Thursday, May 15, 2014

ओपीनियन पोल संज़ीदा काम है कॉमेडी शो नहीं

एक होता है ओपीनियन पोल और दूसरा एक्ज़िट पोल। तीसरा रूप और है पोस्ट पोल सर्वे का, जिसे लेकर हम ज़्यादा विचार नहीं करते। क्योंकि उसका असर चुनाव परिणाम पर नहीं होता। यहीं पर इन सर्वेक्षणों की ज़रूरत और उनके दुरुपयोग की बात पर रोशनी पड़ती है। इनका काम जनता की राय को सामने लाना है। पर हमारी राजनीतिक ताकतें इनका इस्तेमाल प्रचार तक सीमित मानती हैं। इनका दुरुपयोग भी होता है। अक्सर वे गलत भी साबित होते हैं। हाल में कुछ स्टिंग ऑपरेशनों से पता लगा कि पैसा लेकर सर्वे परिणाम बदले भी जा सकते हैं।

जनता की राय को सामने लाने वाली मशीनरी की साख का मिट्टी में मिलते जाना खतरनाक है। इन सर्वेक्षणों की साख के साथ मीडिया की साख जुड़ी है। पर कुछ लोग इन सर्वेक्षणों पर पाबंदी लगाने की माँग करते हैं। वह भी इस मर्ज की दवा नहीं है। हमने लोकमत के महत्व को समझा नहीं है। लोकतंत्र में बात केवल वोटर की राय तक सीमित नहीं होती। यह मसला पूरी व्यवस्था में नागरिक की भागीदारी से जुड़ा है। जनता के सवाल कौन से हैं, वह क्या चाहती है, अपने प्रतिनिधियों से क्या अपेक्षा रखती है जैसी बातें महत्वपूर्ण हैं। ये बातें केवल चुनाव तक सीमित नहीं हैं।

हमने ज़रूरी सावधानियाँ नहीं बरतीं

लोकतांत्रिक जीवन में तमाम सवालों पर लगातार लोकमत को उभारने की ज़रूरत होती है। यह जागृत-लोकतंत्र की बुनियादी शर्त है। अमेरिका का प्यू रिसर्च सेंटर इस काम को बखूबी करता है और उसकी साख है। हमारा लोकतंत्र पश्चिमी मॉडल पर ढला है। ओपीनियन पोल की अवधारणा भी हमने वहीं से ली, पर उसे अपने यहाँ लागू करते वक्त ज़रूरी सावधानियाँ नहीं बरतीं। हमारे यहाँ सारा ध्यान सीटों की संख्या बताने तक सीमित है। वोटर को भेड़-बकरी से ज्यादा नहीं मानते। इसलिए पहली जरूरत है कि ओपीनियन पोलों को परिष्कृत तरीके से तैयार किया जाए और उनकी साख को सूरज जैसी ऊँचाई तक पहुँचाया जाए।

जब मुँह के बल गिरा अनुमान

भारत में सबसे पहले साठ के दशक में सेंटर फॉर द स्टडीज़ ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज़ ने सेफोलॉजी या सर्वेक्षण विज्ञान का अध्ययन शुरू किया। नब्बे के दशक में कुछ पत्रिकाओं और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने चुनाव सर्वेक्षणों को आगे बढ़ाया। कुछ सर्वेक्षण सही भी साबित हुए हैं। पर पक्के तौर पर नहीं। मसलन सन 1998 और 1999 के लोकसभा चुनाव के सर्वेक्षण काफी हद तक सही थे, तो 2004 और 2009 के काफी हद तक गलत। सन 2007 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में मायावती की बसपा की भारी जीत और 2012 में मुलायम सिंह की सपा को मिली विश्वसनीय सफलता का अनुमान किसी को नहीं था। इसी तरह पिछले साल हुए उत्तर भारत की चार विधानसभाओं के परिणाम सर्वेक्षणों के अनुमानों से हटकर थे। मसलन दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सफलता का अनुमान केवल एक सर्वेक्षण में लगाया जा सका। राजस्थान और मध्य प्रदेश में कांग्रेस का इस बुरी तरह सूपड़ा साफ होने की भविष्यवाणी किसी ने नही की थी।

सामाजिक संरचना भी जिम्मेदार

सर्वेक्षण चुनाव की दिशा बताते हैं, सही संख्या नहीं बता पाते। इसका एक बड़ा कारण हमारी सामाजिक संरचना है। पश्चिम में समाज की इतनी सतहें नहीं होतीं, जितनी हमारे समाज में हैं। आय, धर्म, लिंग, उम्र और इलाके के अलावा जातीय संरचना चुनाव परिणाम को प्रभावित करती है। हमारे ज्यादातर सर्वेक्षण बहुत छोटे सैम्पल के सहारे होते हैं। पिछले साल दिल्ली विधान सभा की 70 सीटों के लिए एचटी-सीफोर सर्वेक्षण का दावा था कि 14,689 वोटरों को सर्वेक्षण में शामिल किया गया। यानी औसतन हर क्षेत्र में तक़रीबन 200 वोटर। जिस विधानसभा क्षेत्र में वोटरों की संख्या डेढ़ से दो लाख है (क्षमा करें मेरी गलती से अखबार में यह संख्या करोड़ छपी है), उनमें से 200 से राय लेकर किस प्रकार सही निष्कर्ष निकाला जा सकता है? दिल्ली विधानसभा चुनाव में आपने अपना सर्वे भी कराया। उसका दावा था कि उसने 35,000 वोटरों का सर्वे कराया। यानी औसतन 500 वोटर। सीवोटर ने उत्तर भारत की चार विधान सभाओं की 590 सीटों के लिए 39,000 वोटरों के सर्वे का दावा किया है। यानी हर सीट पर 60 से 70 वोटर।


अटकलबाज़ी को सर्वेक्षण कहना गलत

आप कल्पना करें कि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के सुदूर और विविध जन-संस्कृतियों वाले इलाक़ों से कोई राय किस तरह निकल कर आई होगी। ऊपर बताए सैम्पल भी दावे हैं। जरूरी नहीं कि वे सही हों। इस बात की जाँच कौन करता है कि कितना बड़ा सैम्पल लिया गया। वे अपनी अधयन पद्धति भी नहीं बताते। केवल सैम्पल से ही काम पूरा नहीं होता सर्वेक्षकों की समझदारी और वोटर से पूछे गए सवाल भी महत्वपूर्ण होते हैं। जनमत संग्रह का बिजनेस मॉडल इतना अच्छा नहीं है कि अच्छे प्रशिक्षित सर्वेक्षक यह काम करें। पूरा डेटा सही भी हो तब भी उससे सीटों की संख्या किस प्रकार हासिल की जाती है, इसे नहीं बताते। जल्दबाज़ी में फैसले किए जाते हैं। यह शिकायत आम है कि डेटा में जमकर हेर-फेर होती है। बेशक कुछ लोगों से बात करके चुनाव की दशा-दिशा का अनुमान लगाया जा सकता है। वह अनुमान सही भी हो सकता है, पर अटकलबाज़ी को वैज्ञानिक सर्वेक्षण कहना गलत है। चैनलों के अधकचरे एंकर ब्रह्मा की तरह भविष्यवाणी करते वक्त कॉमेडियन जैसे लगते हैं। सर्वेक्षण जरूरी हैं, पर उन्हें कॉमेडी शो बनने से रोकना होगा। 

Wednesday, May 14, 2014

चुनाव परिणामों को लेकर संघ और कांग्रेस के आंतरिक सर्वे

लोकसभा चुनाव परिणामों को लेकर राष्ट्रीय संवयं सेवक संघ ने अपने स्वयंसेवकों के मार्फत जो सर्वेक्षण कराया है, वह इस प्रकार है। इसमें केसरिया रंग के कॉलम में प्राप्त सीटों का अनुमान है और हरे रंग के कॉलम में अंदेशा है कि खराब से खराब स्थिति में कितनी सीटें मिलेंगी।



अमर उजाला ने कांग्रेस पार्टी के सर्वेक्षण का हवाला देकर बताया है कि पार्टी को 166 सीटें मिलने की आशा है। अखबार का कहना है किः-

हाल में कुल छह एग्जिट पोल किए गए, जिनमें से ज्यादातर में दावा किया गया कि कांग्रेस इस बार सौ सीटों तक नहीं पहुंच रही है। पर कांग्रेस का सर्वे इन सभी से अलग है।

राहुल गांधी की अगुवाई में चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस के इस पोल में दावा किया गया है कि उसे कुल 543 सीटों मेंसे 166 सीटें मिल सकती हैं। हालांकि, यह सर्वे अंतिम चरण की सीटों पर मतदान से पहले किया गया था।

इसमें कहा गया था कि अंतिम चरण में 39 सीटों पर वोटिंग होनी बाकी है, ऐसे में नरेंद्र मोदी को कुछ फायदा जरूर हो सकता है, क्योंकि उससे ठीक पहले चुनाव चिन्ह दिखाने को लेकर उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई थी।

इस आंतरिक सर्वे में यह भी कहा गया कि नरेंद्र मोदी ने आचार संहिता का जो उल्लंघन किया और चुनाव आयोग पर बोला गया सीधा हमला यह संकेत है कि भाजपा जानती है कि वो लड़ाई हारने की वजह से घबराहट महसूस कर रही है।

इस सर्वे में कहा गया है कि दलितों ने मुस्लिमों के साथ 67 सीटों पर मोदी के खिलाफ वोटिंग की है, जिसके कारण यूपीए 166 सीटों तक पहुंच सकती है। आकलन में यह भी कहा गया है कि मोदी का पीएम पद तक पहुंचना मुश्किल है, क्योंकि वो अति आत्मविश्वासी हैं।

इसमें कहा गया है कि अगर भाजपा मोदी के बजाय क‌िसी और को पीएम के तौर पेश करने पर तैयार हो जाती है, तो इसके बावजूद एनडीए सरकार बना सकता है। वरना वो विपक्ष में बैठेगा और यूपीए 3 तीसरे मोर्चे के समर्थन से सरकार बनाने में कामयाब रहेगा।

पूरी खबर पढ़ें यहाँ

कुछ महत्वपूर्ण राज्यों के एक्जिट पोल अनुमान























13 मई 2004 से 13 मई 2014...

हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून

एक्ज़िट पोल के परिणामों पर कांग्रेस को औपचारिक रूप से भरोसा हो या न हो, पर व्यावहारिक रूप से दिल्ली के गलियारों में सत्ता परिवर्तन की हवाएं चलने लगी हैं। कल 13 मई को श्रीमती सोनिया गांधी 10 जनपथ के पिछले दरवाजे से निकलकर राष्ट्रपति भवन गईं। यह एक औपचारिक मुलाकात थी। आज मनमोहन सिंह का विदाई भोज है। उधर भाजपा के खेमे में भी सरगर्मी है। दिल्ली में सरकार की शक्ल क्या होगी?  पर इससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी वगैरह का क्या होगा? खबर थी कि आडवाणी जी एनडीए संसदीय दल के अध्यक्ष बनाए जा सकते हैं। पर आज के टेलीग्राफ में राधिका रमाशेषन की खबर है कि मोदी ने साफ कर दिया है कि यदि मैं प्रधानमंत्री बना तो सत्ता के दो केंद्र नहीं होंगे। सही बात है। यह चुनाव नरेंद्र मोदी जीतकर आ रहे हैं। कहना मुश्किल है कि आडवाणी के नेतृत्व में भाजपा की स्थिति क्या होती, पर आज यह विचार का विषय ही नहीं है। 

भारत के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर तरस आता है। नीचे से ऊपर तक सबका दिमाग शून्य है। दिल्ली में चल रही गतिविधियों पर उनकी नज़र ही नहीं है। सुबह से शाम तक एक्ज़िट पोल का तसकिरा लेकर बैठे हैं।  सारी खबरें अखबारों से मिल रहीं हैं। इन संकीर्तनोंं के विशेषज्ञों की समझ पर हँसी आती है। विनोद मेहता, अजय बोस, दिलीप पडगाँवकर, आरती जैरथ, सबा नकवी, सुनील अलग और पवन वर्मा वगैरह-वगैरह किन बातों पर बहस कर रहे हैं? 

दिल्ली के कुछ अखबारों ने मनीष तिवारी के हवाले से खबर दी है कि सूचना मंत्रालय की ज़रूरत ही नहीं है। आज क हिंदू में खबर है कि एनडीए सरकार मंत्रालयों में भारी फेर-बदल करेगी। आज के अमर उजाला के अनुसार नौकरशाही के महत्वपूर्ण पदों के लिए खींचतान शूरू हो गई है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पोलों के पोल के पीछे पड़ा है। 

टेलीग्राफ की ध्यान देने वाली दो खबरें


हिंदू का ग्रैफिक

अमर उजाला


Tuesday, May 13, 2014

भाजपा या कांग्रेस के खोल से बाहर आइए


हिंदू में कशव का कार्टून
मंजुल का कार्टून
एक्जिट पोल अंतिम सत्य नहीं है। यों भी भारत में एक्ज़िट पोलों की विश्वसनीयता संदिग्ध है। पर क्या हमें कांग्रेस की हार नज़र नहीं आती? बेहतर है चार रोज़ और इंतज़ार करें। परिणाम जो भी हों उनसे सहमति और असहमति की गुंजाइश हमेशा रहेगी। पर एक सामान्य नागरिक को कांग्रेसी या भाजपाई खोल में रहने के बजाय नागरिक के रूप में खुद को देखना चाहिए और राज-व्यवस्था के संचालन में भागीदार बनना चाहए।सामान्य वोटर का फर्ज है वोट देना। अब जो भी सरकार बनेगी वह पूरे देश की और आपकी होगी, भले ही आपने उसके खिलाफ वोट दिया हो।

Monday, May 12, 2014

मनमोहन सिंह यानी दुविधा के दस साल

यूपीए-2 सरकार का यह आखिरी हफ्ता है. भविष्य का पता नहीं, पर इतना तय है कि मनमोहन सिंह अब प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे. पिछले हफ्ते सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की आखिरी बैठक हुई तो मीडिया के लिए बड़ी खबर नहीं थी. दिल्ली में यूपीए की सरकार बनेगी या नहीं कहना मुश्किल है, पर फिलहाल राष्ट्रीय सलाहकार परिषद भी नहीं होगी. होगी तो शायद किसी नए नाम और किसी नए एजेंडा के साथ होगी. प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह और उनके समानांतर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का होना कांग्रेसी दुविधा को रेखांकित करता है. बेशक मनमोहन  सिंह को एक भले, शिष्ट, सौम्य और ईमानदार व्यक्ति के रूप में याद रखा जाएगा. वे ऐसे हैं. पर सच यह है कि यूपीए सरकार के सारे अलोकप्रिय कार्यों का ठीकरा उनके सिर फूटा है. श्रेय लायक कोई काम हुआ भी तो उसके लिए वे याद नहीं किए जाएंगे.