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Friday, May 16, 2014

अपने तबेले को कैसे सम्हालेंगे मोदी?

आज सुबह के इंडियन एक्सप्रेस का शीर्षक है 'Headline awaited' यानी शीर्षक का इंतज़ार है। अब से कुछ घंटे बाद परिणाम आने लगेंगे। कहना मुश्किल है कि देश को कोई शीर्षक मिलेगा या नहीं। लगता है कि कांग्रेस का शीर्षक लिखा जा चुका है। अब उसकी दिलचस्पी मोदी को रोकने में है। दूसरी ओर भाजपा यानी मोदी हारें या जीतें उनकी समस्याएं बढ़ने वाली हैं। हारने का मतलब समस्याओं का पहाड़ है तो जीतने का मतलब है परेशानियों का महासागर। जीते तो उनके खिलाफ कांग्रेस वही काम शुरू करेगी जो अबतक वे कांग्रेस के साथ कर रहे थे। उनकी अपनी पार्टी के खुर्राट भी उनका काम लगाएंगे। बीच में लटके तो दीदियों और दादाओं की मनुहार में सारा वक्त खर्च होगा। बहुत कठिन है डगर पनघट की।


कल के भास्कर की खबर


स्मृति हारीं तब भी जीतेंगी
                                       


                                         पहली बारी गवर्नरोंं की 



भाजपा का नया कोर ग्रुप

Thursday, May 15, 2014

कांग्रेस क्या आत्मघाती पार्टी है?

हिंदू में केशव का कार्टून
मनमोहन सिंह को दिए गए रात्रिभोज में राहुल गांधी नहीं आए। रात में टाइम्स नाउ ने सबसे पहले इस बात को उठाया। चैनल की संवाददाता ने वहाँ उपस्थित कांग्रेस नेताओं से बात की तो किसी को कुछ पता नहीं था। सुबह के अखबारों से पता लगा कि शायद वे बाहर हैं। अलबत्ता रात में यह बात पता लगी थी कि कपिल सिब्बल का भी विदेश का दौरा था, पर उनसे कहा गया था कि वे किसी तरह से इस भोज में शामिल हों। भोज में शामिल होना या न होना इतना महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह बात है कि राहुल का अपने साथियों के साथ संवाद का स्तर क्या है।


दो दिन से कांग्रेस के नेता यह साबित करने में लगे हैं कि कांग्रेस राहुल गांधी की वजह से नहीं हारी। यह सामूहिक हार है। कमल नाथ बोले कि राहुल सरकार में नहीं थे। सरकार अपनी उपलब्धियो को जनता तक नहीं ले जा सकी। उनसे पूछा जाए कि जीत होती तो क्या होता? सन 2009  की जीत का श्रेय राहुल को दिया गया था। भला क्यों?

आज टाइम्स ऑफ इंडिया में स्वामीनाथन अंकलेसरैया अय्यर का लम्बा लेख मनमोहन सिंह की उपलबधियों के बारे में प्रकाशित हुआ है। समय बताएगा कि उनकी उपलब्धियाँ क्या थीं, पंर कांग्रेस उनका जिक्र क्यों नहीं करती?

इन्हें भी पढ़ें

ओपीनियन पोल संज़ीदा काम है कॉमेडी शो नहीं

एक होता है ओपीनियन पोल और दूसरा एक्ज़िट पोल। तीसरा रूप और है पोस्ट पोल सर्वे का, जिसे लेकर हम ज़्यादा विचार नहीं करते। क्योंकि उसका असर चुनाव परिणाम पर नहीं होता। यहीं पर इन सर्वेक्षणों की ज़रूरत और उनके दुरुपयोग की बात पर रोशनी पड़ती है। इनका काम जनता की राय को सामने लाना है। पर हमारी राजनीतिक ताकतें इनका इस्तेमाल प्रचार तक सीमित मानती हैं। इनका दुरुपयोग भी होता है। अक्सर वे गलत भी साबित होते हैं। हाल में कुछ स्टिंग ऑपरेशनों से पता लगा कि पैसा लेकर सर्वे परिणाम बदले भी जा सकते हैं।

जनता की राय को सामने लाने वाली मशीनरी की साख का मिट्टी में मिलते जाना खतरनाक है। इन सर्वेक्षणों की साख के साथ मीडिया की साख जुड़ी है। पर कुछ लोग इन सर्वेक्षणों पर पाबंदी लगाने की माँग करते हैं। वह भी इस मर्ज की दवा नहीं है। हमने लोकमत के महत्व को समझा नहीं है। लोकतंत्र में बात केवल वोटर की राय तक सीमित नहीं होती। यह मसला पूरी व्यवस्था में नागरिक की भागीदारी से जुड़ा है। जनता के सवाल कौन से हैं, वह क्या चाहती है, अपने प्रतिनिधियों से क्या अपेक्षा रखती है जैसी बातें महत्वपूर्ण हैं। ये बातें केवल चुनाव तक सीमित नहीं हैं।

हमने ज़रूरी सावधानियाँ नहीं बरतीं

लोकतांत्रिक जीवन में तमाम सवालों पर लगातार लोकमत को उभारने की ज़रूरत होती है। यह जागृत-लोकतंत्र की बुनियादी शर्त है। अमेरिका का प्यू रिसर्च सेंटर इस काम को बखूबी करता है और उसकी साख है। हमारा लोकतंत्र पश्चिमी मॉडल पर ढला है। ओपीनियन पोल की अवधारणा भी हमने वहीं से ली, पर उसे अपने यहाँ लागू करते वक्त ज़रूरी सावधानियाँ नहीं बरतीं। हमारे यहाँ सारा ध्यान सीटों की संख्या बताने तक सीमित है। वोटर को भेड़-बकरी से ज्यादा नहीं मानते। इसलिए पहली जरूरत है कि ओपीनियन पोलों को परिष्कृत तरीके से तैयार किया जाए और उनकी साख को सूरज जैसी ऊँचाई तक पहुँचाया जाए।

जब मुँह के बल गिरा अनुमान

भारत में सबसे पहले साठ के दशक में सेंटर फॉर द स्टडीज़ ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज़ ने सेफोलॉजी या सर्वेक्षण विज्ञान का अध्ययन शुरू किया। नब्बे के दशक में कुछ पत्रिकाओं और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने चुनाव सर्वेक्षणों को आगे बढ़ाया। कुछ सर्वेक्षण सही भी साबित हुए हैं। पर पक्के तौर पर नहीं। मसलन सन 1998 और 1999 के लोकसभा चुनाव के सर्वेक्षण काफी हद तक सही थे, तो 2004 और 2009 के काफी हद तक गलत। सन 2007 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में मायावती की बसपा की भारी जीत और 2012 में मुलायम सिंह की सपा को मिली विश्वसनीय सफलता का अनुमान किसी को नहीं था। इसी तरह पिछले साल हुए उत्तर भारत की चार विधानसभाओं के परिणाम सर्वेक्षणों के अनुमानों से हटकर थे। मसलन दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सफलता का अनुमान केवल एक सर्वेक्षण में लगाया जा सका। राजस्थान और मध्य प्रदेश में कांग्रेस का इस बुरी तरह सूपड़ा साफ होने की भविष्यवाणी किसी ने नही की थी।

सामाजिक संरचना भी जिम्मेदार

सर्वेक्षण चुनाव की दिशा बताते हैं, सही संख्या नहीं बता पाते। इसका एक बड़ा कारण हमारी सामाजिक संरचना है। पश्चिम में समाज की इतनी सतहें नहीं होतीं, जितनी हमारे समाज में हैं। आय, धर्म, लिंग, उम्र और इलाके के अलावा जातीय संरचना चुनाव परिणाम को प्रभावित करती है। हमारे ज्यादातर सर्वेक्षण बहुत छोटे सैम्पल के सहारे होते हैं। पिछले साल दिल्ली विधान सभा की 70 सीटों के लिए एचटी-सीफोर सर्वेक्षण का दावा था कि 14,689 वोटरों को सर्वेक्षण में शामिल किया गया। यानी औसतन हर क्षेत्र में तक़रीबन 200 वोटर। जिस विधानसभा क्षेत्र में वोटरों की संख्या डेढ़ से दो लाख है (क्षमा करें मेरी गलती से अखबार में यह संख्या करोड़ छपी है), उनमें से 200 से राय लेकर किस प्रकार सही निष्कर्ष निकाला जा सकता है? दिल्ली विधानसभा चुनाव में आपने अपना सर्वे भी कराया। उसका दावा था कि उसने 35,000 वोटरों का सर्वे कराया। यानी औसतन 500 वोटर। सीवोटर ने उत्तर भारत की चार विधान सभाओं की 590 सीटों के लिए 39,000 वोटरों के सर्वे का दावा किया है। यानी हर सीट पर 60 से 70 वोटर।


अटकलबाज़ी को सर्वेक्षण कहना गलत

आप कल्पना करें कि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के सुदूर और विविध जन-संस्कृतियों वाले इलाक़ों से कोई राय किस तरह निकल कर आई होगी। ऊपर बताए सैम्पल भी दावे हैं। जरूरी नहीं कि वे सही हों। इस बात की जाँच कौन करता है कि कितना बड़ा सैम्पल लिया गया। वे अपनी अधयन पद्धति भी नहीं बताते। केवल सैम्पल से ही काम पूरा नहीं होता सर्वेक्षकों की समझदारी और वोटर से पूछे गए सवाल भी महत्वपूर्ण होते हैं। जनमत संग्रह का बिजनेस मॉडल इतना अच्छा नहीं है कि अच्छे प्रशिक्षित सर्वेक्षक यह काम करें। पूरा डेटा सही भी हो तब भी उससे सीटों की संख्या किस प्रकार हासिल की जाती है, इसे नहीं बताते। जल्दबाज़ी में फैसले किए जाते हैं। यह शिकायत आम है कि डेटा में जमकर हेर-फेर होती है। बेशक कुछ लोगों से बात करके चुनाव की दशा-दिशा का अनुमान लगाया जा सकता है। वह अनुमान सही भी हो सकता है, पर अटकलबाज़ी को वैज्ञानिक सर्वेक्षण कहना गलत है। चैनलों के अधकचरे एंकर ब्रह्मा की तरह भविष्यवाणी करते वक्त कॉमेडियन जैसे लगते हैं। सर्वेक्षण जरूरी हैं, पर उन्हें कॉमेडी शो बनने से रोकना होगा। 

Wednesday, May 14, 2014

13 मई 2004 से 13 मई 2014...

हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून

एक्ज़िट पोल के परिणामों पर कांग्रेस को औपचारिक रूप से भरोसा हो या न हो, पर व्यावहारिक रूप से दिल्ली के गलियारों में सत्ता परिवर्तन की हवाएं चलने लगी हैं। कल 13 मई को श्रीमती सोनिया गांधी 10 जनपथ के पिछले दरवाजे से निकलकर राष्ट्रपति भवन गईं। यह एक औपचारिक मुलाकात थी। आज मनमोहन सिंह का विदाई भोज है। उधर भाजपा के खेमे में भी सरगर्मी है। दिल्ली में सरकार की शक्ल क्या होगी?  पर इससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी वगैरह का क्या होगा? खबर थी कि आडवाणी जी एनडीए संसदीय दल के अध्यक्ष बनाए जा सकते हैं। पर आज के टेलीग्राफ में राधिका रमाशेषन की खबर है कि मोदी ने साफ कर दिया है कि यदि मैं प्रधानमंत्री बना तो सत्ता के दो केंद्र नहीं होंगे। सही बात है। यह चुनाव नरेंद्र मोदी जीतकर आ रहे हैं। कहना मुश्किल है कि आडवाणी के नेतृत्व में भाजपा की स्थिति क्या होती, पर आज यह विचार का विषय ही नहीं है। 

भारत के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर तरस आता है। नीचे से ऊपर तक सबका दिमाग शून्य है। दिल्ली में चल रही गतिविधियों पर उनकी नज़र ही नहीं है। सुबह से शाम तक एक्ज़िट पोल का तसकिरा लेकर बैठे हैं।  सारी खबरें अखबारों से मिल रहीं हैं। इन संकीर्तनोंं के विशेषज्ञों की समझ पर हँसी आती है। विनोद मेहता, अजय बोस, दिलीप पडगाँवकर, आरती जैरथ, सबा नकवी, सुनील अलग और पवन वर्मा वगैरह-वगैरह किन बातों पर बहस कर रहे हैं? 

दिल्ली के कुछ अखबारों ने मनीष तिवारी के हवाले से खबर दी है कि सूचना मंत्रालय की ज़रूरत ही नहीं है। आज क हिंदू में खबर है कि एनडीए सरकार मंत्रालयों में भारी फेर-बदल करेगी। आज के अमर उजाला के अनुसार नौकरशाही के महत्वपूर्ण पदों के लिए खींचतान शूरू हो गई है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पोलों के पोल के पीछे पड़ा है। 

टेलीग्राफ की ध्यान देने वाली दो खबरें


हिंदू का ग्रैफिक

अमर उजाला


Tuesday, May 13, 2014

भाजपा या कांग्रेस के खोल से बाहर आइए


हिंदू में कशव का कार्टून
मंजुल का कार्टून
एक्जिट पोल अंतिम सत्य नहीं है। यों भी भारत में एक्ज़िट पोलों की विश्वसनीयता संदिग्ध है। पर क्या हमें कांग्रेस की हार नज़र नहीं आती? बेहतर है चार रोज़ और इंतज़ार करें। परिणाम जो भी हों उनसे सहमति और असहमति की गुंजाइश हमेशा रहेगी। पर एक सामान्य नागरिक को कांग्रेसी या भाजपाई खोल में रहने के बजाय नागरिक के रूप में खुद को देखना चाहिए और राज-व्यवस्था के संचालन में भागीदार बनना चाहए।सामान्य वोटर का फर्ज है वोट देना। अब जो भी सरकार बनेगी वह पूरे देश की और आपकी होगी, भले ही आपने उसके खिलाफ वोट दिया हो।

Saturday, April 19, 2014

आप और आईपीएल


हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून
आज के अखबारों में दो लेखों ने मेरा ध्यान खींचा है। इनमें पहला है अमित बरुआ का जिन्होंने आम आदमी पार्टी की सम्भावनाओं पर लिखा है। लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी कितनी सफल होगी इसपर इस किस्म की राजनीति का भविष्य निर्भर करेगा। अमित बरुआ मूलतः आप के पक्ष में हैं और उसे कांग्रेस, भाजपा की राजनीति के विकल्प के रूप में देखते हैं।  पर उनका कहना है कि इस चुनाव के बाद ही इस राजनीति की दशा-दिशा साफ होगी। उनके लेख का अंत इस प्रकार हैः-

While the Lok Sabha poll will definitely test AAP’s mettle, many pundits believe that the party has spread itself too thin and expanded much too quickly for its own good.
These pundits are of the view that the party might have had a better chance had it concentrated on fewer seats, but the die has been cast.
The people, however, will have the final say. And they have had a history of proving the pundits wrong.
पूरा लेख पढ़ें यहाँ 

आज हिंदुस्तान में प्रकाशित राम गुहा का आईपीएल क्रिकेट पर लेख पठनीय है। खेल की सामाजिक भूमिका को समझने के लिहाज से यह अच्छा लेख है।

चुनाव से जुड़े ओपीनियन पोल की बारीकियों पर ईपी़ब्ल्यू में प्रकाशित यह लेख अच्छा है। दिलचस्पी हो तो पढ़ें
http://www.epw.in/election-specials/status-opinion-polls.html

Friday, April 18, 2014

देवी का स्वागत

कोलकाता के दैनिक टेलीग्राफ ने आज पहले सफे पर एक रोचक तस्वीर छापी है, जिसमें जयललिता के हैलिकॉप्टर का इंतज़ार करते उनके समर्थक नज़र आ रहे हैं। सबसे आगे हैं उनकी सरकार के मंत्री। रोचक है वह विवरण जो तस्वीर के साथ दिया गया है। लोग हैलिकॉप्टर के जमीन पर उतरते ही साष्टांग दंडवत करते हैं। अपने नेता को लगभग भगवान की तरह पूजने वाला समाज आधुनिक लोकतंत्र को किस प्रकार अपने जीवन में उतारतो होगा, यह बात आसानी से समझ में आती है।

एक रोचक खबर आज के अमर उजाला में गढ़वाल के उस गाँव के बारे में है जहाँ लोकसभा के पन्द्रह चुनावों में कभी कोई प्रत्याशी वोट माँगने नहीं आया। इस गाँव तक पहुँचना काफी मुश्किल काम है। 

Wednesday, February 19, 2014

नफे-नुकसान की राजनीति

मंजुल का कार्टून
हिंदू में केशव

तेलंगाना बिल का पास होना और राजीव हत्याकांड के अभियुक्तों को मृत्युदंड से मुक्ति। आज के अखबारों की दो सुर्खियाँ हैं। तेलंगाना विधेयक के पास होने के तरीके और खासतौर से लोकसभा चैनल का प्रसारण रोके जाने की घटना को देशभर ने गौर से देखा है। सरकार इसकी सफाई देने में ही फँस गई है। बेहद नासमझी के इस फैसले का लब्बो-लुबाव यह है कि पारदर्शिता की राह में तमाम अड़ंगे अभी कायम हैं।

कोलकाता के अखबार टेलीग्राफ का आज का शीर्षक है

Monday, February 17, 2014

धोनी की टीम का केजरीवाल से गठजोड़ है क्या?

मंजुल का कार्टून
हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून


सतीश आचार्य का कार्टून
न्यूजीलैंड में खेल रही भारतीय क्रिकेट टीम ने आम आदमी पार्टी के साथ कोई समझौता कर लिया है। हर रोज और तकरीबन हर वक्त और तकरीबन हर चैनल पर एक ही बात है। बहरहाल बीस सीटों पर अपने प्रत्याशी घोषित करके पार्टी ने चुनाव के पत्ते खोलने शुरू कर दिए हैं। बजट के दिन भी बजट पर कोई चर्चा नहीं।  तेलंगाना बिल पर भी नहीं। आज के जागरण ने शेखर गुप्ता के लेख का संक्षिप्त अनुवाद छापा है। उसे पढ़कर लगता है कि भारतीय राजनीति और कॉरपोरेट हाउसों के बीच गड़बड़ घोटाला तो है। आप वाले भी इसमें शामिल होंगे या नहीं कहना मुश्किल है। 
नवभारत टाइम्स


Sunday, February 16, 2014

अब शुरू होगा झाड़ू चलाओ, बेईमान भगाओ अभियान

मंजुल का कार्टून

v  दिल्ली में विधानसभा भंग न करके उसे निलंबित रखने का केवल एक मतलब है कि भविष्य में भाजपा की सरकार बन सकती है। भाजपा अभी सरकार बनाना नहीं चाहती, क्योंकि उससे लोकसभा चुनाव में उसकी छवि खराब होगी। पर कांग्रेस की केंद्र सरकार भी लोकसभा चुनाव के साथ दिल्ली विधानसभा चुनाव नहीं चाहती। केजरीवाल की राजनीति का अगला चरण क्या होगा, अब यह मीडिया की ुत्सुकता का विषय है। ज्यादातर अखबारों में खबर है कि केजरीवाल अब हरियाणा से अपना चुनाव अभियान शुरू करने वाले हैं। फिलहाल इस कयास को विराम लगा है कि दिल्ली विधानसभा के चुनाव भी लोकसभा चुनाव के साथ होंगे। 
 नवभारत टाइम्स


Saturday, February 15, 2014

केजरीवाल हिट विकेट @49

मंजुल का कार्टून

हिंदू में सुरेंद्र

इंडियन एक्सप्रेस में उन्नी

केजरीवाल के इस्तीफे को मीडिया ने अलग-अलग अर्थ में लिया है। जागरण में आज का शीर्षक है 'सत्ता छोड़ भागे केजरी', नवभारत टाइम्स के पहले पेज की सुर्खी है 'केजरी का ब्रेकअप डे' भीतर के पेज पर खबर है 'AK का परफेक्ट एक्ज़िट प्लान', भास्कर की लीड है 'आप जैसे आए वैसे ही गए', राष्ट्रीय सहारा की लीड है 'जनलोकपाल पर सरकार 'कुर्बान', हिन्दुस्तान की लीड है 'केजरीवाल ने मैदान छोड़ा', टाइम्स ऑफ इंडिया का शीर्षक है 'DAYS FOR KEJRIFALL', कोलकाता के टेलीग्राफ की लीड है 'KEJRI QUITS' केजरी और क्विट्स के बीच एक मफलर है, इंडियन एक्सप्रेस की लीड है 'Arvind Kejriwal’s second act begins'। इन सभी शीर्षकों से ज़ाहिर है कि किसी को विस्मय नहीं हुआ। केजरीवाल के चक्कर में आज के अखबार सीमांध्र के सांसदों को भूल गए।

नवभारत टाइम्स 


Thursday, February 13, 2014

क्रिकेट की नीलामी और मोदी की चाय

हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून

मंजुल का कार्टून

इंडियन एक्सप्रेस में उन्नी

रेल बजट से ज्यादा महत्वपूर्ण वह हंगामा हो गया, जो तेलंगाना के नाम पर हुआ। प्रधानमंत्री की वेदना को उनके ही मंत्री पल्लम राजू ने हवा में उड़ा दिया। आईपीएल की नीलामी अब कुछ साल तक सुर्खियों में रहेगी। इतना समझ में आ रहा है कि जितना महंगा खिलाड़ी है, उतने ही खराब प्रदर्शन की आशा है। कम नामी खिलाड़ी अपनी क्षमता को साबित करने के बेहतर खेलते हैं। मोदी की चाय पार्टी के साथ राजनीति की रंगत बदल रही है। केजरीवाल उस हिना की तरह हैं जो घिसते-घिसते रंग ला रही है। इस चक्कर में रेल बजट अंडरप्ले हो गया। वेलेंटाइन डे भी मुँह बिसूर रहा है। बहरहाल नजर डालें आज की सुर्खियों पर

नवभारत टाइम्स

Wednesday, February 12, 2014

केजरी का गैस बम और तेलंगाना पर धमा-धम

हिंदू में केशव का कार्टून
इंडियन एक्सप्रेस में उन्नी
जयपाल रेड्डी जिस मामले को लेकर पेट्रोलियम मंत्रालय से हटे थे, उसे लेकर अरविंद केजरीवाल ने सख्त रुख अख्तियार कर लिया है। उधर आंध्र प्रदेश का मामला शंत नहीं हो रहा। ऐसे में क्रिकेट की स्पॉट फिक्सिंग बेचारी छोडी खबर बनकर रह गई है। नरेंद्र मोदी के बाद एक और फिल्म अभिनेत्री ने राहुल गांधी के नाम पर न्यूड तस्वीरें खिंचाने का फैसला किया है। मार्केटिंग का फंडा रोचक होता जा रहा है। पढ़ें आज की कतरनें 

नवभारत टाइम्स

Tuesday, February 11, 2014

पीपली लाइव के नत्था बने केजरीवाल

पाकिस्तानी अखबार एक्सप्रेस ट्रिब्यून में सबीर नज़र का कार्टून संदर्भ बसंत
हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून
मंजुल का कार्टून

क्रिकेट की सट्टेबाज़ी और दिल्ली में सियासी दाँवपेच आज की सुर्खियाँ हैं। दिल्ली में हर रोज नई एफआईआर हो रही है। सवाल है क्या केजरी सरकार जाएगी? आज के जागरण का अनुमान है कि कांग्रेस केजरीवाल को शहीद नहीं बनने देगी। दिल्ली से हाल में शुरू हुए अखबार नवोदय टाइम्स ने लिखा है कि केजरीवाल सरकार की हालत पीपली लाइव के नत्था जैसी हो गई है। जागरण में ही आज रोचक खबर यह है कि कल तीसरे मोर्चे की अनौपचारिक बैठक में बीजद और अद्रमुक प्रतिनिधि नहीं आए। उधर मोर्चे के शिखर पुरुषों ने संकेत दिया है कि गठबंधन तो चुनाव बाद ही होगा। देखना होगा कि इनमें से कितने संसद तक पहुँच पाते हैं। कोलकाता का टेलीग्राफ वाम मोर्चा के व्यावहारिक संकट की ओर इशारा कर रहा है। बुद्धदेव भट्टाचार्य पार्टी को नए यथार्थ को स्वीकार करने की सलाह दे रहे हैं। उन्होंने निताई हिंसा में हुई गलती को स्वीकार करके एक व्यावहारिक रास्ते पर कदम बढ़ाया है, पर पार्टी को शायद यह मंजूर नहीं। देखें आज की कतरनें

नवभारत टाइम्स

Monday, February 10, 2014

केजरी और केंद्र की कव्वाली

मंजुल का कार्टून
हिंदू में केशव का कार्टून
देवयानी खोब्रागड़े के पति को दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विवि में नौकरी की पेशकश। यानी अमेरिका नहीं माना तो देवयानी का परिवार भारत में रह सकेगा। यह खबर कोलकाता के टेलीग्राफ ने छापी है। पर टेलीग्राफ की रोचक खबर है उसकी लीड। कोलकाता में वाम मोर्चा की रैली प्रभावशाली थी, पर पार्टी के भीतर मतभेद भी उजागर हो गए। पार्टी का कार्यकर्ता निराश है। दो दिन पहले वाम मोर्चा के दो एमएलए तृणमूल में चले गए। उधर पार्टी तीसरे मोर्चे को लेकर परेशान हैं। दिल्ली में केजरीवॉल बनाम केंद्र सरकार आज भी सुर्खियों में है। नवभारत टाइम्स ने आप के मंत्रियों को दी गई सुविधाओं की सूची छापी है। जो सुविधाएं गिनाई गई हैं, वे सामान्य जरूरतों से जुड़ी हैं। उनमें कुछ विशेष नहीं है। नजर डालें इन कतरनों पर
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Sunday, February 9, 2014

केजरीवाल की लड़ाई का निर्णायक दौर शुरू

मंजुल का कार्टून
दैनिक भास्कर और दिल्ली के नवभारत टाइम्स के सकल प्रभाव से भले ही मेरी असहमति है, पर कवरेज में नयापन लाने के लिहाज से ये दो अखबार उल्लेखनीय हैं। भास्कर की रविवारीय पेज 1 की विशेष खबरें पठनीय होती है। रोज के अखबार में कुछ खबरें तस्वीरों के साथ लगाना और खासतौर से दुनिया की रोचक जानकारियाँ देना अच्छा है। हालांकि इसके पीछे अभी तक यह उद्देश्य नजर नहीं आता कि पाठकों की वैश्विक समझ बनाई जाए। मोटी बात मसाला परोसने तक सीमित लगती है। फिर भी इसके बहाने काफी  चीजें सामना आ जाती है। नवभारत टाइम्स खासतौर से दिल्ली की रोचक खबरें दे रहा है। और यह अनायास नहीं है, उनके पीछे योजना भी है। अलबत्ता भाषा के मामले में इस अखबार की नीति खोखली है। आज के अखबारों में केजरीवाल की यह चेतावनी महत्वपूर्ण तरीके से परोसी गई है कि मैं किसी भी हद तक जाऊँगा। नवभारत टाइम्स ने आज अन्ना का इंटरव्यू भी छापा है जो समय के साथ मौजूं है। दिल्ली में मणिपुर की लड़की से रेप आज की दूसरी महत्वपूर्ण घटना है। मोदी और राहुल की जवाबी कव्वाली को भी अखबारों ने महत्व दिया है।

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