैं। पुलिस ने आँसू गैस के गोले दागे। इस ‘नगर-राज्य’ की सीईओ कैरी लाम ने चेतावनी दी है कि अब कड़ी कार्रवाई की जाएगी। प्रेक्षक पूछ रहे हैं कि कड़ी कार्रवाई माने क्या?

चीन ने धमकी दी है कि यदि हांगकांग प्रशासन आंदोलन को रोक पाने में विफल रहा, तो वह इस मामले में सीधे हस्तक्षेप भी कर सकता है। यह आंदोलन ऐसे वक्त जोर पकड़ रहा है, जब चीन और अमेरिका के बीच कारोबारी मसलों को लेकर जबर्दस्त टकराव चल रहा है। शुक्रवार को अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर हुए प्रदर्शन के दौरान कुछ आंदोलनकारी अमेरिकी झंडे लहरा रहे थे।

चीन के सरकारी मीडिया का आरोप है कि इस आंदोलन के पीछे अमेरिका का हाथ है। चीनी मीडिया ने एक हांगकांग स्थित अमेरिकी कौंसुलेट जनरल की राजनीतिक शाखा प्रमुख जूली ईडे की एक तस्वीर प्रसारित की है, जिसमें वे एक होटल की लॉबी में आंदोलनकारी नेताओं से बात करती नजर आ रही हैं। इनमें 22 वर्षीय जोशुआ वांग भी है, जो सरकार विरोधी आंदोलन का मुखर नेता है। चायना डेली और दूसरे अखबारों ने इस तस्वीर को छापने के साथ यह आरोप लगाया है कि आंदोलन के पीछे अमेरिका का ‘काला हाथ’ है।

क्या चीन करेगा हस्तक्षेप?

हांगकांग से निकलने वाले चीन-समर्थक अखबार ‘ताई कुंग पाओ’ ने लिखा है कि जूली ईडे इराक में ऐसी गतिविधियों में शामिल रही हैं। चीन के सरकारी सीसीटीवी का कहना है कि सीआईए ऐसे आंदोलनों को भड़काता रहता है। चीन सरकार आगामी 1 अक्तूबर को कम्युनिस्ट क्रांति की 70वीं वर्षगाँठ मनाने जा रही है। हांगकांग का आंदोलन समारोह के माहौल को बिगाड़ेगा, इसलिए सरकार आंदोलन को खत्म कराना चाहती है। विधि विशेषज्ञों का कहना है कि यदि हांगकांग प्रशासन अनुरोध करेगा, तो चीन सरकार सीधे हस्तक्षेप कर सकती है। चीन को अंदेशा है कि हांगकांग में चल रही लोकतांत्रिक हवा कहीं चीन में न पहुँच जे। चीन सरकार पश्चिमी मीडिया की विरोधी है। चीन में गूगल, यूट्यूब और ट्विटर, फेसबुक जैसे सोशल मीडिया पर पूरी तरह पाबंदी है।

Sunday, November 25, 2018

पाकिस्तान का आर्थिक संकट और कट्टरपंथी आँधियाँ

पाकिस्तान इस वक्त दो किस्म की आत्यंतिक परिस्थितियों से गुज़र रहा है। एक तरफ आर्थिक संकट है और दूसरी तरफ कट्टरपंथी सांप्रदायिक दबाव है। देश के सुप्रीम कोर्ट ने हाल में जब ‘तौहीन-ए-रिसालत’ यानी ईश-निंदा के एक मामले में ईसाई महिला आसिया बीबी को बरी किया, तो देश में आंदोलन की लहर दौड़ पड़ी थी। आंदोलन को शांत करने के लिए सरकार को झुकना पड़ा। दूसरी तरफ उसे विदेशी कर्जों के भुगतान को सही समय से करने के लिए कम से कम 6 अरब डॉलर के कर्ज की जरूरत है। जरूरत इससे बड़ी रकम की है, पर सऊदी अरब, चीन और कुछ दूसरे मित्र देशों से मिले आश्वासनों के बाद उसे 6 अरब के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष की शरण में जाना पड़ा है।

गुजरे हफ्ते आईएमएफ का एक दल पाकिस्तान आया, जिसने अर्थव्यवस्था से जुड़े प्रतिनिधियों और संसद सदस्यों से भी मुलाकात की और उन्हें काफी कड़वी दवाई का नुस्खा बनाकर दिया है। इस टीम के नेता हैरल्ड फिंगर ने पाकिस्तानी नेतृत्व से कहा कि आपको कड़े फैसले करने होंगे और संरचनात्मक बदलाव के बड़े कार्यक्रम पर चलना होगा। संसद को बड़े फैसले करने होंगे। इमरान खान की पीटीआई सरकार जोड़-तोड़ करके बनी है। इतना ही नहीं नवाज़ शरीफ के खिलाफ मुहिम चलाकर उन्होंने सदाशयता की संभावनाएं नहीं छोड़ी हैं। अब उन्हें बार-बार अपने फैसले बदलने पड़ रहे हैं और यह भी कहना पड़ रहा है, ''यू-टर्न न लेने वाला कामयाब लीडर नहीं होता है। जो यू-टर्न लेना नहीं जानता, उससे बड़ा बेवक़ूफ़ लीडर कोई नहीं होता।''

Sunday, November 4, 2018

श्रीलंका में तख्ता-पलट और भारतीय दुविधा


श्रीलंका में शुक्रवार 26 अक्तूबर को अचानक हुए राजनीतिक घटनाक्रम से भारत में विस्मय जरूर है, पर ऐसा होने का अंदेशा पहले से था। पिछले कुछ महीनों से संकेत मिल रहे थे कि वहाँ के शिखर नेतृत्व में विचार-साम्य नहीं है। सम्भवतः दोनों नेताओं ने भारतीय नेतृत्व से इस विषय पर चर्चा भी की होगी। बहरहाल अचानक वहाँ के राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री को बर्खास्त करके चौंकाया जरूर है। अमेरिका और युरोपियन यूनियन ने प्रधानमंत्री को इस तरीके से बर्खास्त किए जाने पर फौरन चिंता तत्काल व्यक्त की और कहा कि जो भी हो, संविधान के दायरे में होना चाहिए। वहीं भारत ने प्रतिक्रिया व्यक्त करने में कुछ देर की। शुक्रवार की घटना पर रविवार को भारतीय प्रतिक्रिया सामने आई।

रानिल विक्रमासिंघे को प्रधानमंत्री पद से हटाए जाने पर भारत ने आशा व्यक्त की है कि श्रीलंका में संवैधानिक और लोकतांत्रिक मूल्यों का आदर होगा। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने कहा, 'श्रीलंका में हाल ही में बदल रहे राजनीतिक हलचल पर भारत पूरे ध्यान से नजर रख रहा है। एक लोकतंत्र और पड़ोसी मित्र देश होने के नाते हम आशा करते हैं कि लोकतांत्रिक मूल्यों और संवैधानिक प्रक्रिया का सम्मान होगा।' भारत को ऐसे मामलों में काफी सोचना पड़ता है। खासतौर से हिंद महासागर के पड़ोसी देशों के संदर्भ में। पहले से ही आरोप हैं कि उसके अपने पड़ोसी देशों से रिश्ते अच्छे नहीं हैं।