पिछले साल तालिबान के साथ हुए समझौते के तहत अफगानिस्तान से अमेरिकी सेनाओं की वापसी की तारीख 1 मई करीब आ रही है। सवाल है कि क्या अमेरिकी सेना हटेगी? ऐसा हुआ, तो क्या देश के काफी बड़े इलाके पर तालिबान का नियंत्रण हो जाएगा? अमेरिका क्या इस बात को देख पा रहा है? ऐसे में भारत की भूमिका किस प्रकार की हो सकती है? ऐसे तमाम सवालों को लेकर आज के इंडियन एक्सप्रेस में सी राजा मोहन का लेख प्रकाशित हुआ है, जिसमें भारतीय नीति के बरक्स इन सवालों का जवाब देने की कोशिश की गई है। इसमें उन्होंने लिखा है:-
इससे न तो 42-साल पुरानी लड़ाई खत्म होगी और न अफगानिस्तान में अमेरिकी
हस्तक्षेप खत्म हो जाएगा। पर पिछले कुछ दिनों में जो बाइडेन प्रशासन द्वारा शुरू
किए गए शांति-प्रयासों से अफगानिस्तान के हिंसक घटनाचक्र में, जिसने दक्षिण एशिया
और अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, एक नया अध्याय शुरू
हो सकता है।
अफगानिस्तान में अपने हितों को देखते हुए, अमेरिका की नई महत्वाकांक्षी नीतिगत
संरचना और उसे लागू करने में सामने आने वाली चुनौतियों के मद्देनज़र भारत की इसमें
जबर्दस्त दिलचस्पी होगी।
ताजा पहल के बारे में पिछले सप्ताहांत अमेरिका के विशेष दूत जलमय खलीलज़ाद ने
अफगानिस्तान से विदेशमंत्री एस जयशंकर के साथ बातचीत की। उम्मीद है कि इस महीने
अमेरिकी रक्षामंत्री जनरल लॉयड ऑस्टिन की यात्रा के दौरान इस सवाल पर और ज्यादा
बातचीत होगी।
ट्रंप प्रशासन
द्वारा शुरू की गई शांति-प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए बाइडेन प्रशासन ने भी इस
क्षेत्र में चल रही लड़ाई को जल्द से जल्द खत्म करने की मनोकामना को रेखांकित किया
है। इस सिलसिले में पाँच खास बातें सामने आती हैं।
पहली, बाइडेन की शांति-योजना में यह संभावना खुली हुई है कि अफगानिस्तान में तैनात करीब 2500 अमेरिकी सैनिक कुछ समय तक और रुक सकते हैं। वॉशिंगटन में बहुत से विशेषज्ञ मानते हैं कि ट्रंप प्रशासन ने एक निश्चित तारीख की घोषणा करके अमेरिकी पकड़ को ढीला कर दिया है। बाइडेन उसे मजबूत करना चाहेंगे। बाइडेन इस पकड़ को इसलिए बनाए रखना चाहेंगे, क्योंकि तालिबान ने हिंसा के स्तर को कम करने के अपने वायदे को पूरा नहीं किया है। अमेरिका दूसरी तरफ अफ़ग़ान राष्ट्रपति अशरफ ग़नी पर भी दबाव डालेगा, क्योंकि वह उन्हें भी समस्या का हिस्सा मानता है।