Wednesday, January 3, 2018

आम आदमी पार्टी की एक और करवट

नज़रिया: क्या केजरीवाल की राजनीति में 'अनफ़िट' हैं विश्वास?

कुमार विश्वासइमेज कॉपीरइट@DRKUMARVISHWAS
राज्यसभा की सदस्यता के लिए तीन प्रतिनिधियों के नाम तय करने में चले गतिरोध की वजह से आम आदमी पार्टी के अंतर्विरोध एकबार फिर से खुलकर सामने आ गए हैं.
सवाल है कि क्या पार्टी ने अपने संस्थापकों में से एक कुमार विश्वास से किनाराकशी करने का फ़ैसला अंतिम रूप से कर लिया है?
राज्यसभा के नामांकन 5 जनवरी तक होने हैं. निर्णायक घड़ी नज़दीक है. पार्टी की सूची को अब सामने आ जाना चाहिए. स्वाभाविक रूप से इसमें कुमार विश्वास का नाम पहले नम्बर पर होना चाहिए, पर लगता है कि ऐसा होगा नहीं.
साल 2015 में बनी केजरीवाल सरकार में कुमार का नाम नहीं होने पर प्रेक्षकों का माथा ठनका था. तब कहा गया कि राज्यसभा की तीन सीटों में से एक तो उन्हें मिल ही जाएगी. बहरहाल तब से अब तक यमुना में काफ़ी पानी बह गया और देखते ही देखते कहानी ने ज़बर्दस्त मोड़ ले लिया.
सवाल यह है कि अब क्या होगा? कुमार विश्वास के अलावा राज्यसभा सदस्यता के लिए संजय सिंह, आशुतोष, आशीष खेतान और राघव चड्ढा के नामों की भी चर्चा थी. पर कुमार विश्वास के नाम का मतलब कुछ और है.
कुमार विश्वासइमेज कॉपीरइटइमेज कॉपीरइट@DRKUMARVISHWAS

बाहरी नामों पर रहा ज़ोर

पिछले दो महीनों में पार्टी के अंदरूनी सूत्र तमाम बाहरी नामों का ज़िक्र करते थे, पर कुमार विश्वास का नाम सामने आने पर चुप्पी साध लेते थे.
रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन, यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और राम जेठमलानी जैसे नाम उछले. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ़ जस्टिस टीएस ठाकुर का नाम भी सामने आया. पर कुमार विश्वास के नाम का पूरे भरोसे से ज़िक्र नहीं किया गया.
पार्टी दो कारणों से बाहरी नामों की हवा फैला रही थी. उसकी इच्छा एक 'हैवीवेट' नेता को राज्यसभा में अपना प्रतिनिधि बनाने की है. वह राष्ट्रीय क्षितिज पर अपनी आवाज़ बुलंद करना और पहचान बनाना चाहती है.
पार्टी की रणनीति बीजेपी-विरोधी स्पेस में बैठने की है. दूसरे, ऐसा करके उसका इरादा पार्टी के भीतर के टकराव को भी टालने का था. बहरहाल अब टकराव निर्णायक मोड़ पर है. देखना होगा कि क्या कुमार विश्वास पूरी तरह अलग-थलग पड़ेंगे? या उनकी वापसी की अब भी गुंजाइश है?

Tuesday, January 2, 2018

2018 के विधानसभा चुनाव

चुनाव की राजनीति के लिहाज से 2019 का साल तो महत्वपूर्ण है, पर उसके पहले 2018 भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। साल की शुरुआत नगालैंड, त्रिपुरा, मेघालय और कर्नाटक के चुनावों से होगी। इसके बाद मिजोरम और भाजपा शासित तीन महत्वपूर्ण राज्यों छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में विधानसभा चुनाव होंगे। इन आठ में से पूर्वोत्तर के चार राज्यों को छोड़ दें, तो शेष चारों राज्यों की भूमिका 2019 के लोकसभा चुनाव में भी काफी बड़ी होगी। इनमें से तीन राज्यों में बीजेपी की सरकार है और एक में कांग्रेस की। एक तरफ अमित शाह इन सबमें अपनी जीत का दावा कर रहे हैं, वहीं राहुल गांधी के नेतृत्व में सक्रिय हुई कांग्रेस भी अपनी स्थिति को बेहतर बनाने की कोशिश करेगी।

आठ विधानसभाओं के इन चुनावों के अलावा इस साल राज्यसभा के चुनाव भी राष्ट्रीय राजनीति को बड़ा मोड़ देंगे। एक नजर डालें इन चुनावों पर।

कर्नाटक
कर्नाटक विधानसभा का कार्यकाल 28 मई 2018 तक है। आशा है कि इस राज्य में अप्रेल में चुनाव होंगे। 225-सदस्यों वाली विधानसभा के चुनाव का कार्यक्रम फरवरी-मार्च में घोषित हो सकता है। इस वक्त राज्य में कांग्रेस के पास 123 सीटें हैं और बीजेपी के पास 44। पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौडा की पार्टी जनता दल (सेक्युलर) के पास 32 सीटें हैं। पिछले चुनाव में इस पार्टी को 40 सीटें मिली थीं, पर इसके आठ विधायकों की सदस्यता निलंबित कर दी गई।

मध्य प्रदेश

मध्य प्रदेश विधानसभा का कार्यकाल 7 जनवरी 2019 तक है। इसका मतलब है कि यहाँ दिसम्बर 2018 तक चुनाव पूरे हो जाएंगे। राज्य में विधानसभा की 230 सीटें हैं। पिछले चुनाव में यहाँ से बीजेपी के 165 सदस्य चुनकर आए और कांग्रेस के 57। शिवराज चौहान लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री पद पर चुनकर आए थे। इस राज्य में कांग्रेस और बीजेपी की सीधी टक्कर है।

राजस्थान

राजस्थान विधानसभा का कार्यकाल 20 जनवरी 2019 तक है। यानी यहाँ भी दिसम्बर के अंत तक चुनाव हो जाएंगे। राज्य विधानसभा में 200 सीटें हैं। सन 2013 के चुनाव में यहाँ से बीजेपी को 163 सीटें मिलीं थीं। कांग्रेस को केवल 23 सीटें मिलीं। उसके पहले राज्य में कांग्रेस की सरकार थी। कांग्रेस कोशिश करेगी कि वह फिर से जीतकर सत्ता में आए।

छत्तीसगढ़

छत्तीगढ़ विधानसभा का कार्यकाल 5 जनवरी 2019 तक है। यहाँ भी दिसम्बर 2018 में चुनाव होंगे। यहाँ के मुख्यमंत्री लगातार चौथी बार मुख्यमंत्री बनने की कोशिश करेंगे। यहाँ से विधानसभा के 90 सदस्य चुने जाते हैं। सन 2013 के चुनाव में यहाँ बीजेपी को 50 सीटें मिलीं और कांग्रेस को 39। इस राज्य में भी काँटे का मुकाबला है और कांग्रेस सत्ता पर आने की कोशिश करेगी।

नगालैंड

नगालौंड विधानसभा का कार्यकाल 13 मार्च 2018 तक है। यहाँ फरवरी में चुनाव होने की सम्भावना है। इसका मतलब है कि अब किसी भी वक्त यहाँ के चुनाव कार्यक्रम की घोषणा हो सकती है। राज्य में नगालैंड पीपुल्स फ्रंट (NPF) की सरकार है। यहाँ की विधानसभा में कुल 60 सीटें हैं। सन 2013 के चुनाव में NPF को 37 सीटें मिली थीं। कांग्रेस को 8 और बीजेपी को 2 सीटें मिली थीं। अब बीजेपी इस राज्य में अपनी स्थिति सुधारना चाहती है।

मेघालय

मेघालय विधानसभा का कार्यकाल 6 मार्च 2013 तक है। यहाँ भी फरवरी 2018 में चुनाव होने की सम्भावना है। यहाँ की विधानसभा में भी 60 सीटें हैं। यहाँ मुकुल संगमा के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार है। सन 2013 के चुनाव में कांग्रेस को यहाँ से 29 सीटें मिली थीं, 13 निर्दलीय सदस्य भी जीते थे। बीजेपी इस राज्य पर कब्जा करना चाहती है।

त्रिपुरा

त्रिपुरा सीपीएम का गढ़ रहा है। सन 2013 में यहाँ लगातार पाँचवीं बार वाममोर्चा को जीत मिली थी। यहाँ विधानसभा में 60 सीटें हैं। सन 2013 में यहाँ सीपीएम को 49 सीटें मिली थीं। यहाँ के मुख्यमंत्री माणिक सरकार की छवि अच्छी है। इस राज्य में कांग्रेस पार्टी अपनी स्थिति बेहतर करने की कोशिश करेगी।

मिजोरम

मिजोरम विधानसभा का कार्यकाल 15 दिसम्बर 2018 तक है। इसका मतलब है कि यहाँ चुनाव इस साल नवम्बर के अंत तक हो सकते हैं। यहाँ विधानसभा की कुल 40 सीटें हैं। सन 2013 के चुनाव में यहाँ से कांग्रेस को 34 सीटें मिलीं थीं। दूसरे नम्बर की पार्टी मिजो नेशनल फ्रंट थी, जिसे 5 और मिजो फीपुल्स कांफ्रेंस को एक सीट मिली। राज्य में बीजेपी ने अपनी गतिविधियाँ बढ़ाईं हैं। यहाँ मारालैंड डेमोक्रेटिक फ्रंट का भाजपा में विलय हो जाने के बाद पार्टी संगठन बन गया है। बीजेपी की योजना पूर्वोत्तर के राज्यों में अपनी पहुँच बढ़ाने की है। इस लिहाज से यह चुनाव महत्वपूर्ण होगा।

Monday, January 1, 2018

अब क्या होगा 2019 का मोदी मंत्र?

गुजरात के चुनाव के बाद अब 2018 में कर्नाटक के चुनाव की तैयारी है। उसके साथ मेघालय, नगालैंड और त्रिपुरा के चुनाव भी होंगे। साल के अंत में मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मिजोरम के चुनाव हैं। एक सम्भावना यह भी है कि लोकसभा चुनाव समय से पहले हो जाएं। बहरहाल अगले साल हों या 2019 में असली परीक्षा लोकसभा चुनाव में ही होगी। लम्बे असमंजस के बाद कांग्रेस पार्टी ने राहुल गांधी को सिंहासन पर बैठा दिया है, जिनके सामने ‘मोदी मैजिक’ को तोड़ने की बड़ी चुनौती है। 2015 में बिहार में बने महागठबंधन ब्रांड सोशल इंजीनियरी को हाल में कांग्रेस पार्टी ने गुजरात में आजमाया और यकीनन लोकसभा चुनाव में भी उसे आजमाएगी। सवाल है कि बीजेपी का मिशन 2019 क्या है? 

धुर-विरोधी भी मानते हैं कि नरेन्द्र मोदी के भीतर ऊर्जा का भंडार है। उनकी पार्टी हर घड़ी चुनाव लड़ने को तैयार रहती है। और तीसरे अमित शाह चुनाव के कुशल प्रबंधक हैं। सन 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले जब अमित शाह को उत्तर प्रदेश का कार्यभार सौंपा जा रहा था, तो कुछ लोगों ने मजाक में पूछा था कि गुजराती नेता को उत्तर प्रदेश की क्या समझ? बहरहाल अमित शाह ने एकबार नहीं दो बार उत्तर प्रदेश के चुनावी शेरों को बिल्ली बनाकर रख दिया। कोई न कोई खूबी तो है, इस नेता में।

पिछले लोकसभा चुनाव के बाद से बीजेपी लगातार जीत रही है। बिहार, दिल्ली और पंजाब को छोड़ दें तो उसे लगातार सफलताएं मिलती गईं हैं। सम्भावनाओं का नियम कहता है कि उसके खाते में विफलताएं भी होनी चाहिए। बहरहाल इन परिणामों से कांग्रेस और बीजेपी दोनों ने ही मतदाताओं का दिल जीतने के सबक सीखे हैं। सोशल इंजीनियरी इसका एक पहलू है, पूरा आयाम नहीं। बिहार में ओबीसी, दलितों और मुसलमानों का महागठबंधन सफल साबित हुआ था। हाल में कांग्रेस ने गुजरात में ओबीसी, दलितों, मुसलमानों और राज्य के ताकतवर जातीय समूह पाटीदारों के बीच पटरी बैठाई। क्या यह पटरी लोकसभा चुनाव में भी बैठेगी?

2017 में भी कायम रहा मोदी का रसूख

घरेलू राजनीति, सांस्कृतिक टकरावों, आर्थिक उतार-चढ़ाव और विदेश नीति के गूढ़-प्रश्नों के लिहाज से यह साल कुछ बड़े सबक देकर जा रहा है. पिछले डेढ़-दो साल से अर्थ-व्यवस्था में नजर आने वाला गिरावट का रुख थमा जरूर है, पर नाव अभी डगमग है. शायद जीएसटी के पेच आने वाले साल में कम हो जाएंगे. गुजरात के चुनावों का सबक लेकर सरकार आने वाले वर्ष में गाँवों और किसानों के लिए कुछ बड़ी घोषणाएं करेगी. दूसरी ओर सरकार के ऊपर राजकोषीय घाटे को काबू में रखने का दबाव भी है. इसलिए परीक्षा की घड़ी है.
राष्ट्रीय राजनीति के संकेतक बता रहे हैं कि नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता फिर भी बदस्तूर है. दूसरी ओर उनके प्रतिस्पर्धी के रूप में राहुल गांधी कमर कस रहे हैं. अब अगला मुकाबला मार्च-अप्रेल में कर्नाटक में है. इस साल मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी विधानसभा चुनाव हैं. इसलिए बीजेपी और कांग्रेस को दम-खम परखने के कई मौके मिलेंगे. नरेन्द्र मोदी को सत्ता संभाले साढ़े तीन साल से ज्यादा का वक्त हो चुका है, पर लोगों का भरोसा अभी कायम है. प्यू रिसर्च सेंटर के इस साल के सर्वे का निष्कर्ष है कि 10 में से 9 भारतीय नरेंद्र मोदी के प्रति सकारात्मक राय रखते हैं, जबकि 2015 में यह 10 में से 7 का था.

Sunday, December 31, 2017

सुलगते सवाल सा साल

भारत के लिए 2017 का साल बेहद जोखिम भरा साबित हुआ है। आंतरिक राजनीति की गहमा-गहमी, सांस्कृतिक टकरावों, आर्थिक उतार-चढ़ाव और विदेश नीति के गूढ़-प्रश्नों पर निगाह डालें तो पता लगेगा कि हमने एक साल में कई साल की यात्रा पूरी की है। इसकी शुरुआत उसके पिछले साल यानी 2016 के अंत में नोटबंदी और सर्जिकल स्ट्राइक जैसी दो बड़ी घटनाओं से हुई थी। साथ ही 2017 की शुरूआत पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव के शोर और आम बजट की तारीख में बदलाव से जुड़ी बहस के साथ हुई। इस साल तमाम सवालों के जवाब मिले, फर भी अपने पीछे यह अनेक गूढ़-प्रश्न छोड़ गया है, जिनके जवाब आने वाला साल देगा।
राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से साल का आगाज़ उत्तर प्रदेश में सत्ता परिवर्तन से और समापन गुजरात के जनादेश के साथ हुआ। गुजरात का परिणाम अपने पीछे एक पहेली छोड़ गया है कि जीत किसकी जीत हुई और किसकी हार? इस पहेली को बूझने के लिए अगले साल कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के अलावा मेघालय, त्रिपुरा और नगालैंड जैसे पूर्वोत्तर के तीन राज्यों के चुनाव होने हैं। ये चुनाव पूरे साल को सरगर्म बनाकर रखेंगे और सन 2019 के लोकसभा चुनाव की पृष्ठपीठिका तैयार करेंगे।