Wednesday, October 23, 2019

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव की पाँच खास बातें


एक्ज़िट पोल एकबार फिर से महाराष्ट्र में एनडीए की सरकार बनने की भविष्यवाणी कर रहे हैं। सभी का निष्कर्ष है कि विधानसभा की 288 सीटों में से दो तिहाई से ज्यादा भाजपा-शिवसेना गठबंधन की झोली में गिरेंगी। देश की कारोबारी राजधानी मुंबई के कारण महाराष्ट्र देश के सबसे महत्वपूर्ण राज्यों में एक है। लोकसभा में सीटों की संख्या के लिहाज से उत्तर प्रदेश के बाद दूसरा सबसे महत्वपूर्ण राज्य महाराष्ट्र है। चुनाव में मुख्य मुकाबला भाजपा—शिवसेना की ‘महायुति’ और कांग्रेस—राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ‘महा-अघाड़ी' के बीच है। फिलहाल लगता है कि यह मुकाबला भी बेमेल है। चुनाव का विश्लेषण करते वक्त परिणामों से हटकर भी महाराष्ट्र की कुछ बातों पर ध्यान में रखना चाहिए।
1.भाजपा-शिवसेना संबंध
महाराष्ट्र की राजनीति का सबसे रोचक पहलू है भारतीय जनता पार्टी के रिश्तों का ठंडा-गरम पक्ष। इसमें दो राय नहीं कि इनकी ‘महायुति’ राज्य में अजेय शक्ति है, पर इस युतिको बनाए रखने के लिए बड़े जतन करने पड़ते हैं। इसका बड़ कारण है दोनों पार्टियों की वैचारिक एकता। एक विचारधारा से जुड़े होने के बावजूद शिवसेना महाराष्ट्र केंद्रित दल है। शिवसेना ने 2014 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी का साथ छोड़कर अकेले चुनाव लड़ा, पर इससे उसे नुकसान हुआ। भारतीय जनता पार्टी ने इस बीच अपने आधार का विस्तार भी कर लिया। एक समय तक राज्य में शिवसेना बड़ी पार्टी थी, पर आज स्थिति बदल गई है और भारतीय जनता पार्टी अकेले सरकार बनाने की स्थिति में नजर आने लगी है। एक जमाने में जहाँ सीटों के बँटवारे में भाजपा दूसरे नंबर पर रहती थी, वहाँ अब वह पहले नंबर पर रहती है। एक जमाने में मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री पद का फैसला भी सीटों की संख्या पर होता था। इस चुनाव के बाद महायुति की सरकार बनने के पहले का विमर्श महत्वपूर्ण होगा। सन 2014 में दोनों का गठबंधन टूट गया था, पर इसबार दोनों ने फिर से मिलकर चुनाव लड़ा है। दोनों पार्टियों के अनेक बागी नेता भी मैदान में हैं।
2.कांग्रेस-राकांपा रिश्ते
महायुति के समांतरमहा-अघाड़ी के दो प्रमुख दलों के रिश्ते भी तनाव से भरे रहते हैं। शरद पवार ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर कांग्रेस छोड़कर 1999 में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का गठन किया था। दोनों दलो के बीच तबसे ही दोस्ती और दुश्मनी के रिश्ते चले आ रहे हैं। दोनों पार्टियों ने राज्य में मिलकर 15 साल तक सरकार चलाई। एनसीपी केंद्र में यूपीए सरकार में भी शामिल रही, पर दोनों के बीच हमेशा टकराव रहा। संयोग से कांग्रेस और एनसीपी दोनों की राजनीति उतार पर है। दोनों ही दलों में चुनाव के ठीक पहले अनुशासनहीनता अपने चरम पर थी। यह बात चुनाव परिणामों को प्रभावित करेगी। यह बात दोनों दलों के केंद्रीय नेतृत्व की कमजोरी को भी व्यक्त करती है। 

हरियाणा विधानसभा चुनाव की पाँच खास बातें


हरियाणा में मतदान हो चुका है। गुरुवार को पता भी लग जाएगा कि कौन जीता और कौन हारा। हार और जीत के अलावा कुछ ऐसी बातें हैं, जिनपर गौर करने की जरूरत होगी।
1.भावी राजनीति की दिशा
हरियाणा विधानसभा के 2014 के चुनाव परिणामों से कई मायनों में सबको हैरत हुई थी। लोकसभा चुनाव में बीजेपी में कुल दस में से सात सीटें जीती थीं। प्रेक्षक यह समझना चाहते थे कि यह जीत कहीं तुक्का तो नहीं थी। लोकसभा चुनाव के बाद हुए 13 राज्यों के उप चुनावों से कुछ प्रेक्षकों ने निष्कर्ष निकाला कि ‘मोदी मैजिक’ ख़त्म हो गया। हरियाणा ने इस संभावना को गलत सिद्ध किया था। हरियाणा विधानसभा चुनाव के परिणाम विस्मयकारी थे। इनके बाद ही लगा कि केवल लोकसभा में ही नहीं उत्तर भारत में राज्यों की राजनीति में भी बड़ा उलट-फेर होने वाला है। गठबंधन सहयोगियों के बगैर हरियाणा में मिली सफलता से भाजपा का आत्मविश्वास और महत्वाकांक्षाएं बढ़ीं। इसबार का चुनाव भारतीय जनता पार्टी की इस ताकत का परीक्षण है। हरियाणा के जातीय समीकरण पिछले चुनाव में बिगड़ गए थे। उनकी स्थिति क्या है, इस चुनाव में पता लगेगी। राज्य की 90 में से 35 सीटों पर जाट मतदाता का वर्चस्व है। सवाल है कि वह है किसके साथ?
2.विरोधी ताकत कौन?
एक्ज़िट पोल बता रहे हैं कि राज्य में बीजेपी पिछली बार से भी ज्यादा बड़ी ताकत बनकर उभरेगी। ऐसे में सवाल पैदा होता है कि मुख्य विरोधी दल कौन सा होगा? हरियाणा में पार्टियों के बनने और बिगड़ने का लंबा इतिहास है। यहाँ विशाल हरियाणा पार्टी, हरियाणा विकास पार्टी, हरियाणा जनहित कांग्रेस और इनेलो बनीं और फिर पृष्ठभूमि में चली गईं। पाँच साल पहले तक कांग्रेस और इनेलो दो बड़ी ताकतें होती थीं। पर 2014 के विधानसभा में दोनों का पराभव हो गया। जनता पार्टी के लोकदल घटक की प्रतिनिधि इनेलो सीट और वोट प्रतिशत के आधार पर पिछले विधानसभा चुनाव के पहले तक दूसरे नंबर की ताकत थी। बाद में इनेलो और कांग्रेस दोनों आंतरिक टकराव की शिकार हुईं हैं। इस चुनाव से पता लगेगा कि इन दलों की ताकत क्या है और राज्य की राजनीति किस दिशा में जा रही है। लोकसभा के पिछले चुनावों के पहले उम्मीद थी कि विरोधी दल कोई बड़ा मोर्चा बनाने में कामयाब होंगे। ऐसा नहीं हुआ। चुनाव के ठीक पहले प्रदेश कांग्रेस के शिखर नेतृत्व में हुए बदलाव के परिणामों पर भी नजर रखनी होगी।

Tuesday, October 22, 2019

अयोध्या पर क्यों न हम सकारात्मक रूप से सोचें?


दुर्भाग्य है कि पिछले 27 साल से हमारे सामाजिक जीवन में कुछ लोग 6 दिसम्बर को ‘शौर्य दिवस’ मनाते हैं और कुछ ‘यौमे ग़म.’ एक गहरा सामाजिक विभाजन एक घटना के कारण हमारे जीवन में पैदा हो गया है. अयोध्या में राम जन्मभूमि को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला इस साल 6 दिसंबर के पहले ही आ जाएगा. इस फैसले को लेकर कई तरह के कयास हैं. क्या अदालत इसे केवल स्वामित्व के रूप में देखेगी? क्या वह आस्था के सवाल पर फैसला करेगी? क्या उसपर जनमत का दबाव होगा? ऐसे बीसियों सवाल हैं. उम्मीदें भी हैं और अंदेशे भी. बेहतर यही होगा कि हम उम्मीद करें कि फैसला ऐसा होगा कि सभी पक्ष इसे स्वीकार करेंगे और हम इस साल से इस फैसले की तारीख को ‘राष्ट्र निर्माण दिवस’ के रूप में मनाना शुरू करेंगे.
इस मामले की सुनवाई के आखिरी दिन तक और अब भी यह सवाल हमारे मन में है कि क्या इसका निपटारा आपसी समझौते से संभव नहीं था? क्या अब भी यह संभव नहीं है? दुर्भाग्य से ऐसा संभव नहीं हुआ. संभव था, तो अबतक हो चुका होता. अब मनाना चाहिए कि यह निपटारा सामाजिक बदमज़गी पैदा न करे. इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में 40 दिन की लगातार सुनवाई के दौरान यह बदमज़गी भी किसी न किसी रूप में व्यक्त हुई थी. सुनवाई के आखिरी दिन भी कुछ ऐसे प्रसंग आए, जिनसे लगा कि कड़वाहट कहीं न कहीं बैठी है और बहुत गहराई से बैठी है.

Sunday, October 20, 2019

मामल्लापुरम से निकले चीनी डिप्लोमेसी के इशारे


चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग की यात्रा के ठीक पहले भारतीय और चीनी मीडिया में इस बात को रेखांकित किया गया कि तमिलनाडु के प्राचीन नगर मामल्लापुरम (महाबलीपुरम) का चयन क्यों किया और किसने किया। खबरें थीं कि चीन ने खासतौर से इस जगह को चुना। चीनी डिप्लोमेसी की विशेषता है कि वे संकेतों का सोच-समझकर इस्तेमाल करते हैं। तमिलनाडु के साथ चीन के ईसा की पहली-दूसरी सदी के रिश्ते हैं। छठी-सातवीं सदी में पल्लव राजाओं ने चीन में अपने दूत भेजे थे। सातवीं सदी में ह्वेनसांग इस इलाके में आए थे।
सन 1956 में तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाऊ-एन-लाई भी मामल्लापुरम आए थे। क्या चीन ने जानबूझकर ऐसी जगह का चुनाव किया, जो भगवा मंडली के राजनीतिक प्रभाव से मुक्त है? शायद इन रूपकों और प्रतीकों की चर्चा होने की वजह से ही हमारे विदेश मंत्रालय ने सफाई पेश की कि इस जगह को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुना था। मोदी ने शी के स्वागत में खासतौर से तमिल परिधान वेष्टी को धारण किया।

अयोध्या पर कड़वाहट खत्म होने की घड़ी


अयोध्या मामले पर सत्तर साल से ज्यादा समय से चल रहा कानूनी विवाद तार्किक परिणति तक पहुँचने वाला है। न्याय-व्यवस्था के लिए तो यह मामला मील का पत्थर साबित होगा ही, देश के सामाजिक ताने-बाने के लिए भी युगांतरकारी होगा। मामले की सुनवाई के आखिरी दिन तक और अब फैसला आने के पहले इस बात को लेकर कयास हैं कि क्या इस मामले का निपटारा आपसी समझौते से संभव है? ऐसा संभव होता तो अबतक हो चुका होता। न्यायिक व्यवस्था को ही अब इसका फैसला करना है। अब मनाना चाहिए कि इस निपटारे से किसी किस्म की सामाजिक बदमज़गी पैदा न हो।
इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में 40 दिन की लगातार सुनवाई के दौरान यह बदमज़गी भी किसी न किसी रूप में व्यक्त हुई थी। अदालत में सुनवाई के आखिरी दिन भी कुछ ऐसे प्रसंग आए, जिनसे लगा कि कड़वाहट कहीं न कहीं गहराई तक बैठी है। अदालत के सामने अलग-अलग पक्षों ने अपनी बात रखी है। उसके पास मध्यस्थता समिति की एक रिपोर्ट भी है। इस समिति का गठन भी अदालत ने ही किया था।