Monday, July 11, 2016

शिक्षा पर विमर्श क्यों नहीं?

पिछले दिनों केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल के बाद स्मृति ईरानी का मानव संसाधन विकास मंत्रालय से कपड़ा मंत्रालय में तबादला होने की खबर दूसरे कारणों से चर्चा का विषय बनी. इस फेरबदल के कुछ समय पहले ही सरकार ने नई शिक्षा नीति के मसौदे के कुछ बिन्दुओं को सार्वजनिक रूप से प्रकाशित किया था. यह तीसरा मौका है जब पर प्राइमरी से लेकर विश्वविद्यालयी शिक्षा के बारे में राष्ट्रीय स्तर पर विमर्श का अवसर आया है. पर क्या कहीं विमर्श हो रहा है?

Sunday, July 10, 2016

दक्षिण एशिया में आतंकी ज़हर


जम्मू-कश्मीर में सुरक्षाबलों ने हिज्बुल मुज़ाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी को मार गिराया। बुरहान कश्मीर में हिज्बुल मुजाहिदीन का पोस्टर बॉय था। उसकी मौत के साथ आतंकवाद का एक अध्याय खत्म हुआ तो दूसरा शुरू हो गया है। बुरहान को हिज्ब का टॉप कमांडर माना जाता था, जिसने सोशल मीडिया के जरिए आतंकवाद को दक्षिणी कश्मीर में फिर से जिंदा कर दिया है। उसकी मौत के बाद उसे अब शहीद के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। अब तक माना जाता था कि दक्षिण एशिया आतंक से मुक्त है, पर अब लगता है कि यहाँ आतंक का जहर फैलाने की कोशिशें बढ़ रहीं हैं।  

Saturday, July 9, 2016

ज़ाकिर नाइक उर्फ मीठा ज़हर

बांग्लादेश में एक के बाद एक आतंकी हिंसा की दो बड़ी घटनाएं न हुईं होतीं तो शायद ज़ाकिर नाइक पर हम ज्यादा ध्यान नहीं देते। वे सामान्य इस्लामी प्रचारक से अलग नजर आते हैं। हालांकि वे इस्लाम का प्रचार करते हैं, पर सबसे ज्यादा मुसलमान ही उनके नाम पर लानतें भेजते हैं। पिछले वर्षों में वे कई बार खबरों में रहे। सन 2009 में उत्तर प्रदेश के उनके कार्यक्रमों पर रोक लगाई गई थी। जनवरी 2011 में इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर में उनके एक कार्यक्रम का जबर्दस्त विरोध हुआ।

भारत और पाकिस्तान में दारुल उलूम उनके खिलाफ फतवा जारी कर चुका है। इतने विरोध के बावजूद उनकी लोकप्रियता भी कम नहीं है। क्यों हैं वे इतने लोकप्रिय? ताजा खबर यह है कि श्रीनगर में उनके समर्थन में पोस्टर लगे हैं। कश्मीरी आंदोलन को उनकी बातों में ऐसा क्या मिल गया? पर उसके पहले सवाल है कि बांग्लादेश के नौजवानों को उनके भाषणों में प्रेरक तत्व क्या मिला?

Sunday, July 3, 2016

दक्षिण एशिया में आईएस की दस्तक

ढाका-हत्याकांड में शामिल हमलावर बांग्लादेशी हैं। पर इस कांड की जिम्मेदारी दाएश यानी इस्लामिक स्टेट ने ली है। इसका मतलब है कि कोई स्थानीय संगठन आईएस से जा मिला है। सम्भावना इस बात की भी है कि जोएमबी नाम का स्थानीय गिरोह आईएस के साथ हो। बांग्लादेश सरकार की इस मामले में अभी टिप्पणी नहीं आई है, पर अभी तक वह आईएस की उपस्थिति का खंडन करती रही है। बहरहाल आईएस का इस इलाके में सक्रिय होना भारत के लिए चिंता का विषय है। 

पेरिस, ब्रसेल्स और इस्तानबूल के बाद ढाका। आइसिस ने एक झटके में सारे संदेह दूर कर दिए।  उसकी निगाहें अब दक्षिण एशिया के सॉफ्ट टारगेट पर हैं। पाकिस्तान के मुकाबले बांग्लादेश की स्थिति बेहतर है। उसकी अर्थ-व्यवस्था तेजी से बढ़ रही है। जनसंख्या में युवाओं का प्रतिशत बेहतर है। जमीन उपजाऊ है। यह 15 करोड़ मुसलमानों का देश भी है। दुनिया में चौथी सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी। अभी तक बांग्लादेश सरकार आइसिस को लेकर डिनायल मोड में थी। अब उसे स्वीकार करना चाहिए कि आइसिस और अल-कायदा दोनों ने उसकी जमीन पर अपने तम्बू तान दिए हैं। अब शको-शुब्हा नहीं बचा।

Thursday, June 30, 2016

वेतन-वृद्धि का सामाजिक दर्शन

देश के तकरीबन पाँच करोड़ लोग किसी न किसी रूप में वेतन-भत्तों, पेशन, पीएफ जैसी सुविधाओं का लाभ प्रप्त कर रहे हैं। इनमें से कुछ को स्वास्थ्य सेवा या स्वास्थ्य बीमा का लाभ भी मिलता है. हमारी व्यवस्था जिन लोगों को किसी दूसरे रूप में सामाजिक संरक्षण दे रही है, उनकी संख्या इसकी दुगनी हो सकती है. यह संख्या पूरी आबादी की की दस फीसदी भी नहीं है. इसका दायरा बढ़ाने की जरूरत है. कौन बढ़ाएगा यह दायरा? यह जिम्मेदारी पूरे समाज की है, पर इसमें सबसे बड़ी भूमिका उस मध्य वर्ग की है, जिसे सामाजिक संरक्षण मिल रहा है. केन्द्र सरकार के कर्मचारियों के वेतन-भत्तों का बढ़ना अच्छी बात है, पर यह विचार करने की जरूरत है कि क्य हम इतना ही ध्यान असंगठित वर्ग के मजदूरों, छोटे दुकानदारों, कारीगरों यानी गरीबों का भी रख पा रहे हैं. देश का मध्य वर्ग गरीबों और शासकों को बीच की कड़ी बन सकता है, पर यदि वह अपनी भूमिका पर ध्यान नहीं देगा तो वह शासकों का रक्षा कवच साबित होगा. व्यवस्था को पारदर्शी और कल्याणकारी बनाने में उसकी भूमिका बड़ी है. केन्द्र सरकार के कर्मचारियों के वेतन-भत्तों में सुधार  की खुशखबरी कुछ अंदेशों को जन्म भी देती है.


वित्त मंत्री अरुण जेटली पिछले दिसम्बर में कहा था कि कर्मचारियों के वेतन-भत्तों में वृद्धि को बनाए रखने के लिए देश को एक से डेढ़ प्रतिशत की अतिरिक्त आर्थिक संवृद्धि की जरूरत है. दुनिया का आर्थिक विकास जब ठहरने लगा है तब भारत की विकास दर में जुंबिश दिखाई पड़ रही है. ट्रिकल डाउन के सिद्धांत को मानने वाले कहते हैं कि आर्थिक विकास होगा तो ऊपर के लोग और ऊपर जाएंगे और उनसे नीचे वाले उनके बराबर आएंगे. नीचे से ऊपर तक सबको लाभ पहुँचेगा. पर इस सिद्धांत के साथ तमाम तरह के किन्तु परन्तु जुड़े हैं. इस वेतन वृद्धि से अर्थ-व्यवस्था पर तकरीबन एक फीसदी का बोझ बढ़ेगा और महंगाई में करीब डेढ़ फीसदी का इजाफा भी होगा. इसकी कीमत चुकाएगा असंगठित वर्ग. उसकी आय बढ़ाने के लिए भी कोई आयोग बनना चाहिए.