Friday, May 30, 2014

हिंदी पत्रकारिता की साख बचाने का सवाल

188 साल की हिंदी पत्रकारिता का खोया-पाया, बता रहे हैं प्रमोद जोशी

प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
हिंदी से जुड़े मसले, पत्रकारिता से जुड़े सवाल और हिंदी पत्रकारिता की चुनौतियां किसी एक मोड़ पर जाकर मिलती हैं। कई प्रकार के अंतर्विरोधों ने हमें घेरा है। सबसे बड़ी बात यह है कि यह कारोबार जिस लिहाज से बढ़ा है उस कदर पत्रकारिता की गुणवत्ता नहीं सुधरी। मीडिया संस्थान कारोबारी हितों को लेकर बेहद संवेदनशील हैं, पर पाठकों के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निभा नहीं पाते हैं। इस बिजनेस में परम्परागत मीडिया हाउसों के मुकाबले चिटफंड कंपनियां, बिल्डर, शिक्षा के तिज़ारती और योग-आश्रमों तथा मठों से जुड़े लोग शामिल होने को उतावले हैं, जिनका उद्देश्य जल्दी पैसा कमाने के अलावा राजनीति और प्रशासन के बीच रसूख कायम करना है। हिंदी का मीडिया स्थानीय स्तर पर छुटभैया राजनीति के साथ तालमेल करता हुआ विकसित हुआ है।
हाल के वर्षों में अखबारों पर राजनीतिक झुकाव, जातीय-साम्प्रदायिक संकीर्णता और मसाला-मस्ती बेचने का आरोप है। उन्होंने गम्भीर विमर्श को त्याग कर सनसनी फैलाना शुरू कर दिया है। उनके संवाद संकलन में खोज-पड़ताल, विश्लेषण और सामाजिक प्रश्नों की कमी होती जा रही है। निष्पक्ष और स्वतंत्र टिप्पणियों का अभाव है, बल्कि अक्सर वह महत्वपूर्ण प्रश्नों पर अपनी राय नहीं देता। जीवन, समाज, राजनीति और प्रशासन पर उसका प्रभाव यानी साख कम हो रही है। मेधावी नौजवानों को हम इस व्यवसाय से जोड़ने में विफल हैं।
हिंदी का पहला अखबार 1826 में निकला और एक साल बाद ही बन्द हो गया। कानपुर से कलकत्ता गए पंडित जुगल किशोर शुक्ल के मन में इस बात को लेकर तड़प थी कि बांग्ला और फारसी में अखबार है। हिंदी वालों के हित के हेत में कुछ होना चाहिए। इस बात को 188 साल हो गए। हम ‘उदंत मार्तंड’ के प्रकाशन का हर साल समारोह मनाते हुए यह भूल जाते हैं कि वह अखबार बंद इसलिए हुआ क्योंकि उसे चलाने लायक समर्थन नहीं मिला। पं जुगल किशोर शुक्ल ने बड़ी कड़वाहट के साथ अपने पाठकों और संरक्षकों को कोसते हुए उसे बंद करने की घोषणा की थी। आज इस कारोबार में पैसे की कमी नहीं है। पर पाठक से कनेक्ट कम हो रहा है।

Thursday, May 29, 2014

टाइम के कवर पर विज्ञापन, यानी हंगामा हो गया




 

भारत के पाठकों को यह जानकारी निरर्थक लगेगी कि अमेरिका की प्रसिदध पत्रिका टाइम के कवर पेज पर छोटा सा विज्ञापन छपने लगा है। पत्रिका की प्रकाशक संस्था टाइम इनकॉरपोरेट ने टाइम और स्पोर्ट्स इलस्ट्रेटेड इन दो पत्रिकाओं के कवर पेज पर विज्ञापन लेना शुरू कर दिया है। भारत में दैनिक अखबारों के पहले सफे के पहले चार-चार पेज के जैकेट देखने के आदी भारतीय पाठकों के विस्मय होगा कि अमेरिका में इस नई परम्परा को लेकर बहस शुरू हो गई है। वहाँ की पत्रकारिता में इसे परम्परा तोड़ना माना जा रहा है। पत्रिकाओं को बचाने की कोशिश में इसे एक कदम माना जा रहा है, पर मीडिया से जुड़े लोगों का कहना है कि यह विज्ञापन कल कितना बड़ा हो जाएगा कौन जाने? अब देखना यह है कि इससे सीख कितनी पत्रिकाएं लेती हैं। बाईं ओर प्रकाशित चित्र में नया कवर है और  नीचे उस विज्ञापन का कुछ बड़ा करके दिखाया गया चित्र।



इस विषय पर विवरण पढ़ें यहाँ

इसी विषय से जुड़ा न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित समाचार पढ़ें यहाँ


Wednesday, May 28, 2014

और अब चुनौतियाँ

बादल छँटने के बाद अर्थव्यवस्था की वास्तविकता से सामना हिंदू में केशव का कार्टून

सरकार अब काम-काज के मोड में आ रही है। शपथ-ग्रहण समारोह के बाद दक्षेस के सात देशों और मॉरिशस के प्रतिनिधियों के आगमन ने माहौल को सरगर्म बना दिया। खासतौर से पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की यात्रा से विमर्श का स्तर अच्छा हो गया। भारतीय मीडिया में पाकिस्तानी विशेषज्ञों ने आकर इस बातचीत को सार्थक बनाया। लगता है भारत और पाकिस्तान दोनों देशों की सरकारें मीडिया की बातों को घुमाने की प्रवृत्ति से घबराती हैं। कल विदेश सचिव सुजाता सिंह जिस तरह शब्दों को चुन-चुनकर बोल रहीं थीं, उससे लगता था कि उन्हें इस बात की घबराहट थी कि कहीं कुछ गलत मुँह से न निकल जाए। नवाज शरीफ ने अपना बयान पढ़कर सुनाया। उनकी ब्रीफिंग में सवाल-जवाब नहीं हुए। पर इतना तय है कि कुछ होता हुआ लग रहा है। क्या यह सरकार काम करेगी? इस बात के जवाब के लिए कुछ समय इंतज़ार करें, पर स्मृति ईरानी की पढ़ाई और जितेन्द्र सिंह के अनुच्छेद 370 वाले बयान ने विवादों की शुरूआत कर दी है। मीडिया से अपेक्षा थी कि वह वह कुछ महत्वपूर्ण नेताओं की शिक्षा के बारे में बताता मसलन के कामराज, जयललिता, राबड़ी देवी या सोनिया गांधी की शैक्षिक पृष्ठभूमि के बारे में बताया जाता। उपरोक्त नेताओं ने समय आने पर अपनी योग्यता को साबित किया। इस सरकार से काले धन को लेकर अपेक्षाएं हैं और कैबिनेट ने एक विशेष जाँच दल बनाने का फैसला किया है। रोचक बात है कि पिछली यूपीए सरकार ने सत्ता में आखिरी दिन तक इस जाँच दल को बनाने का विरोध किया था। सरकार ने पहला कदम उठाया है इसकी तार्किक परिणति सामने आने में समय लगेगा। देखना है कि स्विस सरकार के साथ सूचनाएं देने वाले समझौते की स्थिति क्या है। आज के टेलीग्राफ में राधिका रमाशेसन की खबर अच्छी है कि स्मृति, अरुण और निर्मला के नामों की चर्चा क्यों हो रही है।






Tuesday, May 27, 2014

मोदी के शपथ ग्रहण की भड़कीली कवरेज

नरेंद्र मोदी का शपथ ग्रहण समारोह जबर्दस्त मीडिया ईवेंट साबित होना ही था। पर पत्रकारों की समझदारी इस बात में थी कि वे अंतर्विरोधों को कितनी बारीकी से पकड़ते हैं। हिंदी के ज्यादातर अखबारों ने भक्तिभाव से कवरेज की और ज्यादा प्रभाव डिजाइन से डालने की कोशिश की। मास्टहैड की तस्वीर को लेकर कोई रचनात्मक योजना दिखाई नहीं पड़ी। ज्यादातर मुहावरे राजतिलक, राज्याभिषेक तक सीमित हैं। इनसे तो एक्सप्रेस का He Signs in बेहतर है। अंतर्कथाएं भी नहीं हैं। खबरों में भी दिल्ली के एक्सप्रेस और कोलकाता के टेलीग्राफ में नयापन था। खासतोर से टेलीग्राफ में शंकर्षण ठाकुर की रपट। अलबत्ता पाकिस्तान के अखबारों ने आज इस खबर को जैसा महत्व दिया है, वह ध्यान खींचता है। आज की कुछ कतरनें





The Telegraph



Indian Express

Pakistan


                                               
                                            





Monday, May 26, 2014

कयासबाजी का शिकार मीडिया



आज पूरा मीडिया मोदी के शपथ ग्रहण को लेकर अभिभूत है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की सीमा है कि वह रचनात्मक विमर्श और सूचनाएं देने में पूरी तरह समर्थ नहीं है। बेशक उसके पास इतने साधन हैं कि वह काफी प्रभावशाली जानकारी दे सकता है। पर दो कारणों से वह अधकचरी सामग्री परोस कर संतुष्ट हो जाता है। एक तो दर्शक को अच्छे और खराब का अंतर नहीं मालूम। वह सनसनी के खेल में उलझ कर रह जाता है। कल शाम कुछ चैनल भारत और पाकिस्तान के दर्शकों और विशेषज्ञों को बैठाकर  बात कर रहे थे। पर सारी बात पर बेवजह के विवाद हावी थे। तमाम बातों से लोग नावाकिफ थे। लोगों को पता नहीं कि कश्मीर समस्या क्या है, संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव क्या था, सियाचिन का विवाद क्या है और जनरल मुशर्रफ के साथ जिस समझौते की सम्भावना थी वह क्या था। दूसरी ओर भारत को लेकर पाकिस्तान की जनता की शिकायत क्या है, इसे भी समझना चाहिए। होमवर्क बहुत खराब स्तर का है। पर यह अवधारणा बेहतरीन है। दोनों देशों का मीडिया मिलकर काम करे तो परिणाम चमत्कारी हो सकते हैं। आज के टेलीग्राफ ने शपथ ग्रहण समारोह के सिलसिले में राष्ट्रपति भवन के प्रांगण का विहंगम चित्र देकर आसपास की इमारतों का जो परिचय दिया है, वह रचनात्मक पत्रकारिता का परिचायक है। मोदी संरकार की संरचना क्या होगी, इसे लेकर मीडिया में कयास ही कयास हैं। मोदी के नेतृत्व ने खबरों को लीक होने से रोककर मीडिया को हतप्रभ किया है। सबसे बड़ा सस्पेंस किसे क्या  मिलने वाला है? सम्भावित मत्रियों के नामों की सूची मीडिया के पहले सिक्योरिटी को मिली। मीडिया चूकि कयासबाज़ी से जुड़ी खबरें देने का आदी है इसलिए शासन की नीतियों को लेकर अभी तक अच्छी खबरें सामने नहीं आईं हैं।

भारतीय समाज इस वक्त मीडिया से काफी प्रभावित है। हालांकि हमारे मीडिया की आलोचना भी होती है, पर इसमें दो राय नहीं कि छोटे से छोटे शहर में भी भारतीय भाषाओं के अखबारों क पहुँचने और भारी संख्या में समाचार चैनलों के शुरू होने से जानकारी का विस्फोट हो रहा है। न्यूयॉर्क टाइम्स के भारत केंद्रित ब्लॉग India Ink में आज Max Bearak  के आलेख में भारतीय मीडिया कारोबार की बढ़ती सम्भावनाओं का जिक्र है। क्या भारत में एक और मीडिया क्रांति की सम्भावना है। आलेख में कहा गया हैः-

Newspaper is everywhere in India. Print readership, especially of the country’s vernacular press, is continuing to rise.
At breakfast tea joints in Indian cities, people sip chai and unfold their broadsheets, which they lay out over older newspapers, used as a tablecloth, before reaching for samosas packed in makeshift to-go bags, themselves fashioned out of folded and stapled newsprint.
Samir Patil, a longtime Indian media entrepreneur, recounted a quote he once heard attributed to Immanuel Kant. “In modern city life, it has been said that the secular ritual of reading the newspaper replaces the morning prayer.” While that observation may no longer be valid in much of the West, it’s still an apt description of media consumption in India.
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