Monday, April 30, 2012

पाकिस्तानी लोकतंत्र की परीक्षा

जिसकी उम्मीद थी वही हुआ। पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री युसुफ रज़ा गिलानी को अदालत की अवमानना का दोषी पाया। उन्हें कैद की सज़ा नहीं दी गई। पर अदालत उठने तक की सज़ा भी तकनीकी लिहाज से सजा है। पहले अंदेशा यह था कि शायद प्रधानमंत्री को अपना पद और संसद की सदस्यता छोड़नी पड़े, पर अदालत ने इस किस्म के आदेश जारी करने के बजाय कौमी असेम्बली के स्पीकर के पास अपना फैसला भेज दिया है। साथ ही निवेदन किया है कि वे देखें कि क्या गिलानी की सदस्यता खत्म की जा सकती है।
पाकिस्तानी संविधान के अनुच्छेद 63 के अंतर्गत स्पीकर के पास यह अधिकार है कि वे तय करें कि यह सदस्यता खत्म करने का मामला बनता है या नहीं। इस मसले पर विचार करने के लिए उनके पास 30 दिन का समय है। और यदि वे इस पर विचार करें तो आगे की कार्रवाई के लिए देश के चुनाव आयोग के पास इसे भेज सकते हैं, जिसे उसके बाद 90 दिन में कोई फैसला करना होगा।


पाकिस्तान की लोकतांत्रिक घटनाओं को सही परिप्रेक्ष्य में देखें तो तमाम बातों को अपनी तार्किक परिणति तक पहुँचना है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के रूप में इफ्तिकार मुहम्मद चौधरी ने 1999 में नवाज शरीफ का तख्ता पलट करके परवेज मुहम्मद की फौजी सरकार को वैधानिक साबित करने वाले फैसले का साथ दिया था। सन 2005 में परवेज़ मुहम्मद ने ही उन्हें मुख्य न्यायाधीश की शपथ दिलाई थी। पर इफ्तिकार चौधरी धीरे-धीरे अपने स्वतंत्र निर्णयों के लिए मशहूर होने लगे। अंततः 2007 में परवेज मुहम्मद में इफ्तिकार चौधरी को बर्खास्त कर दिया। बर्खास्ती के वास्तविक कारणों पर से पर्दा कभी नहीं उठा, पर लगता है कि परवेज़ मुशर्रफ ने लोकतंत्र के पक्ष में उठती आवाज़ों का पेशबंदी में या अमेरिकी सरकार के प्रभाव में बेनज़ीर भुट्टो की वापसी को स्वीकार कर लिया था। इसके तहत 5 अक्टूबर 2007 को नेशनल रिकांसिलिएशन ऑर्डिनेंस (एनआरओ) जारी किया गया। इसका औपचारिक अर्थ था कि भाईचारा बढ़ाने के लिए कुछ बातों को भुला दिया जाए। कानूनी अर्थ यह था कि 1 जनवरी 1986 से 12 अक्टूबर 1999 के बीच कानूनी कार्रवाइयाँ, मुकदमे वगैरह वापस ले लिए जाएंगे।

बेनज़ीर भुट्टो की वापसी के लिए इस किस्म का कानूनी संरक्षण ज़रूरी था, क्योंकि उन पर तथा उनके पति आसिफ अली ज़रदारी के खिलाफ भ्रष्टाचार के तमाम मुकदमे ठोक दिए गए थे। इनमें से ज्यादातर मुकदमे नवाज़ शरीफ की सरकार के समय दायर किए गए थे। अनेक आरोप सच भी होंगे, पर पाकिस्तानी व्यवस्था में ऐसे आरोप किसी पर भी लगाए जा सकते हैं। बहरहाल इफ्तिकार चौधरी की सदारत में सुप्रीम कोर्ट ने एक हफ्ते के भीतर परवेज मुशर्रफ के इस एनआरओ को गैर-कानूनी करार दिया। इसके बाद परवेज मुशर्रफ का सुप्रीम कोर्ट से सीधा टकराव शुरू हो गया। इफ्तिकार चौधरी को बर्खास्त कर दिया गया। नए मुख्य न्यायाधीश अब्दुल हमीद डोगर ने 27 फरवरी 2008 को एनआरओ को फिर से लागू करा दिया।

सन 2008 में देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था लागू होने के पहले ही बेनज़ीर भुट्टो की हत्या कर दी गई। चुनाव होने के बाद पीपीपी और पाकिस्तान मुस्तिम लीग का लगभग असम्भव गठबंधन सम्भव हो गया। पर सुप्रीम कोर्ट के जजों की बहाली को लेकर शुरू से ही विवाद था। अंततः नवाज शरीफ की पार्टी गठबंधन से बाहर हो गई। पर इसके बाद वे इस लड़ाई को सड़कों पर ले गए और इफ्तिकार चौधरी को बहाल कराने में कामयाब हुए। मार्च 2009 में इफ्तकार चौधरी वापस आ गए। इस बीच पाकिस्तान सरकार ने कोशिश की कि एनआरओ को संसद से मंज़ूरी दिला दी जाए, पर ऐसा हो नहीं सका। 16 दिसम्बर 2009 को सुप्रीम कोर्ट ने इसे फिर से असंवैधानिक करार दिया। इस अध्यादेश के तहत पाकिस्तान सरकार ने 8041 लोगों की सूची बनाई थी, जिन्हें कानूनी कार्रवाई से छूट मिलनी थी। पर असली निशाना आसिफ अली ज़रदारी थे।

आसिफ अली ज़रदारी देश के राष्ट्रपति हैं। संविधान के अनुच्छेद 248 के तहत उन्हें कानूनी कार्रवाई से छूट मिली है। बहरहाल इस दौरान देश के सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को निर्देश दिया कि ज़रदारी के खिलाफ स्विस कोर्ट में बंद हो चुके मुकदमों को फिर से शुरू करने की कार्रवाई की जाए। प्रधानमंत्री ने ऐसी कोई कार्रवाई नहीं की। अंततः अदालत ने उनपर अवमानना का मुकदमा चलाया और सजा दी। देश में काफी बड़ा तबका अदालत के फैसले से सहमत है। सबको लगता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में यह एक बड़ा कदम साबित होगा। पर युसुफ रज़ा गिलानी ने इस लड़ाई को संवैधानिक संस्थाओं के अधिकार का प्रश्न बना दिया है। उनका कहना है कि संविधान ने राष्ट्रपति को छूट दी है। मैं संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए कोई भी सजा स्वीकार करने को तैयार हूँ। पर मेरी सदस्यता खत्म करने का अधिकार सिर्फ असेम्बली की स्पीकर डॉ फहमीदा मिर्जा को और सदन को है। लगता नहीं कि संसद उनकी सदस्यता खत्म करेगी। नवाज़ शरीफ तमाम बातों को उनकी तार्किक परिणति तक लाने में कामयाब हुए हैं, पर फिलहाल वे प्रधानमंत्री को हटाने में कामयाब होते नहीं लगते हैं। अलबत्ता मार्च 2013 के संसदीय चुनाव में यह बड़ा मुद्दा होगा।

युसुफ रज़ा गिलानी जिस अंदाज़ में सामने आए हैं उससे पीपीपी का मनोबल बढ़ा है। वे कहते हैं कि सन 1956, 1962 और 1973 के तानाशाहों को संवैधानिक छूट मिली हुई है तो एक चुने हुए राष्ट्रपति को यह छूट क्यों नहीं मिलनी चाहिए? उनका यह भी कहना है कि यह कानून मैने नहीं बनाया, पहले से चला आ रहा है। पाकिस्तान में न्यायपालिका एक से ज्यादा बार फौजी तानाशाहों की सरकारों को वैधानिकता प्रदान कर चुकी है। कौमी और सूबों की असेम्बलियों की बर्खास्तगी को वैधानिक बता चुकी हैं। तब क्या वजह है कि इस बार वहाँ की न्यायपालिका का रुख इतना सख्त है? नवाज शरीफ ने इफ्तिकार चौधरी की लड़ाई सड़कों पर लड़ी। पर वे स्वयं नवम्बर 1997 में मुख्य न्यायाधीश सज्जाद अली शाह को बर्खास्त कर चुके हैं। जिस तरह इफ्तिकार चौधरी और परवेज़ मुशर्रफ के बीच प्रतिष्ठा का सवाल बन गया था तकरीबन वैसे ही हालात सज्जाद अली शाह के साथ बन गए थे।

पाकिस्तान किस रास्ते पर जाएगा अभी कहना मुश्किल है। वहाँ जनता के बीच लोकतंत्र की वैसी इज्जत नहीं है जैसी भारत में है। इस्लाम की एक अपनी राज व्यवस्था और न्याय व्यवस्था है। इसलिए वहाँ बार-बार शरिया के शासन की बात उठती है। पर ऐसा पहली बार हो रहा है जब आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था वहाँ शक्ल ले रही है। फिलहाल प्रधानमंत्री गिलानी किस तरह अपने को बचाते हैं, यह फौरी सवाल है। हो सकता है कि विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव लाए। स्पीकर डॉ फहमीदा मिर्जा बेनज़ीर परिवार की मित्र हैं। इसलिए लगता नहीं कि गिलानी की सदस्यता पर आँच आएगी। और आई भी तो हो सकता है कि कौमा असेम्बली के चुनाव हों। आसिफ अली ज़रदारी फिलहाल अगले साल सितम्बर तक अपने पद पर बने ही रहेंगे, इसलिए उनके खिलाफ मुकदमों की सम्भावना भी अभी नहीं है। वे फिलहाल गिलानी के साथ हैं, क्योंकि गिलानी ने उनका साथ दिया है।
सी एक्सप्रेस में प्रकाशित

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