Sunday, April 12, 2015

क्या सुषमा स्वराज की उपेक्षा हो रही है?

मोदी और सुषमाः क्या सब कुछ ठीक है?

  • 35 मिनट पहले
मोदी, सुषमा स्वराज, अरुण जेतली, राजनाथ सिंह
मोदी सरकार का एक साल पूरा होने वाला है. इस दौरान उनके तौर-तरीकों को लेकर टिप्पणियाँ होने लगी हैं.
कहा जाता है कि सरकार की सारी ताकत मात्र एक व्यक्ति तक ही सीमित है. वे अपने सहयोगियों को सामने आने का मौका नहीं देते.
पार्टी के भीतर और सरकार दोनों में, सत्ता मोदी या उनके विश्वास-पात्रों तक ही सीमित है. उदाहरण के लिए सुषमा स्वराज की बात करते हैं, जो अपनी वरिष्ठता और अनुभव के लिहाज से दबकर काम करती हैं.

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दिग्यविजय सिंह
शनिवार की सुबह कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह ने ट्वीट किया, "जिस वक्त नरेंद्र मोदी विदेश में समझौतों पर दस्तख़त कर रहे हैं, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज विदिशा, मध्य प्रदेश में मोदी की भावी उपलब्धियों का प्रचार कर रही हैं."
इसके ठीक पहले उन्होंने एक और ट्वीट किया, "जिस वक्त प्रधानमंत्री फ्रांस में हवाई जहाज़ खरीद रहे थे, उस वक्त गोवा में हमारे रक्षामंत्री मछली खरीद रहे थे! मिनिमम गवर्नमेंट एंड मैक्सीमम गवर्नेंस."

कैसा है यह धुआं?

दिग्विजय सिंह अनुभवी नेता हैं. वे शिष्टाचार को बेहतर जानते हैं. प्रधानमंत्री के साथ विदेश मंत्री या रक्षामंत्री के होने की अनिवार्यता नहीं है. इसके पहले किसी ने कभी ध्यान नहीं दिया होगा कि प्रधानमंत्रियों के दौरे में विदेश मंत्री जाते रहे हैं या नहीं.
दिग्विजय सिंह भाजपा की दुखती रग पर हाथ रखा है. मोदी सरकार को असमंजस में डालने का मौका मिलेगा तो वे चूकेंगे नहीं. यह व्यावहारिक राजनीति है. सवाल उस आग का है जो इस धुएं के पीछे है.
क्या यह माने कि दिग्विजय सिंह मोदी जी से कह रहे हैं कि अपने काबिल मंत्रियों की उपेक्षा न करें? अलबत्ता यह बात सुषमा स्वराज पर लागू हो भी सकती है, मनोहर पर्रिकर पर नहीं.

एक और पाकिस्तानी नाटक

लाहौर हाईकोर्ट ने ज़की उर रहमान लखवी को रिहा कर दिया है। संयोग से जिस रोज़ यह खबर आई उस रोज़ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी फ्रांस में थे। लखवी की रिहाई पर फ्रांस ने भी अफसोस ज़ाहिर किया है। अमेरिका और इसरायल ने भी इसी किस्म की प्रतिक्रिया व्यक्त की है। पर इससे होगा क्या? क्या हम पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में अलग-थलग कर पाएंगे? तब हमें क्या करना चाहिए? क्या पाकिस्तान के साथ हर तरह की बातचीत बंद कर देनी चाहिए? फिलहाल लगता नहीं कि कोई बातचीत सफल हो पाएगी। पाकिस्तान के अंतर्विरोध ही शायद उसके डूबने का कारण बनेंगे। हमें फिलहाल उसके नागरिक समाज की प्रतिक्रिया का इंतज़ार करना चाहिए, जो पेशावर के आर्मी पब्लिक स्कूल में बच्चों का हत्या को लेकर स्तब्ध है।

Saturday, April 11, 2015

भाजपा की नया ‘मार्ग’, पुराना ‘दर्शन’ दुविधा

बेंगलुरु में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक को उससे मिलने वाले संकेतों के मद्देनज़र देखा जाना चाहिए। दक्षिण में पार्टी की महत्वाकांक्षा का पहला पड़ाव कर्नाटक है। अगले साल तमिलनाडु और केरल में चुनाव होने वाले हैं। उसके पहले इस साल बिहार में चुनाव हैं। पिछले साल लोकसभा चुनाव में भारी विजय के बाद पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की यह पहली बैठक थी। चुनाव पूर्व की बैठकें नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को लेकर असमंजस से भरी होती थीं। अबकी बैठक मोदी सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों की पुष्टि में थी। पार्टी की रीति-नीति, कार्यक्रम और कार्यकर्ता भी बदल रहे हैं।

इस बैठक में पार्टी के मार्गदर्शी लालकृष्ण आडवाणी का उद्बोधन न होना पार्टी की भविष्य की दिशा का संकेत दे गया है। यह पहला मौका है जब आडवाणी जी के प्रकरण पर मीडिया ने ज्यादा ध्यान नहीं दिया। अलबत्ता राष्ट्रीय नीतियों को लेकर मोदी युग की आक्रामकता इस बैठक में साफ दिखाई पड़ी। यह बात मोदी के तीन भाषणों में भी दिखाई दी। मोदी ने कांग्रेस पर अपने आक्रमण की धार कमजोर नहीं होने दी है। इसका मतलब है कि उनकी दिलचस्पी कांग्रेस के आधार को ही हथियाने में है। उनका एजेंडा कांग्रेसी एजेंडा के विपरीत है। दोनों की गरीबों, किसानों और मजदूरों की बात करते हैं, पर दोनों का तरीका फर्क है।

Friday, April 10, 2015

बिहार-2010 परिणाम

बिहार-2015 तथ्य-पत्र
युवा पत्रकार अभय कुमार चुनाव सांख्यिकी तैयार करने में विशेषज्ञता हासिल कर रहे हैं। मेरे पास वे अपना काम भेजते रहते हैं। इस साल बिहार में चुनाव होने वाले हैं। उन्होंने बिहार का तथ्य पत्र बना शुरू किया है। अभी तक तो मैं उनकी सामग्री अपने पास रख लेता था। मुझे लगता है इसे प्रकाशित भी करना चाहिए। आज मैं बिहार के 2010 के चुनाव परिणामों का विवरण रख रहा हूँ। चुनाव से जुड़े रोचक तथ्य मैं इसके बाद धीरे-धीरे पेश करूँगा। 

Tuesday, April 7, 2015

सार्वजनिक स्वास्थ्य राजनीति का विषय बनाइए, राजनीतिबाज़ी का नहीं

आप कहेंगे कि राजनीतिबाज़ी और राजनीति में फर्क क्या है? हमें जो राजनीति दिखाई पड़ती है वह ज्यादातर राजनीतिबाज़ी है। इसमें सिद्धांत कम, मौकापरस्ती ज्यादा है। सत्ता पर यह पार्टी रहे या वह रहे, इससे तबतक कोई फर्क नहीं पड़ता जबतक सार्वजनिक विमर्श मूल्य-आधारित नहीं होता। अचानक हम तम्बाकू पर चर्चा शुरू होती देखते हैं और फिर उसे किसी दूसरी चर्चा शुरू होने पर खत्म होते भी देखते हैं। इसके मूल में सार्वजनिक स्वास्थ्य नहीं, मौकापरस्त राजनीति है। तम्बाकू का सवाल इसलिए ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि हम एक अंतरराष्ट्रीय संधि से जुड़े हैं। पर केवल तम्बाकू ही स्वास्थ्य के लिए हानिकारक नहीं है। शराब, नमक, चीनी, कोल्ड ड्रिकं, फास्ट फूड, चिकनाई और पर्यावरण में फैला ज़हर भी खतरनाक है। बड़ा सच यह है कि कैंसर और एचआईवी के मुकाबले सर्दी-ज़ुकाम और कुपोषण से मरने वालों की तादाद कहीं ज्यादा है। इन सबके  इलाज और नियमन पर विचार किया जाना चाहिए। भारत का अनुभव है कि तम्बाकू उत्पादों पर खौफनाक तस्वीरें छापने पर ही जनता का ध्यान अपने स्वास्थ्य पर जाता है। वह तभी विचलित होती है जब परेशान करने वाली तस्वीरें देखती है। इन सवालों पर केंद्रित राजनीति हमारे यहाँ विकसित नहीं है। जनता के साथ-साथ हमें अपनी राजनीति को शिक्षित करने की जरूरत भी है।

इस बात को लेकर बहस करने का कोई मतलब नहीं है कि तम्बाकू का सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकर है या नहीं। भारत में बीड़ी को लेकर कोई शोध नहीं हुआ है तो कराइए। इससे जुड़े कारोबार के सामाजिक प्रभावों पर भी अध्ययन होना चाहिए। पर सच यह है कि हम सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूक नहीं हैं। इसी कारण तम्बाकू को लेकर चल निकली बहस सेहत से जुड़ी चिंताओं के बजाय राजनीतिक खेमेबाज़ी में तब्दील हो रही है। तम्बाकू लॉबी की ताकत जग-ज़ाहिर है। पर लॉबी सिर्फ तम्बाकू की ही नहीं है। इन लॉबियों पर नकेल डालने वाले समाज की स्थापना के बारे में सोचिए।