लोकसभा चुनाव के परिणामों से देश की राजनीति के
अंतर्विरोधों को एकबार फिर से खोलने जा रहे हैं। इन परिणामों के साथ अनेक अनिश्चय
जन्म ले रहे हैं, जो धीरे-धीरे सामने आएंगे। लगता है कि इसबार पूरे परिणाम देर से
घोषित हो पाएंगे, पर उनके रुझान से स्थिति काफी सीमा तक स्पष्ट हो चुकी है। परिणामों
का पहला संकेत हैं भारतीय जनता पार्टी की अपराजेयता एक झटके में ध्वस्त होना।
यह भी साफ है कि जनादेश एनडीए के नाम है। केंद्र
में उसकी ही सरकार बननी चाहिए और बनेगी। पर यह सरकार पिछली दो सरकारों जैसी शक्तिमान
नहीं होगी। उसमें गठबंधन सहयोगियों की शर्तें शामिल होंगी। ऐसे में अर्थव्यवस्था
और राजनीति से जुड़े उसके कार्यक्रमों को लेकर सवाल खड़े होंगे। फिलहाल ‘अमृतकाल’ का यह कड़वा अनुभव है। चुनाव-प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी की
रैलियों और बयानों से यह संकेत मिल भी रहा था कि पार्टी को नेपथ्य की आवाजें सुनाई
पड़ गई थीं।
एनडीए को स्पष्ट बहुमत मिला है, बावजूद इसके खबरें हवा में हैं कि 2004 की तरह ‘इंडिया’ गठबंधन की सरकार
बनाने के प्रयास भी हो सकते हैं। खबरें हैं कि सोनिया गांधी और शरद पवार ने नीतीश
कुमार और चंद्रबाबू नायडू से संपर्क किया है। राजनीति में हर तरह की संभावनाओं को
टटोलने में जाता कुछ नहीं है. पर सवाल है कि एनडीए के गठबंधन सहयोगी क्या आसानी से
उसका साथ छोड़ देंगे? इसकी उम्मीद तो नहीं है, पर राजनीति
में किसी भी वक्त, कुछ भी हो सकता है।
आंध्र प्रदेश में तेलुगु देसम पार्टी को भारी विजय मिली है। तेलुगु देसम एनडीए का घटक दल है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक लगता है कि तेदेपा के 16 और जेडीयू के 15 सांसद जीतकर आएंगे। इन दो घटक दलों से ‘इंडिया’ गठबंधन ने संपर्क किया है। चूंकि बीजेपी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला है, इसलिए उसे अब अपने गठबंधन को बनाए रखने के लिए प्रयत्न भी करने होंगे। उसके सहयोगी टूटेंगे या नहीं टूटेंगे, यह अलग बात है, पर अंदेशा बना रहेगा।