विदेशमंत्री एस जयशंकर ने मंगलवार को अफगानिस्तान के विदेशमंत्री हनीफ अतमर से ताजिकिस्तान की राजधानी दुशान्बे में मुलाकात की और इस दौरान अफगानिस्तान के ताजा घटनाक्रम पर चर्चा की। जयशंकर शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के विदेश मंत्रियों की परिषद और अफगानिस्तान पर एससीओ संपर्क समूह की बैठकों में भाग लेने के लिए मंगलवार को दो दिवसीय दौरे पर दुशान्बे पहुंचे। जयशंकर ने ट्वीट किया,''मेरे दुशान्बे दौरे की शुरुआत अफगानिस्तान के विदेशमंत्री मोहम्मद हनीफ अतमर से मुलाकात के साथ हुई। हाल के घटनाक्रम जानकारी मिली। अफगानिस्तान पर एससीओ संपर्क समूह की बुधवार को हो रही बैठक को लेकर उत्साहित हूं।''
दुशान्बे बैठक काफी अहम
यह बैठक ऐसे समय में हो रही है, जब तालिबानी लड़ाके अफगानिस्तान के अधिकतर इलाकों को तेजी से अपने नियंत्रण
में ले रहे हैं, जिसने वैश्विक
स्तर पर चिंता बढ़ा दी है। भारत ने अफगान बलों और तालिबान लड़ाकों के बीच भीषण
लड़ाई के मद्देनज़र कंधार स्थित अपने वाणिज्य दूतावास से लगभग 50 राजनयिकों एवं
सुरक्षा कर्मियों को एक सैन्य विमान के जरिए निकाला है।
एससीओ देशों के साथ होने वाली यह बैठक अफगानिस्तान के लिए भी काफी अहम होगी।
अमेरिकी सेना की वापसी की के बाद वहां तालिबान का वर्चस्व बढ़ा है। ऐसे में
अफगानिस्तान को वैश्विक सहायता की जरूरत पड़ेगी। यह बैठक अफगानिस्तान के लिए बहुत
अहम है। अफ़ग़ानिस्तान में बीते कुछ हफ्तों में एक के बाद एक लगातार कई आतंकी हमले
हुए हैं। अमेरिकी सैनिक अगस्त के अंत तक पूरी तरह से अफगानिस्तान से चले जाएंगे। ऐसे
में अफगानिस्तान को भारत समेत अन्य देशों से सहायता की आशा है।
भारत की भूमिका
अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता लाने के लिए भारत काफी अहम रोल निभा सकता है। भारत इस देश में कई निर्माण गतिविधियों में 300 करोड़ डॉलर का निवेश कर चुका है। भारत हमेशा से अफगानिस्तान में शांति का समर्थक रहा है और इसके लिए अफगान नेतृत्व और अफगान द्वारा संचालित प्रक्रिया का ही समर्थक भी रहा है। सवाल है कि हम क्या कर सकते हैं और क्या कर रहे हैं?
अफगानिस्तान में भारत
के राजदूत रह चुके विवेक काटजू ने हाल में हिन्दुस्तान टाइम्स में प्रकाशित अपने
लेख में कहा है कि भारत को अपने हितों की रक्षा के लिए तालिबान
के साथ भी सम्पर्क बनाना चाहिए। हाल में हमने कंधार स्थित अपने वाणिज्य
दूतावास से कर्मचारियों को वापस बुला लिया है। जलालाबाद और हेरात के दफ्तर कोरोना
की वजह से एक साल पहले से बंद हैं। इस तरह से हमारा सम्पर्क काफी कम हो चुका है।
यदि तालिबान ने मज़ारे-शरीफ
पर दबाव बनाया तो हमें वहाँ से भी अपने कर्मचारियों को वापस बुलाना पड़ेगा। ये
दफ्तर केवल वीज़ा जारी करने का काम ही नहीं करते हैं, बल्कि इस इलाके के साथ
भारतीय हितों को जोड़कर रखते हैं। जो कुछ फिलहाल हो रहा है, उससे पाकिस्तान को
संतोष होगा, क्योंकि इन दफ्तरों को लेकर उसकी पहले से शिकायतें हैं। सन 2002 से ही
उसकी कोशिश रही है कि भारतीय दूतावास से जुड़े इन दफ्तरों को बंद किया जाए। पाकिस्तान
का आरोप है कि भारतीय कार्यालय पाकिस्तान में अस्थिरता पैदा करने का काम करते हैं।
इन दफ्तरों को खोलने के लिए भारत को काफी राजनयिक प्रयास करने पड़े थे।
तालिबान
से सम्पर्क
बहरहाल अब हालात
अनिश्चित हैं। तालिबान और अफगान सरकार के बीच अब फिर से बातचीत शुरू हो रही है।
अभी यह स्पष्ट नहीं है कि तालिबान सरकार में शामिल होगा या नहीं। यदि वह शामिल भी
हुआ, तो फौज और रक्षा को अपने हाथों में रखना चाहेगा। किसी भी परिस्थिति में
तालिबान की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। हाल में मॉस्को यात्रा पर गए विदेशमंत्री एस
जयशंकर ने भी संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में कहा कि अंततः सबसे महत्वपूर्ण मसला यह
है कि अफगानिस्तान में किसका शासन होगा।
हालांकि अमेरिका और पश्चिम
के दूसरे देशों ने भी कहा है कि अफगानिस्तान में ताकत के जोर पर सरकार बनाने की
कोशिशों को स्वीकार नहीं किया जाएगा, पर सवाल है कि आप करेंगे क्या? अब दुबारा तो वहाँ अंतरराष्ट्रीय
कार्रवाई होगी नहीं। दूसरी तरफ अब तालिबान भी सावधान हैं। वे राजनयिक-सम्पर्क भी
बनाकर रख रहे हैं। हाल में उन्होंने कहा है कि हम वीगुर चरमपंथियों को अफगानिस्तान
में सक्रिय नहीं होने देंगे। पिछले कई वर्षों से रूस और ईरान के साथ तालिबान ने
सम्पर्क बनाकर रखे हैं। यानी कि वे अपनी वैधानिकता को बनाए रखना भी चाहते हैं। शायद
इसीलिए वे अफगान सरकार से बातचीत भी कर रहे हैं।
भारत ने तालिबान के साथ सम्पर्क बनाने में देरी की है। भारत ने पहले हामिद
करज़ाई और फिर अशरफ गनी पर पूरा भरोसा जताया। दूसरी तरफ जब करज़ाई और ग़नी ने
तालिबान से बात शुरू की, तो भारत ने शुरू में हिचक दिखाई। भारत को लगता रहा है कि
तालिबानी पाकिस्तान के हाथों में खेल रही कठपुतलियाँ हैं। ऐसा नहीं है, बल्कि
तालिबान ने भरोसा दिलाया है कि हम भारतीय हितों को चोट नहीं लगने देंगे।
पाकिस्तानी प्रचार
सम्भव है कि तालिबान के बीच कुछ तत्व पाकिस्तान समर्थक हों, पर वहाँ
पाकिस्तान-विरोधी भी हैं। पर पाकिस्तान इस बात का प्रचार करता रहेगा कि भारत ने
तालिबान के खिलाफ काम किया है। दूसरी तरफ वे यह भी कह रहे हैं कि तालिबान से
सम्पर्क साधना भारत के लिए यह शर्म की बात है। भारत को इन बातों पर ध्यान दिए बगैर
अपने हितों पर ध्यान देना चाहिए।
दूसरी तरफ सी
राजा मोहन ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि पाकिस्तान में काफी लोग अफगानिस्तान
को अपने उपनिवेश के रूप में मानते हैं, पर अफगान लोग स्वतंत्र समझ वाले हैं। वे
पाकिस्तानियों के बहकावे में नहीं आएंगे। एससीओ के दुशान्बे सम्मेलन में समझ में
आएगा कि इस क्षेत्र के देशों का नजरिया क्या है। एससीओ मे इस समय चीन, रूस,
कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान, पाकिस्तान और भारत सदस्य
हैं। ईरान, अफगानिस्तान, मंगोलिया और बेलारूस इसके पर्यवेक्षक देश हैं। देखना होगा
कि वे अफगानिस्तान में किस प्रकार की भावी व्यवस्था चाहते हैं।
रूस-चीन की भूमिका
चीन और रूस ने सन 2001 में अफगानिस्तान में अल-कायदा के खिलाफ की गई अमेरिकी
कार्रवाई का विरोध नहीं किया था। अलबत्ता वे इस इलाके में अमेरिकी सेना की लम्बी
उपस्थिति से परेशान थे। जिस समय अफगानिस्तान पर सोवियत कब्जा था, तब अमेरिका ने
जेहादियों की मदद की थी, जिसमें रूस की हार हुई थी। रूस इस बात को भूल नहीं सकता।
अब अमेरिका की वापसी से चीन के इस दृष्टिकोण की पुष्टि भी हो रही है कि अमेरिका की
शक्ति क्षीण हो रही है।
चीन अब अंतरराष्ट्रीय-व्यवस्था को चलाए रखने के लिए एक वैकल्पिक मॉडल देने
का प्रयास कर रहा है। ईरान का अमेरिका के साथ पहले से टकराव है। पाकिस्तानी सेना
ने लम्बे अरसे से तालिबान को प्रश्रय दिया है। उन्हें उम्मीद है कि अब हमारी बारी
है। अमेरिका के अपमानित होने से इन देशों को संतोष जरूर होगा, पर भविष्य की
व्यवस्था के बारे में भी उन्हें सोचना होगा। चीन और रूस नहीं चाहेंगे कि
अफगानिस्तान आतंकवाद की नर्सरी बने। उसी तरह ईरान को तालिबान के नेतृत्व में सुन्नी
कट्टरपंथ का उदय नहीं भाएगा। पाकिस्तान को भी डूरंड लाइन के विवाद और तहरीके
तालिबान की फिक्र है, जिन्हें लेकर तालिबान की धारणा वैसी ही नहीं है, जैसी
पाकिस्तान की है।
पूरी तस्वीर क्या है?
फिलहाल लगता है कि पाकिस्तान और चीन के गठबंधन को फौरी तौर पर अफगानिस्तान
में बढ़त मिलेगी। सम्भव यह भी है कि चीन इस इलाके में पूँजी निवेश करे। पर जब आप
पूरी तस्वीर देखेंगे, तब कई तरह के पेच समझ में आएंगे। देखना यह भी होगा कि
तालिबान की दिलचस्पी किस बात में है और समूचे अफगानिस्तान के लोग क्या चाहते हैं? एकबार फिर से गृहयुद्ध की सम्भावना किसी
को पसंद नहीं आएगी।
भारत के सामने फिलहाल
एक रास्ता बंद हो रहा है। अमेरिकी उपस्थिति के कारण अफगानिस्तान में जो स्थिरता
थी, उसका लाभ अब हमें नहीं मिलेगा। खतरा इस बात का भी है कि वहाँ भारत-विरोधी
गतिविधियों को फिर से बढ़ावा मिले। इसके लिए हमें जागरूक रहकर सक्रिय रहना होगा,
साथ ही धैर्य रखकर हालात का सामना करना होगा। हमारी सीमा सीधे उसके साथ नहीं
मिलती। इसका हमें नुकसान और पाकिस्तान को उसका लाभ मिलेगा। पर क्या वह अफगानिस्तान
में स्थिरता लाने में सहायक होगा? पाकिस्तान
की कोशिश सी-पैक को इस इलाके से जोड़ने की होगी। पर पाकिस्तान और अफगानिस्तान के
हितों में बहुत ज्यादा किस्म के टकराव हैं। तालिबान भी पाकिस्तान को संतुलित करने
के लिए किसी की तलाश करेंगे। हमें धैर्य के साथ परिस्थितियों को अपने अनुकूल आने
का इंतजार करना चाहिए।
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 15-07-2021को चर्चा – 4,126 में दिया गया है।
ReplyDeleteआपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद सहित
दिलबागसिंह विर्क