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Wednesday, October 20, 2021

क्या उत्तर प्रदेश के वोटर को पसंद आएगी प्रियंका गांधी की ‘नई राजनीति’?

उत्तर प्रदेश के आगामी चुनाव में प्रियंका गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी कुछ अलग नजर आने और चुनाव के मुद्दों को विस्तार देने के इरादे से उतर रही है। पार्टी ने मंगलवार को घोषणा की कि उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव पार्टी के 40 फीसदी टिकट महिला उम्मीदवारों को दिए जाएंगे। कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने इस बात की घोषणा की है। उन्होंने कहा कि पार्टी टिकट पाने के आवेदन के लिए तारीख 15 नवम्बर तक बढ़ा दी गई है। इस चुनाव में पार्टी का नारा है ‘लड़की हूं लड़ सकती हूं।’

कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में अपनी खोई जमीन वापस लेने की शिद्दत से तलाश है। सन 2017 के चुनाव में कांग्रेस सिर्फ 7 सीटें ही जीत पाई थी और राज्य में अपने प्रदर्शन को बेहतर करने की पूरी कोशिश कर रही है। वह भी तब, जब उत्तर प्रदेश के चुनाव में ‘जाति’ महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। कांग्रेस यह कदम उठा कर महिला मतदाताओं को अपने पाले में करने का प्रयास कर रही है। उसके पहले 2012 के चुनाव में पार्टी को बहुत उम्मीदें थीं। तब राहुल गांधी के नेतृत्व पर भरोसा किया गया था।

सन 2009 के लोकसभा चुनाव में पार्टी की सफलता से प्रेरित कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में सफलता की आशा थी। उस वक्त समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव के भीतर राज्य के वोटर को नई ऊर्जा दिखाई पड़ी थी। कांग्रेस को लगता था कि 2009 के लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी के कारण सफलता मिली है। वस्तुतः कांग्रेस की सफलता के पीछे उसे प्राप्त हमदर्दी थी, जो वाममोर्चा के हाथ खींचने के कारण पैदा हुई थी।

प्रियंका गांधी मानती हैं कि महिलाएं नफरत की राजनीति का विकल्प प्रदान करेंगी। महिलाओं को राजनीति का केन्द्रीय विषय बनाने का विचार अपने आप में रोचक और प्रभावशाली है। लोकसभा के पिछले दो चुनावों से यह बात साबित हुई है कि देश में महिला वोटर निर्णायक भूमिका निभाती हैं। बावजूद इसके सवाल है कि कांग्रेस पार्टी के पास क्या यूपी में दो सौ के आसपास ऐसी महिला प्रत्याशी हैं, जो मजबूती के साथ उतर सकें। यदि हैं भी, तो क्या वे पुराने कांग्रेसी नेताओं के परिवारों से आएंगी या अपनी सामर्थ्य पर राजनीति में उतरी महिलाएं होंगी?

Sunday, October 3, 2021

जी-23 वाले क्या चाहते हैं?

 


कपिल सिब्बल ने यह कहकर कि पार्टी में इस समय कोई अध्यक्ष नहीं है, एक बड़ी और उत्तेजक बात कह दी है। वास्तव में सोनिया गांधी अध्यक्ष हैं, पर सिब्बल का आशय है कि यह जाग्रत अवस्था नहीं है। कपिल सिब्बल जी-23 में शामिल हैं और पिछले कुछ समय से सबसे ज्यादा मुखर भी हैं। वे पार्टी के भीतर सुधार चाहते हैं और गांधी परिवार को चुनौती भी देते रहते हैं। उन्होंने 29 सितम्बर को प्रेस कांफ्रेंस में कहा, हम जी-23 हैं, जी हुजूर-23 नहीं।

आज के हिन्दू में प्रोफाइल्स के तहत जी-23 के बारे में संदीप फूकन ने रोचक जानकारी दी है। इसके जवाब में चाँदनी चौक से आए कुछ लोगों ने उनके घर के बाहर नारेबाजी की और टमाटर फेंके। चाँदनी चौक, कपिल सिब्बल का चुनाव-क्षेत्र है।

कांग्रेस बनाम कांग्रेस के इस टकराव में गांधी परिवार के समर्थक मानते हैं कि संकट के समय में गांधी परिवार के कारण ही पार्टी जुड़ी रह सकती है, अन्यथा टूट जाएगी। जी-23 में गुलाम नबी आज़ाद, शशि थरूर, मनीष तिवारी, आनन्द शर्मा, मुकुल वासनिक, भूपेन्द्र सिंह हुड्डा, वीरप्पा मोइली, पृथ्वीराज चह्वाण, पीजे कुरियन, रेणुका चौधरी, मिलिन्द देवड़ा, जितिन प्रसाद, राजिन्दर कौर भट्टल, अखिलेश प्रसाद सिंह, राज बब्बर, अरविंदर सिंह लवली, कौल सिंह ठाकुर, कुलदीप शर्मा, योगानन्द शास्त्री, संदीप दीक्षित, अजय सिंह, विवेक तन्खा और कपिल सिब्बल के नाम हैं। जितिन प्रसाद पार्टी छोड़ चुके हैं और पीजे कुरियन ने खुद को इस ग्रुप से अलग कर लिया है।

हालांकि जी-23 से जुड़े नेताओं ने गांधी-नेहरू परिवार के प्रति अपनी वफादारी से इनकार नहीं किया है, पर वे इनके फैसलों, खासतौर से राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के तौर-तरीकों के प्रति अपनी असहमति जताते रहते हैं। इन फैसलों में पंजाब का नवजोत सिद्धू से जुड़ा फैसला और कन्हैया कुमार का पार्टी में प्रवेश भी शामिल है।

पंजाब में कांग्रेस का पराभव

पंजाब से पैदा हुआ कांग्रेस पार्टी का संकट बड़ी शक्ल लेता जा रहा है। नवजोत सिंह सिद्धू और अमरिंदर सिंह के विवाद को देखते हुए समझ में नहीं आ रहा है कि पार्टी के भीतर समुद्र-मंथन जैसी कोई योजना है या हालात नेतृत्व के काबू के बाहर हैंयह संकट पंजाब में होने वाले विधानसभा चुनाव के ठीक पहले खड़ा हुआ है, इसलिए यह सवाल बनता है कि क्या नेतृत्व को इसका अंदेशा नहीं था? उसे सिद्धू से बड़ी उम्मीदें थीं, तो उन्हें राज्य का मुख्यमंत्री क्यों नहीं बनाया गया? कैप्टेन अमरिंदर सिंह जैसे बड़े नेता को हाशिए पर डालने की कोशिश क्यों की गई?

सब कुछ सोचकर हुआ है, तो देखना होगा कि आगे होता क्या है। अमरिंदर सिंह एक नई पार्टी बनाने की सोच रहे हैं। यह पार्टी पंजाब-केन्द्रित होगी या राष्ट्रीय स्तर पर नई कांग्रेस खड़ी होगी? कांग्रेस के एक और विभाजन की यह बेला तो नहीं? फिलहाल कुछ लोग कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक की उम्मीद कर रहे हैं, पर उस बैठक में क्या होगा? अगस्त 2020 में जब पहली बार जी-23 के पत्र का विवाद उछला था, तब कार्यसमिति की बैठक में क्या हुआ था? उस बैठक का निष्कर्ष था कि भाजपा से हमदर्दी रखने वालों का यह काम है। उसके बाद से राहुल गांधी इशारों में कई बार कह चुके हैं कि भाजपा से हमदर्दी रखने वाले जाएं और उससे लड़ने वालों का स्वागत है।

सिद्धू के हौसले

पंजाब के नए मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के फैसलों से नाराज नवजोत सिद्धू ने पहले इस्तीफा दिया और बाद में दोनों के बीच समझौता हो गया। पर इससे संदेश क्या गया? क्या सिद्धू किसी परिवर्तनकारी राजनीति को लेकर सामने आए हैं? मोटे तौर पर समझ में आता है कि कैप्टेन को बाहर करने के लिए बहानों की तलाश थी। सिद्धू जी ने खुद को कुछ ज्यादा वजनदार समझ लिया। बाद में उन्हें अपने वजन का सही अंदाज़ हो गया। पर क्या पार्टी ने अमरिंदर के वजन को सही आँका था?

नई कांग्रेस

कहा जा रहा है कि पार्टी विचारधारा और संगठन के स्तर पर नई शक्लो-सूरत के साथ सामने आने वाली है। इस शक्लो-सूरत को वीआईपी सलाहकार प्रशांत किशोर की सहायता से तैयार किया गया है। नौजवान छवि और वामपंथी जुमलों से भरे क्रांतिकारी विचार के साथ पार्टी मैदान में उतरने वाली है। कन्हैया कुमार के शामिल होने से भी इसका आभास होता है। पर क्या अपनों को धक्का देकर और बाहर वालों का स्वागत करके कोई पार्टी अपने प्रभाव को बढ़ा सकेगी? हाल के वर्षों में कांग्रेस की चुनावी विफलताएं कार्यकर्ता के कारण मिलीं हैं या नेतृत्व की वैचारिक धारणाओं के कारण? नए लोगों का स्वागत करके पार्टी जहाँ नई खिड़कियाँ खोल रही है, वहीं पुराने दरवाजे भी बन्द कर रही है। यह रणनीति उसपर भारी पड़ेगी।

Saturday, October 2, 2021

कांग्रेस पर भारी पड़ेगा पंजाब का संकट


पिछले महीने तक कांग्रेस पार्टी का पंजाब-संकट स्थानीय परिघटना लगती थी, जिसके निहितार्थ केवल उसी राज्य तक सीमित थे। पर अब लगता है कि यह संकट बड़ी शक्ल लेने वाला है और सम्भव है कि यह पार्टी के एक और बड़े विभाजन का आधार बने। इस वक्त दो बातें साफ हैं। एक, पार्टी का नेतृत्व किसके पास है, यह अस्पष्ट है। लगता है कि कमान राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के हाथों में है, पर औपचारिक रूप से उनके पद उन्हें हाईकमान साबित नहीं करते।

दूसरे पार्टी के वरिष्ठ नेता नाराजगी व्यक्त करने लगे हैं। असंतुष्टों का एक तबका तैयार होता जा रहा है। कुछ लोगों ने अलग-अलग कारणों से पार्टी छोड़ी भी है। ज्यादातर की दिलचस्पी अपने करियर में है। इनमें खुशबू सुन्दर, ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, सुष्मिता देव, लुईज़िन्हो फलेरो, ललितेश त्रिपाठी, अभिजीत मुखर्जी वगैरह शामिल हैं।

पार्टी टूटेगी?

अभी तक मनीष तिवारी, गुलाम नबी आजाद, कपिल सिब्बल और आनन्द शर्मा की आवाजें ही सुनाई पड़ती थीं, पर अब शशि थरूर और पी चिदम्बरम जैसे नेताओं की व्यथा कुछ कह रही है। लगता है कि पंजाब की जमीन से पार्टी के विभाजन की शुरुआत होने वाली है, जो देशव्यापी होगा।

पंजाब में नवजोत सिद्धू ने अपनी पाकिस्तान-परस्ती को कई बार व्यक्त किया और उन्हें ऊपर से प्रश्रय मिला या झिड़का नहीं गया। इसके विपरीत कैप्टेन अमरिंदर सिंह मानते हैं कि पंजाब जैसे सीमावर्ती राज्य में राष्ट्रीय हितों को सबसे ऊपर रखा जाना चाहिए। वैचारिक स्तर पर पार्टी की लाइन स्पष्ट नहीं है। जो लाइन है, वह बीजेपी के विरोध की लाइन है। यह देखे बगैर कि बीजेपी की लाइन क्या है और क्यों है।

Thursday, September 30, 2021

कांग्रेस को क्यों बचाना है?


मंगलवार को कम्युनिस्ट पार्टी छोड़कर कांग्रेस में शामिल हुए कन्हैया कुमार ने कहा, देश के लाखों-करोड़ों नौजवानों को लगने लगा है कि कांग्रेस नहीं बची तो देश नहीं बचेगा। उनके इस बयान में एक प्रकार की नकारात्मकता है। कांग्रेस नहीं बची तो…’ जैसी बात उनके मन में क्यों आई? कन्हैया कुमार ने अपने वक्तव्य में यह भी कहा, ‘यह देश की सबसे पुरानी और सबसे लोकतांत्रिक पार्टी है। मैं 'लोकतांत्रिक' पर जोर दे रहा हूं...मैं ही नहीं कई लोग सोचते हैं कि देश कांग्रेस के बिना नहीं रह सकता।

कन्हैया कुमार कहें या न कहें, सच यह है कि कांग्रेस पार्टी के पास भारतीय राष्ट्र-राज्य की व्यापक संकल्पना है। फिर भी कोई नौजवान नेता, जो राष्ट्रीय-राजनीति में कदम रख रहा है, उसका यह कहना मायने रखता है, कांग्रेस नहीं बची तो खतरा किसे है, कांग्रेस संगठन को या उस व्यापक संकल्पना को, जो हमारे राष्ट्रीय-आंदोलन की धरोहर है?

कन्हैया कुमार ने कहा, मैं कांग्रेस में इसलिए शामिल हो रहा हूं, क्योंकि मुझे महसूस होता है कि देश में कुछ लोग, सिर्फ लोग नहीं वे एक सोच हैं, देश की सत्ता पर न सिर्फ काबिज हुए हैं, देश की चिंतन परम्परा, संस्कृति, मूल्य, इतिहास, वर्तमान, भविष्य खराब करने की कोशिश कर रहे हैं। कांग्रेस एक बड़े जहाज की तरह है, अगर इसे बचाया जाता है तो,महात्मा गांधी की एकता, भगत सिंह की हिम्मत और बीआर आम्बेडकर के समानता के विचार की रक्षा होगी।

कन्हैया कुमार ने जो बातें कही हैं, उनसे असहमति का प्रश्न पैदा नहीं होता है, पर यह सवाल जरूर खड़ा होता है कि कांग्रेस के जहाज को बचाने की बात कहने की नौबत क्यों आई? कांग्रेस के पास वह वैचारिक छतरी है (या थी), जो पूरे देश की भावनाओं को व्यक्त करती है। केवल विचार ही नहीं, उसके पास वह संगठन भी था, जिसके भीतर तमाम तरह के विचारों को एक साथ जोड़कर रखने की ताकत थी। उसके भीतर धुर वामपंथी थे और धुर दक्षिणपंथी भी। नरमपंथी थे तो आक्रामक गरमपंथी भी।

Tuesday, September 28, 2021

कन्हैया कुमार का कांग्रेस में आगमन और सिद्धू का मिसगाइडेड मिसाइल


कन्हैया कुमार और जिग्नेश मेवाणी के आगमन से कांग्रेस को खुशी होगी, क्योंकि उदीयमान युवा नेता उसके साथ आ रहे हैं, पर उसी रोज नवजोत सिद्धू की कलाबाज़ी एक परेशानी भी पैदा करेगी। सिद्धू के इस्तीफे की खबर मिलने के कारण दिल्ली में हो रहे कार्यक्रम को दो-तीन बार स्थगित करना पड़ा। दोनों परिघटनाएं पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व की दृढ़ता, समझदारी और दूरदर्शिता को लेकर सवाल खड़े करने वाली हैं। कम्युनिस्ट पार्टी का साथ छोड़ने वाले कन्हैया कुमार और गुजरात के दलित कार्यकर्ता-विधायक जिग्नेश मेवाणी कांग्रेस में शामिल हो गए हैं। दिल्ली में हुए कार्यक्रम में जब इन दोनों का पार्टी में स्वागत किया जा रहा था, गुजरात के पाटीदार नेता हार्दिक पटेल भी मौजूद थे।

माना जा रहा है कि कई राज्यों में बागियों से परेशान कांग्रेस युवाओं पर दांव खेलेगी। सवाल है कि क्या उसके भीतर युवा नेता नहीं हैं? क्या वजह है कि उसके अपने युवा नेता परेशान हैं? सवाल कई प्रकार के हैं। एक सवाल पार्टी की युवा छवि का है, पर ज्यादा बड़ा सवाल पार्टी के नैरेटिव या राजनीतिक-दृष्टिकोण का है। पार्टी किस विचार पर खड़ी है?

दृष्टिकोण या विचारधारा

कांग्रेस के नेतृत्व को बेहतर समझ होगी, पर मुझे लगता है कि उसने अपने नैरेटिव पर ध्यान नहीं दिया है, या जानबूझकर जनता की भावनाओं की तरफ से मुँह मोड़ा है। शायद नेतृत्व का अपने जमीनी कार्यकर्ता के साथ संवाद भी नहीं है, अन्यथा उसे जमीनी धारणाओं की समझ होती। कन्हैया कुमार के शामिल होने के ठीक पहले पार्टी के वरिष्ठ नेता मनीष तिवारी ने ट्वीट किया कि कुछ कम्युनिस्ट नेताओं के कांग्रेस में शामिल होने की खबरें हैं। ऐसे में शायद 1973 में लिखी गई किताब 'कम्युनिस्ट्स इन कांग्रेस' को फिर से पढ़ा जाना चाहिए। चीजें जितनी बदलती हैं, उतनी ही बदस्तूर भी रहती हैं। मैंने आज इसे फिर पढ़ा है।

Monday, September 20, 2021

गहमा-गहमी के बाद तय हुआ चन्नी का नाम

पाँच महीने का मुख्यमंत्री? इंडियन
एक्सप्रेस में उन्नी का कार्टून

चुनाव के पाँच महीने पहले मुख्यमंत्री बदलने के कारण तो समझ में आए, पर वैकल्पिक मुख्यमंत्री के नाम पर विचार करने में पार्टी ने देरी की। दूसरे जिस व्यक्ति का चयन किया गया है, उससे जुड़े विवादों पर विचार करने का मौका भी पार्टी को नहीं मिला। चरणजीत सिंह चन्नी की दो बातें उनके पक्ष में गईं। एक तो उनका दलित आधार और दूसरे नवजोत सिंह की जोरदार पैरवी।

अब राज्य में पार्टी और सरकार के बीच दूरी नहीं रहेगी। पर मुख्यमंत्री के चयन के दौरान कई नामों के विरोध से यह बात भी सामने आई है कि पार्टी के भीतर आपसी टकराव काफी हैं। पार्टी सर्वानुमति से फैसला नहीं कर पाई। फैसला हुआ भी तो भीतरी टकराव सामने आया। पार्टी के भीतर सिख बनाम हिन्दू की अवधारणा का टकराव भी देखने को मिला।

नए मुख्यमंत्री का नाम तय होने के बाद भी यह विवाद खत्म होने वाला नहीं है, क्योंकि पंजाब के प्रभारी हरीश रावत ने किसी चैनल पर कह दिया कि चुनाव के बाद मुख्यमंत्री नवजोत सिंह सिद्धू बनेंगे। इस बात पर सुनील जाखड़ ने कड़ी प्रतिक्रिया दी है। सिद्धू समर्थक भी इस बात से नाराज है कि उनके नेता को मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया। अब प्रतिक्रियाएं श्रृंखला की शक्ल लेंगी और उनके जवाब आएंगे। शायद नेतृत्व ने इन बातों पर विचार नहीं किया था।

राज्य में 32 फीसदी दलित आबादी है और इन्हें अपनी तरफ खींचने की कोशिश सभी पार्टियाँ कर रही हैं। शिरोमणि अकाली दल ने बहुजन समाज पार्टी के साथ पहले ही गठबंधन कर लिया है और पहले से कहा है कि यदि उनकी सरकार बनी तो दलित उप-मुख्यमंत्री बनेगा। आम आदमी पार्टी भी दलित वोटबैंक के पीछे है। भारतीय जनता पार्टी ने कहा है कि हमारी सरकार बनी तो दलित को मुख्यमंत्री बनाएंगे। बहरहाल कांग्रेस ने बना दिया। सवाल है कि यदि पार्टी को सरकार बनाने का मौका मिला, तब भी क्या वह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाएगी?

Sunday, September 19, 2021

राहुल-प्रियंका नेतृत्व की परीक्षा की घड़ी


पंजाब में जो राजनीतिक बदलाव हुआ है, उसका श्रेय राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को दिया जा रहा है। पिछले कुछ समय से दोनों पार्टी को दिशा दे रहे हैं, इसलिए आने वाले समय में इन दोनों की परीक्षा होगी। पंजाब में नेतृत्व का सवाल हल होने के बाद चुनाव और उसके बाद की परिस्थितियों से जुड़े फैसले अब उन्हें ही करने होंगे। उसके साथ-साथ पर्यवेक्षक यह भी कह रहे हैं कि राजस्थान और छत्तीसगढ़ के मसले भी सिर उठाएंगे।

ऐसा लगता है कि कांग्रेस हाईकमान सबसे पहले अपने ऊपर लगे कमजोर-नेतृत्व के विशेषण को हटाना चाहती है। इसके लिए जरूरी है कि फैसले होने चाहिए। सही या गलत का निर्णय समय करेगा। पंजाब के फैसले को लेकर पार्टी के भीतर और बाहर बहस शुरू हो गई है, पर ज्यादातर लोग मानते हैं कि राहुल और प्रियंका ने अपनी उपस्थिति को दिखाना शुरू किया है। एक तरह से यह जी-23 के नाम भी संदेश है।

लगता यह भी है कि पार्टी ने होमवर्क किए बगैर अमरिंदर को हटाने का फैसला कर लिया गया है। अन्यथा अबतक नए मुख्यमंत्री का नाम सामने आ जाता। तार्किक रूप से नवजोत सिद्धू को यह पद दिया जाना चाहिए।  

राजनीतिक दृष्टि

नेतृत्व की उपस्थिति साबित होने के अलावा देखना यह भी होगा कि इसके पीछे की राजनीतिक-दृष्टि क्या है और दूरगामी विचार क्या है। बताते हैं कि कांग्रेस के महामंत्री अजय माकन ने चंडीगढ़ में पार्टी के ऑब्ज़र्वर के रूप में जाने के पहले शुक्रवार की शाम को राहुल गांधी से भेंट की।

इसके बाद वे अभिषेक सिंघवी से भी मिले और यह जानकारी ली कि यदि अमरिंदर सिंह विधानसभा भंग करने की सिफारिश करें या केंद्रीय नेतृत्व का निर्देश मानने के बजाय इस्तीफा देने से इनकार कर दें, तब क्या होगा। उस समय तक 60 से ज्यादा विधायकों के हस्ताक्षरों से एक पत्र हाई कमान के पास आ चुका था। यानी पार्टी ने कानूनी व्यवस्थाएं भी कर ली थीं।

Saturday, September 18, 2021

अमरिंदर सिंह के इस्तीफे से खत्म नहीं होगा कांग्रेस का पंजाब-द्वंद्व



 अब यह करीब-करीब साफ है कि कैप्टन अमरिंदर सिंह के इस्तीफे के पीछे कांग्रेस हाईकमान की भूमिका है। नवजोत सिंह सिद्धू का इस्तेमाल किया गया है। कहा जा रहा है कि आलाकमान ने कैप्टन पर विधायकों के कहने पर दबाव बनाया, पर कांग्रेस पार्टी के भीतर विधायकों को जब हाईकमान की इच्छा समझ में आ जाती है, तब उनका व्यवहार उसी हिसाब से बदलता है। बहरहाल अब मुख्यमंत्री कौन बनेगा, यह बात महत्वपूर्ण नहीं है। देखना यह होगा कि पार्टी अब आगे की राजनीति का संचालन किस प्रकार करेगी।

अलबत्ता यह सवाल जरूर पूछा जाएगा कि हाईकमान को कैप्टेन से क्या शिकायत हो सकती है। एक बात कही जा रही है कि राज्य में सरकार के खिलाफ जबर्दस्त एंटी-इनकम्बैंसी है। इसलिए नए चेहरे के साथ चुनाव में जाना बेहतर होगा। ऐसी बात थी, तो इतने टेढ़े तरीके से बदलाव की जरूरत क्या थी? महीनों पहले हाईकमान को अमरिंदर को यह बात बता देनी चाहिए थी। अब विधानसभा चुनाव नए मुख्यमंत्री, नवजोत सिद्धू और गांधी परिवार के नेतृत्व में लड़ा जाएगा। श्रेय भी उन्हें मिलेगा। 

अमरिंदर सिंह का कहना है कि दो महीने में तीन-तीन बार विधायकों की बैठक बुलाने का मतलब क्या था? कल रात अचानक घोषणा हुई कि शनिवार की शाम पांच बजे विधायकों की बैठक होगी।

सूत्रों का कहना है कि 80 में से 50 से अधिक विधायकों ने सोनिया गांधी को पत्र लिखकर मांग की थी कि अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री के पद से हटाया जाए, जिसके कारण विधायकों की आपात बैठक बुलानी पड़ी। विचित्र बात है कि हाईकमान ने विधायकों से सवाल पूछने की कोशिश नहीं की और मुख्यमंत्री से भी बात नहीं की।

Saturday, August 28, 2021

उलझन में कांग्रेस


पंजाब, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के घटनाक्रम को देखने से निष्कर्ष कुछ निकाले जा सकते हैं। या तो कांग्रेस पार्टी में उच्च स्तर किसी प्रकार का भ्रम है, या नेतृत्व की पकड़ पार्टी पर कम होती जा रही है या फिर संगठन को मजबूत बनाने का कोई नया प्रयोग है, जिसे हम समझ नहीं पा रहे हैं। छत्तीसगढ़ में यह स्थिति उतनी चिंताजनक नहीं थी, जितनी पंजाब में हो गई थी। नवजोत सिंह खुलेआम किसकी ईंट से ईंट बजाने की धमकी दे रहे थे, यह समझ में नहीं आया। यह अजब राज्य है, जहाँ का पार्टी ध्यक्ष अपनी ही सरकार की बाजा बजाने पर तुला था और केंद्रीय नेतृत्व सो रहा था।

सिद्धू ने कहा कि अगर मुझे फैसले करने की आजादी नहीं दी गई तो मैं ईंट से ईंट बजा दूँगा। सिद्धू के इस बयान पर बवाल मचा तो पंजाब कांग्रेस के प्रभारी हरीश रावत ने कहा कि सभी लोग सभ्य हैं और उन्हें मालूम है कि उन्हें क्या करना है। सबके बोलने का तरीका होता है इसलिए विद्रोही नहीं कहा जा सकता। पर कहीं न कहीं बात गम्भीर है, इसलिए उन्होंने कल सोनिया गांधी से और आज राहुल गांधी मुलाकात करके उन्हें स्थिति से अवगत कराया। बाद में उन्होंने मीडिया से चर्चा में कहा कि मैंने राहुल गांधी को हालात से अवगत करा दिया है। यह बहुत ही संक्षिप्त बैठक थी। आज उनका व्यस्त शिड्यूल है।

रावत ने कहा कि मैं उत्तराखंड पर ज्यादा ध्यान देना चाहता हूं, लेकिन पंजाब पर जो पार्टी फैसला करेगी, मैं उसका पालन करूंगा। रावत ने गुरुवार को कहा था कि मैं चाहता हूँ कि उत्तराखंड के विधानसभा चुनाव पर पूरा ध्यान लगाने के लिए मुझे पंजाब प्रदेश कांग्रेस की जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया जाए। साथ में उन्होंने यह भी कहा कि पार्टी कहती है, पंजाब की जिम्मेदारी जारी रखें तो मैं इस जिम्मेदारी का निर्वहन करता रहूंगा। पंजाब और उत्तराखंड में अगले साल फरवरी-मार्च में विधानसभा चुनाव होने हैं। रावत के करीबियों का कहना है कि पंजाब कांग्रेस में विवाद को सुलझाने के प्रयास में उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री अपने राज्य में पूरा ध्यान नहीं दे पा रहे हैं, जबकि वह कांग्रेस की ओर से उत्तराखंड के सबसे बड़े चेहरे हैं।

पंजाब अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू की खींचतान के दायरे में मनीष तिवारी भी आ गए हैं। मनीष तिवारी ने ट्विटर हैंडल पर सिद्धू का वह वीडियो शेयर किया है, जिसमें वह कह रहे हैं कि अगर कांग्रेस हाईकमान उन्हें फैसले लेने की आजादी नहीं देती है तो फिर मैं ईंट से ईंट बजा दूँगा। इस वीडियो के कैप्शन में मनीष तिवारी ने लिखा- हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम, वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता।

 

 

Friday, August 20, 2021

सोनिया गांधी के साथ 18 विरोधी दलों के नेताओं का वर्चुअल-संवाद


कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने शुक्रवार की शाम को प्रमुख विपक्षी दलों के नेताओं के साथ वर्चुअल बैठक की। 19पार्टियों की इस बैठक में सोनिया ने कहा कि विपक्ष को वर्ष 2024 के आम चुनाव के लिए व्यवस्थित योजना बनानी होगी और दबावों/बाध्यताओं से ऊपर उठना होगा। सोनिया गांधी ने तमाम मतभेदों को भुलाकर मिलकर काम करने की जरूरत बताई। उन्होंने कहा कि इसके अलावा कोई विकल्प नहीं है। बैठक में कांग्रेस के अलावा 1.तृणमूल कांग्रेस, 2.एनसीपी, 3.डीएमके, 4.शिवसेना, 5.जेएमएम, 6.सीपीआई, 7.सीपीएम, 8.नेशनल कॉन्फ्रेंस, 9.आरजेडी,10.एआईयूडीएफ, 11.वीसीके, 12.लोकतांत्रिक जनता दल, 13.जेडीएस, 14.आरएलडी, 15.आरएसपी, 16.केरल कांग्रेस मनीला, 17.पीडीपी और 18आईयूएमएल के प्रतिनिधियों ने भाग लिया।

बैठक में कांग्रेस की ओर से पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह और राहुल गांधी भी शामिल थे। दूसरी पार्टियों के प्रमुख नेताओं में फारूक अब्दुल्ला, एमके स्टालिन, ममता बनर्जी, हेमंत सोरेन, उद्धव ठाकरे, शरद पवार, शरद यादव और सीताराम येचुरी शामिल थे। यह उपस्थिति काफी आकर्षक बताई जा रही है। इसे देखते हुए कहा जा सकता है कि विरोधी दलों के बीच एकजुटता है। खासतौर से ममता बनर्जी की उपस्थिति ने इसे स्पष्ट किया है।

संवाद में आम आदमी पार्टी, बसपा और सपा की उपस्थिति दिखाई नहीं पड़ी। बताते हैं कि आम आदमी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी को निमंत्रित नहीं किया गया था। समाजवादी पार्टी का भी कोई नेता मीटिंग से नहीं जुड़ा। अखिलेश यादव किसी कार्यक्रम में व्यस्त होने के कारण जुड़ नहीं पाए और उनकी अनुपस्थिति में कोई दूसरा नेता भी इस संवाद में शामिल नहीं हो पया। इस बैठक के पहले हाल में कपिल सिब्बल के घर में भी रात्रिभोज पर एक बैठक हुई थी। हालांकि आज की बैठक से उसका कोई टकराव नहीं था, पर चूंकि कपिल सिब्बल जी-23 में शामिल किए जाते हैं, इसलिए उस बैठक के निहितार्थ भी इस बैठक के साथ देखे जाएंगे।  

Tuesday, August 10, 2021

राहुल गांधी की अनुपस्थिति में कपिल सिब्बल के घर हुई बैठक के मायने


सोमवार 9 अगस्त को कपिल सिब्बल के घर पर विरोधी-नेताओं की बैठक चर्चा का विषय बन गई है। 15 पार्टियों के क़रीब 45 नेता रात्रिभोज के लिए कपिल सिब्बल के घर पर जमा हुए। इनमें कुछ सांसद भी थे। इसके एक दिन पहले ही कपिल सिब्बल का 73वाँ जन्मदिन मनाया गया था। माना जाता है कि सोनिया गांधी को लिखे गए 23 नेताओं के पत्र के पीछे कपिल सिब्बल प्रमुख प्रस्तावक थे। उन्हें उन नेताओं में शुमार किया जाता है जो राहुल गांधी के तौर-तरीकों से असहमत हैं। इस बैठक के बाद कांग्रेस पार्टी के भीतर सुगबुगाहट है कि इस तरह से बैठक बुलाना क्या सही था?

हर रंग के विरोधी

बैठक में शामिल नेताओं में लालू यादव, शरद पवार, अखिलेश यादव, पी चिदंबरम, डेरेक ओब्रायन, कल्याण बनर्जी, सीताराम येचुरी, डी राजा और संजय राउत, डीएमके के तिरुचि शिवा, जयंत चौधरी, उमर अब्दुल्ला शामिल थे। इनके अलावा बीजेडी के पिनाकी मिश्रा, अकाली दल के नरेश गुजराल, और आम आदमी पार्टी के संजय सिंह भी शामिल हुए। टीडीपी, टीआरएस और वाईएसआर कांग्रेस और आरएलडी के नेता भी इनमें थे। इनमें वे पार्टियां शामिल हैं, जो अमूमन विरोधी-दलों बैठकों बुलाई नहीं जातीं या फिर आती नहीं हैं। हाल में राहुल गांधी ने नाश्ते पर बुलाया था तो आम आदमी पार्टी शामिल नहीं हुई थी और बीजेडी, टीडीपी, टीआरएस और वाईएसआर कांग्रेस को बुलाया नहीं गया था।

राहुल गांधी सोमवार को ही दो दिवसीय दौरे पर कश्मीर गए हैं और इस बीच ये डिनर हुआ है। इतने महत्वपूर्ण नेताओं की बैठक में उनकी अनुपस्थिति अटपटी लगती है। इस डिनर में कांग्रेस के जी-23 के कुछ सदस्य भी शामिल हुए, जिनमें गुलाम नबी आज़ाद, भूपेन्द्र सिंह हुड्डा, आनंद शर्मा, मनीष तिवारी, शशि थरूर, मुकुल वासनिक, पृथ्वीराज चह्वाण और संदीप दीक्षित के नाम प्रमुख हैं। पी चिदंबरम भी मौजूद थे, हालांकि उनकी गिनती जी-23 में नहीं होती।

Wednesday, August 4, 2021

कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष

नाश्ते की बैठक में एकत्र राजनेता

पिछले एक पखवाड़े से कांग्रेस और विरोधी दलों के बीच की गतिविधियों के परिणाम सामने आने लगे हैं। कम से कम ऐसा लगता है कि ममता बनर्जी की दिलचस्पी अलग से विरोधी-मोर्चा खोलने की नहीं है और कांग्रेस पार्टी इसमें सबसे आगे रहेगी। गत 3 अगस्त को विरोधी दलों के सांसदों के साथ नाश्ता करने के साथ ही साइकिल मार्च निकाल कर इस विरोधी-एकता का प्रत्यक्ष-प्रदर्शन भी हो गया है। राहुल के साथ नाश्ते पर जिन पार्टियों के नेता पहुंचे, वे ज्यादातर वही हैं, जिनके साथ किसी न किसी रूप में अलग-अलग राज्यों में कांग्रेस का गठबंधन या तालमेल रहा है। इनमें तृणमूल कांग्रेस का नाम अब जुड़ा है, जो हाल में ममता बनर्जी और सोनिया गांधी की मुलाकात का परिणाम लगता है। बहरहाल संसद के भीतर और बाहर विरोधी-दलों की एकता नजर आने लगी है। हालांकि यह एकता 2024 के चुनाव का प्रस्थान-बिंदु है, पर इसके राजनीतिक-निहितार्थ का पता उसके पहले उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, गोवा और गुजरात जैसे राज्यों के चुनावों में लगेगा। 

इस मौके पर बैठक को संबोधित करते हुए राहुल गांधी ने कहा कि विरोधी दल देश की 60 फीसदी आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं, लेकिन सरकार इस तरह व्यवहार कर रही है जैसे वे किसी का प्रतिनिधित्व ही नहीं करते हैं। जब सरकार हमें संसद में चुप करा देती है, तो वह सिर्फ सांसदों को ही अपमानित नहीं करती, बल्कि भारत के बहुसंख्यक लोगों की आवाज की भी अनसुनी करती है।

उन्होंने विपक्षी नेताओं से कहा, आपको आमंत्रित करने का एकमात्र उद्देश्य यह है कि हम इस ताकत को एकजुट करें। जब सभी आवाजें एकजुट और मजबूत हो जाएगी तो बीजेपी और आरएसएस के लिए इस आवाज को दबाना बहुत मुश्किल हो जाएगा। हम इस एकजुटता के आधार को याद करना चाहिए और यह महत्वपूर्ण है कि अब हम इस एकता के आधार के सिद्धांत के साथ आना शुरू कर रहे हैं।

नाश्ते पर चर्चा के बाद राहुल गांधी साइकिल चलाते हुए संसद पहुंचे। उन्होंने साइकिल पर एक तख्ती लगा रखी थी जिस पर रसोई गैस के सिलेंडर की तस्वीर थी और इसकी कीमत 834 रुपये लिखी हुई थी। बैठक में राहुल गांधी ने महंगाई के विरोध में संसद तक साइकिल मार्च का सुझाव दिया था। उनके साथ कांग्रेस के वरिष्ठ नेता केसी वेणुगोपाल, अधीर रंजन चौधरी, गौरव गोगोई, सैयद नासिर हुसैन, आरजेडी के मनोज झा, तृणमूल कांग्रेस के कल्याण बनर्जी और कुछ अन्य सांसद भी साइकिल चलाकर संसद पहुंचे।

नाश्ते पर आए नेताओं में कांग्रेस और तृणमूल के अलावा एनसीपी, शिवसेना, आरजेडी,डीएमके, सीपीएम, सीपीआई, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग,आरएसपी, केरल कांग्रेस (एम), जेएमएम, समाजवादी पार्टी, नेशनल कांफ्रेंस और लोकतांत्रिक जनता दल (एलजेडी) शामिल हैं। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश में गठबंधन का संकेत दे चुके हैं। कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस के साथ गुपकार गठबंधन में भी कांग्रेस हाथ मिला चुकी है। बाकी दल भी किसी न किसी रूप में पार्टी के सहयोगी ही रहे हैं।

Sunday, August 1, 2021

विरोधी-एकता का गुब्बारा


विरोधी-एकता का गुब्बारा फिर से फूल रहा है। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की सफलता इसका प्रस्थान बिंदु है और ममता बनर्जी, शरद पवार और राहुल गांधी की महत्वाकांक्षाएं बुनियाद में। तीनों को जोड़ रहे हैं प्रशांत किशोर। कांग्रेस पार्टी भी प्रशांत किशोर की सलाह पर नई रणनीति बना रही है। ममता बनर्जी एक्शन पर जोर देती हैं। उनके पास बंगाल में वाममोर्चे को उखाड़ फेंकने का अनुभव है। क्या वह रणनीति पूरे देश में सफल होगी? सवाल है कि रणनीति के केंद्र में कौन है और परिधि में कौन? कौन है इसका सूत्रधार?

मोदी को हटाना है?

विरोधी-एकता का राजनीतिक एजेंडा क्या है? मोदी को हटाना? कांग्रेस नेता वीरप्पा मोइली ने कहा है कि केवल मोदी-विरोधी एजेंडा कारगर नहीं होगा। व्यक्ति विशेष का विरोध किसी भी राजनीतिक मोर्चे को आगे लेकर नहीं जाएगा। एक जमाने में विरोधी-दलों ने इंदिरा गांधी के खिलाफ यही किया था। वे कामयाब नहीं हुए। मोइली का कहना है कि हमें साझा न्यूनतम कार्यक्रम बनाना होगा। हम चर्चा यह कर रहे हैं कि कौन इसका नेता बनेगा, किस राजनीतिक पार्टी को इसकी अगुवाई करनी चाहिए तो, यह कामयाब नहीं होगा।

मोदी की सफलता व्यक्ति-केंद्रित है या विचार-केंद्रित? कांग्रेस, ममता और शरद पवार का राजनीतिक-नैरेटिव क्या है? व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं या सामूहिक चेतना? बात केवल विरोधी-एकता की नहीं है। यह कितने बड़े आधार वाली एकता होगी? इसमें बीजू जनता दल, तेलंगाना राष्ट्र समिति, जेडीएस, बसपा, वाईएसआर कांग्रेस, तेलुगु देशम पार्टी, अकाली दल और इनके अलावा तमाम छोटे-बड़े दल दिखाई नहीं पड़ रहे हैं। क्या वे इसमें शामिल होंगे? जैसे ही आधार व्यापक होगा, क्या आपसी मसले खड़े नहीं होंगे?

अगले कुछ महीनों में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में विधानसभा चुनाव होने हैं। उसके बाद गुजरात के चुनाव होंगे। क्या यह विरोधी-एकता इन चुनावों में दिखाई पड़ेगी? यह बहुत मुश्किल सवाल है। केवल मुखिया के नाम का झगड़ा नहीं है। सत्ता-प्राप्ति की मनोकामना केवल राजनीतिक-आदर्श नहीं है, बल्कि आर्थिक-आधार बनाने की कामना है।

नेता ममता बनर्जी?

दिल्ली आकर ममता बनर्जी ने घोषणा की कि अब कोई इस राजनीतिक तूफान को रोक नहीं पाएगा। जब उनसे पूछा गया कि इस तूफान का नेतृत्व कौन करेगा, तो उनका जवाब था, मैं कोई ज्योतिषी नहीं हूँ। कांग्रेस और तृणमूल दोनों की तरफ से कहा जा रहा है कि नेतृत्व का मसला महत्वपूर्ण नहीं है, पर यह समझ में आने वाली बात नहीं है। ममता बनर्जी और शरद पवार कांग्रेस से ही टूटकर बाहर गए थे। क्यों गए?

पिछले बुधवार को राहुल गांधी ने संसद में विपक्षी नेताओं की बैठक बुलाकर पहल की। बैठक में कांग्रेस, शिवसेना, एनसीपी, समाजवादी पार्टी, आरजेडी, आम आदमी पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और नेशनल कॉन्फ्रेंस ने भाग लिया, पर तृणमूल के नेता नहीं थे। जब राहुल पैदल मार्च कर रहे थे, लगभग उसी समय, ममता बनर्जी ने अपने सांसदों की बैठक बुलाई थी।

तृणमूल-सांसद कल्याण बनर्जी ने बाद में कहा कि मोदी के खिलाफ विपक्ष का नेतृत्व सिर्फ ममता बनर्जी ही कर सकती हैं। उन्होंने कहा, मोदी का कोई विकल्प है तो वह ममता बनर्जी हैं, क्योंकि ‘वह लीडर नंबर वन’ हैं। ममता बनर्जी की रणनीति में विसंगतियाँ हैं। नरेंद्र मोदी की तरह उन्होंने खुद को राष्ट्रीय नेता बनाने का प्रयास नहीं किया। उनकी पार्टी ने विधानसभा चुनाव के दौरान बांग्ला उप-राष्ट्रवाद का जमकर इस्तेमाल किया। उनके कार्यकर्ताओं ने हिंदी और हिंदी-क्षेत्र को लेकर जो बातें कही थीं, वे बाधा बनेंगी।

Friday, July 30, 2021

संसद में शोर और विरोधी-एकता के जुड़ते तार


संसद में पेगासस-विवाद के सहारे विरोधी दलों की एकता के तार जुड़ तो रहे हैं, पर साथ ही उसके अंतर्विरोध भी सामने आ रहे हैं। इसे संसद के भीतर और बाहर की गतिविधियों में देखा जा सकता है। पेगासस मामले को लेकर संसद के दोनों सदनों में विरोधी दलों ने कार्य-स्थगन प्रस्ताव के नोटिस दिए हैं। राज्यसभा के सभापति ने इन प्रस्तावों को स्वीकार नहीं किया है। लोकसभा में राहुल गांधी ने 14 विरोधी दलों की ओर से जो नोटिस दिया है, अभी उसपर अध्यक्ष के फैसले की सूचना नहीं है।

अभी तक सरकार इस विषय पर चर्चा के लिए तैयार नहीं है। सरकार का कहना है कि विपक्ष ठोस सबूत पेश करे। अफवाहों की जांच कैसे होगी? सम्भव है कि वह कार्य-स्थगन प्रस्ताव पर चर्चा के लिए तैयार हो जाए, पर उसकी दिलचस्पी विरोधी-एकता के छिद्रों और उनकी गैर-जिम्मेदारी को उजागर करने में ज्यादा होगी। क्या वास्तव में यह इतना बड़ा मामला है, जितना बड़ा कांग्रेस पार्टी मानकर चल रही है? क्या इससे आने वाले समय के चुनावों पर असर डाला जा सकेगा? संसद में विरोधी-दलों की शोरगुल और हंगामे की नीति भी समझ में नहीं आती है। खासतौर से राज्यसभा में सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री के हाथ से कागज लेकर फाड़ना।

पिछले 11 दिन में लोकसभा में केवल 11 फीसदी काम हुआ है और राज्यसभा में करीब 21 फीसदी। सरकार ने लोकसभा में अपने दो विधेयक इस दौरान पास करा लिए, जिनपर चर्चा नहीं हुई। लगता है कि यह शोरगुल चलता रहेगा। यानी सरकार अपने विधेयक पास कराती रहेगी और महत्वपूर्ण प्रश्नों पर चर्चा नहीं होगी, केवल नारे लगेंगे और तख्तियाँ दिखाई जाएंगी। इस बीच सम्भव है कि लोकसभा में कुछ सदस्यों के खिलाफ कार्रवाई हो। राज्यसभा में ऐसा हो चुका है। क्या विरोधी दल यही चाहते हैं?

पेगासस मामले पर विरोधी दलों की रणनीति बिखरी हुई है। एक पक्ष सदन के अंदर बहस चाहता है, दूसरा चाहता है कि संयुक्त संसदीय समिति जांच करे, और तीसरा सुप्रीम कोर्ट के जज की निगरानी में जांच चाहता है। संसद के बाहर विरोधी एकता कायम करने के प्रयास दो या तीन छोरों पर हो रहे हैं। एक प्रयास हाल में शरद पवार ने शुरू किया है, दूसरे की पहल ममता बनर्जी ने की है। उनका दिल्ली-दौरा इस लिहाज से महत्वपूर्ण है।

बुधवार को राहुल गांधी ने संसद में विपक्षी नेताओं की बैठक बुलाकर पहल की कोशिश की। इस बैठक में कांग्रेस, शिवसेना, एनसीपी, समाजवादी पार्टी, आरजेडी, आम आदमी पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और नेशनल कॉन्फ्रेंस ने भाग लिया, पर तृणमूल कांग्रेस के नेता शामिल नहीं हुए। विरोधी सांसद संसद से विजय चौक तक पैदल गए और फिर मीडिया को संबोधित किया।

इस मार्च का नेतृत्व प्रत्यक्षतः राहुल गांधी ने किया। उनके साथ संजय राउत, सुप्रिया सुले, रामगोपाल यादव और द्रमुक तथा राजद के प्रतिनिधि थे। कांग्रेस के साथ चलने वाले इस दस्ते में कोई नया सदस्य नहीं है। बहरहाल जब राहुल पैदल मार्च कर रहे थे, लगभग उसी समय, ममता बनर्जी ने अपने सांसदों की बैठक बुलाई थी। उनकी पार्टी के सांसद कल्याण बनर्जी ने बाद में कहा कि मोदी के खिलाफ विपक्ष का नेतृत्व सिर्फ ममता बनर्जी ही कर सकती हैं। उन्होंने कहा, मोदी का कोई विकल्प है तो वह ममता बनर्जी हैं, क्योंकि ‘वह लीडर नंबर वन’ हैं। ममता बनर्जी की इस रणनीति में विसंगतियाँ हैं। पश्चिम बंगाल में उनकी पार्टी ने पिछले चुनाव के दौरान बांग्ला उप-राष्ट्रवाद का जमकर इस्तेमाल किया। उनके कार्यकर्ताओं ने हिंदी भाषा और हिंदी-क्षेत्र को लेकर जो बातें कही थीं, वे उन्हें राष्ट्रीय नेता बनने से रोकेंगी।

बहरहाल ममता बनर्जी ने राहुल गांधी और सोनिया गांधी से मुलाकात भी की। उन्होंने मुलाकात करने के बाद पत्रकारों से कहा, सभी विपक्षी दलों को हाथ मिलाना होगा और मिलकर काम करना होगा। ममता बनर्जी की योजना में कांग्रेस समेत वे सभी पार्टियाँ शामिल हैं, जो किसी न किसी रूप में बीजेपी-विरोधी हैं। इसके पहले सोनिया गांधी कह चुकी हैं कि नेतृत्व का सवाल एकता के आड़े नहीं आएगा। फिर भी सवाल है कि कांग्रेस इस एकता के केंद्र में होगी या परिधि में?