Tuesday, June 1, 2010

विश्व कप फुटबॉल अपडेट





फुटबॉल की विश्व कप प्रतियोगिता इस बार दक्षिण अफ्रीका में हो रही है। इसबार पहला मौका है जब अफ्रीका की छह टीमें मुकाबले में हैं। पाँच टीमों का कोटा है और दक्षिण अफ्रीका को होस्ट होने के नाते ऑटोमेटिक एंट्री मिली है। 


फुटबॉल पर युरोप का कब्ज़ा है। युरोप के अलावा लैटिन अमेरिका की टीमें हीं इस कप को जीत पाईं हैं। गैर-लैटिन अमेरिकी और गैर-युरोपीय टीम इसके क्वार्टर फाइनल में भी पहुँच जाएं तो बड़ी उपलब्धि मानी जाती है। 1930 से अबतक अमेरिका और द कोरिया की टीमें एक-एक बार सेमीफाइनल तक पहुँचीं हैं। इनके अलावा क्यूबा, मैक्सिको, अमेरिका, उत्तरी कोरिया, केमरून और सेनेगल को ही क्वार्टर फाइनल तक पहुँचने का मौका मिला है।  

गैर-लैटिन अमेरिकी और गैर-युरोपीय टीमों मे से 1966 में उत्तरी कोरिया ने क्वा फा तक पहुँच कर धमाका किया था। फिर 1990 में केमरून ने अपने पहले ही मैच में पिछली चैम्पियन अर्जेंटीना को हराकर सबको दहला दिया। इसके बाद इसने रूमानिया और सोवियत संघ को हराया। क्वा फा में यह टीम दुर्भाग्य से इंग्लैंड से हार गई। 

फीफा वर्ल्ड कप का फॉर्मेट ऐसा है कि उसमें शामिल होने वाली 32 टीमों से 13 युरोप की होतीं हैं। यह फॉर्मेट भी 1998 से लागू हुआ है। उसके पहले 1978 तक 16 टीमों का और 1982 से 1994 तक 24 टीमों का फॉर्मेट था। बहरहाल युरोप और लैटिन अमेरिका के बाद अब अफ्रीका  तीसरी बड़ी ताकत के रूप में उभर रहा है और इसका प्रमाण है कि दुनिया की सारी लीग प्रतियोगिताओं में अफ्रीकी मूल के खिलाड़ी खेलते हैं। विश्व कप में शामिल होने वाली ज्यादातर टीमों में अफ्रीकी खिलाड़ी मिलेंगे। पैसे ने बेहतर खिलाड़ियों को खरीद लिया है। 

बहरहाल इस बार सवाल है कि क्या अफ्रीकी खिलाड़ी अपनी ज़मीन पर चमत्कार करेंगे। मैं आने वाले दिनों में सभी टीमों के बारे में अपना आकलन और अपडेट देने की कोशिश करूँगा। मैं खेल विशेषज्ञ नहीं हूँ। पर खेल के सामाजिक-सांस्कृतिक पहलुओं पर ध्यान देता हूं। अमेरिकी पत्रकार फ्रंकिलन फोय ने अपनी किताब हाउ सॉकर एक्सप्लेन्स द वर्ल्डः एन अनलाइकली थ्योरी ऑफ ग्लोबलाइज़ेशन में फुटबॉल के खिलाड़ियों और दर्शकों की ट्राइबल मनोवृत्ति पर रोशनी डाली है। मौका लगा तो उसकी चर्चा भी करेंगे। 

इसबार मैदान में विभिन्न टीमें और उनके ग्रुप इस प्रकार हैः-

Monday, May 31, 2010

कृपया तेज़ी के इस दौर में सावधानी भी बरतें

30 मई को हिन्दी पत्रकारिता दिवस था। 184 साल के अनुभव के साथ हिन्दी पत्रकारिता एक ढलान पर आ गई है। इस ढलान ने उसकी गति तेज़ कर दी है। चढ़ाई चढ़ते वक्त गति धीमी होती है और दम ज़्यादा लगता है। ढलान में गति ज़्यादा होती है। ताकत कम लगती है, लम्बी दूरी कम समय में पार होती है। रास्ते चढ़ाई वाले होते हैं, सपाट भी और ढालदार भी। चलने वाले को उन्हें पार करना होता है। तीनों रास्तों में बरती जाने वाली सावधानियाँ ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं। ढलान में खतरा बाहन के भटकने या रास्ते से उछलकर टकराने का होता है। हिन्दी मीडिया को कुछ सावधानियों की ज़रूरत है।

हिन्दी मीडिया की प्रगति प्रशंसनीय है। इलाके में साक्षरता बढ़ रही है और गतिशीलता भी। यानी लोग एक जगह छोड़कर दूसरी जगह जा रहे हैं। मैं नहीं जानता कि ऐसे समाजशास्त्रीय अध्ययन हुए हैं या नहीं जिनसे पता लगे कि हिन्दी के अखबारों ने जीवन पर क्या प्रभाव डाला, पर ऐसे अध्ययनों की ज़रूरत है। मोटे तौर पर कमज़ोर तबकों को ताकत देने में कोई न कोई भूमिका अखबार की भी है। शायद यह बदलाव की एक प्रक्रिया है, जिसमें अखबार भी भागीदार हैं। अखबार, टीवी, रेडियो, मोबाइल फोन और सिनेमा हमारा सहज मासमीडिया है। इंटरनेट अभी नहीं है, शायद आने वाले समय में हो।

हिन्दी के अखबारों के सामने अपनी सामग्री को परिभाषित करने, टेक्नॉलजी और अपने संगठन को सुसंगत करने और पाठक की माँग को समझने की ज़रूरत है। करीब-करीब ऐसी ही ज़रूरत इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की है। दोनों में एक फर्क है। हिन्दी के ज्यादातर अखबार स्थानीय या किसी एक इलाके के थे। वे दूसरे इलाकों में गए। इसके विपरीत टेलीविज़न ने राष्ट्रीय कवरेज से शुरूआत की। वह अब लोकल बाज़ार खोज रहा है। दोनो स्थितियों में महत्वपूर्ण है हमारा दूर-दराज़ का इलाका। पिछले साल सितम्बर में आंध्र के मुख्यमंत्री वाईएसआर के हेलिकॉप्टर की दुर्घटना की कवरेज करने सबसे आगे कोई तेलुगु चैनल आया। हाल में दंतेवाड़ा में सीआरपी के दस्तों पर नक्सली हमले के दौरान साधना चैनल और किसी लोकल चैनल ने कमान सम्हाली। मंगलूर में विमान दुर्घटना की कवरेज के लिए कोई कन्नड़ चैनल मौज़ूद था। राष्ट्रीय चैनलों ने इन लोकल चैनलों की फुटेज का इस्तेमाल किया। इस फुटेज को लोकल चैनलों ने वॉटरमार्क करके पब्लिसिटी हासिल की।

हमारे पास सूचना संकलन का आधार ढाँचा बन रहा है। टेकनॉलजी सस्ती हो रही है। पूँजी भी आ रही है। नए पत्रकार, कैमरामैन, टेक्नीशियन बन रहे हैं। पर इतना ही पर्याप्त नहीं है। तेज विस्तार के कारण हम कंटेंट के बारे में ज्यादा सोच नहीं पाए हैं। सोचा भी है तो उसे लागू करने के तरीकों के बारे में नहीं सोचा गया है।
हाल में एक खबर थी किसी लड़की ने दहेज लोभी लड़के वालों का स्टिंग ऑपरेशन करके शादी तय होने के पहले ही उन्हें पकड़वा दिया। स्टिंग ऑपरेशन ने टीवी की ताकत बढ़ा दी। पर इसने कवरेज के विद्रूपण की राह भी खोल दी। दिल्ली में उमा खुराना मामले में यह नज़र आया। अचानक स्टिंग जर्नलिज्म की ट्रेनिंग देने वाले संस्थान खुलने लगे। इसका इस्तेमाल ब्लैक मेलिंग के लिए भी होने लगा। यह जल्दबाज़ी की वजह से हुआ। मोबाइल फोन के कैमरा ने क्रांति कर दी। पर अचानक एमएमएस की भरमार हो गई।

मीडिया दुधारी तलवार है। इसे ज्ञान और सूचना का वाहक और अभिव्यक्ति का जिम्मेदार माध्यम बनाए रखने के लिए अपने भीतर के मिकेनिज्म को भी समझना चाहिए। यह काम दो स्तर पर होगा। एक ओर पत्रकार संगठन आपस में मिलकर इसपर विचार करें और दूसरी ओर प्रत्येक संगठन भीतरी जाँच चौकियां बनाए। संविधान स्वीकृत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमें असीमित अधिकार नहीं देती। ज़रूरत इस बात की है कि हम सामान्य पत्रकार को उन मर्यादाओं की जानकारी दें, जिनका पालन उसे करना है। उसे पता होना चाहिए कि वह सार्वजनिक हित मे काम करता है, व्यक्तिगत हित में नहीं। पत्रकारों को सामान्य नागरिक की प्राइवेसी के बारे में भी जागरूक होना चाहे। इलेक्ट्रानिक मीडिया में काम करने वालों को यह बात खासकर समझनी होगी।

हिन्दी अखबारों में काम करने वाले पत्रकारों में से ज्यादातर अब पत्रकारिता संस्थानों से ट्रेनिंग लेकर आ रहे हैं। पत्रकारिता संस्थानों में सभी का स्तर समान नहीं है। काफी बड़ी संख्या में ये संस्थान निम्नस्तरीय और सिर्फ कमाई के अड्डे हैं। जो भी हैं उन्हें अखबारों की ज़रूरतों के अनुसार व्यावहारिक प्रशिक्षण देना चाहिए। उनका ज्यादातर प्रशिक्षण सैद्धांतिक है। मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि नए पत्रकार भाषा को लेकर संज़ीदा नहीं हैं। उन्हें इमला बोला जाए तो एक पैरा मे दस-दस गलतियाँ निकलतीं हैं। वे लोग अखबार में जाकर इन्हीं गलतियों को दोहराते हैं। एक ओर शाम को खबरों का दबाव ऊपर से ज्यादातर खबरों में भ्रष्ट भाषा। तीसरे ठीक से चेक करने की व्यवस्था की अनुपस्थिति। परिणाम आप किसी भी हिन्दी अखबार में छप रही गम्भीर गलतियों के रूप मे देख सकते हैं।

एक और जगह है जहाँ ध्यान देने की ज़रूरत है। वह है खबरों का चयन। ज्यादातर अखबार अब अपनी खबरों का सिलेक्शन या तो नेट से करते हैं या चैनलों से। चूंकि यहाँ रेडीमेड माल मिलता है इसलिए यह आसान लगता है। पर यह गलत है। एक तो यह नैतिक रूप से गलत है। किसी नेट साइट की पूरी खबर को उड़ाना चोरी है। दूसरे वह आपकी खबर नहीं है, इसलिए उसका वेरिफकेशन नहीं होता। पिछले दिनों एक हिन्दी अखबार ने दूसरों को पकड़ने के लिए अपने यहाँ फर्जी खबरें लगा दीं। नकलचियों ने उन्हें भी उठा लिया और अपनी थू-थू कराई। अखबार के सीनियर लोग खुद अपनी खबरें चुनें तो उनके प्रेजेंटेशन मे अपनापन हो। नकल करने पर सबका प्रेजेंटेशन एक सा होता है। वैसे भी बड़े-बड़े अखबारों को शोभा नहीं देता कि वे चोरी की खबरें छापें। आपके पास पैसा है। अपने स्रोत तैयार करें।

चैनलों से खबर उड़ाने या प्रेजेंटेशन का तरीका चुराने का असर अखबारों के लगातार सनसनीखेज़ होने के रूप में दिखाई पड़ रहा है। चैनल मामूली सी खबर को भी जबतक अच्छी तरह मसालों से टॉपअप नहीं करते उन्हें मज़ा नहीं आता। वे आपसी प्रतियोगिता में ऐसे घिरे हैं कि सनसनी छोड़ सादगी से खबरें दिखाने की सलाह देना वहाँ सबसे बड़ा पाप है। उसी सनसनी को अखबार पकड़ना चाहते हैं। यह शॉर्टकट उन्हें कहीं नहीं ले जाएगा। उनके पास इतनी अच्छी खबरें हैं कि वे प्रभावशाली अखबार निकाल सकते हैं, पर अच्छी भली जानकारी का मलीदा बना देते हैं।

अखबार शायद रहें, पर पत्रकारिता रहेगी। सूचना की ज़रूरत हमेशा होगी। सूचना चटपटी चाट नहीं है। यह बात हम सबको समझनी चाहिए। इस सूचना के सहारे हमारी पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था खड़ी होती है। अक्सर वह स्वाद में बेमज़ा भी होती है। हमारे सामने चुनौती यह है कि हम उसे सामान्य पाठक को समझाने लायक रोचक भी बनाएं, पर वह हो नहीं सका। उसकी जगह कचरे का बॉम्बार्डमेंट शुरू हो गया है। हिन्दी इलाके के सामाजिक–सांस्कृतिक जीवन में इतनी रंगीन खबरें हैं कि उन्हें कहीं जाने की ज़रूरत नहीं। जो बिकेगा वही देंगे का तर्क कमज़ोर लोगों का है। बिकने लायक सार्थक और दमदार चीज़ बनाने में मेहनत लगती है, समय लगता है। उसके लिए पर्याप्त अध्ययन की ज़रूरत भी होती है। वह हम करना नहीं चाहते। या कर नहीं पाते। चटनी बनाना आसान है। इसलिए हम चटनी का रास्ता पकड़ते हैं। हिन्दी पत्रकारिता का भविष्य उज्जवल है। उसे नकल के नहीं अकल के रास्ते पर चलना चाहिए। हमें याद रखना चाहिए कि इस ढलान के बाद एक सपाट रास्ता आएगा और शायद फिर चढ़ाई आए। उसके पहले अपनी कुशलता और रचनात्मकता को ऊँचाई तक पहुँचाना चाहिए।  

Sunday, May 30, 2010

हिन्दी पत्रकारिता दिवस



आज हिन्दी पत्रकारिता दिवस है। 184 साल हो गए। मुझे लगता है कि हिन्दी पत्रकार में अपने कर्म के प्रति जोश कम है। तमाम बातों पर ध्यान देने की ज़रूरत है। उदंत मार्तंड इसलिए बंद हुआ कि उसे चलाने लायक पैसे पं जुगल किशोर शुक्ल के पास नहीं थे। आज बहुत से लोग पैसा लगा रहे हैं। यह बड़ा कारोबार बन गया है। जो हिन्दी का क ख ग नहीं जानते वे हिन्दी में आ रहे हैं, पर मुझे लगता है कि कुछ खो गया है। क्या मैं गलत सोचता हूँ?

पिछले 184 साल में काफी चीजें बदलीं हैं। हिन्दी अखबारों के कारोबार में काफी तेज़ी आई है। साक्षरता बढ़ी है। पंचायत स्तर पर राजनैतिक चेतना बढ़ी है। साक्षरता बढ़ी है। इसके साथ-साथ विज्ञापन बढ़े हैं। हिन्दी के पाठक अपने अखबारों को पूरा समर्थन देते हैं। महंगा, कम पन्ने वाला और खराब कागज़ वाला अखबार भी वे खरीदते हैं। अंग्रेज़ी अखबार बेहतर कागज़ पर ज़्यादा पन्ने वाला और कम दाम का होता है। यह उसके कारोबारी मॉडल के कारण है। आज कोई हिन्दी में 48 पेज का अखबार एक रुपए में निकाले तो दिल्ली में टाइम्स ऑफ इंडिया का बाज़ा भी बज जाए, पर ऐसा नहीं होगा। इसकी वज़ह है मीडिया प्लानर।

कौन हैं ये मीडिया प्लानर? ये लोग माडिया में विज्ञापन का काम करते हैं, पर विज्ञापन देने के अलावा ये लोग मीडिया के कंटेंट को बदलने की सलाह भी देते हैं। चूंकि पैसे का इंतज़ाम ये लोग करते हैं, इसलिए इनकी सुनी भी जाती है। इसमें ग़लत कुछ नहीं। कोई भी कारोबार पैसे के बगैर नहीं चलता। पर सूचना के माध्यमों की अपनी कुछ ज़रूरतें भी होतीं हैं। उनकी सबसे बड़ी पूँजी उनकी साख है। यह साख ही पाठक पर प्रभाव डालती है। जब कोई पाठक या दर्शक अपने अखबार या चैनल पर भरोसा करने लगता है, तब वह उस  वस्तु को खरीदने के बारे में सोचना शुरू करता है, जिसका विज्ञापन अखबार में होता है। विज्ञापन छापते वक्त भी अखबार ध्यान रखते हैं कि वह विज्ञापन जैसा लगे। सम्पादकीय विभाग विज्ञापन से अपनी दूरी रखते हैं। यह एक मान्य परम्परा है।



मार्केटिंग के महारथी अंग्रेज़ीदां भी हैं। वे अंग्रेज़ी अखबारों को बेहतर कारोबार देते हैं। इस वजह से अंग्रेज़ी के अखबार सामग्री संकलन पर ज्यादा पैसा खर्च कर सकते हैं। यह भी एक वात्याचक्र है। चूंकि अंग्रेजी का कारोबार भारतीय भाषाओं के कारोबार के दुगने से भी ज्यादा है, इसलिए उसे बैठने से रोकना भी है। हिन्दी के अखबार दुबले इसलिए नहीं हैं कि बाज़ार नहीं चाहता। ये महारथी एक मौके पर बाज़ार का बाजा बजाते हैं और दूसरे मौके पर मोनोपली यानी इज़ारेदारी बनाए रखने वाली हरकतें भी करते हैं। खुले बाज़ार का गाना गाते हैं और जब पत्रकार एक अखबार छोड़कर दूसरी जगह जाने लगे तो एंटी पोचिंग समझौते करने लगते हैं।

पिछले कुछ समय से अखबार इस मर्यादा रेखा की अनदेखी कर रहे हैं। टीवी के पास तो अपने मर्यादा मूल्य हैं ही नहीं। वे उन्हें बना भी नहीं रहे हैं। मीडिया को निष्पक्षता, निर्भीकता, वस्तुनिष्ठता और सत्यनिष्ठा जैसे कुछ मूल्यों से खुद को बाँधना चाहिए। ऐसा करने पर वह सनसनीखेज नहीं होता, दूसरों के व्यक्तिगत जीवन में नहीं झाँकेगा और तथ्यों को तोड़े-मरोड़ेगा नहीं। यह एक लम्बी सूची है। एकबार इस मर्यादा रेखा की अनदेखी होते ही हम दूसरी और गलतियाँ करने लगते हैं। हम उन विषयों को भूल जाते हैं जो हमारे दायरे में हैं।

मार्केटिंग का सिद्धांत है कि छा जाओ और किसी चीज़ को इस तरह पेश करो कि व्यक्ति ललचा जाए। ललचाना, लुभाना, सपने दिखाना मार्केटिंग का मंत्र है। जो नही है उसका सपना दिखाना। पत्रकारिता का मंत्र है, कोई कुछ छिपा रहा है तो उसे सामने लाना। यह मंत्र विज्ञापन के मंत्र के विपरीत है। विज्ञापन का मंत्र है, झूठ बात को सच बनाना। पत्रकारिता का लक्ष्य है सच को सामने लाना। इस दौर में सच पर झूठ हावी है। इसीलिए विज्ञापन लिखने वाले को खबर लिखने वाले से बेहतर पैसा मिलता है। उसकी बात ज्यादा सुनी जाती है। और बेहतर प्रतिभावान उसी दिशा में जाते हैं। आखिर उन्हे जीविका चलानी है।

अखबार अपने मूल्यों पर टिकें तो उतने मज़ेदार नहीं होंगे, जितने होना चाहते हैं। जैसे ही वे समस्याओं की तह पर जाएंगे उनमें संज़ीदगी आएगी। दुर्भाग्य है कि हिन्दी पत्रकार की ट्रेनिंग में कमी थी, बेहतर छात्र इंजीनियरी और मैनेजमेंट वगैरह पढ़ने चले जाते हैं। ऊपर से अखबारों के संचालकों के मन में अपनी पूँजी के रिटर्न की फिक्र है। वे भी संज़ीदा मसलों को नहीं समझते। यों जैसे भी थे, अखबारों के परम्परागत मैनेजर कुछ बातों को समझते थे। उन्हें हटाने की होड़ लगी। अब के मैनेजर अलग-अलग उद्योगों से आ रहे हैं। उन्हें पत्रकारिता के मूल्यों-मर्यादाओं का ऐहसास नहीं है।

अखबार शायद न रहें, पर पत्रकारिता रहेगी। सूचना की ज़रूरत हमेशा होगी। सूचना चटपटी चाट नहीं है। यह बात पूरे समाज को समझनी चाहिए। इस सूचना के सहारे हमारी पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था खड़ी होती है। अक्सर वह स्वाद में बेमज़ा भी होती है। हमारे सामने चुनौती यह थी कि हम उसे सामान्य पाठक को समझाने लायक रोचक भी बनाते, पर वह हो नहीं सका। उसकी जगह कचरे का बॉम्बार्डमेंट शुरू हो गया। इसके अलावा एक तरह का पाखंड भी सामने आया है। हिन्दी के अखबार अपना प्रसार बढ़ाते वक्त दुनियाभर की बातें कहते हैं, पर अंदर अखबार बनाते वक्त कहते हैं, जो बिकेगा वहीं देंगे। चूंकि बिकने लायक सार्थक और दमदार चीज़ बनाने में मेहनत लगती है, समय लगता है। उसके लिए पर्याप्त अध्ययन की ज़रूरत भी होती है। वह हम करना नहीं चाहते। या कर नहीं पाते। चटनी बनाना आसान है। कम खर्च में स्वादिष्ट और पौष्टिक भोजन बनाना मुश्किल है। 



चटपटी चीज़ें पेट खराब करतीं हैं। इसे हम समझते हैं, पर खाते वक्त भूल जाते हैं। हमारे मीडिया मे विस्फोट हो रहा है। उसपर ज़िम्मेदारी भारी है, पर वह इसपर ध्यान नहीं दे रहा। मैं वर्तमान के प्रति नकारात्मक नहीं सोचता और न वर्तमान पीढ़ी से मुझे शिकायत है, पर कुछ ज़रूरी बातों की अनदेखी से निराशा है।  







Friday, May 28, 2010

कचरा निस्तारण

कूड़ा-कचरा हमारे जीवन का बेहद महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है। यह विज़ुअल पीस मैने फेसबुक के  'डिड यू नो ?' ग्रुप से लिया है। क्या आप इस तरह की जानकारी मेरे ब्लॉग में पसंद करेंगे?