Wednesday, May 24, 2017

‘दीदी’ का बढ़ता राष्ट्रीय रसूख

बंगाल की मुख्यमंत्री बनने के बाद भी ममता बनर्जी की राष्ट्रीय अभिलाषा दबी-छिपी नहीं है. पिछले साल नवंबर में नोटबंदी के बाद सबसे पहले उसके खिलाफ आंदोलन उन्होंने ही शुरू किया. उनकी पार्टी का नाम अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस है. वे साबित करती रही हैं कि क्षेत्रीय नहीं, राष्ट्रीय नेता हैं. सन 2012 के राष्ट्रपति चुनाव में मुलायम सिंह के साथ मिलकर अपनी पसंद के प्रत्याशियों के नाम की पेशकश सबसे पहले उन्होंने ही की थी. इस बार भी वे पीछे नहीं हैं. पिछले हफ्ते वे इस सिलसिले में सोनिया गांधी और विपक्ष के कुछ नेताओं से बात करके गईं हैं. राष्ट्रपति पद के चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस के बाद तीसरे नंबर पर वोट तृणमूल कांग्रेस के पास हैं.

ममता की राजनीति टकराव मोल लेने की है. इस तत्व ने भी उनका रसूख बढ़ाया है. बंगाल में इसी आक्रामक शैली से उन्होंने सीपीएम को मात दी. नरेंद्र मोदी के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन की योजना में भी उनकी केंद्रीय भूमिका हो सकती है. बहरहाल हाल में ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल के सात नगरपालिका क्षेत्रों में हुए चुनावों की वजह से भी खबरों में हैं. इन चुनावों का राष्ट्रीय राजनीति के साथ कोई बड़ा रिश्ता नहीं है, पर कुछ कारणों से ये चुनाव राष्ट्रीय खबर बने.

Monday, May 22, 2017

  जीएसटी यानी एक नए युग में प्रवेश

वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू होने की तारीख नजदीक आने के पहले उससे जुड़ी सारी प्रक्रियाएं तकरीबन पूरी हो चुकी हैं। जीएसटी कौंसिल की श्रीनगर में हुई बैठकों में वस्तुओं और सेवाओं की दरों को मंजूरी मिल चुकी है। अभी अटकलें हैं कि कौन सी चीजें या सेवाएं सस्ती होंगी और कौन सी महंगी। यह मानकर चलना चाहिए कि इस व्यवस्था के लाभ सामने आने में दो साल लगेंगे। एक बड़ा काम हो गया, फिलहाल यह बड़ा लाभ है।
मोदी सरकार के तीन साल पूरे होने पर टीका-टिप्पणियों का दौर चल रहा है। ज्यादातर बातें राजनीतिक हैं, पर इस राजनीति के पीछे बुनियादी बातें आर्थिक हैं। जीएसटी के अलावा आर्थिक सवालों का सबसे बड़ा रिश्ता रोजगार से है। सरकार की बागडोर संभालते ही नरेन्द्र मोदी ने हर साल एक करोड़ रोजगार पैदा करने का वादा किया था। यह वादा पूरा होता दिखाई नहीं पड़ रहा है। लेबर ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट के अनुसार फीसदी की आर्थिक संवृद्धि के बावजूद पिछले साल रोजगार सृजन में केवल 1.1 फीसदी का इजाफा हुआ। यानी कि जितने नए रोजगार बनने चाहिए थे, उतने नहीं बने। सवाल है कितने नए रोजगार बने? यह सवाल भटकाने वाला है। इसे लेकर रोज सिर फुटौवल होता है, पर कोई नहीं जानता कि कितने नए रोजगार बने या कितने नहीं बने।

Sunday, May 21, 2017

‘महाबली’ प्रधानमंत्री के तीन साल

केंद्र की एनडीए सरकार के काम-काज को कम के कम तीन नजरियों से देख सकते हैं। प्रशासनिक नज़रिए से,  जनता की निगाहों से और नेता के रूप में नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत पहचान के लिहाज से। प्रशासनिक मामलों में यह सरकार यूपीए-1 और 2 के मुकाबले ज्यादा चुस्त और दुरुस्त है। वजह इस सरकार की कार्यकुशलता के मुकाबले पिछले निजाम की लाचारी ज्यादा है। मनमोहन सिंह की बेचारगी की वजह से उनके आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने अमेरिका में एक कार्यक्रम के दौरान कहा था कि देश पॉलिसी पैरेलिसिस से गुजर रहा है। अब आर्थिक सुधार 2014 के बाद ही हो पाएंगे।

यह सन 2012 की बात है। तब कोई नहीं कह सकता था कि देश के अगले प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नरेंद्र मोदी को बैठना है। इस बयान के करीब एक साल बाद कांग्रेस के दूसरे नंबर के नेता राहुल गांधी ने एक प्रेस कांफ्रेंस में मनमोहन सरकार के एक अध्यादेश को फाड़कर फेंका था। सही या गलत नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस की कमजोरी का फायदा उठाया। वे ‘पॉलिसी पैरेलिसिस’ की प्रतिक्रिया के रूप में सामने आए हैं। यह साबित करते हुए कि वे लाचार नहीं, ‘महाबली’ प्रधानमंत्री हैं। 

Saturday, May 20, 2017

क्या तैयारी है मोदी के मिशन 2019 की?

नरेन्द्र मोदी महाबली साबित हो रहे हैं। उनके रास्ते में आने वाली सारी बाधाएं दूर होती जा रही हैं। लोगों का अनुमान है कि वे 2019 का चुनाव तो जीतेंगे उसके बाद 2024 का भी जीत सकते हैं। यह अनुमान है। अनुमान के पीछे दो कारण हैं। एक उनकी उम्र अभी इतनी है कि वे अगले 15 साल तक राजनीति में निकाल सकते हैं। दूसरे उनके विकल्प के रूप में कोई राजनीति और कोई नेता दिखाई नहीं पड़ता है। यों सन 2024 में उनकी उम्र 74 वर्ष होगी। उनका अपना अघोषित सिद्धांत है कि 75 वर्ष के बाद सक्रिय राजनीति से व्यक्ति को हटना चाहिए। इस लिहाज से मोदी को 2025 के बाद सक्रिय राजनीति से हटना चाहिए। बहरहाल सवाल है कि क्या उन्हें लगातार सफलताएं मिलेंगी? और क्या अगले सात साल में उनकी राजनीति के बरक्स कोई वैकल्पिक राजनीति खड़ी नहीं होगी?

Tuesday, May 16, 2017

खामोश क्यों हैं केजरीवाल?

दिल्ली सरकार से हटाए गए कपिल मिश्रा आम आदमी पार्टी के गले की हड्डी साबित हो रहे हैं. पिछले दसेक दिनों में वे पार्टी और व्यक्तिगत रूप से अरविंद केजरीवाल पर आरोपों की झड़ी लगा रहे हैं. और केजरीवाल उन्हें सुन रहे हैं.

आश्चर्य इन आरोपों पर नहीं है. आरोप लगाने से केजरीवाल बेईमान साबित नहीं हो जाते हैं. सवाल है कि केजरीवाल खामोश क्यों हैं? क्या वे इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि कपिल मिश्रा का सारा गोला-बारूद खत्म हो जाए? या उन्हें राजनीति में किसी नए मोड़ का इंतजार है?