Monday, March 25, 2024

रंगों के इस पर्व को सार्थक भी बनाएं


पिछला हफ्ता राजनीतिक तूफानों का था तो यह हफ्ता होली का है। गिले-शिकवे मिटाने का पर्व। केवल गिले-शिकवों की बात ही नहीं है, होली हमें ऊँच-नीच की भावनाओं से भी दूर ले जाती है। वह मनुष्य-मात्र की एकता का संदेश देती है। इस दिन हम सबको गले लगाते हैं। उसकी जाति-धर्म, अमीर-गरीबी देखे बगैर। इसका मतलब है हुड़दंग,
मस्ती और ढेर सारे रंग। हम अपने पर्वों और त्योहारों में उस जीवन-दर्शन को खोज सकते हैं, जो हजारों वर्षों की विरासत है।

इसके पहले कि इस विरासत की परिभाषा बदले, उसे अक्षुण्ण बनाने के प्रयास भी होने चाहिए। दुर्भाग्य से होली के साथ भी कुछ फूहड़ बातें जुड़ गईं हैं, जिन्हें दूर करने का प्रयास होना चाहिए। परंपराओं के साथ नवोन्मेष और विरूपण दोनों संभावनाएं जुड़ी होती हैं। आधुनिक जीवन और शहरीकरण के कारण इनके स्वरूप में बदलाव आता है। पर मूल-भावना अपनी जगह है। बाजारू संस्कृति ने इस आनंदोत्सव को कारोबारी रूप दिया है। वहीं कल्याणकारी भावनाएं इसे सकारात्मक रास्ते पर ले जा सकती है, बशर्ते वे कमज़ोर न हों।  

संयोग से होली के इस आनंदोत्सव के दौर के साथ हम लोकतंत्र का सबसे बड़ा उत्सव भी मना रहे हैं। भारत दुनिया का सबसे बड़ा सक्रिय लोकतंत्र है। यह लोकतंत्र यदि 130 करोड़ से ज्यादा की जनसंख्या के जीवन में खुशहाली लाने का काम करने में कामयाब हो गया, तो यह हमारे लिए सबसे बड़े गौरव की बात होगी। विचार करें कि क्या आप अपने इस पर्व का लोकतंत्र के पर्व को सही रास्ता दिखाने में इस्तेमाल कर सकते हैं। क्या ऐसा करेंगे?

Saturday, March 23, 2024

पहले चुनाव में हुए थे, मतदान के 68 चरण

पहले आम चुनाव में 25 अक्तूबर 1951 से 21 फरवरी 1952 तक मतदान के कुल 68 चरण हुए थे। पहले आम चुनाव के बाद चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि सबसे ज्यादा समय पंजाब में लगा, जहाँ केवल होशियारपुर चुनाव-क्षेत्र का मतदान होने में ही 25 दिन लगे। ज्यादातर मतदान 1952 में हुआ, पर, मौसम को देखते हुए सबसे पहले 1951 में  चुनाव का पहला वोट 25 अक्तूबर, को हिमाचल प्रदेश की चीनी और पांगी में सबसे पहले मतदान हुआ। उस समय परिवहन की स्थिति यह थी कि मतदान के बाद चुनाव क्षेत्र के मुख्यालय चंबा और कसुंपटी तक मतपेटियों को लाने में एक हफ्ता लगा।

हर पार्टी के अलग बैलट बॉक्स

इन दिनों चुनाव ईवीएम मशीनों के माध्यम से होते हैं, पर इसके पहले बैलट के माध्यम से होते थे। इन मतपत्रों पर सभी प्रत्याशियों के नाम और चुनाव चिह्न होते थे। मतदाता, जिसे चुनना चाहता था उसके सामने मुहर लगाता था। उसके बाद मतपत्र को एक बक्से में डाल दिया जाता था, जिसे बैलेट बॉक्स कहते थे।

देश में सबसे पहले जो चुनाव हुए उसमें भी बैलट बॉक्स होते थे, पर वे कुछ अलग थे।
उस दौर में हरेक प्रत्याशी के लिए अलग बैलट बॉक्स होते थे, जिनपर चुनाव चिह्न होते थे. मतदाता को अपनी पसंद के प्रत्याशी के बक्से में मतपत्र डालना होता था। पहले लोकसभा चुनाव में करीब 25 लाख बैलट बॉक्स का इस्तेमाल किया गया। इन बक्सों में विशेष तरह के ताले का प्रयोग किया गया था। यह व्यवस्था इसलिए क गई थी ताकि बॉक्स को खोल कर वोट से छेड़छाड़ कर पुनः बंद न किया जा सके।

पहले आम चुनावों के लिए बैलट बॉक्स की यह व्यवस्था अव्यावहारिक लगी, क्योंकि कुछ चुनाव क्षेत्रों में प्रत्याशियों की संख्या काफी ज्यादा थी। अब तो कई बार पचास या उससे भी ज्यादा प्रत्याशी होने लगे हैं। हरेक बूथ में इतने ज्यादा बक्सों की व्यवस्था करना बहुत मुश्किल है। इसलिए 1957 के दूसरे चुनाव से व्यवस्था बदल दी गई और मतपत्र पर सभी प्रत्याशियों के नाम और चुनाव चिह्न होने लगे। मतदाता किसी एक प्रत्याशी को वोट देकर एक सामान्य बक्से में उसे डालने लगा।

राजस्थान पत्रिका के नॉलेज कॉर्नर में 23 मार्च, 2024 को प्रकाशित


Thursday, March 21, 2024

चौधरी चरण सिंह की कर्मभूमि बागपत


दिल्ली और हरियाणा की सीमा से सटे बागपत की धरती जाट-राजनीति का केंद्र है.  पहले यह क्षेत्र मेरठ का हिस्सा हुआ करता था. इस लोकसभा क्षेत्र में पाँच विधानसभा क्षेत्र आते हैं. बागपत, बड़ौत, छपरौली, मोदीनगर और सिवालखास.

इस सीट को चौधरी चरण सिंह की कर्मभूमि कहा जाता है, जिन्हें हाल में भारत सरकार ने  भारत रत्न अलंकरण से सम्मानित करने की घोषणा की है. पूर्व प्रधानमंत्री चरण सिंह की पहचान भूमिधर किसानों के नेता, महात्मा गांधी के अनुयायी और खेती से जुड़ी अर्थव्यवस्था विशेषज्ञ के तौर पर रही है. उनकी आधा दर्जन से ज्यादा किताबें इसका प्रमाण हैं. साफगोई उनकी दूसरी विशेषता रही है. कांग्रेस में रहते हुए भी वे जवाहर लाल नेहरू की आर्थिक-नीतियों के आलोचक थे.

भारतीय राजनीति में, खासतौर से सामाजिक-न्याय से जुड़ी ताकतों को, मुखर करने में भी उनकी बड़ी भूमिका रही. साठ के दशक के उत्तरार्ध में उन्होंने चौधरी कुंभाराम आर्य के साथ मिलकर भारतीय क्रांति दल की स्थापना की थी, जिसकी उत्तराधिकारी पार्टी भारतीय लोकदल थी, जिसके चुनाव चिह्न पर 1977 में जनता पार्टी ने चुनाव लड़ा.

पूरा थाना सस्पेंड

चौधरी चरण सिंह कठोर प्रशासक और अड़ियल राजनेता के रूप में वे प्रसिद्ध रहे हैं. उनसे जुड़ा एक प्रकरण काफी चर्चित है. 1979 में जब वे प्रधानमंत्री थे, एक व्यक्ति की शिकायत पर अचानक शाम को यूपी के इटावा में अकेले और फटेहाल, मजबूर किसान के रूप में एक थाने में पहुँचे और कहा, जेब कतरी की रपट लिखवानी है.

Wednesday, March 20, 2024

मुस्लिम-बहुल रामपुर में बीजेपी ने झंडा फहराया


पश्चिमी उत्तर प्रदेश का रामपुर शहर रूहेलखंड की संस्कृति का केंद्र और नवाबों की नगरी रहा है. एक दौर में अफगान रूहेलों के आधिपत्य के कारण इस इलाके को रूहेलखंड कहा जाता है. रोहिल्ला वंश के लोग पश्तून हैं; जो अफगानिस्तान से उत्तर भारत में आकर बसे थे. रूहेलखंड सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध क्षेत्र रहा है. साहित्य, रामपुर घराने का शास्त्रीय संगीत, हथकरघे की कला, और बरेली के बाँस का फर्नीचर इस इलाके की विशेषताएं हैं. अवध के नवाबों की तरह रामपुर के नवाबों की तारीफ गंगा-जमुनी संस्कृति को बढ़ावा देने के कारण होती है.

रूहेलखंड का एक महत्वपूर्ण लोकसभा क्षेत्र है रामपुर, जहाँ से 1952 के पहले लोकसभा चुनाव में देश के पहले शिक्षामंत्री अबुल कलाम आज़ाद जीतकर आए थे. मौलाना आज़ाद के अलावा कालांतर में रामपुर नवाब खानदान के सदस्यों से लेकर फिल्म कलाकार जयाप्रदा और खाँटी ज़मीनी नेता आजम खान तक ने इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया है.

सपा नेता आजम खां का कभी रामपुर में इतना दबदबा था कि जनता ही नहीं,  बड़े सरकारी अफसर भी उनसे खौफ खाते थे। उनकी दहशत के किस्से इस इलाके के लोगों की ज़ुबान पर हैं. बताते हैं कि एक अफसर उनकी डाँट के कारण उनके सामने ही गश खा गया. वक्त की बात है कि आज आजम खान और जयाप्रदा जैसे सितारों के सितारे गर्दिश में हैं.  

अबुल कलाम आज़ाद

इस सीट से 1952 में पहली बार कांग्रेस के मौलाना अबुल कलाम आज़ाद लोकसभा में गए थे. हालांकि उनका परिवार कोलकाता में रहता था, पर उन्हें रामपुर से चुनाव लड़ने के लिए कहा गया. उनका मुकाबला हिंदू महासभा के बिशन चंद्र सेठ से हुआ. उस चुनाव में कुल दो प्रत्याशी ही मैदान में थे. मौलाना आज़ाद को कुल 108180 यानी 54.57 प्रतिशत और उनके प्रतिस्पर्धी को 73427 यानी कि कुल 40.43 प्रतिशत वोट मिले.

नागरिकता कानून पर देशी-विदेशी आपत्तियों के निहितार्थ


भारत के नागरिकता कानून को लेकर देश और विदेश दोनों जगह प्रतिक्रियाएं हुई हैं. हालांकि ये प्रतिक्रियाएं उतनी तीखी नहीं हैं, जितनी 2019 में कानून के संशोधन प्रस्ताव के संसद से पास होने के समय और उसके बाद की थीं, पर उससे जुड़े सवाल तकरीबन वही हैं, जो उस समय थे.

उस समय देश में विरोध प्रदर्शनों का अंत दिल्ली दंगों की शक्ल में हुआ था, जिनमें 53  लोगों की मौत हुई थी. उसके बाद ही उत्तर प्रदेश में बुलडोजर चलाए गए. तब की तुलना में आज देश के भीतर माहौल अपेक्षाकृत शांत है.

मंगलवार 19 मार्च को सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई हुई और अदालत ने तत्काल इस कानून के कार्यान्वयन पर स्थगनादेश जारी नहीं किया. उसने सरकार को नोटिस जारी किया है और अब अगली सुनवाई 9 अप्रेल को होगी.

वस्तुतः नागरिकता कानून को लागू करने से जुड़ी व्यवस्थाएं भी अभी पूरी नहीं हुई हैं, इसलिए तत्काल इस दिशा में ज्यादा कुछ होने की संभावना नहीं है. उम्मीद है कि अदालत आम लोगों की चिंताओं का निराकरण करेगी. अलबत्ता कुछ विदेशी-प्रतिक्रियाओं पर भी ध्यान देना चाहिए.