Thursday, November 20, 2014

आक्रामक राजनय का दौर

पिछले तीन महीने में भारत की सामरिक और विदेश नीति से जुड़े जितने बड़े कदम उठाए गए हैं उतने बड़े कदम पिछले दो-तीन दशकों में नहीं उठाए गए। इसकी शुरूआत 26 मई को नई सरकार के शपथ ग्रहण समारोह से हो गई थी। इसमें पड़ोसी देशों के राष्ट्राध्यक्षों को बुलाकर भारत ने जिस नए राजनय की शुरूआत की थी उसका एक चरण 25 से 27 नवम्बर को काठमांडू में पूरा होगा। दक्षेस देशों के वे सभी राजनेता शिखर सम्मेलन में उपस्थित होंगे जो दिल्ली आए थे। प्रधानमंत्री ने 14 जून को देश के नए विमानवाहक पोत विक्रमादित्य पर खड़े होकर एक मजबूत नौसेना की जरूरत को रेखांकित करते हुए समुद्री व्यापार-मार्गों की सुरक्षा का सवाल उठाया था। उन्होंने परम्परागत भारतीय नीति से हटते हुए यह भी कहा कि हमें रक्षा सामग्री के निर्यात के बारे में भी सोचना चाहिए।

Tuesday, November 18, 2014

नेहरू के सहारे गैर-भाजपा एकता की कोशिश

 कांग्रेस पार्टी क्या जवाहर लाल नेहरू की 125 वीं जयंती के मौके पर गैर-भाजपा राजनीति का श्रीगणेश करना चाहती है? क्या देश का बिखरा विपक्ष वर्तमान हालात को देखते हुए उसके साथ आ जाएगा। बहरहाल नरेंद्र मोदी की ऑस्ट्रेलिया यात्रा की कवरेज ने कल दिल्ली में हुए समारोह को पीछे कर दिया। दिल्ली के कुछ अखबारों ने आज राहुल गांधी और प्रकाश करत की तस्वीरें छापी हैं। ममता बनर्जी भी इस समारोह में शामिल हुईं। आज के टेलीग्राफ ने इस बातो को खास महत्व दिया कि ममता ने कल आडवाणी जी और अरुण जेटली से मुलाकात भी की। अलबत्ता इंडियन एक्सप्रेस का शीर्षक है Mamata Banerjee ready to be part of ‘secular front’ to fight communal forces; but won’t lead. गौर करें आज की कतरनों पर
हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून
आज के हिंदुस्तान टाइम्स के सम्पादकीय पेज पर सीताराम येचुरी का यह लेख भी पठनीय है
The Right-wing route is wrong
Sitaram Yechury
November 17, 2014
The current flavour of the month for the chatteratti is the 125th birth anniversary of the first Prime Minister of India, Jawaharlal Nehru. For the media, ‘Breaking News’ is generating a debate on why the Congress has not invited Prime Minister Narendra Modi to its international seminar on Nehru’s worldview and legacy.

Monday, November 17, 2014

जनता खेमे में यह उमड़-घुमड़ कैसी?

हिंदू में केशव का कार्टून
जनता परिवार की पार्टियों के एक होने की कोशिशों के पीछे सबसे बड़ी वजह यही लगती है कि नरेंद्र मोदी और बीजेपी के देश में बढ़ते असर को रोकने के लिए उन्हें एक छतरी की जरूरत है। यह छतरी किस तरह की होगी और कब तक कायम रहेगी? इस सवाल का जवाब देने के लिए पहले हमें उस छतरी के खड़े होने का इंतज़ार करना होगा। पिछले साल इन्हीं दिनों से शुरू हुई इस मुहिम के सिलसिले में कम से कम तीन बड़ी बैठकें तकरीबन इन्हीं नेताओं की दिल्ली में हो चुकी हैं। नतीजा सामने नहीं आया है।

इधर जवाहर लाल नेहरू की 125वीं जयंती के सहारे कांग्रेस ने जरूर धर्म निरपेक्ष छतरी के रूप में अपनी बैनर भी ऊँचा कर दिया है। सवाल है कि धर्म निरपेक्षता की ध्वजवाहक कांग्रेस को माना जाए या जनता परिवार से जुड़ी उन पार्टियों को जो गाहे-बगाहे एक साथ आती हैं और फिर अलग हो जाती हैं? पर जैसा कि जनता परिवार के कुछ नेता कह रहे हैं कि इस मुहिम का मोदी और भाजपा से कुछ भी लेना-देना नहीं है। हम तो नई राजनीति की शुरूआत करना चाहते हैं, तब सवाल पैदा होगा कि इस नई राजनीति में नया क्या है? मुलायम सिंह यादव और लालू यादव की राजनीति के मुकाबले नीतीश कुमार की राजनीति में नई बात विकास और सुशासन वगैरह की थी, पर वह नारा तो भाजपा के साथ गया। क्या वह अब भी नीतीश कुमार का नारा है?

Sunday, November 16, 2014

मोदी का 'एक्ट ईस्ट'

भारत की लुक ईस्ट पॉलिसी को देश के नए नेतृत्व ने एक्ट ईस्ट का एक नया रंग दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस वक्त ऑस्ट्रेलिया की यात्रा पर हैं, जहाँ एक और भारत-ऑस्ट्रेलिया रिश्तों पर बात होगी वहीं वे ब्रिसबेन में हो रहे जी-20 शिखर सम्मेलन में हिस्सा ले रहे हैं। वैश्विक अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाने, पश्चिम एशिया में इस्लामिक स्टेट के नाम के एक नए आंदोलन के खड़े होने और एशिया-प्रशांत क्षेत्र के बदलते परिदृश्य के विचार से यह सम्मेलन बेहद महत्वपूर्ण है। ब्राजील में हुए ब्रिक्स सम्मेलन के बाद नरेंद्र मोदी का यह सबसे बड़ा अंतरराष्ट्रीय संवाद भी है। इसके पहले वे म्यांमार में हुए आसियान शिखर सम्मेलन और ईस्ट एशिया समिट में हिस्सा लेकर आए हैं, जहाँ उन्होंने भारत के आर्थिक बदलाव का जिक्र करने के अलावा भारत की क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं का उल्लेख भी किया। उन्होंने लुक ईस्ट के संवर्धित रूप एक्ट ईस्ट का जिक्र भी इस बार किया।

Saturday, November 15, 2014

बिखरे जनता परिवार की एकता?

 क्षेत्रीय राजनीति के लिए सही मौका है और दस्तूर भी,
पर इस त्रिमूर्ति का इरादा क्या है?
पिछले हफ्ते दिल्ली में बिखरे हुए जनता परिवार को फिर से बटोरने की कोशिश के पीछे की ताकत और सम्भावनाओं को गम्भीरता के साथ देखने की जरूरत है। इसे केवल भारतीय जनता पार्टी को रोकने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है। व्यावहारिक रूप से यह पहल ज्यादा व्यापक और प्रभावशाली हो सकती है। खास तौर से कांग्रेस के पराभव के बाद उसकी जगह को भरने की कोशिश के रूप में यह सफल भी हो सकती है। भारतीय जनता पार्टी ने राष्ट्रीय राजनीति को एक-ध्रुवीय बना दिया है। उसके गठबंधन सहयोगी भी बौने होते जा रहे हैं। ऐसे में क्षेत्रीय राजनीति को भी मंच की तलाश है। संघीय व्यवस्था में क्षेत्रीय आकांक्षाओं को केवल राष्ट्रीय पार्टी के भरोसे छोड़ा नहीं जा सकता। पर सवाल यह है कि लालू, मुलायम, नीतीश पर केंद्रित यह पहल क्षेत्रीय राजनीति को मजबूत करने के वास्ते है भी या नहीं? इसे केवल अस्तित्व रक्षा तक सीमित क्यों न माना जाए?